
बिहार राज्य के सारण जिला स्थित कुतुबपुर गांव के एक गरीब नाई परिवार में जन्में एक अनपढ़ शख्स को हिन्दी साहित्य के महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘अनगढ़ हीरा’ और ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहा। जी हां, मैं भिखारी ठाकुर की बात कर रहा हूं जिन्हें भोजपुरी भाषा के सबसे पॉपुलर लेखकों में से एक माना जाता है।
कवि, नाटककार, गीतकार, अभिनेता, लोक नर्तक, लोक गायक और समाज सुधारक भिखारी ठाकुर की लोकप्रियता को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें ‘राय बहादुर’ की उपाधि से नवाजा था। कालान्तर में भिखारी ठाकुर को ‘बिहार रत्न’ से भी सम्मानित किया गया।
हैरानी की बात है कि गांव के बाबू साहब लोगों की हजामत बनाने वाले भिखारी ठाकुर ने अपना पारम्परिक पेशा छोड़कर न केवल लौंडा नाच को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय बनाया बल्कि बिदेसिया, भाई विरोध, बेटी बेचवा, गबर घिचोर, कलजुग प्रेम, राधेश्याम बाहर, बटोहिया सहित तकरीबन 29 कालजयी रचनाएं की जो भोजपुरी साहित्य के लिए मील के पत्थर हैं।
अब आपका सोचना बिल्कुल लाजिमी है कि भिखारी ठाकुर के साथ ऐसा क्या हुआ था जो उन्होंने हजामत बनाना छोड़कर लौंडा नाच शुरू किया? भिखारी ठाकुर की कालजयी रचनाओं का आधार क्या था? इन सभी रोचक प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए यह स्टोरी जरूर पढ़ें।
भिखारी ठाकुर का पारिवारिक जीवन
भिखारी ठाकुर का जन्म बिहार राज्य के सारण जिला स्थित कुतुबपुर गांव के एक गरीब नाई परिवार में 18 सितम्बर 1887 ई. को हुआ था। भिखारी ठाकुर के पिता का नाम दलसिंगार ठाकुर और माता का नाम शिवकली देवी था। भिखारी ठाकुर जब 9 वर्ष के हुए तो स्कूल जाना शुरू किया। पढ़ाई में मन नहीं लगा, इसलिए एक साल में ही स्कूल छोड़ दिया। गांव के ही भगवान शाह नामक लड़के ने उन्हें पढ़ाया तब जाकर अक्षर ज्ञान हो पाया।
धीरे-धीरे भिखारी ठाकुर ‘रामचरितमानस’ पढ़ना सीख गए थे। वह कैथी लिपि में लिखते थे, जो बहुत कम लोगों को समझ आती थी। भिखारी ठाकुर की शादी किशोरावस्था में ही मंतुरना देवी से हुआ, जिनसे साल 1911 में उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम शिलानाथ ठाकुर था। शादी के बाद न चाहते हुए भी भिखारी ठाकुर लोगों की हजामत बनाने लगे तथा न्यौता-बारी का काम करने लगे।
भिखारी ठाकुर जब 27 वर्ष के थे तभी उनके क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा जिसके चलते वह काम की तलाश में खड़गपुर चले गए, फिर वहां से उड़ीसा स्थित जगन्नाथ पुरी और फिर कलकत्ता गए। ध्यान देने वाली बात हैं कि इन जगहों पर भिखारी ठाकुर ने जो नाट्य मंचन और रामलीलाएं देखी, इससे उनके अन्दर का कलाकार जाग उठा।
भिखारी ठाकुर ने छोड़ दिया पैतृक पेशा
भगवती प्रसाद द्विवेदी अपनी किताब ‘भिखारी ठाकुर: भोजपुरी के भारतेन्दु’ में लिखते हैं कि “भिखारी ठाकुर अपने जीवन-यापन के लिए हजामत तो बना ही रहे थे किन्तु उनका मन इस पेशे में रम नहीं रहा था।” कहते हैं, भिखारी ठाकुर एक बार गांव के किसी बाबू साहब की दाढ़ी बना रहे थे, तभी गुनगुनाते हुए उनके गाल पर ही ठोकने लगे।
