
गुहलौत राजवंश के अन्तर्गत मेवाड़ एक प्राचीन राज्य था, जिसकी राजधानी नागदा थी परन्तु दिल्ली के सुल्तानों के आक्रमण के पश्चात नई राजधानी चित्तौड़ हो गई। साल 1303 में अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़ विजय के पश्चात गुहिल वंश की रावल शाखा का अन्त हो गया। गुहिलों की एक छोटी शाखा सिसोदे गांव के राणा हम्मीर ने खिलजी वंश के पतनोपरान्त राजनीतिक अव्यवस्था का लाभ उठाकर ‘सिसोदिया वंश’ की नींव डाली।
राणा हम्मीर – राणा हम्मीर के पहले चित्तौड़ के गुहिल वंश के शासक रावल कहलाते थे। हम्मीर के समय चित्तौड़ के शासक राणा व महाराणा कहलाए। सिसोदे गांव के सरदार लक्ष्मण सिंह का पोता था राणा हम्मीर। चित्तौड़ हमले के समय लक्ष्मण सिंह अपने सात पुत्रों सहित मारा गया था। उसका पुत्र अजय सिंह भाग्यवश जीवित रहा। अजय सिंह की मृत्यु के बाद राणा हम्मीर सिसोदे का सरदार बना।
राणा हम्मीर ने साल 1314 में मेवाड़ राज्य की पुनर्स्थापना की। हांलाकि वह अलाउद्दीन खिलजी के समय चित्तौड़ को नहीं जीत पाया था परन्तु मुहम्मद बिन तुगलक के समय हम्मीर ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया।
क्षेत्र सिंह (1364 से 1382 ई.)
राणा हम्मीर की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र क्षेत्रसिंह जिसे ‘खेता’ के नाम से भी जानते हैं, मेवाड़ का राजा बना। राणा क्षेत्र सिंह ने मालवा के दिलावर खां को परास्त कर मेवाड़-मालवा संघर्ष की शुरूआत की। क्षेत्र सिंह ने हड़ौती के हाड़ा शासकों को भी अपनी अधीन किया। साल 1382 के युद्ध में बूंदी का लाल सिंह हाड़ा मारा गया परन्तु क्षेत्र सिंह की भी मृत्यु हो गई।
महाराणा लाखा (1382 से 1421 ई.)
क्षेत्र सिंह का पुत्र राणा लाखा साल 1382 में मेवाड़ का शासक बना। महाराणा लाखा के समय जावर (उदयपुर) में चांदी की खान निकली जिससे मेवाड़ को काफी आय प्राप्त हुई। जावर में मिली चांदी की खान से राणा लाखा ने कई किलों तथा मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया।
राणा लाखा ने बदनौर के समीप हुए युद्ध में दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन द्वितीय को पराजित कर हिन्दुओं से लिए जाने वाले तीर्थकर को समाप्त करने का वचन लिया। इसके बाद साल 1396 में जब गुजरात के शासक जफर खां ने मांडगढ़ आक्रमण किया तब राणा लाखा ने उस आक्रमण को विफल कर दिया। यहां तक कि राणा लाखा ने बूंदी के शासक राव बरसिंह हाड़ा को भी मेवाड़ का आधिपत्य मानने के लिए बाध्य किया।
महाराणा लाखा ने वृद्धावस्था में राठौड़ राजकुमारी हंसा बाई से विवाह किया। हंसाबाई मारवाड़ नरेश राव चुण्डा की पुत्री तथा रणमल की बहिन थी। इस शादी के दौरान लाखा के बड़े पुत्र चूड़ा ने आजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा की। राव चूड़ा ने यह वचन दिया कि वे हंसाबाई के पुत्र के पक्ष में मेवाड़ का राजसिंहासन त्याग देंगे। इस प्रतिज्ञा के कारण राव चूड़ा को ‘राजस्थान का भीष्म पितामह’ कहा जाता है। इस विवाह से हंसाबाई को पुत्र हुआ जिसका नाम मोकल रखा गया।
राणा मोकल (1421 से 1433 ई.)
