
संगीत, नृत्य तथा अभिनय से युक्त नाटक एक ऐसी विधा है जो दर्शकों को न केवल श्रवण (सुनने) अपितु दृश्य के माध्यम से आनन्द की अनुभूति कराती है। नाटक का प्रमुख पात्र नायक ऐसा होता है जो अपने विचारों और भावों के जरिए समाज को उचित दिशा की तरफ ले जाने का काम करता है।
आज हम इस स्टोरी में भारत के ऐसे पांच शक्तिशाली राजाओं के बारे में बताने जा रहे हैं जो साम्राज्य निर्माता होने के साथ-साथ एक उच्च प्रतिभा के नाटककार भी थे। उनकी विद्वता एवं विद्या प्रेम की प्रशंसा अनेक विद्तजनों ने की है।
1. हर्षवर्धन (606-647 ई.)
हर्षवर्धन का साम्राज्य दक्षिण में नर्मदा तट तक फैला था तथा उत्तर में कश्मीर को छोड़कर शेष सभी प्रान्त उसके अधीन थे। हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपने विशाल साम्राज्य की राजधानी बनाई और ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की।
हर्षवर्धन सूर्य व शिव के साथ बुद्ध की भी उपासना करता था। हांलाकि बाद में वह महायान बौद्ध धर्म का संरक्षक बन गया। उसने कश्मीर के शासक से भगवान बुद्ध के दांत अवशेष बलपूर्वक प्राप्त किए। हर्ष के समय ही चीनी यात्री ह्वेनसांग 629 ई. से 645 ई. तक भारत में रहा। हर्षवर्धन एकमात्र ऐसा शासक हुआ जो प्रत्येक पांचवें वर्ष प्रयाग महोत्सव (कुम्भ मेला) में अपना सर्वस्व दान कर देता था।
हर्षवर्धन के व्यक्तित्व का दूसरा पक्ष यह भी है कि वह एक उच्चकोटि का कवि भी था। जयदेव ने उसे ‘कविता का कामिनी हर्ष’ कहा है जबकि सोड्ढल के शब्दों में वह ‘वाणी का हर्ष’ था। हर्षवर्धन को तीन प्रख्यात नाटकों का रचयिता माना जाता है : 1- रत्नावली 2-नागानन्द और 3-प्रियदर्शिका।
रत्नावली - इस नाटक में चार अंक है जिनमें सिंहल देश (श्रीलंका) के राजा की कन्या रत्नावली और कौशाम्बी के राजा उदयन के प्रेम तत्पश्चात विवाह की कथा का नाटकीय चित्रण प्रस्तुत किया गया है। हर्षवर्धन ने इस नाटक में रत्नावली तथा उदयन के चरित्र-चित्रण को बड़ी निपुणता से अभिव्यक्त किया है।
नागानन्द - पांच अंकों वाले इस नाटक का कथानक बौद्ध धर्म से लिया गया है। इसके पहले भाग में जीमूतवाहन तथा सिद्धकन्या मलयवन्ती की प्रेम कहानी है। जबकि दूसरे भाग में सर्पों की रक्षा के लिए जीमूतवाहन द्वारा स्वयं को गरूड़ के समक्ष अर्पित करने तथा गरूड़ द्वारा भविष्य में सर्प भक्षण नहीं करने की प्रतिज्ञा आदि की घटनाओं का वर्णन है। इस नाटक में हर्षवर्धन ने जीमूतवाहन को एक आदर्श चरित्र के रूप में प्रस्तुत किया है।
प्रियदर्शिका- हर्षवर्धन रचित प्रियदर्शिका नामक नाटक में कुल चार अंक हैं। इस नाटक में वत्सराज उदयन तथा महाराज दृढ़वर्मा की कन्या प्रियदर्शिका की प्रेमकथा का चित्रण मिलता है। हर्षवर्धन ने अपनी बेहतरीन कल्पनाओं से इस कथानक को अत्यन्त रमणीय बना दिया है।
2. महेन्द्र वर्मन प्रथम (600 से 630 ई.)
सिंहविष्णु का पुत्र राजा महेन्द्रवर्मन प्रथम पल्लव सम्राट था। महेन्द्र वर्मन प्रारम्भ में जैन धर्म का उपासक था परन्तु बाद में वह शैव धर्म का अनुयायी बन गया। राजा महेन्द्र वर्मन प्रथम ने अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए चोल तथा पांड्य राज्यों पर विजय प्राप्त की थी।
चालुक्य सम्राट पुलिंकेशन द्वितीय उसका प्रमुख प्रतिद्वंदी था। महेन्द्र वर्मन के शासनकाल में पल्लव साम्राज्य न केवल राजनीतिक दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं कलात्मक दृष्टि से भी अपने चरमोत्कर्ष पर था। कला तथा साहित्य को संरक्षण देने वाला राजा महेन्द्र वर्मन स्वयं भी एक उच्चकोटि का विद्वान था। ‘मत्तविलास प्रहसन’ नामक नाटक राजा महेन्द्रवर्मन प्रथम की एकमात्र रचना है।
मत्तविलास प्रहसन- राजा महेंद्रवर्मन प्रथम द्वारा रचित मत्तविलास प्रहसन नामक नाटक एक हास्य व्यंग्य है। इसमें कपालियों तथा भिक्षुओं पर व्यंग्य किया गया है। उसी के काल में बोधायन के द्वारा ‘भगवतज्जुकम’ नामक एक अन्य व्यंग्य प्रहसन की रचना की गई।
3. राजा विग्रहराज चतुर्थ (1153 से 1163 ई.)