इस बात से बाबू साहब भड़क गए और भिखारी ठाकुर को खूब खरी-खोटी सुनाई, इसके बाद से भिखारी ठाकुर ने कभी भी हजामत नहीं बनाने की कसम खाई। इस बात को भिखारी ठाकुर कुछ इस तरह लिखते हैं— “छूरा छूटल, कैंची छूटल, छूटल नोहरनिया, बाबू लोग के हजामत छूटल, नाच के करनिया।”
भिखारी ठाकुर ने शुरू की नाच मंडली
बंगाल से लौटने के बाद भिखारी ठाकुर ने एक नाटक मंडली बनाई और शुरुआत में रामलीला का मंचन करते थे। हांलाकि घरवालों से छुपछुप कर वह लौंडा नाच देखने जाते थे। धीरे- धीरे मंडलियों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और छोटी-छोटी भूमिकाएं भी करने लगे तत्पश्चात कुछ लिखना भी शुरू कर दिया। 30 साल की उम्र में भिखारी ठाकुर ने अपनी नाच मंडली बना ली। इस बारे में वह लिखते हैं- “नाच मंडली के धरि साथ, लेक्चर दिहिं जय कहि रघुनाथ।”
यह सच है कि रोजी-रोटी की जरूरत, लोगों के मनोरंजन, कलात्मकता और काव्य रचना की दृष्टि से भिखारी ठाकुर ने नाच मंडली की शुरूआत की थी। नाच मंडली में काम करने वाले कलाकारों के मेकअप से लेकर काव्य रचना, संगीत- अभिनय निर्देशन आदि काम वह स्वयं सम्भालते थे। भिखारी ठाकुर ने अपनी पहली कविता ‘बिरहा बहार’ लिखी, इस रचना का उन्होंने नाटक में तब्दील कर दिया।
भिखारी ठाकुर ने जब नाच मंडली बनाई तब ‘लौंडा नाच’ उतना फेमस नहीं था, उस जमाने में महिलाओं को स्टेज पर नहीं लाया जा सकता था, इसलिए पुरूष ही साड़ी पहनते थे और नाचते थे। भिखारी ठाकुर ने अपनी काव्य रचनाओं और संगीत-निर्देशन से लौंडा नाच में जान फूंक दी। उस दौर में भिखारी ठाकुर पर यह भी आरोप लगे कि वह बहुत ही फूहड़ ढंग से लौंडा नाच प्रस्तुत करते हैं। इस बारे में भिखारी ठाकुर कुछ इस तरफ सफाई देते हैं- “नाच ह कांच, बात ह सांच, एह में लागे ना आंच।”
भिखारी ठाकुर की नाच मंडली बिहार,असम, बंगाल, उड़ीसा और नेपाल में टिकट वाले शो किया करती थी, जिसे देखने के लिए हजारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। ऐसा कहते हैं कि भिखारी ठाकुर की नाच मंडली ने जब असम में अपना शो शुरू किया तो वहां के सिनेमाघरों में ताला लगने की नौबत आ गई थी। इतनी पॉपुलारिटी के बावजूद भिखारी ठाकुर को लौंडा नाच के लिए तिरस्कारों का सामना करना पड़ा।
भिखारी ठाकुर : भोजपुरी का शेक्सपियर
भिखारी ठाकुर को ठीक से लिखना भी नहीं आता था, और लिखते भी थे तो कैथी लिपि में जिसे पढ़ना सबके बूते की बात नहीं थी। बावजूद इसके उन्होंने भोजपुरी भाषा में 29 कालजयी रचनाएं की। यही वजह है कि हिन्दी साहित्य के महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को ‘अनगढ़ हीरा’ और ‘भोजपुरी का शेक्सपियर’ कहा।
भिखारी ठाकुर की रचनाएं वाराणसी, छपरा और हावड़ा से प्रकाशित होती थीं। भिखारी ठाकुर की यादगार रचनाओं के नाम कुछ इस प्रकार हैं— बिदेसिया, बेटी बेचवा, गबरघिचोर, भाई विरोध, कलजुग प्रेम, राधेश्याम बाहर, बटोहिया, अछूत की शिकायत, गंगा स्नान, विधवा-बिलाप, पुत्रवध, ननद-भौजाई आदि।
