सुल्ताना रजिया भारत के मध्यकालीन इतिहास की अद्वितीय महिला थी। व्यक्तिगत दृष्टि से रजिया ने पहली बार स्त्री के सम्बन्ध में इस्लाम की परम्पराओं का उल्लंघन किया था। भारत में इस्लाम के समर्थकों के लिए यह नई बात अवश्य थी लेकिन इस्लाम के इतिहास के लिए नहीं। मिस्र, ईरान और ख्वारिज्म के साम्राज्यों में स्त्रियों ने शासन-सत्ता का उपभोग किया था और कर रही थीं।
इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज के मुताबिक, “सुल्ताना रजिया ने 3 वर्ष, 6 माह और 6 दिन राज्य किया। उसमें वे सभी प्रशंसनीय गुण थे जो एक सुल्तान में होने चाहिए।” इस दौरान उसने सिद्ध कर दिया कि वह योग्य पिता की योग्य पुत्री थी। राजनीतिक दृष्टि से उसने राज्य की शक्ति सरदारों अथवा सूबेदारों में विभाजित करने के स्थान पर सुल्तान के हाथों में केन्द्रित करने का प्रयत्न किया। उसने अपने पिता इल्तुतमिश के सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राजतंत्र के सिद्धान्त का समर्थन किया जो उस समय की परिस्थितियों के अनुकूल था। इसी के चलते सुल्तान रजिया को शुरूआत में ही कई समस्याओं का सामना करना पड़ा।
रजिया के सुल्तान बनते ही बदायूं, मुल्तान, हांसी और लाहौर के गर्वनर (इक्तादार) अपनी सेनाओं के साथ राजधानी की तरफ बढ़ने लगे। चूंकि रजिया को दिल्ली की क्रान्तिकारी जनता का समर्थन प्राप्त था, इसलिए राजधानी में वह पूर्णतया सुरक्षित थी। उसने दिल्ली की जनता से वायदा किया था कि सुल्तान बनने का अवसर मिलने पर वह अयोग्य साबित हो तो उसका सिर काट लिया जाए।
विद्रोही सरदारों का दमन
रजिया ने सर्वप्रथम विरोधी इक्तेदारों को युद्ध के जरिए अपने अधीन करने का निश्चय किया लेकिन छुटपुट युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ लिहाजा उसने चालाकी से काम लिया और बदायूं के सूबेदार मलिक इजाउद्दीन मुहम्मद सालारी, मुल्तान के गर्वनर मलिक इजाउद्दीन कबीर खां ऐयाज को अपनी तरफ मिला लिया। इसके बाद उसने इल्तुतमिश के समय के वजीर निजामुल मुल्क जुनैदी तथा अन्य सरदारों को कैद करने का निर्णय लिया। इस बात की सूचना मिलते ही अनेक विद्रोही सरदारों का मनोबल टूट गया और वे भाग खड़े हुए।
हांसी के सूबेदार मलिक सैफुद्दीन कूची और उसके भाई फकरूद्दीन को पकड़कर जेल में डाल दिया गया। लाहौर के सूबेदार अलाउद्दीन जानी का सिर काटकर रजिया के समक्ष पेश किया गया। जबकि वजीर निजामुल मुल्क जुनैदी डरकर सिरमूर की पहाड़ियों में भाग गया वहीं उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार विरोधी सरदारों का कठोरता से दमन सुल्ताना रजिया की कूटनीति और शक्ति की एक बड़ी विजय थी।
शासकीय पदों पर विदेशी व तुर्क मुसलमानों की नियुक्ति
सुल्ताना रजिया का प्रमुख लक्ष्य शासन से तुर्की गुलाम सरदारों के प्रभाव को कम करके सत्ता को अपने अधीन बनाना था। ऐसे में विदेशी तथा तुर्क मुसलमानों को विभिन्न शासकीय पदों पर नियुक्त करना उसकी योजना का हिस्सा था। उसने कबीर खां अयाज को लाहौर का गर्वनर, इख्तियारूद्दीन अल्तूनियां को भटिण्डा का सूबेदार, एतगीन को बदायूं का इक्तादार तथा अमीर-ए-हाजिब का पद दिया। ख्वाजा मुहाजबुद्दीन को वजीर, मलिक सैफुद्दीन ऐबक को सेनापति तथा उसकी मृत्यु के बाद मलिक कुतुबद्दीन हसन गोरी को नायब-ए-लश्कर के पद पर नियुक्त किया।
