
दारा शिकोह के गुरु सरमद का यह सूफियाना शेर बहुत मशहूर हुआ था - “सरमद बजहा बसे नकू नाम शुदी, अज़ मज़हब-ए-कुफ़्र, सूए इस्लाम शुदी। आख़िर चे ख़ता दीदज़ अल्लाह व रसूल, बर्गश्ता मुरीद, लछमन व राम शुदी।” इसका हिन्दी अर्थ है- सरमद तेरा दुनिया में बड़ा नाम है जब कुफ़्र से तू इस्लाम की तरफ़ हो गया, अल्लाह व रसूल में क्या बुराई थी कि तू लक्ष्मण व राम का मुरीद हुआ।
एक तरफ जहां सूफी सरमद बहुत ही साहसिक शायरी करते थे, वहीं दूसरी तरफ उन्होंने अपने शिष्य दाराशिकोह के लिए यह कहा था कि ‘वह शहंशाह बनेगा’। ऐसे में सभी धर्मों के प्रति उदार तथा रामनामी अगूंठी पहनने वाले दारा शिकोह की हत्या के बाद उसकी अंतिम निशानी उसके गुरु सरमद को भी मिटाने के लिए मुगल बादशाह औरंगजेब ने एक साजिश रची और उसके आदेश पर जामा मस्जिद की सीढ़ीयों पर ही संत सरमद का सिर कलम करवा दिया। सूफी संत सरमद का सिर कलम करने के लिए उन पर क्या आरोप मढ़े गए? यह जानने के लिए इस रोचक स्टोरी को जरूर पढ़ें।
सूफी संत सरमद का असली परिचय
सूफी सरमद का जन्म 1590 ईस्वी में फारस (ईरान) स्थित काशान इलाके के व्यापारी एवं यहूदी धर्मगुरुओं के परिवार में हुआ था। आर्मीनियाई नस्ल के ईरानी यहूदी सरमद ने बचपन से ही इब्रानी और फारसी भाषा में अच्छी पकड़ हासिल कर ली थी। युवावस्था में सरमद ने यहूदी और ईसाई समुदाय के धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया।
सरमद ने प्रख्यात इस्लामी विद्वानों मुल्ला सदरूद्दीन मोहम्मद शीराज़ी और फ़ंदरेसकी के सान्निध्य में विज्ञान, इस्लाम, दर्शन और तर्कशास्त्र आदि का ज्ञान प्राप्त किया। हांलाकि सूफीवाद से प्रभावित यहूदी सरमद ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया। ‘दबिस्तान-ए-मज़ाहिब’ नामक किताब में सरमद का उल्लेख ‘मोहम्मद सईद सरमद’ के रूप में किया गया है।
रूस की शोधकर्ता नतालिया परेगेरीना अपने शोध पत्र 'एक सूफ़ी की ज़िंदगी और मौत' में लिखती हैं कि “ज्ञान प्राप्ति के बाद सरमद तकरीबन 40 वर्ष की उम्र में कीमती सामना लेकर व्यापार के लिए समुद्री रास्ते से सिन्ध स्थित मुगल साम्राज्य के ठट्ठा बन्दरगार पहुंचे। जहां सरमद को अत्यंत सुंदर व कमनीय लड़के अभय चन्द से आध्यात्मिक इश्क हो गया।”
सरमद ने अभय चन्द को अपना चेला बना लिया और इब्रानी भाषा व यहूदी धर्म की सम्पूर्ण जानकारी प्रदान की। सूफी सरमद जो रुबाईयां लिखा करते उसे अभय चन्द गाया करता था। सूफी सरमद और अभय चन्द ने मिलकर मूसा से जुड़ी पांच किताबों के पर्शियन अनुवाद किए। बतौर शिष्य अभय चन्द अपने गुरु सरमद के साथ मृत्युपर्यन्त रहा।
दारा शिकोह के गुरु थे सूफी सरमद
सरमद काशानी शाहजहां के आखिरी दिनों में लाहौर व हैदराबाद होते हुए दिल्ली पहुंचे और जामा मस्जिद के पूर्वी दरवाज़े की सीढ़ियों के पास रहने लगे थे। सरमद जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर नंगे ही बैठे रहते थे। जनश्रुतियों के अनुसार, एक बार औरंगजेब नमाज पढ़ने के लिए जामा मस्जिद पहुंचा तब उसने सरमद को नंगे बैठे हुए देखा। ऐसा देख औरंगजेब ने सरमद से कहा कि कम से कम कम्बल-चादर वगैरह से अपना बदन तो ढक लिया करो।
