इल्बारी तुर्क शमसुद्दीन इल्तुतमिश को दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक माना जाता है, क्योंकि उसने सुल्तान के पद की स्वीकृति गोर के किसी शासक से नहीं अपितु बगदाद के अब्बासी खलीफा अल मुस्तनसिर बिल्लाह मन्सूर से प्राप्त की थी। बगदाद के खलीफा ने उसे हिन्दुस्तान के सुल्तान एवं नासिर अमिर-उल-मौमनीन की उपाधि प्रदान की। मिनहाजुद्दीन सिराज अपनी कृति तबकाते नासिरी में लिखता है कि “इस्लाम की राजधानी बगदाद से भेजे गए वस्त्र, आभूषण और उपहार को सुल्तान, उसके पुत्र, अमीरों आदि ने ग्रहण किया।” इस प्रकार इल्तुतमिश दिल्ली सल्तनत का प्रथम वैधानिक तथा प्रभुतासंपन्न सुल्तान बना। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम लाहौर के स्थान पर दिल्ली को राजधानी बनाया।
इल्तुतमिश का प्रारम्भिक जीवन
इल्तुतमिश को कुतुबुद्दीन ऐबक ने खरीदा था, इस कारण वह एक गुलाम का गुलाम था। हांलाकि उसने अपनी योग्यता के दम पर अपने स्वामी से पहले ही दासता से मुक्ति पा ली थी। बता दें कि 1206 ई. में खोक्खर विद्रोहियों के दमन के दौरान ऐबक के साथ इल्तुतमिश भी था, जंग के दौरान इल्तुतमिश के साहस और कौशल से प्रभावित होकर मुहम्मद गोरी ने उसे दासता से मुक्त कर दिया था।
शम्सी वंश से ताल्लुक रखने वाला इल्तुतमिश अपने स्वामी कुतुबुद्दीन ऐबक का दामाद भी था। इल्तुतमिश का पिता इलाम खां अपने कबीले का मुखिया था। चूंकि इल्तुतमिश इतना सुन्दर और बुद्धिमान था कि उसका पिता प्रेमवश उसे घर से बाहर नहीं जाने देता था इसलिए उसके भाई इल्तुतमिश से ईर्ष्या करने लगे, लिहाजा उन्होंने धोखे से एक मेले में ले जाकर उसे गुलामों के व्यापारी को बेच दिया।
इसके बाद इल्तुतमिश को दो बार बेचा गया आखिरकार जलालुद्दीन मुहम्मद नाम का एक व्यापारी उसे बेचने के लिए गजनी ले गया। मुहम्मद गोरी ने इल्तुतमिश को खरीदना चाहा लेकिन मुंहमांगी कीमत नहीं मिलने के कारण जुलालुद्दीन ने उसे बेचने से इनकार कर दिया, ऐसे में गोरी ने गजनी में इल्तुतमिश को बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया जिससे इल्तुतमिश को दिल्ली लाया गया जहां उसे कुतुबुद्दीन ऐबक ने खरीद लिया।
इल्तुतमिश की शिक्षा-दीक्षा की बात करें तो इसकी विशेष जानकारी नहीं मिलती है लेकिन वह एक शिक्षित व्यक्ति, साहसी सैनिक और योग्य नेता था। यही वजह है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने आरम्भ से ही सर-ए-जांदार (अंगरक्षकों का प्रधान) का महत्वपूर्ण पद दिया था। एक के बाद एक उन्नति करते हुए इल्तुतमिश अमीर-ए-शिकार (राजदरबार का मुख्य आदमी जो सुल्तान के लिए शिकार की व्यवस्था करता था) के पद पर पहुंच गया।
ग्वालियर विजय के बाद इल्तुतमिश को ग्वालियर किले का किलेदार बनाया गया, इसके बाद उसे बुलन्दशहर का इक्तेदार बनाया गया। यही नहीं उसे दिल्ली के सबसे महत्वपूर्ण सूबे बदायूं का सूबेदार नियुक्त कर दिया गया। इतना ही नहीं कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी एक पुत्री का विवाह भी इल्तुतमिश से कर दिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के समय इल्तुतमिश बदायूं का सूबेदार था, अत: ऐबक के सिपहसालार अमीर अली इस्माइल ने दिल्ली के तुर्की सरदारों की सम्मति से इल्तुतमिश को दिल्ली आने का निमंत्रण दिया। इल्तुतमिश ने दिल्ली पहुंचकर स्वयं को सुल्तान घोषित कर दिया और 1211 ई. में आरामशाह को युद्ध में परास्त कर उसका वध कर दिया।
इल्तुतमिश की उपलब्धियां
तुर्कान-ए-चिहालगानी (चालीस गुलाम सरदारों का गुट) का संगठन-
इल्तुतमिश के सुल्तान बनते ही मुहम्मद गोरी के समय के कुतुबी और मुइज्जी सरदारों ने उसके खिलाफ विद्रोह कर दिए। हांलाकि इल्तुतमिश ने इस विद्रोह को तो समाप्त कर दिया लेकिन फिर कभी उन पर विश्वास नहीं कर सका। यही वजह है कि उसने अपने चालीस वफादार गुलामों का एक गुट बनाया जो जिसे बरनी ने तुर्कान-ए-चिहालगानी कहा है। बता दें कि इन सभी गुलाम सरदारों को इल्तुतमिश ने ही खरीदा था। इस प्रकार अपने राज्य में उन्हें प्रतिष्ठित पद देकर प्रशासन में उनसे सहयोग लिया।
इक्ता प्रणाली -