मोकल के शासनकाल में शक्तिशाली मेवाड़ राज्य अपनी बौद्धिक तथा कलात्मक उपलब्धियों के लिए भी प्रसिद्ध हो गया। मोकल ने माना, फन्ना तथा विशाल नामक प्रख्यात शिल्पकारों व कविराज वाणी विलास और योगेश्वर नामक विद्वानों को राजकीय संरक्षण प्रदान किया।
जब राणा लाखा की मृत्यु हुई उस समय मोकल महज 12 वर्ष का था। ऐसे में राव चूड़ा मेवाड़ की देखरेख बड़ी कुशलता से कर रहा था, परन्तु मोकल की मां हंसाबाई राव चूड़ा को हमेशा शक की नजरों से देखती थी। अत: राव चूड़ा मेवाड़ छोड़कर मालवा के सुल्तान होशंगशाह के पास चला गया।
फिर क्या था, हंसा बाई ने अपने भाई रणमल को मोकल का संरक्षक नियुक्त कर दिया। अत: मोकल के समय हंसाबाई का भाई रणमल अत्यधिक प्रभावी हो गया। रणमल ने सिसोदिया सरदारों को अपमानित करना शुरू किया। उसने मेवाड़ के उंचे पदों पर राठौड़ों की नियुक्ति शुरू की। एक दिन आवेश में आकर रणमल ने मेवाड़ी सरदार राघव देव की हत्या कर दी जिससे राठौड़ों तथा सिसोदियों के बीच दुश्मनी की खाई चौड़ी होती गई।
साल 1428 में मोकल ने नागौर के फिरोज खां को रामपुरा के युद्ध में शिकस्त दी। इस युद्ध में फिराज खां की मदद करने वाली गुजरात की सेना को भी हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद 1433 ई. में गुजरात के शासक अहमद शाह ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण का जवाब देने के लिए मोकल जिलवाड़ा नामक स्थान पर पहुंचा जहां महपा पंवार के कहने पर महाराणा क्षेत्र सिंह की अवैध सन्तानों में चाचा व मेरा ने मोकल की हत्या कर दी।
महाराणा कुम्भा (1433 से 1468 ई.)
मोकल की परमार रानी सौभाग्य देवी का बेटा था महाराणा कुम्भा। मोकल की हत्या के समय कुम्भा भी उसी शिविर में था परन्तु भाग्यवश वह बच गया। साल 1433 में कुम्भा को चित्तौड़ दुर्ग में जब मेवाड़ का महाराणा बनाया गया तब वह महज 10 साल का था।
‘कीर्ति स्तम्भ’ तथा ‘कुम्भलगढ़ प्रशस्ति’ से यह जानकारी मिलती है कि महाराणा कुम्भा ने महाराजाधिराज, रावराय, राणेराय, राजगुरू, दानगुरू, हालगुरू, परमगुरू, हिन्दू सुरताण, अभिनव भरताचार्य आदि उपाधियां धारण की।
महाराणा कुम्भा ने ‘एकलिंग महात्म्य’ के प्रथम भाग व ‘रसिक प्रिया’ (जयदेव कृत गीत गोविन्द की टीका) की रचना की। कुम्भा ने ‘चण्डी शतक’ की टीका भी लिखी। कुम्भलगढ़ प्रशस्ति तथा कीर्ति स्तम्भ से महाराणा कुम्भा की राजनीतिक उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।
चित्तौड़ दुर्ग में मौजूद कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति को महेश, अत्रि तथा कवि नामक विद्वानों ने लिपिबद्ध करवाया था। कीर्ति स्तम्भ निर्माण की योजना जैता तथा उसके पुत्र नापा व पूंजा ने बनाई। मालवा के महमूद खिलजी के विरूद्ध विजय की स्मृति में महाराणा कुम्भा ने कीर्ति स्तम्भ का निर्माण करवाया।
