
भारत की सबसे बड़ी रियासत हैदराबाद (इंग्लैंड और स्कॉटलैंड के कुल इलाक़े से भी ज़्यादा) की एक विशेष स्थिति यह थी कि राज्य की 90 फीसदी जनता हिन्दू थी जबकि इसका शासक मुसलमान था। जी हां, साल 1911 में उस्मान अली खां हैदराबाद रियासत का निजाम बना और साल 1948 तक सत्ता पर काबिज रहा।
प्रारम्भ में पाकिस्तान ने हैदराबाद रियासत को इस भ्रम में रखा कि वह मुसीबत के समय उसका साथ देगा लिहाजा निजाम ने 3 जून, 1947 को एक फरमान जारी कर भारत की आजादी के बाद स्वतंत्र हैदराबाद राज्य की मंशा स्पष्ट कर दी। इतना ही नहीं, निजाम उस्मान अली ने 12 जून को वायसराय लार्ड माउन्टबेटेन को एक तार भेजकर यह घोषणा कर दी कि हैदराबाद रियासत किसी भी हालत में स्वाधीन भारत का हिस्सा नहीं बनेगी।
हांलाकि 29 नवम्बर 1947 को निजाम ने भारत सरकार के साथ एक अस्थाई समझौते पर हस्ताक्षर किए थे जिसके मुताबिक, रियासत में 15 अगस्त 1947 से पहले की स्थिति कायम रहे परन्तु निजाम ने समझौते का तनिक भी पालन नहीं किया।
पाकिस्तान की मदद से और निजाम के आशीर्वाद से राज्य के मुस्लिम रजाकारों ने रियासत की हिन्दू जनता पर निर्मम अत्याचार शुरू कर दिए, यहां तक कि लूटमार, मारकाट और हत्याओं के जरिए क्षेत्र में भयावह स्थिति उत्पन्न कर दी। बतौर उदाहरण- रजाकारों के नेता कासिम रजवी ने कहा था कि “वह एक दिन सम्पूर्ण भारत की विजय करके दिल्ली के लाल किले पर निजाम का आसफजाही झण्डा फहराएगा।”
ऐसे में सितम्बर 1948 तक यह साफ हो गया कि हैदराबाद निजाम को भारत में विलय के लिए समझा-बुझाकर राजी नहीं किया जा सकता अत: भारत सरकार ने हैदराबाद रियासत में सैन्य कार्रवाई करने का निर्णय लिया। भारत सरकार ने इस गुप्त सैन्य कार्रवाई का नाम ‘आपरेशन पोलो’ रखा था।
चूंकि हैदराबाद निजाम की सेना और इंडियन आर्मी में युद्ध होना सुनिश्चित था ऐसे में इस युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने निजाम की कई तरीके से मदद की। इस स्टोरी में हम आपको ‘आपरेशन पोलो’ के दौरान पाकिस्तान की उस बौखलहाट की भी चर्चा करेंगे जिसमें उसने भारत पर बमबारी करने का निर्णय ले लिया था।
निजाम ने पाकिस्तान से मंगवाए हथियार
हैदराबाद निजाम ने साल 1948 में अपनी सेना में एक आस्ट्रेलियाई पायलट सिडनी कॉटन की नियुक्ति की। सिडनी कॉटन ने हैदराबाद रियासत की सेना को मशीन गन, ग्रेनेड्स, मोर्टार और विमानभेदी तोपों की सप्लाई करने का भरोसा दिया। लिहाजा कॉटन ने पाँच पुराने लेंकास्टर बमवर्षक विमान खरीदे। सिडनी कॉटन रात के वक्त इन लेंकास्टर विमानों को कराची से उड़ाकर गोवा की वायुसीमा के जरिए बीदर, वारंगल और आदिलाबाद में लैंड कराता था।
इन विमानपट्टियों पर तैनात लोग रनवे पर किरोसीन तेल से मशाल जलाते थे ताकि विमान अन्धेरे में उतर सकें। हांलाकि भारत सरकार को इस बात की जानकारी थी लेकिन उस समय देश के पास ऐसे विमान नहीं थे जो लेंकास्टर विमानों का सामना कर सकें।
ऑस्ट्रेलियाई कंपनी द्वारा हथियार की सप्लाई
हैदराबाद निजाम के सेनाध्यक्ष जनरल एल. एद्रूस अपनी किताब में लिखता है कि “वह हथियारों की तलाश में यूरोप तक गया लेकिन किसी ने उसे हथियार नहीं बेचा क्योंकि हैदराबाद एक स्वतंत्र देश नहीं था।” हांलाकि निजाम का एजेंट ऑस्ट्रेलिया के एक तस्कर से हथियार खरीदने में सफल रहा। ऑस्ट्रेलिया की एक कंपनी उन्हें हथियार सप्लाई रही थी।
इंडियन आर्मी का ‘ऑपरेशन पोलो’
भारत सरकार के गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने भारत के विलय पत्र पर दस्तखत करने के लिए निजाम उस्मान अली खां को 10 सितम्बर 1948 को एक अंतिम पत्र लिखा ताकि सैन्य कार्रवाई की जरूरत ना पड़े लेकिन निजाम अपनी जिद पर अड़ा रहा।
