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The glorious story of Panna Dhay and Gauradhy, the Dynasty protectors of Mewar and Marwar

मेवाड़ तथा मारवाड़ की कुलरक्षक पन्नाधाय व गौराधाय की गौरव गाथा

राजपूताना इतिहास में पन्नाधाय ने अपने इकलौते पुत्र चन्दन का बलिदान कर मेवाड़ के कुलदीपक राणा उदयसिंह की रक्षा की थी, वहीं गौराधाय ने अपने चार माह के मासूम पुत्र का बलिदान कर मारवाड़ के राजकुमार अजीत सिंह के प्राणों की थी।

मेवाड़ तथा मारवाड़ राजवंश की रक्षा करने वाली पन्नाधाय और गौराधाय के महान त्याग और असीम शौर्य को न केवल राजपूताना अपितु समस्त देशवासी आज भी बड़ी श्रद्धा के साथ याद करते हैं। अब आपके मन में भी पन्नाधाय और गौराधाय के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ गई होगी। अत: इस स्टोरी में हम आपको पन्नाधाय और गौराधाय की अमर गाथा ​बताने का प्रयास करेंगे।

कौन थी पन्नाधाय

बूंदी के हाड़ा राजा नरबद की पुत्री कर्मावती मेवाड़ के महाराणा सांगा की सबसे प्रिय रानी थी। महाराणा सांगा ने अपने जीवनकाल में ही रानी कर्मावती तथा उसके दो पुत्रों विक्रमादित्य व उदय सिंह को रणथम्भौर की जागीर तथा दुर्ग प्रदान कर दिया था।

महाराणा सांगा की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र रतनसिंह द्वितीय मेवाड़ की गद्दी पर बैठा परन्तु 3 वर्ष शासन करने के पश्चात साल 1531 में उसकी भी नि:सन्तान मृत्यु हो गई। तत्पश्चात रानी कर्मावती का पुत्र विक्रमादित्य मेवाड़ का राजा बना। चूंकि विक्रमादित्य में कोई राजोचित गुण नहीं था अत:  1535 ई. में गुजरात के शासक बहादुर शाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। बहादुरशाह के चित्तौड़ दुर्ग पर कब्जा करने से पूर्व ही विक्रमादित्य की पत्नी जवाहर बाई तथा राजमाता कर्मावती के साथ अन्य राजपूत महिलाओं ने जौहर किया था।

जौहर से पूर्व राजमाता कर्मावती ने बालक उदयसिंह के पालन-पोषण की जिम्मेदारी पन्ना को सौंप दिया था। चित्तौड़ किले में वह पन्ना खींचन के नाम से मशहूर थीं, ​जाहिर है पन्नाधाय खींची (चौहान) वंश से ताल्लुक रखने वाली एक राजपूत महिला थी।

जबकि ज्यादातर इतिहासकारों के अनुसार, पन्नाधाय का जन्म चित्तौड़ के समीप माताजी की पंडोली गांव में हुआ था। पन्ना धाय के पिता का नाम हरचंद हांकला तथा पति का नाम सूरजमल चौहान था। राजस्थान सरकार द्वारा पन्नाधाय के अविस्मरणीय बलिदान, त्याग, साहस, स्वाभिमान एवं स्वामिभक्ति की गौरव गाथा चित्रित करने के लिए माताजी की पण्डोली में पन्नाधाय पैनोरमा का निर्माण करवाया जा रहा है।

उदयसिंह की प्राण रक्षक पन्नाधाय का त्याग

पृथ्वीराज सिसोदिया की दासी पुतल दे के पुत्र बनवीर ने 1536 ई. में महाराणा विक्रमादित्य की हत्या कर दी और मेवाड़ का शासक बन बैठा। महाराणा सांगा का पांचवा पुत्र था राणा उदय सिंह। बनवीर ने विक्रमादित्य की हत्या करने के पश्चात अपने सिंहासन को निष्कंटक करने के उद्देश्य से राणा उदय सिंह को मारने के लिए सीधे राजमहल पहुंचा।

उदयसिंह की धाय मां पन्ना चित्तौड़ के कुम्भा महल में रहती थी, उसे इस बात की भनक पहले ही लग चुकी थी कि बालक उदय सिंह की हत्या करने के लिए बनवीर राजमहल की तरफ आ रहा है। ऐसे में पन्नाधाय ने नाई (राजस्थानी भाषा में बारी) को बुलाकर फलों की एक बड़ी टोकरी में उदयसिंह को लेटा दिया और ऊपर से जूठे पत्तलों से ढक दिया तथा तत्काल राजमहल से बाहर निकलने को कहा।

