भारत तथा अफगानिस्तान के ऐतिहासिक स्रोत इस बात की पुरजोर गवाही देते हैं कि अफगानिस्तान न केवल हिन्दू राष्ट्र था बल्कि भारत का अभिन्न हिस्सा था। इतिहासकार जोनाथन केनोयर मार्क के मुताबिक कांस्य युग व सिन्धु घाटी सभ्यता के काल में भी अफगानिस्तान हिन्दू सभ्यता व संस्कृति का केन्द्र था। प्राचीन काल में भारत के लोग काबुल को कुभा तथा कंधार को गंधार तथा पेशावर को पुरूषपुर के नाम से जानते थे।
वैदिक तथा उत्तर वैदिक काल के ग्रन्थों में मिलता है उल्लेख
7वीं शताब्दी तक भारत का अभिन्न अंग रहे अफगानिस्तान के गंधार (अब कंधार) का उल्लेख भारत के अतिप्राचीन ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के 127वें सूक्त में भी मिलता है, जो इस प्रकार है-
उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथाः। सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका।। ऋग्वेद 1/126/7।।
अर्थ- हे राजन्! मैं गान्धारवासिनी इस पृथ्वी का राज्य धारण करने व न्यायपूर्वक रक्षा करने में सक्षम हूं। प्रशंसित रोमों वाली, सब प्रकार के गुणों की धारक उत्तम भेड़ों से युक्त इस क्षेत्र की सम्राज्ञी हूं। मेरे कामों को छोटे में मत आंको।
‘रघुवंश’ में अयोध्या के राजा रामचन्द्रजी के द्वारा अपने छोटे भाई भरत को सिंध देश दिए जाने का उल्लेख मिलता है। सिन्धु नदी के दोनों ओर के प्रदेश को ही सिंध देश कहा जाता था। वाल्मिकी रामायण के अनुसार, कैकय नरेश युधाजित से संदेश मिलने के बाद यह कार्य सम्पन्न किया गया था। सिंध पर अधिकार करने के लिए भरत ने गंधर्वों (गंधार) को पराजित किया था-'भरतस्तत्र गंधर्वान्युधि निजिंत्य केवलम् आतोद्यग्राहयामास समत्याजयदायुधम्'
इतना ही नहीं महाभारत काल में अफगानिस्तान के उत्तरी इलाके में स्थित गांधार महाजनपद था जो अब कंधार के नाम से विख्यात है। महाकाव्य महाभारत के अनुसार, गंधार की राजकुमारी गांधारी का विवाह हस्तिनापुर (अब दिल्ली) नरेश धृतराष्ट्र के साथ हुआ। गांधारी के भाई का नाम शकुनि था जो गांधार का राजा था। शकुनि को महाभारत युद्ध के दोषियों में से एक माना जाता है। इस प्रकार वायु पुराण के अतिरिक्त महाकाव्य महाभारत तथा अन्य संस्कृत ग्रन्थों व पाण्डुलिपियों में अफगानिस्तान के सन्दर्भ में प्रचुर सन्दर्भ मिलते हैं।
चंद्रगुप्त मौर्य व सम्राट अशोक का अफगानिस्तान पर शासन
जिस समय चंद्रगुप्त मौर्य अपने साम्राज्य के निर्माण में तत्पर था, सिकन्दर का सेनापति सेल्यूकस अपनी महानता की नींव डाल रहा था। 312 ई. पू. में उसने बेबिलोन पर कब्जा करने के बाद ईरान के विभिन्न राज्यों को जीतकर बैक्ट्रिया पर अधिकार कर लिया। इसके बाद अपने पूर्वी अभियान के तहत सेल्यकूस भारत की तरफ बढ़ा।
दरअसल सेल्यूकस पंजाब तथा सिन्ध पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता था। ऐसे में 305-4 ई.पू. में काबुल को पारकर वह सिन्ध की तरफ बढ़ा लेकिन उसका सामना चन्द्रगुप्त मौर्य से हुआ। यद्यपि यूनानी और रोमन लेखक सेल्यूकस और चन्द्रगुप्त मौर्य के बीच हुए युद्ध का कोई ब्यौरा नहीं देते। इतिहासकार जस्टिन के अनुसार, सेल्यूकस अपने प्रतिद्वंदी चन्द्रगुप्त मौर्य से सन्धि करके और अपने पूर्वी राज्य को शांत करके एण्टीगोनस से युद्ध करने चला गया। इसका तात्पर्य यह है कि सेल्यूकस अपने प्रतिद्वंदी चन्द्रगुप्त मौर्य विरूद्ध सफलता नहीं प्राप्त कर सका। स्ट्रबो के अनुसार, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य से यूनानी राजकुमारी ब्याही गई और चार प्रान्त दहेज के रूप में दिए गए। इतिहासकारों के मुताबिक, सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य को चार प्रान्त काबुल, कंधार, मकरान और हेरात प्रदेश दहेज के रूप में दिए।