महाराणा कुम्भा ने सबसे पहले बूंदी, कोटा, डूंगरपुर, नागौर आदि राजपूत शासकों को मेवाड़ की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। इसके बाद महाराणा कुम्भा साल 1436 ई. में सारंगपुर के युद्ध में महमूद खिलजी प्रथम को कैद कर चित्तौड़ लेकर आया था। दरअसल महमूद खिलजी ने मोकल के हत्यारे महपा पंवार को शरण दे रखी थी। साल 1456 में चम्पानेर की सन्धि के तहत मालवा के महमूद खिलजी तथा गुजरात के सुल्तान कुतुबुद्दीन ने महाराणा कुम्भा के विरूद्ध एक संघ बनाया।
महाराणा कुम्भा कुशल वीणावादक होने के साथ-साथ महान संगीतकार भी था, उसने संगीतराज, संगीत मीमांसा, संगीत रत्नाकर जैसे ग्रन्थ लिखे। कविराज श्यामलदास के अनुसार, मेवाड़ के 84 दुर्गों में से 32 दुर्ग स्वयं महाराणा कुम्भा ने बनवाए थे। इन दुर्गों में से 1458 ई. में निर्मित कुम्भलगढ़ का दुर्ग सर्वाधिक विख्यात है। कुम्भलगढ़ दुर्ग का प्रमुख शिल्पी मण्डन था। कुम्भलगढ़ दुर्ग के सबसे उंचे भाग पर कुम्भा ने अपना निवास बनवाया था जिससे ‘कटारगढ़’ कहा जाता है।
शिल्पशास्त्र पर आधारित मण्डन कृत ग्रन्थों के नाम - देवमूर्ति प्रकरण, प्रासाद मण्डन, राजवल्लभ, रूप मण्डन, वास्तुशास्त्र आदि। मण्डन के भाई नाथा कृत ग्रन्थ का नाम - वास्तुमंजरी। मण्डन के पुत्र गोविन्द कृत ग्रन्थों के नाम - उद्धार धोरणी, कलानिधि तथा द्वार दीपिका आदि।
महाराणा कुम्भा के समय सोमसुन्दर, जयचन्द सूरी व सोमदेव नामक जैन विद्वान हुए। कुम्भा के शासनकाल में 1439 ई. में एक जैन व्यापारी धरणक शाह ने पाली स्थित रणकपुर के जैन मंदिर का निर्माण करवाया।
जीवन के अंतिम दिनों में महाराणा कुम्भा को उन्माद नामक रोग हो गया। इसी वजह से वह अपना अधिकांश समय कुम्भलगढ़ दुर्ग स्थित मामादेव मंदिर के निकटवर्ती जलाशय पर बिताने लगा। साल 1468 में महाराणा कुम्भा एक दिन जब तालाब के निकट भगवान की भक्ति में लीन था तभी उसके ज्येष्ठ पुत्र उदा यानि उदयकरण ने सत्ता के लालच में उसकी हत्या कर दी।
उदयकरण (1468 से 1473 ई.)
ज्येष्ठ पुत्र उदयकरण अपने पिता महाराणा कुम्भा की हत्या कर मेवाड़ का शासक बना। कुछ ही वर्षों बाद जब मेवाड़ी सरदारों को उदयकर के पितृहन्ता होने की जानकारी मिली तो उन्होंने कुम्भा के दूसरे पुत्र रायमल को आमंत्रित किया। इस सूचना के मिलते ही रायमल अपने ससुराल ईडर से रवाना होकर मेवाड़ पहुंचा परन्तु इससे पूर्व ही उदयकरण अपने पुत्रों सहित मांडू के सुल्तान गयासुद्दीन के पास मदद मांगने पहुंचा।
सुल्तान गयासुद्दीन ने जब उदयकरण को मदद देने से मना कर दिया तब उसने अपनी पुत्री की शादी सुल्तान से करने के लिए कहकर राजी कर लिया। परन्तु 1473 ई. में अकस्मात बिजली गिरने से उदयकरण की मौत हो गई।
राणा रायमल (1473 से 1509 ई.)
