भारत का इतिहास

Socio-religious reform movement: Swami Dayanand Saraswati and Arya Samaj

सामाजिक-धार्मिक सुधार आन्दोलन : स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं आर्य समाज

बंगाल में जिस प्रकार से सामाजिक एवं धार्मिक सुधार का कार्य ब्रह्म समाज ने किया, ठीक उसी प्रकार से महाराष्ट्र में आर्य समाज द्वारा किया गया। आर्य समाज आन्दोलन का प्रसार मुख्यतया प्राश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने मूल विचारों को मूर्त रूप देने के लिए 1875 ई. में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की तथा 1877 ई. में आर्य समाज का मुख्यालय लाहौर को बनाया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी में सत्यार्थ प्रकाश की रचना की।

आर्य समाज की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य

वैदिक धर्म की शुद्ध रूप से पुन: स्थापना करना।

भारत को सामाजिक-धार्मिक एवं राजनीतिक रूप में एक सूत्र में बांधना।

भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर पड़ने वाले पाश्चात्य प्रभाव को रोकना।

आर्य समाज के सिद्धान्त

सभी सत्य विद्या तथा जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका मूल परमेश्वर है।

ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, निर्विकार, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वअन्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र तथा सृष्टिकर्ता है। अत: उसी की उपासना करनी चाहिए। 

वेद सभी सत्य विद्याओं की पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सभी आर्यों का परमधर्म है।

सत्य को ग्रहण करने तथा असत्य को त्यागने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।

सभी काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य का विचार करके करने चाहिए।

सबसे प्रीतिपूर्वक अर्थात यथायोग्य व्यवहार करना चाहिए।

अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।

प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही उन्नति में संतुष्ट रहना चाहिए।

सभी मनुष्यों को प्र्त्येक हितकारी नियम पालने में स्वतंत्र होना चाहिए।

संसार का उपकार करना आर्य समाज का मुख्य उद्देश्य है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती (मूलशंकर) का जन्म 12 फरवरी, 1824 ई. में काठियावाड़ की मोरबी रियासत के टंकारा नामक स्थान पर एक समृद्ध ब्राह्मण परिवार में हुआ। स्वामी दयानन्द सरस्वती के पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और मां का नाम यशोदाबाई था। स्वामी दयानन्द के पिता स्वयं वेदों के विद्वान थे, ऐसे में उन्होंने अपने पुत्र को वैदिक वांगमय, न्याय-दर्शन इत्यादि पढ़ाया। तत्पश्चात दयानन्द की जिज्ञासा ने उन्हें योगाभ्यास करने पर बाध्य किया।

स्वामी दयानन्द सरस्वती 8 वर्ष की उम्र से ही मूर्तिपूजा पर प्रश्न तथा जीवन-मृत्यु जैसे गूढ़ विषयों पर चिन्तन करने लगे थे।16 वर्ष की उम्र में बहन की मृत्यु के पश्चात मूलशंकर में अचानक वैराग्य ने जन्म लिया। इसके बाद 21 वर्ष की उम्र में मूलशंकर ने गृहत्याग कर घुमक्कड़ी जीवन स्वीकार किया।

24 वर्ष की उम्र में मूलशंकर यानि दयानन्द सरस्वती ने दण्डी स्वामी पूर्णानन्द से संन्यास की दीक्षा ली। स्वामी पूर्णांनन्द ने मूलशंकर का नाम स्वामी दयानन्द सरस्वती रखा। इसके बाद 1860 ई. में दयानन्द सरस्वती ने मथुरा के स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया और वेदों का ज्ञान प्राप्त किया। स्वामी विरजानन्द ने दयानन्द से गुरु दक्षिणा स्वरूप हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों तथा बुराईयों को समाज से मुक्त करने का वचन मांगा। दयानन्द सरस्वती ने झूठे धर्मों का खण्डन करने के लिए 1863 ई. में हरिद्वार कुम्भ में पाखंड-खण्डिनी पताका लहराई और आगरा से अपने उपदेशों का प्रचार-प्रसार शुरू किया।

स्वामी दयानन्द हिन्दू धर्म में मू​र्ति पूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद, पशुबलि, श्राद्ध, जंत्र, मंत्र, तंत्र तथा झूठे कर्मकाण्ड को स्वीकार नहीं करते थे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते हुए पुन: वेदों की ओर लौटो” (Back to the Vedas)  का नारा दिया। उनके कहने का तात्पर्य था पुन: वेदों की ओर चलो न कि वैदिक काल की ओर उन्होंने वेदों को शाश्वत, अपरिवर्तनीय, धर्मातीत तथा दैवीय माना। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने उत्तर वैदिक काल से लेकर आज तक सभी अन्य मत-मतान्तरों को पाखण्ड अथवा झूठे धर्म की संज्ञा दी।

1873 ई. में स्वामी दयानन्द सरस्वती कलकत्ता गए जहां उन्होंने बंगाल के कुछ प्रमुख समाज सुधारकों जैसे- केशवचन्द्र सेन, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर आदि से भेंट की। केशवचन्द्र सेन की सलाह पर ही उन्होंने अपने विचारों को संस्कृत की जगह उत्तर भारत की लोकप्रिय भाषा हिन्दी में व्यक्त करने का निर्णय लिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 1875 ई. में बम्बई में आर्य समाज की स्थापना की तथा अपने मूल विचारों को व्यक्त करने के लिए हिन्दी में सत्यार्थ प्रकाश की रचना की।

आर्य समाज ने शुद्धि आन्दोलन चलाया, जिसके अन्तर्गत उन लोगों को पुन: हिन्दू धर्म में आने का मौका मिला, जिन्होंने किसी कारणवश इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया था। स्वामी दयानन्द ने शूद्र तथा स्त्री को वेद पढ़ने तथा यज्ञोपवीत धारण करने के लिए आन्दोलन चलाया, ऐसा करने वाले वे प्रथम समाज सुधारक थे।