सुल्ताना रजिया ने एक अबीसीनियन हब्सी मलिक जमालुद्दीन याकूत को अमीर-ए-आखूर (अश्वशाला का प्रधान) का सम्मानित पद दिया। याकूत को रजिया का सबसे विश्वासपात्र और नजदीकी माना जाता था। जब रजिया के घोड़े पर बैठने के अवसर पर याकूत उसे अपने हाथों का सहारा दिया करता था। यही वजह है कि तत्कालीन इतिहासकार इसामी ने रजिया पर याकूत के साथ प्रेम सम्बन्ध होने का आरोप लगाया है। परन्तु अधिकांश इतिहास रजिया-याकूत प्रेम सम्बन्ध को स्वीकार नहीं करते हैं क्योकि अभी तक इस बात का कोई ठोस प्रमाण नहीं मिला है।
सुल्ताना के रूप में रजिया का व्यवहार
सुल्तान की शक्ति और सम्मान में वृद्धि के लिए रजिया ने अपने व्यवहार में परिवर्तन किया। उसने पर्दा त्याग दिया और मर्दाने कपड़े कुबा (कोट) व कुलाह (टोपी) पहनकर दरबार में बैठनी लगी। शिकार और घुड़सवारी करने के अतिरिक्त वह अपनी जनता के समक्ष खुले मुंह जाने लगी। हांलाकि रजिया के इस व्यवहार से प्रतिक्रियावादी मुसलमान वर्ग अवश्य असन्तुष्ट हुआ होगा लेकिन रजिया का यह व्यवहार इस बात का प्रमाण था कि बतौर सुल्तान वह पुरूषों की तरह कार्य करना चाहती थी। सम्भवत: रजिया का स्त्री होना उसके शासन की कमजोरी नहीं बन सकता था।
मंगोल आक्रमण से अपने राज्य की सुरक्षा
जब गजनी ख्वारिज्मशाह के सूबेदार मलिक हसन कार्लूग ने साल 1238 ई. में मंगालों के विरूद्ध रजिया से सहायता मांगी। तब रजिया ने कार्लूग के प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए बरन (बुलन्दशहर) की आय देने का वायदा किया लेकिन सैनिक सहायता नहीं दी। इस प्रकार सुल्ताना रजिया ने अपने पिता इल्तुतमिश की भांति मंगोल आक्रमण से अपने राज्य की रक्षा की।
तुर्कान-ए-चिहालगानी गुट का षड्यंत्र
जब सुल्ताना रजिया ने विभिन्न शासकीय पदों पर विदेशी और तुर्क मुसलमानों की नियुक्तियां की तब तुर्कान-ए-चिहालगानी गुट के गुलाम सरदार इसे सहन नहीं कर सके। उन्होंने रजिया को दिल्ली के सिंहासन से पदच्युत करने के लिए षड्यंत्र किया। रजिया के विरूद्ध षड्यंत करने वालों में इख्तियारूद्दीन एतगीन (अमीर-ए-हाजिब), कबीर खां अयाज (लाहौर का सूबेदार), इख्तियारूद्दीन अल्तूनिया (भटिण्डा का सूबेदार) मुख्य रूप से शामिल थे। दिल्ली की जनता रजिया के प्रति पूर्ण वफादार थी इस कारण महल में उसके खिलाफ कोई षड्यंत्र नहीं हो सकता था, पूर्व की ही भांति दिल्ली पर आक्रमण असफल हो सकता था। इसलिए कुछ सरदारों ने रजिया को राजधानी से दूर ले जाकर खत्म करने का षड्यंत्र किया।
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याकूत की हत्या और रजिया की गिरफ्तारी
रजिया को राजसिंहासन से हटाने के साजिश के तहत 1240 में लाहौर के सूबेदार इक्तादार कबीर अयाज खां ने विद्रोह किया लेकिन रजिया ने उस पर इतनी शीघ्रता से आक्रमण किया कि कबीर खां को कोई मदद नहीं मिल सकी। अत: रजिया के साथ हुए युद्ध में कबीर खां परास्त हो गया। कबीर खां ने भागने की कोशिश की लेकिन चिनाब के उस पार मंगोलों का आक्रमण था, ऐसे में उसने रजिया के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