पन्नाधाय ने बड़ी सजगता से उदयसिंह की जगह अपने इकलौते पुत्र चन्दन को सुला दिया। बनवीर जैसे ही महल पहुंचा, पन्नाधाय ने कांपते हुए अपने पुत्र की तरफ इशारा किया। बनवीर ने सोते हुए चन्दन को राजकुमार उदय सिंह समझकर उसकी हत्या कर दी और वापस लौट गया।

पन्नाधाय ने अकेले ही अपने पुत्र का दाहसंस्कार किया और दुर्ग से निकलकर बेड़च नदी के पास जाकर उस नाई से मिली। बालक उदय सिंह को लेकर पन्नाधाय देवगढ़, प्रतापगढ़, डूंगरपुर आदि कई स्थानों पर गई लेकिन किसी ने उसे संरक्षण नहीं दिया। अन्त में वह जंगलों के रास्ते कुम्भलगढ़ दुर्ग पहुंची, जहां उसने किलेदार आशाशाह देपपुरा को सारा वृत्तान्त सुनाकर राजकुमार उदयसिंह को आश्रय देने की गुहार लगाई।

कुम्भलगढ़ दुर्ग के किलेदार आशाशाह ने राजकुमार उदयसिंह को अपने भतीजे के रूप में आश्रय प्रदान किया। परन्तु जैसे-जैसे उदयसिंह बड़ा हो रहा था, उसके कार्यकलापों को देखकर आसपास के राजाओं को शक होने लगा कि यह बालक आशाशाह का भतीजा नहीं हो सकता। इसके बाद साल 1537 में किलेदार आशाशाह ने एक बड़े दरबार का आयोजन किया और इस अवसर पर पन्नाधाय तथा उस नाई को बुलाकर राजाओं के समक्ष उनके सन्देह को दूर किया।

राणा उदयसिंह का राज्याभिषेक और बनवीर की हत्या

सिसोदिया सरदार राजकुमार उदयसिंह को मेवाड़ का शासक मानने को तैयार नहीं थे। अत: सिरोही के सोनगरा सरदार अखैराज सोनगरा ने उदयसिंह के साथ बैठकर एक ही थाली में भोजन किया तथा अपनी पुत्री जैवंताबाई की शादी उदयसिंह के साथ की। इसके बाद मेवाड़ी सरदारों का सन्देह दूर हुआ। तत्पश्चात 15 वर्ष की उम्र में राणा उदय सिंह का राज्याभिषेक किया गया।

राणा उदय सिंह ने 1540 ई. में मालदेव राठौड़ तथा मेवाड़ी सरदारों के साथ चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। उदयसिंह ने मावली नामक स्थान पर हुए युद्ध में बनवीर को पराजित कर उसकी हत्या कर दी। इस प्रकार राणा उदय सिंह ने अपने पैतृक राज्य पर अधिकार कर लिया। 

कौन थी गौराधाय

गौराधाय के पिता का नाम रतना टाक तथा माता का नाम रुपा देवडा था। गौरा धाय का जन्म 4 जून 1646 ई. को मंडोर (जोधपुर) में हुआ था। मारवाड़ राज्य के उच्च राजकीय अधिकारी मनोहर गहलोत की पत्नी गौराधाय (बघेली रानी) ने साल 1679 में अपने चार माह के बेटे की बलि देकर मारवाड़ (जोधपुर) के राजकुमार अजीतसिंह को मुगल बादशाह औरंगजेब द्वारा रचे गए मौत के चक्रव्यूह से बाहर निकाला था।

कुलमिलाकर यदि गौराधाय नहीं होती तो मारवाड़ का राजवंश 1679 ई. में ही खत्म हो जाता। यही वजह है कि राजपूताना इतिहास में गौराधाय को मारवाड़ की पन्नाधाय कहते हैं। गौराधाय अपने पति की मृत्यु के बाद साल 1704 में सती हो गई।

मारवाड़ में आज भी होली के दिनों में चंग की थापों पर यह पंक्तियां गाई जाती हैं, जो गौराधाय के असीम त्याग और शौर्य से परिचित कराती हैं- “मारवाड़ री छाती माथै, संकट रो बादल छायौ रे। गोरा धीवड टाका री, आ देस बचायो रै।।

औरंगजेब द्वारा मारवाड़ को खालसा घोषित करना

मुगल बादशाह औरंगजेब ने मारवाड़ के शासक जसवंत सिंह को सिन्ध प्रान्त में पिण्डारियों का दमन करने के लिए भेजा। इस दौरान 28 नवम्बर 1678 ई. को जमरूद (अफगानिस्तान) में उसकी मृत्यु हो गई। जसवंत सिंह के मौत की सूचना मिलते ही औरंगजेब ने कहा-“आज मेरा धर्म विरोधी मारा गया।