उदयकरण के बाद राणा रायमल मेवाड़ का शासक बना। राणा रायमल की 11 रानियां थीं जिनसे 13 पुत्र तथा 2 पुत्रियां हुईं। राणा रायमल का ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज, जयमल दूसरा तथा सांगा तीसरा पुत्र था। पृथ्वीराज और सांगा का जन्म रायमल की प्रिय रानी रतन कुंवर के गर्भ से हुआ था। मारवाड़ के राव जोधा की पुत्री श्रृंगार देवी से रायमल ने विवाह किया था। श्रृंगार देवी ने घोसुण्डी की बावड़ी का निर्माण किया।
राणा रायमल का दूसरा ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज एक अच्छा धावक तथा कल्पना में माहिर था, इसलिए वह मेवाड़ में ‘उड़ना राजकुमार’ कहा जाता था। वह अपनी तलवार के जोर पर कहता था कि “मुझको मेवाड़ राज्य का शासन करने के निमित्त ही पैदा किया गया है।”
पृथ्वीराज की बहन आनन्दा बाई की शादी सिरोही के शासक जगमाल के साथ हुई परन्तु जगमाल ने पृथ्वीराज की बहन को कष्ट देना शुरू किया। ऐसे में पृथ्वीराज अपने बइनोई जगमाल को समझाने सिरोही आया। कहते हैं, जगमाल ने लौटते समय पृथ्वीराज के साथ विषाक्त लड्डू बंधवा दिए थे, जिनको खाने से रास्ते में ही पृथ्वीराज की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात राणा रायमल ने अपने पुत्र संग्राम सिंह यानि राणा सांगा को 1509 ई. में मेवाड़ का शासक नियुक्त कर दिया।
महाराणा सांगा (1508 से 1528 ई.)
रायमल के पुत्र महाराणा सांगा के समय मेवाड़ अपनी शक्ति के चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। राणा सांगा महान राजनीतिज्ञ होने के साथ एक कुशल सेनापति तथा यशस्वी योद्धा भी था। साल 1518 में खतौली के युद्ध में राणा सांगा ने दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को पराजित किया। इसके बाद उसने मालवा तथा गुजरात के शासकों को भी पराजित किया।
राणा सांगा ने 1519 ई. में गागरोन के युद्ध में मालवा के शासक महमूद खिलजी को कैद कर चित्तौड़ ले आया। हांलाकि 1526 ई. में बयाना के युद्ध में उसने बाबर की सेना को शिकस्त दी परन्तु 1527 ई. में खानवा के युद्ध में बाबर ने राणा सांगा को हरा दिया। खानवा के युद्ध में तोपखाने की बदौलत में बाबर को जीत नसीब हुई। 1528 ई. में कुछ राजपूत सरदारों ने राणा सांगा को जहर देकर मौत की नींद सुला दिया।
रतनसिंह द्वितीय (1528 से 1531 ई.)
महाराणा सांगा की पटरानी धनबाई का पुत्र रतनसिंह द्वितीय अपने पिता की मृत्यु के बाद मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। राणा रतन सिंह द्वितीय ने आमेर के राजा पृथ्वीराज कछवाहा की पुत्री से चोरी-छुपे विवाह कर लिया था। इसी बीच पृथ्वीराज कछवाहा ने अपनी पुत्री की शादी बूंदी नरेश सूरजमल से कर दी। इस विवाह के बारे में सूरजमल को भी नहीं पता था। शर्म के मारे कछवाहा राजकुमारी ने भी पिछले विवाह के बारे में किसी से कुछ नहीं कहा।
वहीं बूंदी का हाड़ा राजा सूरजमल मेवाड़ के राणा रतन सिंह द्वितीय का बहनोई था। जब राणा रतन सिंह द्वितीय को इस विवाह के बारे में पता चला तो उसे बहुत दुख हुआ और उसने सूरजमल से बदला लेने का निश्चय किया। बूंदी में ‘अहेरिया उत्सव’ था, इस दौरान राजा सूरजमल ने राणा रतन सिंह द्वितीय को बूंदी आमंत्रित किया।
सूरजमल और राणा रतन सिंह द्वितीय एक दिन शिकार खेलने के लिए वन में गए। मौका पाकर राणा रतन सिंह ने सूरजमल पर तलवार से प्रहार कर दिया जिससे वह जमीन पर गिर पड़ा। सूरजमल को मरा हुआ समझकर रतन सिंह वहां से जाने लगा तभी सूरजमल से उसे युद्ध के लिए ललकारा, फिर दोनों में युद्ध हुआ और रतन सिंह मारा गया।
विक्रमादित्य (1531 से 1536 ई.)