इसके बाद सूफी सरमद ने औरंगजेब से कहा कि तुम्हीं क्यों नहीं ढक देते हो। कहते हैं, औरंगजेब ने जैसे ही कम्बल उठाया तो उसने देखा कि उसके नीचे उसके भाईयों के कटे हुए सिर हैं। इसके बाद औरंगजेब ने वह कम्बल अपने हाथ से तुरन्त वहीं छोड़ दिया और मस्जिद के अन्दर चला गया।
उन दिनों बतौर सूफी संत सरमद की ख्याति चारों तरफ फैल चुकी थी। सरमद एक चमत्कारी संत थे, इसलिए वह लोगों के बीच आकर्षण का केन्द्र बने रहते थे। हर धर्म एवं सम्प्रदाय के संतों का सम्मान करने वाले राजकुमार दारा शिकोह के दरबार में मुसलमान दरवेश और हिन्दू योगी भी रहते थे। इतना ही नहीं, दारा शिकोह रामनामी अंगूठी पहनता था, तथा सुबह-सुबह भगवान सूर्य को जल भी अर्पित करता था।
चूंकि दारा शिकोह को भिक्षुकों, दीवानों आशिकों का साथ पसंद इसलिए उसने सूफी सरमद को भी अपने पिता शाहजहां के दरबार में शरण प्रदान की। तत्पश्चात सूफी सरमद से प्रभावित दाराशिकोह ने उनका शिष्य बनने की कसम खा ली।
सूफी सरमद फ़ारसी के अच्छे शायर थे और उनकी रुबाइयों का संकलन आज भी मौजूद है। दारा शिकोह के गुरु सरमद का यह सूफियाना शेर बहुत मशहूर हुआ था - “सरमद बजहा बसे नकू नाम शुदी, अज़ मज़हब-ए-कुफ़्र, सूए इस्लाम शुदी। आख़िर चे ख़ता दीदज़ अल्लाह व रसूल, बर्गश्ता मुरीद, लछमन व राम शुदी।”
इसका हिन्दी अर्थ है— सरमद तेरा दुनिया में बड़ा नाम है जब कुफ़्र से तू इस्लाम की तरफ़ हो गया, अल्लाह व रसूल में क्या बुराई थी कि तू लक्ष्मण व राम का मुरीद हुआ। इस बारे में मशहूर इतिहासकार इरफ़ान हबीब कहते हैं कि “सरमद बेहद उच्च स्तरीय एवं साहसिक शायरी करते थे, ऐसे में सम्भव है उनकी शायरी बादशाह औरंगज़ेब को पसंद न आई हो।” खैर जो भी हो, किन्तु यह सच है कि शिकोह एवं सूफी सरमद दोनों ही कट्टर सुन्नी औरंगजेब की नजरों में काफिर थे।
सरमद के बारे में क्या लिखता है बर्नियर
बादशाह शाहजहां के बड़े बेटे दाराशिकोह का चिकित्सक बर्नियर लिखता है कि “दिल्ली की गलियों में सरमद नंगा ही घूमा करता। वह फकीर औरंगजेब की धमकियों से भी नहीं डरता था। इस नंगें फकीर को देखकर मैं शर्मिन्दा हो जाता था।”
वह आगे लिखता है कि “नंगे फकीरों में सूफी सरमद अकेला नहीं थे, बादशाह शाहजहां के महलों के आसपास व खेतों में ऐसे फकीर अक्सर घूमा करते थे। इनमें से कुछ फकीर अपने कन्धों पर बाघ की खाल ओढ़े रहते थे तो कुछ के बेहद लम्बे बाल जूड़े की शक्ल में सिर पर बंधे रहते थे।”
बर्नियर इस बात का भी उल्लेख करता है कि “नंगे फकीरों को देखकर आमलोग तनिक भी विचलित नहीं होते थे। महिलाएं बड़े आदर से उन्हें भिक्षा दिया करती थीं। इन नंगे फकीरों को जन सामान्य से अधिक सम्मान मिलता था।”
सूफी सरमद की हत्या
