उदयपुर राज्य का प्राचीन नाम शिवी था, जिसकी राजधानी मध्यमिका थी। यहां पर मेर जाति का प्रभुत्व था जो हमेशा मलेच्छों से संघर्ष करते रहते थे इसलिए इस क्षेत्र को मेद अर्थात ‘मलेच्छों को मारने वाला’ की संज्ञा दी गई। इसी वजह से इस भाग को ‘मेदपाट’ के नाम से भी जाना जाता था। मेदपाट ही कालान्तर में मेवाड़ कहा जाने लगा। पिछोला झील के किनारे स्थित उदयपुर गुहिल/सिसोदिया राजवंश के शासकों की राजधानी थी।
इतिहासकार मुहणौत नैणसी और कर्नल जेम्स टॉड ने मेवाड़ के गुहिल वंश की 24 शाखाएं बताई हैं, इन्हीं में से एक शाखा का नाम सिसोदा है। सिसोदिया वंश के शासक महाराणा कहलाते हैं। मेवाड़ के सूर्यवंशी महाराणा भगवान श्रीराम के पुत्र कुश के वंशज हैं। भारतवर्ष में अनेक प्राचीन राज्य लुप्त हो गए और नए राज्य स्थापित हुए लेकिन यहीं एक ऐसा राजवंश है जो न केवल राजस्थान बल्कि भारत के प्राचीनतम राजवंशों में से एक है जिसने सबसे लम्बे समय तक एक ही प्रदेश पर शासन किया।
महाराणा कुम्भा, राणा सांगा एवं वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जैसे महान योद्धाओं को पैदा करने वाले मेवाड़ के शासकों का एक ही आदर्श था कि कि ‘बप्पा रावल के वंशज किसी के आगे सिर नहीं झुकाएंगे’। मेवाड़ के राजचिह्न के बीच सूर्य का चित्र है, जो उनके सूर्यवंशी होने का प्रतीक है। सूर्य के दाहिने तरफ एक राजपूत योद्धा तथा बाएं तरफ एक भील योद्दा का चित्र अंकित है जिससे यह साबित होता है कि मेवाड़ की रक्षा वनवासी भीलों तथा राजपूतों ने की। इस राजचिह्न के नीच लिखा हुआ है- ‘जो दृढ़ राखे धर्म को तिही राखे करतार’ अर्थात संसार का कर्ता परमात्मा उसी की रक्षा करता है जो अपने धर्म (कर्तव्य) पर दृढ़ रहता है।
मेवाड़ के गुहिल/ सिसोदिया राजवंश के वास्तविक संस्थापक बप्पा रावल के बारे में कहा जाता है कि “वह एक झटके में दो भैंसों की बलि देता था, पैंतीस हाथ की धोती तथा सोलह हाथ का दुपट्टा पहनता था। उसकी तलवार 32 मन की थी। वह चार बकरों का भोजन करता था और उसकी सेना में 12 लाख 72 हजार सैनिक थे।” ऐसे में सवाल यह उठता है कि सर्वप्रथम बप्पा रावल के द्वारा खुद को ‘एकलिंगजी का दीवान’ मानकर शासन करने की स्टोरी क्या है?
स्वयंभू हैं एकलिंगजी
गुहिल राजवंश के 8वीं पीढ़ी के शासक नागादित्य के दुर्व्यवहार से नाराज होकर स्थानीय भीलों ने उसकी हत्या कर दी थी। इसके बाद राजपूत सरदारों को नागादित्य के 3 वर्षीय पुत्र बप्पा के जीवन को लेकर चिंता सताने लगी। उस समय गुहिल राजवंश के कुलपुरोहित बप्पा को लेकर भांडेर के दुर्ग में गए। हांलाकि यह जगह बप्पा के लिए सुरक्षित नहीं थी ऐसे में वे बालक बप्पा को लेकर परासर नामक स्थान पर पहुंचे। इस स्थान के पास त्रिकुट पर्वत की तलहटी में नागेन्द्र नामक नगर (वर्तमान में नागदा) बसा हुआ था। इस नगर में शिव की उपासना करने वाले ब्राह्मण निवास करते थे जिन्होंने बप्पा के लालन-पालन की जिम्मेदारी ली।
फिर क्या था, बप्पा उन ब्राह्मणों की गायें चराता था। उन गायों में से एक गाय ऐसी थी जो सुबह तो बहुत ज्यादा दूध देती थी लेकिन शाम को वापस लौटती थी तो उसके थन में दूध हीं नहीं होता था। ऐसे में ब्राह्मणों को संदेह हुआ कि बप्पा ही उस गाय का दूध पी जाता है। बप्पा को जब इस बात की जानकारी मिली तो सच्चाई जानने के लिए दूसरे दिन वह गायों को लेकर जंगल गया और उसी गाय पर विशेष नजर रखे हुए था।
बप्पा ने देखा कि वह गाय एक निर्जन गुफा में घुस गई। बप्पा भी उसके पीछे हो लिया और उसने वहां देखा कि बेल पत्तों के ढेर पर वह गाय अपने थन से दूध की धार छोड़ रही थी। जब बप्पा में उन बेल पत्तों को हटाकर देखा तो उसके नीचे एक शिवलिंग था जिसके ऊपर वह गाय अपने दूध की धार गिरा रही थी। यही वो स्थान है जहां एकलिंगजी का मंदिर निर्मित है।