रजिया ने कबीर खां से लाहौर की सूबेदारी छीन ली और उसे मुल्तान का गर्वनर नियुक्त कर दिया। रजिया को राजधानी में लौटे अभी दस दिन ही हुए थे तभी भटिण्डा के सूबेदार अल्तूनिया ने विद्रोह कर दिया। रमजान में गर्मी के दिनों की परवाह न करके इस विद्रोह को दबाने के लिए रजिया ने तुरन्त कूच कर दिया। वह अपनी सेना के साथ भटिण्डा के किले के सामने खड़ी थी तभी तुर्की सरदारों ने उसे धोखा दिया। तुर्की सरदारों ने जमालुद्दीन याकूत का वध कर दिया और रजिया को पकड़कर भटिण्डा के किले में कैद कर दिया। रजिया के कैद होने की सूचना मिलते ही षड्यंत्रकारियों ने उसके छोटे भाई बहरामशाह को दिल्ली के सिंहासन पर बैठा दिया। एतगीन के दिल्ली पहुंचते ही उसे नाइब-ए- मामलिकात का नवीन पद दिया गया, दरअसल यह पद सुल्तान के सरंक्षक के समान था।
डाकूओं द्वारा रजिया और अल्तूनिया का वध
चूंकि अल्तूनिया को उसके इच्छानुसार पद नहीं मिला इसलिए उसने रजिया से विवाह कर लिया। जहां रजिया ने अपने सिंहासन को दोबारा प्राप्त करने की इच्छा से यह विवाह किया था वहीं अल्तूनिया को अपने सम्मान और पद में वृद्धि की आशा थी।
जानकारी के लिए बता दें कि बहरामशाह से असन्तुष्ट सरदार रजिया और अल्तूनिया से जा मिले। खोक्खर, राजपूत और जाटों को सम्मिलित करके अल्तूनिया ने एक सेना एकत्र की और रजिया के साथ दिल्ली की ओर बढ़ना आरम्भ किया। लेकिन तुर्क अमीरों के नेतृत्व वाली दिल्ली की सेना के मुकाबले रजिया की पराजय हुई जिससे उन्हें भटिण्डा की ओर वापस लौटना पड़ा। यहां तक कि सैनिक भी उनका साथ छोड़ गए और रास्ते में कैथल के निकट जब रजिया और अल्तूनिया एक वृक्ष के नीचे आराम कर रहे थे तभी कुछ हिन्दू डाकूओं ने 13 अक्टूबर 1240 को उन दोनों का वध कर दिया। एलफिंस्टन के अनुसार, “यदि रजिया स्त्री न होती तो उसका नाम भारत के महान मुस्लिम शासकों में लिया जाता।”
सुल्ताना रजिया का मकबरा दिल्ली स्थित भोजला पहाड़ी पर स्थित है। चूंकि इस पहाड़ी पर कभी डाकू भोजला और उसका गिरोह रहा करता था। इसलिए उसकी मृत्यु के बाद इस पहाड़ी को भोजला पहाड़ी कहा जाने लगा। वर्तमान में भोजला पहाड़ी पर आबादी बस चुकी है अत: सुल्ताना रजिया का मकबरा अब संकरियों गलियों के बीच आ चुका है। रजिया सुल्तान के मकबरे के पास एक अन्य मकबरा भी मौजूद है। कहा जाता है कि रजिया के पास स्थित दूसरा मकबरा जमालुद्दीन याकूत का है।
सुल्ताना रजिया से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
- शाह तुर्कान के विरूद्ध रजिया ने लाल वस्त्र पहनकर दिल्ली की जनता से न्याय की मांग की थी।
- उत्तराधिकार के मामले में दिल्ली की क्रान्तिकारी जनता ने पहली बार रजिया को सुल्तान बनाने का निर्णय लिया था।
- ख्वाजा-तश से तात्पर्य है- एक मालिक का गुलाम, तुर्की गुलाम सरदार स्वयं को ख्वाजा तश पुकारते थे।
- रजिया ने पर्दा त्याग कर पुरूषों के समान कुबा (कोट) व कुलाह (टोपी) पहनकर राजदरबार में बैठना शुरू किया।
- रजिया ने बलबन को अमीर-ए-शिकार का पद दिया।
- सुल्ताना रजिया ने मुहजबउद्दीन को वजीर नियुक्त किया।
- रजिया ने अपने सिक्कों पर “उमदत-उल-निस्वां” का विरुद (उपाधि) धारण किया।
सम्भावित प्रश्न-
- रजिया सुल्ताना के चरित्र एवं उसके कार्यों का मूल्यांकन कीजिए?