दारा शिकोह की हत्या के बाद भी औरंगजेब को सरमद में उसकी धार्मिक उदारता नजर आती थी। औरंगजेब को इस बात से डर था कि कहीं आगे चलकर सूफी संत सरमद उसके लिए परेशानी का कारण न बन जाएं। वहीं दूसरी तरफ, औरंगजेब और दाराशिकोह के उत्तराधिकार युद्ध में सूफी सरमद ने दाराशिकोह के जीत की भविष्यवाणी भी की थी।
ऐसे में सूफी सरमद की इन सब बातों से कट्टर सुन्नी आस्था रखने वाला औरंगजेब बेहद नाराज था। अत: उत्तराधिकार युद्ध में दारा शिकोह की हत्या करने के पश्चात औरंगजेब ने सूफी सरमद को भी अपने रास्ते से हटाने का निर्णय लिया। चूंकि सूफी सरमद जनता में लोकप्रिय थे और र्निवस्त्र रहते थे, ऐसे में उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता था। इसके लिए औरंगजेब अवसर तलाशने लगा।
इस दौरान दिल्ली के काजी मुल्ला अब्दुल क़वी को यह पता चला कि सूफी सरमद कलमा पढ़ते समय सिर्फ “ला इलाहा” पढ़ते हैं और आगे की पंक्तियां नहीं पढ़ते हैं। काजी मुल्ला अब्दुल क़वी ने जब इसका कारण पूछा तो सरमद ने कहा कि “जिस दिन खुदा का दीदार कर लूंगा उस दिन पूरा कलमा पढूंगा। जिसे देखा नहीं, उसे कैसे स्वीकार कर लूं।”
इस बात की शिकायत काजी ने औरंगजेब से की। सूफी सरमद को औरंगजेब ने पूछताछ के लिए बुलाया और कहा- तुमने तो कहा था कि जीत दाराशिकोह की होगी, अब क्या कहते हो। तब सूफी सरमद बोले- “मैंने यह नहीं कहा था कि दाराशिकोह इस दुनिया के शहंशाह होंगे, मैंने तो दूसरी दुनिया की बात की थी।”
फिर क्या था, बादशाह औरंगजेब ने सूफी सरमद को निर्वस्त्रता त्यागने तथा पूरा कलमा पढ़ने का आदेश दिया। किन्तु सूफी सरमद ने एक शेर पढ़ा, जिसका अर्थ है कि “मंसूर (ईरान के सूफ़ी संत) की कहानी पुरानी पड़ चुकी है, अब फांसी पर लटकने की नई कहानी लिखी जाए।”
यह घटना साल 1661 की है, जब गुस्साए औरंगजेब ने सार्वजनिक नग्नता एवं ईशनिंदा का आरोप मढ़कर सूफी सरमद का सिर कलम करने का फरमान जारी किया। इसके बाद काजी मुल्ला अब्दुल क़वी ने लोगों से चीख-चीखकर कहा कि – “देखो लोगों, तुम्हारा यह फकीर ईश्वर को नहीं मानता। तुम्ही देखो, यह कितना शैतान है।” इसके बाद सरमद को सड़कों-गलियों में घसीटते हुए ले जाया गया और जामा मस्जिद की सीढ़ियों के नीचे उनका सिर कलम कर दिया गया।
ऐसा कहते हैं कि सिर कलम के बाद सूफी सरमद के शरीर ने कटा हुआ सिर अपने हाथों में ले लिया और नाचने लगा। नाचते हुए सिर विहीन सरमद ने पूरा कलमा पढ़ा। सूफी सरमद के अंतिम दर्शनों के लिए बड़े पैमाने पर भीड़ उमड़ पड़ी थी। जिस जगह सूफी सरमद का सिर कलम किया गया था, आज वहां उनकी मजार है। यह मजार ‘मुबारक हजरत सूफी सरमद शहीद रहमतुल्लाह अलैह’ के नाम से विख्यात है।
सूफी संत सरमद की मजार का रंग गहरा लाल है, जो उनकी क्रूर हत्या का प्रतीक है। लोग सरमद की मजार पर मिन्नतों के धागे बांधते हैं तथा ताले भी लगाते हैं। मिन्नतों के रूप में लोग चिट्ठियां लिख कर वहीं रख आते हैं। लोगों का ऐसा मानना है कि सरमद उनकी मिन्नतों का जवाब जरूर देंगे।
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