स्वामी दयानन्द ने स्त्री शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह व अन्तर्जातीय विवाह का समर्थन किया जबकि छूआछूत, जातिभेद, बालविवाह तथा पर्दा प्रथा का विरोध किया। स्वामी दयानन्द ने चार स्व की अवधारणा प्रस्तुत की, 1- स्वराज 2- स्वधर्म 3 - स्वदेशी 4 - स्वभाषा। स्वामी दयानन्द पहले व्यक्ति थे जिन्होंने स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर बल दिया।

सत्यार्थ प्रकाश के 1883 के प्रामाणिक संस्करण में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने लिखा, “कोई कितना भी कहे, परन्तु स्वदेशी राज्य सर्वोपरि होता है। उन्होंने कहा कि विदेशी राज्य चाहे कितना भी अच्छा हो लेकिन यह सुखदायक नहीं हो सकता।बाल गंगाधर तिलक के अनुसार, “स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वराज्य के सर्वप्रथम सन्देशवाहक थे। स्वराज्य शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भी स्वामी दयानन्द ने ही किया।

महात्मा हंसराज, पंडित गुरूदत्त, लाला लाजपत राय और स्वामी श्रद्धानन्द आर्य समाज के विशिष्ट कार्यकर्ता थे। जबकि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विशेष भक्त तथा अनुयायियों में राजपूताना की देशी रियासतों में शाहपुरा के राय नाहर सिंह, उदयपुर के महाराणा सज्जन सिंह तथा जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह का नाम सम्मान के साथ लिया जाता है।

स्वामी दयानन्द सरस्वती ने गौ रक्षा आन्दोलन चलाया। परिणामस्वरूप आर्य समाज ने 1882 ई. में गायों की रक्षा हेतु गौ रक्षिणी सभा की स्थापना की। दयानन्द सरस्वती को उत्तरी भारत का लूथर कहा जाता है। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा स्थापित आर्य समाज के संदेश का प्रचार-प्रसार पंजाब, गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार में विशेष रूप से हुआ।

दयानन्द सरस्वती की मृत्यु जोधपुर रियासत की एक चर्चित वेश्या नन्हीबाई द्वारा दिए गए जहर के कारण वर्ष 1883 में दीपावली के दिन 30 अक्टूबर को अजमेर में हुई।

स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत प्रमुख पुस्तकें

  1. सत्यार्थ प्रकाश (1874, हिन्दी में) 2. पाखण्ड खण्डन (1866)  3. वेदभाष्य भूमिका (1876)  4. ऋग्वेद भाष्य (1877)  5. अद्वैत मत का खण्डन (1873) 6. पंच महायज्ञ विधि (1875) 7. वल्लभाचार्य मत खण्डन (1875)

पाश्चात्य शिक्षा के समर्थन तथा विरोध को लेकर आर्य समाज साल 1892-93 ई. में दो गुटों में विभाजित हो गया। पाश्चात्य शिक्षा के समर्थकों में आर्य समाज के कार्यकर्ता लाला लाजपत राय तथा हंसराज ने 1886 ई. में लाहौर में दयानन्द सरस्वती एंग्लो वैदिक स्कूल की स्थापना की जो 1889 में डी.ए.वी. कॉलेज में परिवर्तित हो गया। जबकि पाश्चात्य शिक्षा के विरोधियों में स्वामी श्रद्धानन्द (लाला मुंशीराम) तथा लेखराम ने 1902 ई. में हरिद्वार के पास गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय की स्थापना की।  स्वामी दयानन्द सरस्वती की मौत के बाद 1886 ई. में शुरू की गई दयानन्द एंग्लो वैदिक संस्थाएं शीघ्र ही देश के कोने-कोने में फैल गईं। साल 1922 ई. में भाई परमानन्द ने जाति-पांति तोड़क मण्डल की स्थापना की।

वैलेंटाइन चिरोल ने अपनी चर्चित किताब इंडियन अनरेस्ट में स्वामी दयानन्द सरस्वती को भारतीय अशांति का जनक कहा है। चिरोल के इस आक्षेप का जवाब लाला लाजपत राय ने अपनी किताब हिस्ट्री आफ द आर्य समाज में दिया है। श्रीमति एनी बेसेन्ट ने लिखा कि स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रथम भारतीय थे जिन्होंने कहा कि भारत भारतवासियों के लिए है।

हिन्दी भाषा के विकास में आर्य समाज का योगदान

हिन्दी भाषा के विकास में भी आर्य समाज की भूमिका सराहनीय है। आर्य समाज की स्थापना के कुछ दिन बाद से उसके नियम-सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार हिन्दी भाषा में होने लगा। यहां तक कि आर्य समाज का मूल ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश भी स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हिन्दी भाषा में ही लिखा।

स्वामी दयानन्द सरस्वती जन्म से गुजराती थे किन्तु अपने विचारों को जनता तक पहुंचाने के  लिए उन्होंने हिन्दी भाषा को ही अपना माध्यम बनाया। प्रसिद्ध आर्य समाजी सर प्रताप सिंह के प्रयासों से राजपूताना की कई रियासतों ने हिन्दी (देवनागरी लिपि) को ही अपने प्रशासन की कार्यवाही के लिए स्वीकार किया।

यही नहीं, 20वीं शताब्दी के प्रारम्भ में संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश) ने भी हिन्दी को एक वैकल्पिक माध्यम के रूप में स्वीकार कर लिया। संयुक्त प्रान्त तथा पंजाब की आर्य समाजी शिक्षण संस्थाओं में हिन्दी माध्यम को ही लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया गया।

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