
1757 से 1857 ई. के मध्य अंग्रेजी शासन के विरूद्ध भारत के विस्थापित शासकों, जमींदारों, धार्मिक नेताओं, संन्यासियों, सैनिकों, किसानों, जनजातियों एवं निम्न जातियों ने अनेक बार विद्रोह किए। यदि हम राजनीतिक धार्मिक आन्दोलन की बात करें तो इसके अन्तर्गत संन्यासी विद्रोह, फकीर विद्रोह, पागलपंथी विद्रोह, फरैजी आन्दोलन, वहाबी आन्दोलन तथा कूका विद्रोह आदि महत्वपूर्ण हैं।
संन्यासी विद्रोह (1770-1820 ई.)
बंगाल में अंग्रेजी राज्य स्थापित होने के बाद जमींदार, कृषक तथा शिल्पी सभी नष्ट हो गए। 1770 ई. में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा, जिससे इस प्रान्त को अराजकता और दरिद्रता ने घेर लिया। इस अकाल के बाद ब्रिटिश हुकूमत ने तीर्थस्थानों पर आने-जाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जिससे संन्यासी क्षुब्ध हो उठे। इसके साथ ही बंगाल में हिन्दुओं का धर्मांतरण जोरों पर था, गरीब जनता की आवाज सुनने वाला कोई नहीं था।
चूंकि संन्यासियों में अन्याय के विरूद्ध लड़ने की परम्परा थी लिहाजा उन्होंने अंग्रेजी शासन के विरूद्ध विद्रोह का बिगुल बजा दिया। संन्यासियों ने जनता के साथ मिलकर कम्पनी की कोठियों तथा कोषों पर हमले किए। विद्रोह करने वाले संन्यासी आदिगुरु शंकराचार्य के दसनामी सम्प्रदाय के अनुयायी थे। ज्यादातर विद्रोही हिन्दू नागा व गिरि सम्प्रदाय से संबंधित थे।
संन्यासी विद्रोह बंगाल के मुर्शिदाबाद और बैकुण्ठपुर के जंगलों में केंद्रित था। संन्यासियों ने बोगरा तथा मैमन सिंह में अपनी स्वतंत्र सरकार बनाई। साल 1771 में प्रत्यक्ष कार्रवाई के दौरान 150 संन्यासियों की हत्या कर दी गई। विद्रोह को कुचलने के लिए संन्यासियों और गरीब जनता को बेरहमी से मौत के घाट उतारा गया। कम्पनी सैनिकों के विरूद्ध संन्यासियों ने वीरता के साथ युद्ध किए, लिहाजा वारेन हेस्टिंग्स एक लम्बे अभियान के बाद संन्यासी विद्रोह को दबा पाया।
संन्यासी विद्रोह का उल्लेख बंकिमचन्द्र चटर्जी ने साल 1882 में लिखे गए उपन्यास ‘आनन्द मठ’ में किया है। इस किताब पर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा दिया था। इतिहासकार डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त के मुताबिक, “संन्यासी योद्धा ‘वंदेमातरम’ का उद्घोष करते थे। बंकिम चंद्र चटर्जी ने संन्यासियों द्वारा किए जाने वाले जयउद्घोष ‘वंदे मातरम्’ के आधार पर ही पूर्ण गीत की रचना की जिसे भारत के राष्ट्रगीत के रूप में मान्यता दी गई”।
विलियम हंटर लिखता है कि “संन्यासी विद्रोह दरअसल एक किसान विद्रोह था। संन्यासियों के साथ विद्रोह करने वालों में बेकारी और भूख से पीड़ित मुगल साम्राज्य के सैनिक, भूमिहीन व गरीब किसान थे”।
फकीर विद्रोह (1776 से 1777 ई.)