अशोक के लेखों से सिद्ध होता है कि काबुल की घाटी मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत थी। इन अभिलेखों के अनुसार, गांधार भी मौर्य साम्राज्य के ही अधीन था। प्लूटार्क के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य ने सेल्यूकस को 500 हाथी उपहार में दिए थे। सम्भवत: इस संधि के बाद हिन्दुकुश मौर्य साम्राज्य और सेल्यूकस के राज्य के बीच की सीमा बन गया इस प्रकार आज से तकरीबन 2000 से अधिक वर्ष पूर्व भारत के सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने उस प्राकृतिक सीमा को प्राप्त कर लिया जिसके लिए अंग्रेज भी तरसते रहे, यहां तक कि मुगल बादशाह भी इसे पूरी तरह से प्राप्त करने में असफल रहे।
कुषाण वंश के महान शासक कनिष्क के स्वर्ण सिक्के
बता दें कि कनिष्क से पूर्व ही कुषाण वंश के संस्थापक कुजुल कडफिसेस ने हिंदुकुश पर्वत पार करके दक्षिणी अफगानिस्तान, काबुल, गांधार, किपिन और पार्थिया के एक भाग को अपने राज्य में मिला लिया था। कुषाण वंश के सबसे महान शासक कनिष्क ने पहली शताब्दी के आसपास शासन किया।
कनिष्क का साम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तरी भाग, अफगानिस्तान और संभवतः कश्मीर क्षेत्र के उत्तरी भाग में मध्य एशिया के क्षेत्र तक फैला हुआ था। कनिष्क के साम्राज्य में उज्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के कुछ हिस्से भी शामिल थे।कनिष्क के इस विशाल साम्राज्य की दो राजधानियां थी- पहली राजधानी गांधार के पुरुषपुरा (अब पेशावर) में स्थित थी तथा दूसरी राजधानी मथुरा में थी। कनिष्क की विजयों और गांधार से काराकोरम रेंज के पार चीन तक महायान बौद्ध धर्म के प्रसारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई ।
अफगानिस्तान के रबातक में मिले एक शिलालेख से कनिष्क के पिता विमकडफिसेस की जानकारी मिलती है। शिवभक्त विमकडफिसेस ने बड़ी संख्या में स्वर्ण सिक्के जारी किए थे। अफगानिस्तान में मिले स्वर्ण सिक्कों पर शासक कनिष्क के अतिरिक्त हाथ में त्रिशूल लिए भगवान शिव का चित्र उत्कीर्ण हैं।
बामियान में भगवान बुद्ध की सबसे बड़ी मूर्ति
कनिष्क ने बौद्ध धर्म के महायान शाखा के प्रचारित-प्रसारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त उसके शासनकाल में गांधार कला को प्रोत्सोहित किया गया। छठी शताब्दी में मध्य अफगानिस्तान की बामियान घाटी में गान्धार शैली में चट्टानों पर दो विशाल बौद्ध मूर्तियाँ उकेरी गई थीं जिन्हें दुनिया की बलुआ पत्थर की सबसे बड़ी मूर्ति माना जाता है। हांलाकि साल 2001 की गर्मियों में तालिबानियों ने इन मूर्तियों को नष्ट कर दिया।
बीबीसी न्यूज के मुताबिक,बामियान घाटी स्थित बुद्ध प्रतिमा पर तालिबानियों के द्वारा पहले टैंक और भारी गोलियों के अतिरिक्त विस्फोटकों से हमला किया गया लेकिन बुद्ध की सिर्फ़ टांगें ही उड़ाई जा सकीं। अंतरराष्ट्रीय स्तर हुई आलोचनाओं के बावजूद तालिबानी बलों ने विस्फोटक डाइनामाइट के द्वारा पूरी बुद्ध प्रतिमा को नष्ट कर दिया। इस प्रक्रिया में तकरीबन 25 दिन लगे थे। बता दें कि यूनेस्कों द्वारा इस साइट का संरक्षण आज भी जारी है ताकि मूर्तियों और उनके ऐतिहासिक आधारों में से जो शेष बचा है, उसे संरक्षित किया जा सके।