- रजिया सुल्ताना की असफलता के क्या कारण थे?
- क्या रजिया सुल्ताना का स्त्री होना उसकी पराजय का प्रमुख कारण था?
- क्या रजिया सुल्ताना अपने गुलाम हब्सी याकूत से विशेष अनुराग रखती थी?
मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240-42 ई.)
रजिया सुल्ताना को पदच्युत कर बहरामशाह को दिल्ली की गद्दी पर बैठाना तुर्की सरदारों की विजय का प्रतीक था। तुर्की सरदार रजिया से सबक लेकर सुल्तान को शासन में अब कोई भी अधिकार देने को तैयार नहीं थे लिहाजा उन्होंने अपनी शासन-सत्ता को सुरक्षित बनाए रखने के लिए नाइब-ए-मामलिकात नामक एक नवीन पद का सृजन किया जो सुल्तान के संरक्षक के रूप में सम्पूर्ण अधिकारों का प्रभुत्व रखता था। तुर्की सरदारों ने यह पद एतगीन को दिया था। बहरामशाह इस शर्त के साथ सिंहासन पर बैठा था कि वह शासन के सम्पूर्ण अधिकार नाइब को सौंप देगा लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। अत: जब बहरामशाह ने अपने पद और प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में तुर्की सरदारों से समझौता नहीं किया तो उसे अपने पद से हटना पड़ा। 1241 ई. में मंगोल आक्रमण (लाहौर) के समय तुर्की सरदारों ने दिल्ली में बहरामशाह को कैद कर लिया और 1242 ई. में उसका वध कर दिया। इस प्रकार तुर्की सरदारों एवं उलेमा वर्ग की अवमानना करना बहरामशाह के पतन का प्रमुख कारण बना। बहरामशाह के बाद तुर्की सरदारों ने रूकनुद्दीन फिरोजशाह के पुत्र मसूदशाह को सुल्तान बनाया।
अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246 ई.)
तुर्की सरदारों ने इल्तुतमिश के पौत्र मसूदशाह को भी इसी शर्त पर सिंहासन सौंपा था कि वह स्वयं राज्य की शक्ति का प्रयोग नहीं करेगा बल्कि शासन की सम्पूर्ण शक्ति नाइब के हाथों में होगी। चूंकि नाइब के पद पर मलिक कुतुबुद्दीन हसन को नियुक्त किया गया था जो एक शरणार्थी तथा तुर्की सरदारों के गुट का नहीं था। ऐसे में नाइब के पद का कोई महत्व नहीं रह गया था। इसी बीच बलबन को अमीर-ए-हाजिब के महत्वपूर्ण पद पर आसीन किया गया। इसलिए बलबन ने बहुत जल्द ही शासन-सत्ता को अपने हाथों में ले लिया और तुर्की सरदारों का ध्यान राजपूतों तथा मंगोलों की तरफ लगा दिया। अब बलबन धीरे-धीरे अपनी शक्ति का निर्माण कर रहा था, इसलिए मसूदशाह के हाथों में कोई शक्ति बाकी नहीं रह गई थी, वह उसके हाथों का कठपुतलीमात्र था। आखिरकार बलबन के इशारों पर तुर्की सरदारों ने 1246 ई. में मसूदशाह को सिंहासन से हटा दिया और इल्तुतमिश के प्रपौत्र नासिरूद्दीन महमूद को सुल्तान बनाया। यह इस बात का प्रमाण है कि अब सुल्तान अपनी सत्ता पूर्णतया खो चुके थे इसलिए यह कार्य शान्तिपूर्ण ढंग से सम्पन्न हो गया। अन्तत: मसूदशाह की मृत्यु कारगार में हुई।
नासिरूद्दीन महमूद (1246-1265 ई.)