आखिरकार सरदार पटेल ने हैदराबाद रियासत में सैनिक कार्रवाई करने का निर्णय लिया, उन्होंने भारतीय सेना के जनरल के.एम. करियप्पा से पूछा कि हैदराबाद में कार्रवाई के दौरान यदि पाकिस्तान ने सैन्य हस्तेक्षप किया तो क्या इंडियन आर्मी बिना किसी अतिरिक्त मदद के उससे निपट लेगी? ऐसे में जनरल करियप्पा के हामी भरते ही 13 सितम्बर 1948 को इंडियन आर्मी के 36 हजार जवान हैदराबाद में घुस पड़े।
निजाम की सेना के 25 हजार सैनिक (6,000 युद्ध में प्रशिक्षित नियमित सैनिक) इंडियन आर्मी के सामने बेबस नजर आए क्योंकि उनके नक्शे पुराने हो चुके थे तथा पाकिस्तान से मिले हथियार सैनिकों तक नहीं पहुंच पाए थे। युद्ध के दौरान रियासत के रजाकारों ने भारतीय टैंकों पर पत्थरों तथा बरछों से हमला किया था। दरअसल निजाम की सेना में रजाकारों की संख्या सर्वाधिक थी लेकिन वे बदमाश थे जो प्रशिक्षित भारतीय सेना के समक्ष ‘मिट्टी की गुड़िया’ की तरह ढह जाते थे।
पांच दिन की सैन्य कार्रवाई के बाद 18 सितम्बर 1948 को साढ़े चार बजे दिन में हैदराबाद रियासत की फौज के कमाण्डर मेजर जनरल एल. एद्रूस ने भारतीय सेना के कमाण्डर मेजर जनरल जे.एन. चौधरी के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। इस युद्ध के दौरान निजाम की सेना के 807 सैनिक, 2,727 रजाकार मारे गए और 3,364 पकड़े गए। भारतीय सेना के 42 जवानों की मौत हुई थी जबकि 97 घायल हुए और 24 लापता हो गए। इंडियन आर्मी ने तकरीबन 109 घंटे तक चले इस सैन्य कार्रवाई का नाम ‘आपरेशन पोलो’ रखा था।
सिडनी कॉटन की जीवनी लिखने वाले ओमर ख़ालिदी अपनी किताब 'मेमॉएर्स ऑफ़ सिडनी कॉटन' में लिखते हैं कि “निज़ाम मिस्र भागने की योजना बना रहे थे परन्तु हवाई अड्डा पहुंचने से पहले ही भारतीय सैनिकों ने उनके महल पर कब्जा कर लिया।
निज़ाम उस्मान अली खां अपने परिवार सहित महल में सुरक्षित थे। हांलाकि निजाम के प्रधानमंत्री लईक अहमद बुरका पहनकर भाग निकले और बम्बई से करांची के लिए फ्लाइट पकड़ने में सफल रहे। वहीं रजाकारों के नेता कासिम रजवी को गिरफ्तार कर लिया गया।
आखिरकार निज़ाम उस्मान अली खां ने एक फ़रमान जारी कर कहा कि “अब से भारत का संविधान हैदराबाद का भी संविधान होगा।” इस प्रकार हैदराबाद रियासत का भारत में विलय हो गया। रियासत की जनता ने भारतीय सेना का जबरदस्त स्वागत किया, उसे निजाम और रजाकारों के अत्याचार से मुक्ति मिली थी। हर तरफ खुशी का माहौल था, तिरंगा झण्डा फहरा रहा था।
आपरेशन पोलो के दौरान बौखला उठा था पाकिस्तान
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में 31 मई 2010 को इंदर मल्होत्रा के छपे एक लेख के मुताबिक, “भारतीय सेना जब हैदराबाद में घुसी तब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली खान ने इमरजेन्सी में डिफेन्स काउंसिल की एक मींटिग बुलाई। इस बैठक में अपने सैन्य अधिकारियों से उन्होंने पूछा कि क्या हम हैदराबाद में आसमान से कोई सैन्य कार्रवाई कर सकते हैं?”
तब पाकिस्तानी सेना के ग्रुप कैप्टन एल्वर्थी ने नहीं में जवाब दिया। बावजूद इसके लियाकत अली खान ने कहा कि कम से कम दिल्ली पर तो बम गिरा ही सकते हैं। तब एल्वर्थी ने कहा कि हां, यह सम्भव है। हमारे पर चार बर्मवर्षक विमान हैं, जिनमें केवल दो आपरेशनल हैं। इनमें से एक दिल्ली पर बम गिरा सकता है लेकिन लौटना मुश्किल है।
‘ऑपरेशन पोलो’ की सार्थकता
हैदराबाद निजाम के प्रतिनिधि जहीर अहमद ने सुरक्षा परिषद में इस मामले को लेकर गुहार लगाई थी। चूंकि सुरक्षा परिषद कोई प्रतिक्रिया न दे, इसलिए भारत सरकार ने ऐलान किया कि यह सैन्य कार्रवाई नहीं बल्कि एक पुलिस कार्रवाई थी जिसका उद्देश्य रियासत के अन्दर शांति और स्थिरता स्थापित करना था। उन दिनों हैदराबाद में सर्वाधिक 17 पोलो के मैदान थे, इसलिए इस सैन्य कार्रवाई का नाम ‘आपरेशन पोलो’ रखा गया था।
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