1770 में पड़े भीषण अकाल के बाद बंगाल के घुमक्कड़ मुसमान फकीरों के एक समूह ने अंग्रेजी शासन के विरूद्ध विद्रोह कर दिया, इस विद्रोह में अनेक गरीब किसान भी शामिल हो गए। फकीर विद्रोह का नेतृत्व मदारी समुदाय के मुखिया मजनूशाह ने किया। उन्होंने अंग्रेजी कारखानों को लूटकर नकदी, हथियार और गोला-बारूद हासिल कर लिया।
साल 1771 में कैप्टन जेम्स रेनन ने एक मुठभेड़ में मजनूशाह को पराजित कर दिया। दीनाजपुर, रंगपुर तथा मालदा फकीर विद्रोहियों के केन्द्र थे। मजनूशाह के बाद फकीर विद्रोह की कमान चिराग अली शाह ने सम्भाली। चिराग अली शाह पठानों, राजपूतों तथा सेना से निकाले गए भारतीय सैनिकों की मदद प्राप्त करने में सफल रहा। चिरागअली शाह ने अपनी गतिविधियों का विस्तार बंगाल के उत्तरी ज़िलों तक किया। भवानी पाठक तथा देवी चौधरानी ने चिराग अली की भरपूर मदद की थी।
निष्कर्षतया संन्यासी तथा फकीर विद्रोह को जमींदारों, किसानों तथा शिल्पकारों का भरपूर सहयोग मिला। एक तरफ जहां पूर्व सैनिकों ने इस विद्रोह की अगुवाई की, वहीं किसानों ने विद्रोह के लिए सामाजिक आधार तैयार किया जबकि संन्यासियों और फकीरों ने इस संघर्ष को धार्मिक उत्साह से भर दिया।
पांगलपंथी विद्रोह (1813-1833 ई.)
पागल पंथ एक अर्ध धार्मिक सम्प्रदाय था जिसे उत्तरी बंगाल (विशेषकर मैमनसिंह और शेरपुर जिलों में) के करम शाह ने चलाया था। करम शाह का पुत्र तथा उत्तराधिकारी टीपू शाह धार्मिक तथा राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित था। 1813 ई. में करम शाह की मृत्यु के बाद टीपू शाह ने पांगलपंथी विद्रोह का नेतृत्व किया। उसने जमींदारों के मुजारों पर किए गए अत्याचारों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया।
1825 ई. में टीपू शाह ने शेरपुर पर कब्जा कर लिया और स्वयं राजा बन बैठा। टीपू शाह इतना ताकतवर हो गया कि उसने न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट व जिलाधिकारी की नियुक्ति की। 1833 ई.में टीपू शाह व उसके सहयोगियों को पकड़ लिया गया और उन पर मुकदमा चला। टीपू शाह के बाद पांगल पंथी विद्रोह की कमान जंकू पाथोर ने संभाली। विद्रोहियों ने गारों की पहाड़ियों तक उपद्रव किए, यह क्षेत्र 1840 से 1850 ई. तक उपद्रवग्रस्त बने रहे, हांलाकि 1835 ई. में ही इस विद्रोह को कुचल दिया गया था।
फरैजियों का विद्रोह (1804-1851 ई.)