नासिरूद्दीन महमूद 10 जून, 1246 ई. को सिंहासन पर बैठा था। उसके सुल्तान बनते ही राज्य-शक्ति के लिए जो संघर्ष सुल्तानों एवं उसके तुर्की सरदारों में चल रहा था, वह समाप्त हो गया। तत्कालीन इतिहासकार इसामी लिखता है- “वह बिना तुर्की सरदारों की पूर्व आज्ञा के अपना कोई विचार व्यक्त नहीं करता था। वह बिना उनके आदेश के अपने हाथ-पैर तक नहीं हिलाता था। वह बिना उनकी जानकारी के न पानी पीता था और न सोता था।”
सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद इतना धर्म-परायण व्यक्ति था कि वह कुरान की नकल करता था और उसको बेचकर अपनी जीविका चलाता था। इतिहासकार सर वूल्जले हेग ने लिखा है कि “एक अन्य अवसर पर सुल्तान ने इतिहासकार मिन्हाजुद्दीन सिराज की बहन को 40 दास भेंट में दिए थे। इससे यह साबित होता है कि सुल्तान दयालु प्रवृत्ति का था।”
बता दें कि तुर्की सरदारों का नेता बलबन था अत: सुल्तान ने अपनी सभी शक्तियां बलबन को सौंप दी। आरम्भ में बलबन अमीर-ए-हाजिब था और अबू बक्र वजीर लेकिन शासन सत्ता का प्रयोग बलबन ही करता था। 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह नासिरूद्दीन महमूद से कर दिया। इसके बाद उसे नाइब-ए-मामलिकात का पद दिया गया और उलूग खां की उपाधि से विभूषित किया गया।
एक वर्ष तक शासन-सत्ता का संचालन एक भारतीय मुसलमान रायहान के हाथों में था। चूंकि बलबन ने अपनी पुत्री की शादी सुल्ल्तान नासिरूद्दीन से कर दी थी इसलिए बलबन के सम्बन्धियों को बड़े-बड़े पद प्राप्त होने लगे जिससे तुर्की सरदार उससे ईर्ष्या करने लगे। ऐसे में तुर्की सरदारों के कहने पर सुल्तान ने बलबन को उसके पद से हटा दिया। बलबन के भाई और उसके संबंधियों को उनके पद से हटा दिया गया और नई नियुक्तियां की गई।
यद्यपि रायहान अधिक समय तक अपने पद को सुरक्षित नहीं रख सका। तुर्की सरदार एक भारतीय मुसलमान की सत्ता सहन करने को तैयार नहीं थे लिहाजा प्रान्तीय इक्तादारों ने बलबन को सहायता देने का आश्वासन दिया। 1254 ई. को बलबन और उसके समर्थकों ने भटिण्डा में अपनी सेना एकत्र कर ली और दिल्ली की तरफ बढ़ना शुरू किया। इधर रायहान भी सुल्तान की सेना के साथ दिल्ली के बाहर निकला। चूंकि तुर्की सरदार बलबन के साथ थे इसलिए सुल्तान युद्ध करने के लिए तैयार नहीं था। अन्त में विद्रोही सरदारों की सलाह मानकर सुल्तान ने रायहान को नाइब के पद से हटा दिया और बलबन को दोबारा नाइब का पद दे दिया। रायहान को पहले बदायूं तत्पश्चात बहराइच भेजा गया जहां उसकी हत्या कर दी गई।
बतौर नाइब बलबन का मुख्य कार्य अपनी सत्ता मजबूत करना था इसलिए वह सुल्तान के छत्र (सुल्तान के पद का प्रतीक) का प्रयोग करने में भी सफल रहा। हांलाकि नाइब की दृष्टि से बलबन ने कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं किए। इतना अवश्य हुआ कि बलबन प्रति वर्ष किसी न किसी विद्रोहों को दबाने में ही व्यस्त रहा। पश्चिम में खोक्खर, मेवात में मेव, दोआब और बुन्देलखण्ड के अतिरिक्त मालवा और राजस्थान में राजपूतों के विद्रोहों ने बलबन को हमेशा व्यस्त रखा।
राजस्थान में रणथम्भौर, ग्वालियर और बूंदी को जीतने के उसके प्रयास असफल रहे। बावजूद इसके जाजनगर (दक्षिण बिहार) और कामरूप के शासकों को पराजित करने में तुर्की सेनाएं सफल रहीं। 1265 ई. में सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद की अचानक मृत्यु हो गई। इतिहासकार इसामी लिखता है कि ‘बलबन ने नासिरूद्दीन को जहर देकर मरवा दिया।’ इतिहासकार सूर वूल्जले हेग का मत है कि ‘सुल्तान की कोई सन्तान नहीं थी इसलिए बलबन स्वयं सुल्तान बन गया।’ इब्नबतूता ने भी लिखा है कि ‘नाइब ने उसे मार डाला और स्वयं सुल्तान बन गया।’