‘एकलिंगजी के दीवान’ बनकर राजकार्य करने की परम्परा
बप्पा ने उस स्वयंभू शिवलिंग के पास एक समाधिस्थ योगी को देखा। हांलाकि उस योगी का ध्यान तो टूट गया लेकिन उसने बप्पा से कुछ नहीं कहा। अब बप्पा उस योगी (हारित ऋषि) की सेवा करने लगा। उस योगी यानि हारित ऋषि ने बप्पा की सेवा-भक्ति से प्रसन्न होकर शिवमंत्र की दीक्षा देकर उसे ‘एकलिंगजी के दीवान’ की उपाधि दी और मेवाड़ विजय का आशीर्वाद देते हुए ‘बप्पा रावल’ (अंग्रेज इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार, बप्पा रावल का मूल नाम कालभोज था) के विरद से विभूषित किया। हारित ऋषि ने बप्पा को एक ऐसे स्थान की जानकारी दी जहां खजाना दबा हुआ था। हारित ऋषि ने कहा कि उस खजाने की सहायता से सैनिक व्यवस्था करना और मेवाड़ पर विजय प्राप्त कर शासन करना। ऐसे में बप्पा ने हारित ऋषि के कथनानुसार धन निकालकर एक बड़ी सेना तैयार की और चित्तौड़ पर अपना अधिकार कर लिया। हांलाकि बप्पा के शासक बनने की अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं।
वैद्यनाथ प्रशस्ति के मुताबिक, बप्पा रावल ने 734 में चित्तौड़ के राजा मानमौर्य को पराजित कर गुहिल वंश के साम्राज्य की स्थापना की। इसके बाद हारित ऋषि के आशीर्वाद से बप्पा रावल ने उदयपुर के समीप कैलाशपुरी नामक स्थान पर एकलिंगजी का मंदिर बनवाया। बप्पा रावल के समय से ही एकलिंगजी को मेवाड़ का राजा मानकर तथा स्वयं को ‘एकलिंगजी का दीवान’ बनकर राजकार्य करने की परम्परा शुरू हुई।
एकलिंगजी मंदिर की खासियत
उदयपुर से तकरीबन 18 किलोमीटर उत्तर दिशा में दो पहाड़ियों के बीच कैलाशपुरी नामक स्थान पर एकलिंगजी का खूबसूरत मंदिर मौजूद है। चार मुख वाले शिवलिंग के चलते यह मंदिर पूरे भारतवर्ष में विख्यात है। कहा जाता है कि एकलिंगजी मंदिर का निर्माण बप्पा रावल ने 734 ई. में करवाया था। मध्यकाल में विदेशी आक्रमणकारियों ने इस मंदिर को कई बार क्षति पहुंचाई इसलिए इसका पुनर्निर्माण किया गया। मंदिर परिसर के बाहर मौजूद लेख के मुताबिक, बाह्य आक्रमणकारियों द्वारा मूल शिवलिंग को इन्द्रसागर में प्रवाहित किए जाने के पश्चात मंदिर में वर्तमान चतुर्मुखी शिवलिंग की स्थापना की गई थी।
पूरे देश में विख्यात एकलिंगजी नाथ मंदिर की वास्तुकला देखते ही बनती है। पिरामिड स्टाइल में बने इस मंदिर के गर्भगृह में काले संगमरमर से निर्मित एकलिंगजी नाथ की चारमुखी मूर्ति स्थापित है जो तकरीबन 50 फीट की है। दो मंजिले इस मंदिर की दीवारों पर एक से एक बेहतरीन चित्र उत्कीर्ण हैं।
मेवाड़ के राजवंश के कुलदेवता एकलिंगजी को ही वास्तविक राजा माना जाता है और यहां के शासक एकलिंगजी के प्रतिनिधि के रूप में शासन करते थे इसीलिए वे स्वयं को ‘एकलिंगजी का दीवान’ मानते थे। मेवाड़ के महाराणा एकलिंगजी की पूजा-अर्चना करने के बाद ही युद्ध के लिए प्रस्थान करते थे। इसके अलावा किसी भी महत्वपूर्ण कार्य को पूरा करने के लिए वे एकलिंगजी को ही साक्षी मानकर प्रण लेते थे।
मुगल बादशाह अकबर की असंख्य सैन्य कार्रवाइयों के कारण महाराणा प्रताप को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और डटकर मुकाबला किया। महाराणा प्रताप ने बीकानेर के राजा पृथ्वीराज को कुछ इस तरह से पत्र लिखा था— “तुरुक कहासी मुखपतौ, इणतण सूं इकलिंग, ऊगै जांही ऊगसी प्राची बीच पतंग” अर्थात प्रताप के शरीर रहते एकलिंगजी की सौगंध है, बादशाह अकबर मेरे मुख से तुर्क ही कह लाएगा। आप निश्चित रहें, सूर्य पूर्व में ही उगेगा।’
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