राणा रतन सिंह द्वितीय नि:सन्तान ही मर गया, इसके बाद उसका सौतेला भाई विक्रमादित्य मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। चूंकि विक्रमादित्य में एक भी राजोचित गुण नहीं था, अत: गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने मार्च 1533 ई. में मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। इसके बाद विक्रमादित्य की मां कर्मावती ने 24 मार्च 1533 ई. को रणथम्भौर दुर्ग के साथ काफी धन देते हुए बहादुरशाह के साथ सन्धि की। बहादुरशाह गुजरात लौट गया लेकिन 1534 ई. में उसने मेवाड़ पर दोबारा आक्रमण कर दिया।
इस बार कर्मावती ने मुगल बादशाह हुमायूं से मदद की गुहार लगाई। परन्तु हुमायूं ने मेवाड़ की सही समय पर सहायता नहीं की। परिणामस्वरूप बहादुरशाह ने मेवाड़ पर अधिकार कर लिया। बहादुरशाह के चित्तौड़ दुर्ग में प्रवेश करने से पहले रानी कर्मावती और विक्रमादित्य की रानी जवाहरबाई ने 5 मार्च 1535 ई. को 13 हजार महिलाओं संग जौहर कर लिया।
साल 1536 में हुमायूं ने जब मेवाड़ की तरफ प्रस्थान किया तब बहादुरशाह वहां से भाग निकला। हुमायूं ने चित्तौड़ को खूब लूटा और आगरा चला गया। इसके बाद मेवाड़ी सरदारों ने विक्रमादित्य को पुन: राजा बना दिया। एक दिन पृथ्वीराज सिसोदिया की दासी ‘पुतल दे’ के पुत्र बनवीर (1536-1540 ई.) ने महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी और स्वयं मेवाड़ का शासक बन बैठा।
महाराणा उदय सिंह (1540 से 1572 ई.)
विक्रमादित्य की हत्या करने के बाद बनवीर उसके छोटे भाई उदयसिंह को मारने के लिए राजमहल पहुंचा किन्तु पन्ना धाय ने बालक उदयसिंह की जगह अपने पुत्र चन्दन को सुलाकर उसका बलिदान कर दिया। इससे ही पूर्व पन्ना धाय बालक उदयसिंह को फल की खाली टोकरी में सुलाकर नाई के जरिए किले से बाहर भेजवा दिया था।
पन्ना धाय कुम्भलगढ़ दुर्ग के किलेदार आशाशाह से मिली और सारा वृत्तांत सुनाया। इसके बाद आशाशाह ने उदयसिंह को आश्रय दिया और अपना भतीजा कहकर अपने पास रख लिया। उदयसिंह जब बड़े होने लगे तब उनके कार्यकलापों को देखकर आसपास के राजाओं को यह शक होने लगा कि यह लड़का आशाशाह का भतीजा नहीं हो सकता है।
1537 ई. में कुम्भगढ़ दुर्ग में एक बड़े दरबार का आयोजन किया गया, इस अवसर सभी राजाओं के समक्ष आशाशाह ने पन्नाधाय तथा उस नाई के जरिए सभी का सन्देह दूर किया। तत्पश्चात 15 वर्ष की आयु में राणा उदय सिंह का कुम्भलगढ़ दरबार में राज्याभिषेक किया गया।
