स्वामी दयानंद सरस्वती ने पाश्चात्य सभ्यता के प्रतिक्रिया स्वरूप आर्य समाज की स्थापना की थी। स्वामी दयानंद जी ऐसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय मुक्ति संग्राम के लिए स्वराज्य शब्द का प्रयोग किया और ‘भारत भारतीयों के लिए है’ का नारा दिया। उत्तर वैदिक काल से लेकर अब तक के सभी मत-मतान्तरों को पाखण्ड और झूठ की संज्ञा देने वाले स्वामी दयानन्द सरस्वती ने कहा था- “पुन: वेदों की ओर लौटो।”
आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती के बचपन का नाम मूल शंकर था, जिनका जन्म वर्ष 1824 ई. में गुजराता के मौरवी रियासत (टंकरा परगने) के शिवपुर ग्राम के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता जो स्वयं वेदों के विद्वान थे अत: उन्होंने मूलशंकर को वैदिक वाङ्मय, न्याय दर्शन इत्यादि पढ़ाया। दयानंद की जिज्ञासा ने उन्हें योगाभ्यास इत्यादि करने पर बाध्य किया लेकिन जब उनके पिता ने इनके विवाह का प्रबन्ध किया तो 1845 ई. में 27 वर्ष की उम्र में स्वामी जी ने गृह त्याग दिया। स्वामी दयानंद 15 से अधिक वर्षों तक देश के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण करते रहे आखिरकार 1860 में वे मथुरा पहुंचे और दण्डी स्वामी विरजानन्द जी से वेदों के शुद्ध अर्थ तथा वैदिक धर्म की गूढ़ शिक्षा प्राप्त की।
दण्डी स्वामी विरजानन्द ने अपने शिष्य दयानंद सरस्वती को हिन्दू धर्म में व्याप्त कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों का खण्डन कर देश में वैदिक धर्म-संस्कृति की पुन: स्थापना करने का आदेश दिया। स्वामी दयानन्द सरस्वती आजीवन अपने गुरू के इस आदेश का पालन करते रहे। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने झूठे धर्मों का खण्डन करने के लिए 1863 ई. में पाखण्ड खण्डिनी पताका लहराई तथा 1875 में चैत्र नवरात्र के दिन बम्बई के गिरगांव में आर्य समाज की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य वैदिक धर्म की फिर से स्थापना करना था।
इस संस्था के द्वारा स्वामी जी ने बाल विवाह, विधवा विवाह तथा समाज में व्याप्त अन्य बुराईयों पर कुठाराघात किया। स्वामी दयानन्द सरस्वती भारतीय इतिहास के पहले सुधारक थे जिन्होंने शूद्र तथा स्त्री को वेद पढ़ने, उच्च शिक्षा प्राप्त करने, यज्ञोपवीत धारण करने के लिए आन्दोलन किया।
स्वामी दयानन्द सरस्वती जिस समय भारत के विभिन्न प्रान्तों में अपने विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए आर्य समाज की शाखाएं स्थापित कर रहे थे, उस समय राजस्थान अविद्या, अन्धविश्वास, पौराणिक कर्मकाण्डों के चक्रव्यूह में फंसा हुआ था। ऐसे में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने राजस्थान को उसका प्राचीन गौरव प्रदान करने का निश्चय किया। इसके लिए स्वामी दयानन्द सरस्वती तीन बार राजस्थान आए। पहली बार 1865 में करौली के शासक मदनपाल के आग्रह पर राजस्थान आए, इस दौरान उन्होंने जयपुर में कई पंडितों से शास्त्रार्थ किया तथा वैदिक धर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित की। स्वामी दयानन्द के विचारों से प्रभावित होकर अचरौल के ठाकुर रणजीत सिंह ने मूर्तिपूजा के अलावा मदिरापान का भी त्याग कर दिया। मेवाड़ के महाराणा सज्जन सिंह के आग्रह पर 11 अगस्त 1882 को स्वामी दयानन्द सरस्वती दूसरी बार राजस्थान आए। उदयपुर में दयानंद जी को गुलाब बाग स्थित नौलखा महल में ठहराया गया। दयानंद सरस्वती के सानिध्य में उदयपुर में 27 फरवरी 1883 ई. को परोपकारी सभा की स्थापना की गई। इस सभा का मुख्य उद्देश्य सोई हुई राजपूत जाति को जागृत करना और मानव जाति का धार्मिक तथा सामाजिक उद्धार करना था।
इसके बाद जोधपुर के प्रधानमंत्री सर प्रताप सिंह तथा महाराजा जसवंत सिंह द्वितीय के आग्रह पर स्वामी दयानन्द सरस्वती तीसरी बार राजस्थान आए। बता दें कि महाराजा के आग्रह पर मार्च 1883 ई. में स्वामी दयानन्द जोधपुर पहुंचे लेकिन यह उनके जीवन का अन्तिम दौर साबित हुआ।
दरअसल जोधपुर के महाराजा जसवन्त सिंह का नन्ही जान नाम की एक वेश्या से बड़ा गहरा संबंध था। एक दिन स्वामी दयानन्द सरस्वती निश्चित समय पर दरबार में पहुंचे, संयोगवश उसी समय नन्ही जान महाराजा के पास आई हुई थी। स्वामी दयानन्द सरस्वती के दरबार में पधारने का समय जानकर महाराजा उसे रवाना ही कर रहे थे, उसी समय अपने सम्मुख स्वामी दयानन्द सरस्वती को देखकर महाराजा एकदम से घबरा गए और उन्होंने नन्ही जान की पालकी को स्वयं ही कन्धा देकर उठवा दिया।