प्रमुख बौद्ध शहर था ‘मेस अयनाक’
पूर्वी अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से एक लोगार प्रान्त 7 जिलों में विभाजित है और इसमें सैकड़ों गाँव शामिल हैं। इसी में से एक गांव का नाम है मेस अयनाक जो काबुल से 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। खुदाई के दौरान मेस अयनाक में अतिप्राचीन पारसी अग्नि मंदिर के अतिरिक्त कई बौद्ध स्तूप तथा 1000 से अधिक मूर्तियां, एक टकसाल, दो छोटे किले, एक गढ़, कुषाणकालीन सिक्कों के भंडार तथा स्वर्ण आभूषण भी मिले हैं।
खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को मेस अयनाक गांव के ऊपर पहाड़ों में तांबे से युक्त परतों का बड़ा समूह भी मिला जिससे यह पता चला कि यह जगह कभी तांबे के लिए प्रसिद्ध था। भूविज्ञानियों को यह भी पता चला कि ईसा पूर्व की प्रारंभिक शताब्दियों के दौरान यह कभी प्रमुख बौद्ध शहर था। बता दें कि अफगानिस्तान के मेस अयनाक में फ्रांसीसी पुरातत्वविदों ने संरक्षित खुदाई शुरू की तो उसमें चीन ने 2 मिलियन तथा यूएस ने 1 मिलियन तथा विश्व बैंक ने 8 मिलियन धनराशि का योगदान दिया था।
देवी-देवताओं की मूर्तियां
11वीं सदी में इस्लामिक आक्रान्ताओं के द्वारा अफगानिस्तान में अधिकांश हिन्दू मंदिरों को नष्ट कर दिया गया या फिर मस्जिदों में परिवर्तित कर दिया गया। अफगानिस्तान के बामियान, जलालाबाद, बगराम, काबुल, बल्ख में ऐसे ऐतिहासिक स्रोत अभी भी मौजूद हैं जो यह साबित करते हैं कि यहां कभी मूर्तिपूजा करने वाले भारतीयों का निवास था। बतौर उदाहरण- अफगानिस्थान के गरदेज से प्राप्त 5वीं शताब्दी में बनी भगवान गणेश की संगमरमर की मूर्ति जो कि खंडित अवस्था में काबुल के दरगाह पीर रतन नाथ में अभी भी संरक्षित है। महागणेश की इस उत्कृष्ट और सुन्दर मूर्ति को हेफथलाइट् वंश के शासक खिंगल ने स्थापित किया था। इसके बाद 9वीं सदी का एकमुखी शिवलिंग तथा गजनी में प्राप्त दूसरी सदी का मां दुर्गा का शीश जो काबुल के संग्रहालय में संरक्षित है।
इतना ही नहीं, साल 1970 में जापान के क्योटो विश्वविद्यालय के द्वारा काबुल के उत्तरी भाग में खुदाई के दौरान संगमरमर से निर्मित नंदी पर विराजमान उमामहेश्वर की सुन्दर मूर्ति प्राप्त हुई थी। वयोवृद्ध पत्रकार मनमोहन शर्मा जब अफगानिस्तान गए थे तब उन्होंने काबुल के संग्रहालय में दर्जनों हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां देखी थी जिन्हें बौद्ध मूर्तियों के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
कंधार-काबुल पर शासन करने वाले भारतीय शासक
843 ई. में इस क्षेत्र पर कल्लार नामक हिन्दू राजा का शासन था। कल्लार से भी पहले गांधार पर कई हिन्दू तथा बौद्ध राजाओं ने शासन किया था। सिंध के ब्राह्मण राजा दाहिर सेन ने अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों पर शासन किया था। सिंध में ब्राह्मण वंश की स्थापना चच ने की थी, राजा दाहिर उसी का पुत्र था। राजा दाहिर ने इराक़ के मुसलमान सूबेदार अलहज्जाज की फौजों को कई बार पराजित किया था। मुस्लिम आक्रान्त मोहम्मद बिन कासिम ने दाहिर सेन की हत्या कर इस क्षेत्र पर कब्जा किया था। काबुल के हिन्दू शाही राजा जयपाल को महमूद गजनवी ने पराजित किया था, इसके बाद 1001 ई. में जयपाल ने आत्मदाह कर लिया। जयपाल के बाद आनंदपाल,त्रिलोचनपाल और राजा भीमपाल हिन्दू शाही वंश के उत्तराधिकारी हुए।
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