‘फ़राज़ी’ शब्द अरबी भाषा के फ़राज़ (फ़र्ज) से लिया गया है जिसका अर्थ है-‘इस्लाम द्वारा निर्धारित अनिवार्य कर्तव्य’। फरैजी लोग अनेक धार्मिक तथा राजनीतिक परिवर्तनों का प्रतिपादन करते थे। फरैजी आन्दोलन ने पहली बार बंगाल के किसानों को संगठित कर सामंती अत्याचारों का सामना करने का निर्णय लिया।
फरैजी विद्रोह अत्यधिक राजस्व निर्धारण तथा बेदखल किए गए किसानों के असंतोष के कारण हुआ। देखते ही देखते यह विद्रोह बंगाल के फरीदपुर, बाखरगंज और मैमनसिंह जिलों तक फैल गया। फरैजी विद्रोह की शुरूआत 1820 ई. के आस-पास बंगाल के फरीदपुर जिले के हाजी शरीयतुल्लाह ने की थी। 1840 ई. में हाजी शरीयतुल्ला की मौत के बाद उसके बेटे दादू मियां ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया।
दादूमियां ने बंगाल से अंग्रेजों को निकालने की योजना बनाई। दूदू मियां ने कहा कि “सब भूमि अल्लाह की देन है”। फैराजियों की तुलना ‘रेड रिपब्लिकन्स’ से की गई। फरैजी विद्रोह 1838 से 1857 ई. तक चला, अंत में इस सम्प्रदाय के अनुयायी वहाबी दल में सम्मिलित हो गए।
कूका आन्दोलन
1871-72 ई. में पंजाब के नामधारी सिखों द्वारा किए गए एक सशस्त्र विद्रोह का नाम था कूका आन्दोलन। कूका आन्दोलन के नेता का नाम भगत जवाहरमल था, जो जनता में ‘सियान साहब’ के नाम से चर्चित था। कूका आन्दोलन की गतिविधियां बहुत हद तक वहाबी आन्दोलन से मिलती-जुलती थी। वहाबी आन्दोलन की ही भांति कूका आन्दोलन ने भी धार्मिक आन्दोलन के रूप में शुरू होने के बाद राजनीतिक रूप ले लिया।
जवाहरमल के एक शिष्य बालक सिंह ने उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रान्त में ‘हजारा’ नामक स्थान पर अपना मुख्यालय बनाया। कूका आन्दोलन ने पंजाब में सामाजिक सुधारों में अत्यधिक रूचि ली। इन्होंने अन्तर्जातीय विवाहों पर लगे प्रतिबन्धों को हटाने, मांस व नशीली वस्तुओं के सेवन पर प्रतिबन्ध लगाने तथा महिलाओं द्वारा प्रथा पर्दा त्यागने के लिए आन्दोलन चलाए। कूका लोग केवल सफेद, हाथ से बुने हुए कपड़े पहनते थे और ब्रिटिश शिक्षा, उत्पादों और कानूनों का बहिष्कार करते थे।
रामसिंह कूका ने ‘कूका आन्दोलन’ को अंग्रेजों के विरूद्ध चलाया। कूका आन्दोलन को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने 1863 से 1872 ई. तक जोरदार अभियान चलाया। लिहाजा साल 1872 में रामसिंह कूका को रंगून निर्वासित कर दिया गया तथा 65 कूकाओं को अंग्रेजों ने तोपों से उड़ा दिया। नामधारी सिखों की कुर्बानियों को भारत की आजादी की लड़ाई के इतिहास में 'कूका लहर' के नाम से अंकित किया गया है। 1885 ई. में रामसिंह कूका की मृत्यु हो गई, जिसके चलते यह आन्दोलन समाप्त हो गया। कूका विद्रोह के दमन के समय भारत का वायसराय लॉर्ड नर्थब्रूक था।
वहाबी आन्दोलन (1786 से 1857 ई.)