इस दृश्य को देखकर स्वामी दयानन्द सरस्वती बहुत ही दुखी हुए और क्रोधित भी। उस दिन अपने उपदेश में स्वामी दयानन्द ने दरबार में राजधर्म का वर्णन करते हुए न केवल वेश्यागमन की निन्दा की बल्कि वेश्याएं रखने की बुराईयों का भी खुलकर विवेचन किया।
महाराजा जसवन्त सिंह जब कई दिनों तक स्वामी दयानन्द से मिलने नहीं आए तब स्वामी जी ने महाराजा को एक पत्र लिखा जिसमें महाराजा के अवगुणों का खुलकर वर्णन किया। स्वामी जी ने अपने दूसरे पत्र में लिखा कि एक वेश्या, जो नन्ही कहलाती है, उससे प्रेम, उससे अधिक संग और पत्नियों से न्यून प्रेम रखना आप जैसे महाराजा के लिए सर्वथा अशोभनीय है। जोधपुर महाराजा जसवन्त सिंह 17 दिन बाद स्वामी जी से मिलने आए जिसका कारण उन्होंने अपनी अस्वस्थता बताया। इस दौरान महाराजा जसवन्त सिंह और स्वामी दयानन्द सरस्वती के बीच तकरीबन 2 घण्टे तक वार्ता चली। स्वामी जी के विचारों से प्रभावित होकर जोधपुर के प्रधानमंत्री कर्नल प्रताप सिंह व रावराजा तेजसिंह आर्य समाजी बन गए। जोधपुर महाराजा ने भी स्वामी दयानन्द सरस्वती की बात स्वीकार कर ‘नन्ही जान’ वेश्या से अपने सम्बन्ध तोड़ लिए।
29 सितम्बर1883 की रात में कालिया उर्फ जगन्नाथ नामक रसोईए ने स्वामी दयानन्द सरस्वती को दूध पिलाया। दूध पीकर स्वामी दयानन्द सरस्वती सो गए लेकिन पेट दर्द के कारण उनकी निद्रा भंग हो गई, स्वामी जी का जी मिचलाने लगा और तीन-चार बार उल्टी हुई। स्वामी दयानन्द सरस्वती को सन्देह हुआ कि उन्हें कोई विषाक्त पदार्थ खिलाया गया है।
हांलाकि स्वामीजी ने अपनी यौगिक क्रियाओं से दूषित पदार्थ को बाहर निकालने की चेष्टा की लेकिन जहर तीव्र था और अपना काम कर चुका था। सर प्रताप सिंह व राव राजा तेज सिंह ने जोधपुर में स्वामी दयानन्द सरस्वती का बहुत इलाज करवाया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। यहां तक कि अंग्रेज डॉक्टर एडम और यूनानी हकीम अलीमर्दान खान के इलाज से भी कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। स्वामी जी के बीमार होने की सूचना मिलते ही देशभर से उनके अनुयायी जोधपुर पहुंचने लगे। डाक्टर एडम की सलाह पर उनके अनुयायी स्वामी जी को इलाज के लिए आबू लेकर गए। लेकिन उनकी हालत दिन-प्रतिदिन बिगड़ती ही गई, स्वामी जी को 27 अक्टूबर 1883 ई. को अजमेर लाया गया। आखिरकार 30 अक्टूबर 1883 ई. को शाम 6 बजे स्वामी दयानन्द सरस्वती का निधन हो गया। जीवन आखिरी पलों में स्वामी दयानन्द जी का अंतिम वाक्य था 'प्रभु तूने अच्छी लीला की, आपकी इच्छा पूर्ण हो'।
कुछ विद्वानों का आरोप है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने पत्र में नन्ही जान की कटु आलोचना की थी, इस बात की जानकारी नन्ही को हो चुकी थी। इसलिए नन्ही जान के कहने पर ही कालिया उर्फ जगन्नाथ रसोईये ने स्वामी जी को दूध में जहर मिलाकर दिया था जिससे स्वामी जी मृत्यु हो गई। हांलाकि अभी तक ऐसा कोई साक्ष्य नहीं मिल सका है, जिससे नन्ही जान को दोषी साबित किया जा सके।
एक तथ्य यह भी है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती को 29 सितम्बर को दूध पिलाया गया था, और उनकी मृत्यु 30 अक्टूबर को हुई। ऐसे में शरीर में जहर फैलने में एक महीना तो कदापि नहीं लग सकता है। संभव है कि स्वामी दयानन्द सरस्वती का भोजन विषाक्त (फूड प्वाजनिंग) हो गया जिसके चलते उन्हें उल्टी वगैरह हुई थी। हांलाकि किसी भी डॉक्टर अथवा हकीम ने भी इस बात की पुष्टि नहीं की कि स्वामी दयानन्द सरस्वती को जहर दिया गया था। खैर जो भी हो, स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा नन्ही जान की कटु आलोचना और महाराजा का नन्ही जान के प्रति गहरी आसक्ति एक बारगी नन्ही जान को सन्देह के घेरे में अवश्य खड़ा कर देती है।
1895 ई. महाराजा जसवन्त सिंह के निधन के पश्चात नन्ही जान तकरीबन 14 वर्षों तक जीवित रही। हांलाकि इन 14 वर्षों में उसे उपेक्षा, अपमान और कष्टपूर्ण जीवन व्यतीत करना पड़ा। स्थिति यह हो गई कि 61 वर्ष की उम्र में खूनी बवासीर होने के कारण नन्ही जान की मौत हो गई। हांलाकि राजा द्वारा बनवाए गए जिस आवास में नन्ही जान रहती थी, उसके मरने के बाद वहां से छह सौ जोड़ी जड़ाउं जूतियां, आठ सौ रेशमी घाघरे तथा लाखों रूपए के कीमती सामान मिले जिसे शिक्षण संस्थाओं को दान कर दिया गया।