चूंकि जसवंत सिंह की मौत के समय उनका कोई भी उत्तराधिकारी नहीं था, इसलिए औरंगजेब ने मारवाड़ राज्य को खालसा घोषित कर अमर सिंह राठौड़ के पोते इन्द्रसिंह को मारवाड़ सौंपने के लिए दिल्ली बुलाया। इसी दौरान राठौड़ी सरदारों ने जसवंत सिंह की दोनों गर्भवती रानियों को लेकर जमरूद से लाहौर की तरफ प्रस्थान किया। लाहौर पहुंचते ही कुछ घड़ी के अन्तराल पर जसवंत सिंह की रानियों से अजीत सिंह तथा दल थम्भन का जन्म हुआ। हांलाकि दलथम्भन की रास्ते में ही मौत हो गई।

मुगल बादशाह औरंगजेब ने उपरोक्त सूचना के बावजूद इन्द्र​सिंह को 36 लाख रुपए के बदले में मारवाड़ राज्य सौंप दिया। इसी के साथ मारवाड़ राजदरबार में मुगल अधिकारियों की भी नियुक्ति कर दी ताकि इन्द्र सिंह को शासन करने में किसी तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़े।

अजीत सिंह की प्राण रक्षक गौराधाय का त्याग

मुगल बादशाह औरंगजेब ने जसवन्त सिंह की रानियों को मनसब देने के बहाने दिल्ली बुलवा लिया और नूरगढ़ के किले में नजरबन्द करवा दिया। राठौड़ी सरदारों को जैसे ही इस बात की भनक मिली, उन्होंने रानियों समेत नवजात अजीत सिंह को जोधपुर भेजने के लिए औरंगजेब पर दबाव डाला। दरअसल अजीत सिंह की हत्या करवाने की मन्शा रखने वाला औरंगजेब यह कहकर टालता रहा कि जब अजीत सिंह बड़ा हो जाएगा उसे राजा का पद और मनसब दोनों प्रदान किया जाएगा।

फिर क्या था, वीर शिरोमणि दुर्गादास राठौड़ के नेतृत्व में राठौड़ी सरदारों ने अजीतसिंह को किसी भी तरीके से औरंगजेब के चक्रव्यूह से बाहर निकालने का निर्णय लिया। प्रख्यात इतिहासकार सूर्यमल्ल मिश्रण अपने ग्रन्थ वंश भास्कर में लिखते हैं कि दुर्गादास राठौड़ ने मुकुन्द दास खींची को सपेरे के वेष में अजीत सिंह के महल में भेजा जहां मेहतरानी के वेश में गौराधाय पहले से ही उपस्थित थी। गौराधाय ने अपने चार माह के बेटे को अजीत सिंह के स्थान पर सुलाकर कालबेलिया बने मुकुन्ददास खींची को सौंप दिया।

गौराधाय के इसी बलिदान के कारण उसका नाम मारवाड़ के राष्ट्रगीत धूंसा में शामिल किया गया। बता दें कि मारवाड़ की गद्दी पर बैठने वाले प्रत्येक राजा के राज्याभिषेक पर धूंसा गाया जाता था।

राजकुमार अजीत सिंह की सुरक्षा

अजीत सिंह को कुछ समय के लिए बुलन्दे नामक स्थान पर रखा गया, तत्पश्चात उसे सिरोही ले जाया गया। सिरोही में कालिन्दी के पुरोहित जयदेव की पत्नी ने अजीत सिंह की देखभाल की। मुकुन्ददास खींची, वहीं आसपास रहकर बालक अजीत सिंह की सुरक्षा करता रहा।

जब मुगलों ने कालिन्दी को हर तरफ से घेर लिया तब दुर्गादास राठौड़ ने अजीतसिंह को मेवाड़ के महाराणा राजसिंह के संरक्षण में छोड़ आया। महाराणा राजसिंह ने अजीत सिंह को 12 गांव सहित केलवा का पट्टा देकर वहां का जागीरदार नियुक्त कर दिया। इसके बाद मेवाड़ और मारवाड़ के सम्बन्ध अच्छे बन गए। कालान्तर में वीरशिरोमणि दुर्गादास राठौड़ और अन्य मारवाड़ी सरदारों ने जोधपुर पर अधिकार कर लिया तथा अजीत सिंह को मारवाड़ की गद्दी पर बैठाया।

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