अंग्रेजी प्रभुसत्ता को सबसे सुनियोजित तथा गम्भीर चुनौती वहाबी आन्दोलन से मिली। वहाबी आन्दोलन मुस्लिम सुधारवादी आन्दोलन था। इसके संस्थापक अरब के अब्दुल वहाब थे। भारत में इस आन्दोलन को सैयद अहमद बरेलवी के कारण लोकप्रियता मिली। सैयद अहमद बरेलवी अरब के अब्दुल वहाब से प्रभावित थे।
हांलाकि सैयद अहमद बरेलवी पर दिल्ली के एक संत शाह वली उल्ला का अधिक प्रभाव था। सैयद अहमद इस्लाम में हुए सभी परिवर्तनों तथा सुधारों के विरूद्ध थे। वह हजरत मुहम्मद काल के इस्लाम धर्म को स्थापित करना चाहते थे।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सैयद अहमद को एक उपुयक्त नेता, संगठन तथा स्थान की तलाश थी जहां से वह अपना जिहाद शुरू कर सकें। सैयद अहमद ने कबाइली प्रदेश ‘सिथाना’ को अपने आन्दोलन का केन्द्र बनाया। भारत में पटना, हैदराबाद, मद्रास, बंगाल, यूपी तथा मुम्बई में इसकी शाखाएं स्थापित की। ‘सिरात-ए-मुस्तकिन’ नामक फारसी ग्रन्थ में सैयद अहमद बरेलवी के विचारों का संकलन है।
वहाबी आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य काफिरों के देश को मुसलमानों के देश में बदलना था। प्रारम्भ यह आन्दोलन पंजाब में सिख सत्ता के विरूद्ध था। अत: उन्होंने पंजाब में सिखों के विरूद्ध जिहाद की घोषणा की। सैयद अहमद ने 1830 ई. में पेशावर जीत लिया और अपने नाम के सिक्के चलाए। परन्तु शीघ्र ही यह क्षेत्र छिन गया और सैयद अहमद युद्ध में मारा गया। सैयद अहमद की मौत के बाद पटना वहाबी आन्दोलन का केन्द्र बना। विलायत अली, इनायत अली, मौलवी कासिम अब्दुल्ला आदि प्रमुख नेता थे। यह आन्दोलन बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश व बंगाल तक भी फैला।
जब 1849 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया तब समस्त अंग्रेजी प्रदेश वहाबियों के क्रोध का निशाना बन गए। अंग्रेजों को भय था कि सिथाना से निर्देशित वहाबी कहीं अफगान अथवा रूसी सहायता प्राप्त करने में सफल न हो जाएं। ऐसे में 1860 ई. के पश्चात अंग्रेजी सरकार ने वहाबियों के विरूद्ध एक व्यापक अभियान शुरू कर सिथाना पर चौतरफा सैनिक दबाव डाला।
1870 ई. में भारत में अनेक जगहों पर वहाबियों के विरूद्ध न्यायालयों में देशद्रोह के अभियोग चलाए गए। वहाबी आन्दोलन भारत में ‘राजद्रोह कानून’ की शुरूआत का प्रतीक है क्योंकि अंग्रेजी सरकार ने 1870 में ‘देशद्रोह’ शब्द की घोषणा की।
इस आन्दोलन की गतिविधियां बहुत लम्बे समय तक चलती रहीं। हांलाकि यह आन्दोलन किसी भी समय राष्ट्रीय आन्दोलन का हिस्सा नहीं बन सका क्योंकि वहाबी आन्दोलन मुसलमानों का मुसलमानों द्वारा, सिर्फ मुसलमानों के लिए ही था। यह सच है कि वहाबी आन्दोलन का चरित्र साम्प्रदायिक था लेकिन इन्होंने हिन्दुओं का कभी विरोध नहीं किया।
कुछ अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
—जलपाईगुड़ी के मुर्शिदाबाद और बैकुंठपुर जंगलों के आसपास फ़कीर विद्रोह का नेतृत्च भवानी पाठक ने किया।
— दसनामी नागा साधु जो तीर्थयात्रा पर बंगाल आते थे उन्हें ब्रिटिश सरकार ‘लुटेरा और ठग’ समझती थी।
— संन्यासी विद्रोह में योगी, नाथ, गिरि तथा गोस्वामी सम्प्रदाय के अनुयायी शामिल थे।
— संन्यासी विद्रोह का तात्कालिक कारण तीर्थयात्रियों को तीर्थस्थानों पर जाने से प्रतिबंध लगाना था।