विग्रहराज चतुर्थ का शासनकाल सपालदक्ष के चौहानों का स्वर्णकाल कहलाता है। 9 अप्रैल, 1163 ई. को उत्कीर्ण शिवालिक स्तम्भ लेख के मुताबिक, विग्रहराज चतुर्थ ने अपने साम्राज्य से मुसलमानों का सफाया कर दिया तथा अपने उत्तराधिकारियों को निर्देश दिया कि वे मुसलमानों को अटक नदी के उस पार तक सीमित रखें।
विग्रहराज चतुर्थ न केवल एक अच्छा विजेता था बल्कि साहित्य प्रेमी तथा विद्वानों का आश्रयदाता था, इसलिए वह ‘कवि बान्धव’ भी कहा जाता था। उत्तर-पश्चिमी भारत पर शासन करने वाले शक्तिशाली राजा विग्रहराज चतुर्थ ने संस्कृत में ‘हरकेलि’ नामक नाटक की रचना की।
हरकेलि- इस नाटक में महाभारतकाल में गाण्डीवधारी अर्जुन तथा भगवान शिव के मध्य हुए युद्ध का वर्णन किया गया है। ‘हरकेलि’ को ललिता विग्रहराज नाटक भी कहा जाता है। हरकेलि नाटक की कुछ पंक्तियां अजमेर स्थित ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ नामक मस्जिद के शिलास्तम्भों पर उत्कीर्ण हैं।
यह इमारत प्रारम्भ में एक संस्कृत महाविद्यालय था जिसे राजा विग्रहराज चतुर्थ ने ही बनवाया था, परन्तु कुतुबुद्दीन ऐबक ने इसे मस्जिद में परिवर्तित कर दिया। इसके अतिरिक्त हरकेलि की कुछ पंक्तियां ब्रिस्टल (इंग्लैण्ड) स्थित राजाराम मोहनराय के स्मारक पर उत्कीर्ण हैं।
4. महाराणा कुम्भा- (1433 से 1468 ई.)
मेवाड़ के महान शासक महाराणा कुम्भा जैसी मेधा भारतीय इतिहास में दुर्लभ है। राजगुरु, चापगुरु, दानगुरु, शैलगुरु तथा परमगुरु होना केवल महाराणा कुम्भा के लिए ही सम्भव था। महाराणा कुम्भा ने अपने शौर्य के दम पर न केवल मेवाड़ की सीमाओं का अभूतपूर्व विस्तार किया बल्कि 32 दुर्गों का निर्माण भी करवाया।
महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित ‘कीर्ति स्तम्भ’ (विजय स्तम्भ) की तुलना तो फग्युर्सन ने ‘रोम के टार्जन’ से की है। वहीं ब्रिटिश इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कीर्ति स्तम्भ को कुतुबमीनार से भी बेहतरीन इमारत बताया है। यहां तक कि राजस्थान पुलिस का प्रतीक चिह्न भी कीर्ति स्तम्भ ही है।
इसके अतिरिक्त महाराणा कुम्भा अद्भुत प्रतिभा का धनी था। ‘एकलिंग महात्म्य’ में कुम्भा को वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति एवं साहित्य में निपुण बताया गया है। वीणा बजाने में माहिर महाराणा कुम्भा संगीतराज, रसिकप्रिया, सुड़ प्रबन्ध, कामराज रतिसार, संगीत मीमांसा, संगीत रत्नाकर, हरिवर्तिका, चंडीशतक टीका, वाद्य प्रबन्ध तथा संगीत क्रम दीपिका जैसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों का लेखक था।
इतना ही नहीं, महाराणा कुम्भा एक बेहतरीन नाटककार भी था। चित्तौड़ कीर्ति स्तम्भ प्रशस्ति से पता चलता है कि वह नाटक, प्रकरण, अंक, वीथिका, नाटिका, समवकार और भाड़ और प्रहसन जैसे आठों प्रकार के नाट्य रूपों का प्रणेता था, इसलिए उसे ‘अभिनवभरताचार्य’ भी कहा गया। महाराणा कुम्भा द्वारा रचित नाटकों में संस्कृत के अतिरिक्त मराठी, कर्नाटी एवं मेवाड़ी भाषाओं का प्रयोग मिलता है।
5. रीवां नरेश विश्वनाथ सिंह (1867–1932 ई.)
रीवां नरेश विश्वनाथ सिंह को ब्रिटिश सरकार की तरफ से महाराजा की व्यक्तिगत उपाधि मिली थी। 1857 की महाक्रांति के दौरान अंग्रेजी सरकार के वफादार विश्वनाथ सिंह को साल 1928 में ‘नाइट कमांडर ऑफ़ द ऑर्डर ऑफ़ द स्टार ऑफ़ इंडिया’ के रूप में ‘नाइट’ की उपाधि से भी नवाजा गया।
बता दें कि महाराजा विश्वनाथ सिंह काव्य रचना में प्रवीण थे। इसी के साथ वह कवियों एवं विद्वानों के आश्रयदाता भी थे। अपने 65 वर्षों के शासनकाल में उन्होंने तकरीबन 32 ग्रन्थों की रचना की। ब्रजभाषा में रचित 'आनंद रघुनंदन नाटक' महाराजा विश्वनाथ सिंह की प्रख्यात कृति है।
आनंद रघुनंदन- महाराजा विश्वनाथ सिंह की कृति 'आनंद रघुनंदन' ब्रजभाषा में रचित पहला नाटक है। 'आनंद रघुनंदन' को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने हिन्दी का प्रथम नाटक स्वीकार किया है। हांलाकि इस नाटक में पद्यों की प्रचुरता है लेकिन संवाद गद्य में हैं। बतौर हिन्दी के प्रथम नाटककार के रूप में महाराजा विश्वनाथ सिंह सर्वदा अमर रहेंगे।
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