साल 1540 में उदय सिंह ने मेवाड़ी सरदारों तथा मालदेव राठौड़ के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उदयसिंह ने मावली नामक स्थान पर बनवीर को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इसके बाद उदयसिंह ने अपने पैतृक राज्य पर अधिकार कर लिया।
1543-1544 ई. में शेरशाह सूरी ने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया, इससे पूर्व ही उदयसिंह ने चित्तौड़ दुर्ग की चाबियां सौंप दी और उसकी आधीनता स्वीकार कर ली। शम्स खां को चित्तौड़ दुर्ग में नियुक्त कर शेरशाह वापस लौट गया। 1545 ई. में कालींजर अभियान के दौरान शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई जिससे उदयसिंह ने मेवाड़ पर स्वतंत्र रूप से पुन: अधिकार कर लिया।
साल 1557 में उदय सिंह और मेवात के हाजी खां के मध्य हरमाड़ा का युद्ध हुआ। इस युद्ध में मारवाड़ के शासक मालदेव की मदद से हाजी खां विजयी रहा। उदय सिंह ने 1559 ई. में उदयपुर नगर बसाकर उसी के पास ‘उदयसागर झील’ का निर्माण करवाया। इसके बाद उदयपुर को अपनी नई राजधानी बनाई।
1562 ई. में मुगल बादशाह अकबर ने राजपूताना की तरफ प्रस्थान किया। उसने किलेदार जयमल राठौड़ को पराजित कर नागौर पर अधिकार कर लिया। युद्ध हारने के बाद जयमल राठौड़ मेवाड़ के राणा उदयसिंह की शरण में चला गया। उदय सिंह ने मालवा के बाजबहादुर को भी शरण दे रखी थी जिससे अकबर उससे बहुत नाराज हुआ।
अकबर ने राणा उदय सिंह से बाजबहादुर तथा जयमल राठौड़ को सौंपकर उसकी आधीनता स्वीकार करने को कहा। परन्तु उदय सिंह ने अकबर के इस फरमान को अस्वीकार कर दिया। इसके बाद क्रुद्ध अकबर ने 1567 ई. में चित्तौड़ किले पर आक्रमण कर दिया। सामंतों की सलाह राणा उदय सिंह चित्तौड़ किले का भार जयमल और फत्ता (फतेह सिंह) को सौंपकर गोगुन्दा की पहाड़ियों में चला गया।
अकबर के इस आक्रमण के दौरान जयमल और फत्ता चित्तौड़ किले की रक्षा करते हुए मारे गए। इसके बाद फत्ता की पत्नी फूल कंवर के नेतृत्व में तकरीबन 7000 राजपूत महिलाओं ने जौहर कर लिया। बड़ी संख्या में मुगल सैनिकों के मारे जाने से बौखला कर अकबर ने कत्लेआम का आदेश दिया।
चित्तौड़ दुर्ग की घटना से आहत महाराणा उदय सिंह ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहा। राणा उदय सिंह की 28 फरवरी 1572 ई. को होली के दिन गोगुन्दा में मृत्यु हो गई। उदय सिंह की छतरी गोगुन्दा में बनी हुई है।
महाराणा प्रताप (1572 से 1597 ई.)
महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 ई. को कुम्भलगढ़ दुर्ग स्थित कटारगढ़ के ‘बादल महल’ में हुआ था। महाराणा प्रताप पाली नरेश अखैराज सोनगरा चौहान की पुत्री जयवंता बाई का पुत्र था। राणा प्रताप का बचपन कुम्भलगढ़ दुर्ग में ही व्यतीत हुआ। राणा प्रताप ने अपने पिता के साथ पहाड़ियों में रहकर कठोर जीवन बिताया। पहाड़ी भाग में भीलों के बच्चे प्रताप को प्यार से ‘कीका’ कहकर पुकारते थे।
महाराणा प्रताप का विवाह 1557 ई. अजब दे पंवार से हुआ था जिनसे 16 मार्च 1559 ई. को अमर सिंह का जन्म हुआ। साल 1572 में जब गोगुन्दा में उदय सिंह की मृत्यु हुई तब महाराणा प्रताप 23 वर्ष के थे। उदय सिंह के दाह संस्कार के अवसर पर ही ग्वालियर के राजा राम सिंह तथा पाली नरेश अखैराज सोनगरा व मेवाड़ी सरदारों ने अयोग्य जगमाल को हटाकर महाराणा प्रताप को मेवाड़ का शासक बनाने का निर्णय लिया। ऐसे में महाराणा प्रताप का पहला राज्याभिषेक गोगुन्दा में किया गया तत्पश्चात कुम्भलगढ़ दुर्ग में प्रताप का विधिवत राज्याभिषेक समारोह सम्पन्न हुआ।
1572 से 1573 ई. के बीच बादशाह अकबर ने अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिए महाराणा प्रताप के पास जलाल खां, मानसिंह, भगवानदास तथा टोडरमल के नेतृत्व में चार शिष्टमंडल भेजे परन्तु असफल रहा। इसके बाद अकबर ने युद्ध के द्वारा प्रताप को बन्दी बनाने की योजना बनाई। आखिरकार 18 जून 1576 ई. को मुगल सेनापति मानसिंह और महाराणा प्रताप की सेनाओं के बीच हल्दीघाटी का युद्ध हुआ। हल्दीघाटी युद्ध में हुई भीषण क्षति के पश्चात महाराणा प्रताप ने चावंड को अपनी नई राजधानी बनाई तथा अकबर के विरूद्ध छापामार युद्ध जारी रखा।
धनुष-बाढ़ पर प्रत्यंचा चढ़ाते हुए पैर में चोट लगने से 19 जनवरी 1597 ई. को चावंड में महाराणा प्रताप की मृत्यु हो गई। चावंड से 11 मील दूर बांडोली गांव के निकट खेजड़ बांध के किनारे महाराणा प्रताप का दाह संस्कार किया गया, जहां महाराणा की 8 खम्भों की छतरी बनी हुई है, जो उस महान योद्धा की याद दिलाती है।
मेवाड़ राज्य से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य
— मुहणौत नैणसी एवं कर्नल जेम्स टॉड ने मेवाड़ राज्य के गुहिल वंश की 24 शाखाएं बताई हैं। गुहिल वंश के सिसोदा शाखा के शासक महाराणा कहलाते हैं।
— मेवाड़ में गुहिल वंश का संस्थापक आदि पुरुष/गुहिलादित्य को माना जाता है, वहीं मेवाड़ राज्य का वास्तविक संस्थापक परम प्रतापी शासक ‘बप्पा रावल’ है।
— बप्पा रावल ने ही ‘एकलिंगजी का मंदिर’ बनवाया था।
—राजमाता कर्मदेवी ने मेवाड़ी सेना का नेतृत्व करते हुए कुतुबुद्दीन ऐबक को आमेर के निकट हराया था।
— रावल रतन सिंह की अत्यन्त सुन्दर पत्नी रानी पद्मिनी की कथा जानने का मूल स्रोत मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘पद्मावत’ नामक ग्रन्थ है।
— साल 1303 ई. में अलाउद्दीन खिलजी के चित्तौड़ आक्रमण का सजीव चित्रण अमीर खुसरो ने अपने ग्रन्थ ‘खजाइनुल फुतूह’ में किया है।
— चित्तौड़ विजय के पश्चात अलाउद्दीन खिलजी ने अपने पुत्र खिज्र खां के नाम पर चित्तौड़ का नाम ‘खिज्राबाद’ रखा।