— संन्यासी विद्रोहियों की आक्रमण पद्धति गोरिल्ला युद्ध पर आधारित थी। अंग्रेजों के विरूद्ध आक्रमण के समय इनकी संख्या 50 से लेकर 1000 तक होती थी।
— संन्यासी अथवा फकीर विद्रोह के प्रमुख नेताओं में केना सरकार, दिर्जिनारायण, मंजर शाह, देवी चौधुरानी, मूसा शाह, भवानी पाठक का नाम उल्लेखनीय है।
— बंकिमचन्द्र चटर्जी रचित उपन्यास ‘आनन्द मठ’ संन्यासी विद्रोह की घटना पर आधारित है।
— बंगाली उपन्यास आनन्द मठ (1882) और देवी चौधुरानी (1884) को बंकिम चंद्र चटर्जी ने लिखा था।
— संन्यासी विद्रोह की घटनाओं पर आधारित फिल्म ‘आनन्द मठ’ ने 1952 ई. में फिल्मी पर्दे पर धमाल मचा दिया।
— हेमेन गुप्ता के निर्देशन में बनी इस फिल्म की पटकथा बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा लिखित चर्चित उपन्यास आनंदमठ से ली गई।
— फिल्म में लता मंगेशकर द्वारा गाए गए वंदे मातरम गीत को विश्व के शीर्ष दस गीतों में दूसरा स्थान मिला।
— अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध फकीर विद्रोह 1776-1777 ई. में 'मजनूशाह' एवं 'चिरागअली शाह' के नेतृत्व में हुआ।
—मजनूम शाह के नेतृत्व में फकीर विद्रोहियों ने स्थानीय किसानों व जमींदारों से धन की वसूली प्रारंभ कर दी।
— बंगाल के पठानों, राजपूतों तथा सेना के पूर्व सैनिकों ने फकीरों को सहयोग दिया।
— भवानी पाठक तथा देवी चौधरानी ने फकीर विद्रोह की खूब मदद की।
— करम शाह और उसका बेटा टीपू शाह पागल पंथी विद्रोह के प्रमुख नेता थे।
— पांगलपंथी विद्रोहियों ने एक निश्चित सीमा से ज्यादा ‘कर’ देने से इनकार कर दिया तथा जमींदारों के घरों पर हमला कर दिया था।
— करम शाह का पहला नाम ‘चाँद गाजी’ था।
— करम शाह की मृत्यु 1813 ई. में लेतिरकंदा (पैतृक स्थान) में हुई। करम शाह को उनके घर के आंगन में ही दफनाया गया।
— करम शाह के बेटे टीपू शाह के नेतृत्व में पांगल पंथी विद्रोह ईस्ट इंडिया कंपनी और जमींदार प्रणाली के खिलाफ लोकप्रिय हुआ।
— टीपू शाह की मां चंडी बीबी को पांगल पंथी सम्प्रदाय में ‘पीर माता’ के रूप में जाना जाता था।
— टीपू शाह के बाद पांगल पंथी विद्रोह की कमान जंकू पाथोर ने संभाली।
— पागल पंथी आंदोलन होदी, गारो और हाजोंग जनजातियों का था।
— फरैजी विद्रोह का विस्तार फरीदपुर जिला, ढाका, जेस्सोर और खुलना तक था।
— 1840 ई. में हाजी शरीयतुल्लाह की मौत के बाद उसके बेटे दूदू मियां ने फरैज़ी आंदोलन का नेतृत्व किया।
— धार्मिक पुनरुत्थानवाद, सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण और औपनिवेशिक उत्पीड़न का प्रतिरोध फरैजी विद्रोह का मुख्य उद्देश्य था।
— कूका आन्दोलन के समय विद्रोहियों ने पूरे पंजाब को बाईस जिलों में बाँटकर अपनी समानान्तर सरकार बना डाली।
— वहाबी आन्दोलन का नेतृत्व सैयद अहमद बरेलवी ने किया था।
— वहाबी आन्दोलन 1820 में सक्रिय था जो अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ ‘जिहाद’ कहलाया।
— वहाबी आन्दोलन भारत में राजद्रोह कानून की शुरूआत का प्रतीक है क्योंकि अंग्रेजी सरकार ने 1870 में ‘देशद्रोह’ शब्द की घोषणा की।
— 1870 के बाद वहाबी आन्दोलन पूरी तरह से कुचल दिया गया।
इसे भी पढ़ें - 1857 की महाक्रांति : कारण, स्वरूप और परिणाम
इसे भी पढ़ें -राजस्थान में 1857 की महाक्रांति : कारण, विद्रोह के प्रमुख केन्द्र और परिणाम