भिखारी ठाकुर की पहली काव्य रचना ‘बिरहा बहार’ थी जिसे उन्होंने अपने नाटक में तब्दील कर दिया। भिखारी ठाकुर ने साल 1912 में ‘बटोहिया’ की रचना की। तत्पश्चात साल 1917 में उन्होंने ‘बिदेसिया’ लिखा। ‘बिदेसिया’ नामक रचना ने भिखारी ठाकुर को खूब ख्याति दिलाई। भिखारी ठाकुर अपनी लोकप्रिय रचना ‘बिदेसिया’ का जहां भी मंचन करते थे, लोगों का हुजूम पड़ता था।
बिदेसिया की लोकप्रियता ने बम्बईया सिनेमा को भी आकर्षित किया। लिहाजा साल 1963 में उनके नाटक पर आधारित एक भोजपुरी फिल्म बिदेसिया रिलीज हुई, जिसमें भिखारी ठाकुर ने एक विशेष भूमिका निभाई थी। हांलाकि यह फिल्म लोगों पर कुछ खास प्रभाव नहीं डाल सकी।
भिखारी ठाकुर की लोकप्रिय रचनाओं का लाभ उठाकर कुछ लोग उनके नाम से नकली किताबें भी बेचने लगे। इनमें से कुछ ऐसी भी किताबें भी थीं जिन्हें भिखारी ठाकुर ने लिखा ही नहीं था। आखिरकार उन्होंने इस झूठ का पर्दाफाश करने के लिए ‘भिखारी शंख शमदान’ लिखा जिसमें उनकी सभी रचनाओं की सूची का विवरण सटीक तरीके से किया गया था।
कोमल स्वभाव के भिखारी ठाकुर की रचनाओं में तीखे व्यंग्य हुआ करते थे, जो समाज के एक तबके को खूब चुभता था। भिखारी ठाकुर की रचना ‘अछूत की शिकायत’ में दलित पात्र हीरा डोम की व्यथा का वर्णन है। साहित्य समाज भिखारी ठाकुर की नाट्य रचना ‘गबरघिचोर’ की तुलना बर्टोल्ट ब्रेख्त के नाटक 'द कॉकेशियन चॉक सर्कल' से करता है।
दरअसल ‘गबरघिचोर’ की कथावस्तु एक ऐसे महिला की है जो अपने प्रवासी पति की अनुपस्थिति में एक गैर युवक से सम्बन्ध बना लेती है। इसके बाद उस महिला से जो बच्चा पैदा होता है, जिसे वह समाज की प्रताड़ना के बावजूद पालती है। पति जब घर लौटता है तो वह उस बच्चे ‘गबरघिचोर’ को त्यागने के लिए कहता है लेकिन पत्नी अपने उस बेटे को छोड़ने से मना कर देती है।
हैरानी की बात है कि भिखारी ठाकुर की नाच मंडली में लौंडा नाच करने वाले रामचन्द्र मांझी को भारत सरकार ने साल 2021 में ‘पद्यश्री’ से सम्मानित किया किन्तु ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ कहे जाने वाले भिखारी ठाकुर किसी भी बड़े सम्मान से मरहूम रहे। ‘पद्यश्री’ से सम्मानित रामचन्द्र मांझी 11 वर्ष की उम्र में ही भिखारी ठाकुर की नाच मंडली में शामिल हो गए थे।
एक साक्षात्कार में रामचन्द्र मांझी कहते हैं कि “मालिक (भिखारी ठाकुर) जब तक जिन्दा रहे, मैं उनके साथ ही काम करता रहा। वो जब सिखाते थे तो डांटते भी थे, मारते भी थे और दुलार भी करते थे। आज हमसे आप बात कर रहे हैं इसका कारण भी मालिक ही हैं।”
भिखारी ठाकुर का निधन
10 जुलाई 1971 को शनिवार के दिन 84 वर्ष की उम्र में भिखारी ठाकुर ने अंतिम सांस ली। अपने जीवन सार के बारे में भिखारी ठाकुर ने पहले ही लिख दिया था- “अबही नाम भईल बा योरा, जब ई छूट जाई तन मोरा। तेकरा बाद नाम होइजन, पंडित, कवि, सज्जन यश गईहन।” भिखारी ठाकुर की यह पंक्तियां सच साबित हो रही हैं, अलाम यह है कि उनके प्रशंसकों द्वारा भिखारी ठाकुर को भारत रत्न देने की मांग की जा रही है।
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