— राणा हम्मीर को ‘सिसोदिया साम्राज्य का संस्थापक’ एवं ‘मेवाड़ का उद्धारक’ कहा जाता है।
— चित्तौड़ दुर्ग में ‘अन्नपूर्णा माता का मंदिर’ राणा हम्मीर ने बनवाया था।
— राणा लाखा के ज्येष्ठ पुत्र राव चूड़ा को ‘मेवाड़ का भीष्म पितामह’ कहा जाता है।
— महाराणा लाखा के शासनकाल में पिच्छू नामक एक चिड़िमार बंजारे ने बैल की स्मृति में ‘पिछोला झील’ का निर्माण करवाया।
— महाराणा कुम्भा के शासनकाल में रणकपुर के जैन मंदिर सहित कुम्भा स्वामी मंदिर (मीरा मंदिर) व श्रृंगार चवरी मंदिर आदि प्रमुख मंदिरों का निर्माण हुआ।
— चित्तौड़ में मालवा विजय के उपलक्ष्य में राणा कुम्भा ने साल 1440 से 1448 ई. में कीर्ति/विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।
— महाराणा कुम्भा की हत्या उसके ज्येष्ठ पुत्र उदयकरण ने की थी, इसीलिए उदयकरण को ‘मेवाड़ का पितृहन्ता’ कहा जाता है।
— राणा सांगा के शरीर पर 80 घाव के निशान थे, युद्धों के दौरान उसने अपना एक पैर, एक आंख तथा एक हाथ भी खो दिया था।
— महाराणा सांगा को ‘हिन्दूपथ’ तथा ‘सैनिकों का भग्नावशेष’ भी कहा जाता है।
— महाराणा कुम्भा की रानी सुमति झाली ने संत रैदास को अपना गुरु बनाया था।
— राणा कुम्भा की पुत्री रमाबाई एक महान संगीतज्ञ थी, जिसे साहित्य में ‘वागीश्वरी’ के नाम से जाना जाता है।
— राणा कुम्भा की पुत्री रमाबाई ने जावर में ‘रमा कुण्ड’ तथा ‘विष्णु मंदिर’ का निर्माण करवाया।
— महाराणा उदय सिंह ने उदयपुर के राजमहलों की नींव ‘धूणी’ नामक स्थान पर रखी थी।
— जैसलमेर के भाटी शासक की अत्यन्त सुन्दर पुत्री धीरबाई को इतिहास में ‘भटियाणी रानी’ के नाम से जाना जाता है।
— राणा उदय सिंह ने अपने जीवित रहते महाराणा प्रताप की जगह भटियाणी रानी के पुत्र जगमाल को अपना उत्तराधिकारी बनाया।
— मेवाड़ी सरदारों के द्वारा जगमाल को हटाकर महाराणा प्रताप को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाना ‘राजमहल की क्रांति’ कहलाती है।
— हल्दीघाटी स्थित शिलालेख के मुताबिक, हल्दीघाटी का इतिहास प्रसिद्ध युद्ध 18 जून 1576 ई. को हुआ था।
— इतिहासकार गोपीनाथ शर्मा के अनुसार, हल्दीघाटी का युद्ध 21 जून 1576 ई. को हुआ था।
— मुस्लिम योद्धा हकीम खां सूरी हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप की ओर से लड़ते हुए मारा गया था। हकीम खां सूरी का मकबरा खमनौर में बना हुआ है।
— हल्दीघाटी के युद्ध को अब्दुल कादिर बदायूंनी ने ‘गोगुन्दा का युद्ध’, अबुल फजल ने ‘खमनौर का युद्ध’ तथा कर्नल जेम्स टॉड ने ‘मेवाड़ की थर्मोपल्ली’ कहा है।
— अक्टूबर 1582 ई. में दिवेर विजय तथा चांवड को राजधानी बनाने के बाद महाराणा प्रताप ने चित्तौड़ व मांडलगढ़ को छोड़कर शेष मेवाड़ पर अधिकार कर लिया था।
— मुगलों की आधीनता स्वीकार करने वाला मेवाड़ का पहला शासक था अमर सिंह।
— मुगलों की इस संधि से दुखी होकर अपना राजापाट त्याग कर अमर सिंह राजसमन्द झील के किनारे वैरागी जीवन व्यतीत करने लगा, तत्पश्चात 26 जून 1620 ई. को अमर सिंह की मृत्यु हो गई।
— आहड़ में अमर सिंह का दाह संस्कार किया गया। आहड़ में मेवाड़ के महाराणाओं का श्मशान है जहां प्रथम छतरी अमर सिंह की है।