इल्तुतमिश ने तुर्क अमीरों को भारी संख्या में इक्ताएं (जागीरें) प्रदान की जो दो प्रकार की होती थीं-छोटी और बड़ी। छोटे इक्तादारों को सैनिक सेवा के बदले में भूमि के कुछ भाग से केवल कर वसूलने का अधिकार था, जबकि बड़े इक्तेदारों को सैनिक सेवा के अतिरिक्त अपने-अपने इक्ताओं में प्रशासकीय अधिकार भी दिए गए थे। इक्ता प्रणाली में सामन्तशाही तत्व सम्मिलित न हो जाए इसके लिए इल्तुतमिश इक्तेदारों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर निरन्तर परिवर्तित करता रहता था। ‘इक्ता का प्रयोग सामन्तशाही को समाप्त कर राज्य के दूरस्थ भागों को केन्द्र के साथ संयुक्त करने के साधन के रूप में किया गया।’
मुद्रा व्यवस्था में सुधार-
इल्तुतमिश ने मुद्रा व्यवस्था में भी सुधार किया। वह पहला तुर्क सुल्तान था जिसने शुद्ध अरबी सिक्के चलवाए। इल्तुतमिश ने सिक्कों पर अपना नाम खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में उत्कीर्ण करवाया। इसके साथ सिक्कों पर टकसाल का नाम लिखवाने की परम्परा इल्तुतमिश ने ही शुरू की। सल्तनतकाल में इल्तुतमिश ने चांदी का टंका और तांबे का जीतल नामक सिक्के चलवाए। चांदी का टंका 175 ग्रेन का होता था। चूंकि इल्तुतमिश ने अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी चुना था, ऐसे में ग्वालियर विजय के पश्चात उसने चांदी के टंके पर रजिया का नाम उत्कीर्ण करवाया।
यल्दौज पर विजय-
इल्तुतमिश जब सुल्तान बना तब गजनी के शासक यल्दौज ने उसे अपने अधीन मानते हुए छत्र, दण्ड आदि राजचिह्न भिजवाए। जिसे इल्तुतमिश ने शांतिपूर्वक स्वीकार कर लिया। यहां तक कि जब यल्दौज के सैनिकों ने कुबाचा से लाहौर और पंजाब के अधिकांश हिस्सों को छीन लिया तब भी इल्तुतमिश चुप रहा। दरअसल इल्तुतमिश दिल्ली तथा उसके सीमावर्ती क्षेत्रों तथा पूर्व की ओर वाराणसी तक अपनी स्थिति सुदृढ़ करने तक यल्दौज से किसी भी प्रकार की दुश्मनी नहीं मोल ली।
1215 ई. में ख्वारिज्मशाह से हारकर यल्दौज लाहौर की तरफ आया और उसने थानेश्वर तक पंजाब प्रदेश पर अधिकार कर लिया। यहां तक कि यल्दौज ने अब दिल्ली के सिंहासन पर भी अपना दावा किया। ऐसे में यल्दौज से निर्णायक जंग के लिए इल्तुतमिश सेना लेकर आगे बढ़ा। 1215-16 ई. में तराइन के युद्ध में यल्दौज को पराजित करके उसे कैद कर लिया और बदायूं भेज दिया गया जहां उसका वध कर दिया गया। यल्दौज का वध करते ही इल्तुतमिश के दो उद्देश्य पूरे हुए- पहला उसका मुख्य शत्रु समाप्त हो गया और दूसरा दिल्ली का गजनी से हमेशा के लिए संबंध विच्छेद हो गया।
कुबाचा की पराजय-
नासिरूद्दीन कुबाचा भी मुहम्मद गोरी के मुख्य गुलामों में से एक था, जो उच्छ का सूबेदार था। हांलाकि उसने कभी कुतुबुद्दीन ऐबक को कभी परेशान नहीं किया लेकिन इल्तुतमिश के सुल्तान बनते ही उसने सिन्ध-सागर-दोआब, सरस्वती, भटिण्डा और लाहौर तक अपना अधिकार कर लिया। इस प्रकार कुबाचा उत्तर पश्चिम सीमा और पंजाब में इल्तुतमिश का प्रमुख प्रतिद्वंदी था, जो कभी भी हानि पहुंचा सकता था। हांलाकि शुरू में इल्तुतमिश ने कुबाचा पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया लेकिन 1217 ई. में उसने लाहौर को कुबाचा से छीन लिया। इसी बीच जलालुद्दीन मंगबरनी ने भारत आगमन के दौरान कुबाचा को भारी क्षति पहुंचाई। अब इल्तुतमिश ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए उच्छ तथा मुल्तान पर एकसाथ आक्रमण कर दिया, इस आक्रमण से घबराकर कुबाचा ने भक्खर के किले में शरण ली। भक्खर में भी कुबाचा की स्थिति कमजोर होने पर उसने इल्तुतमिश से सन्धि की पेशकश की लेकिन इल्तुतमिश ने उसे आत्मसमर्पण करने को कहा लिहाजा हताश होकर कुबाचा ने सिन्ध नदी में डूबकर अपनी जान दे दी। अत: इल्तुतमिश के एक प्रमुख शत्रु का अंत हो गया।
मंगोल आक्रमण का डर
इल्तुतमिश के शासन काल में मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खान के आक्रमण की संभावना से एक बड़ा संकट उत्पन्न हो गया था। विध्वंसक आक्रमणकारी चंगेज खान चीन, तुर्किस्तान, इराक, मध्य एशिया, पर्शिया आदि को अपने पैरों तले कुचल चुका था। बता दें कि उसने ख्वारिज्मशाह का संपूर्ण साम्राज्य नष्ट कर दिया, ऐसे में ख्वारिज्मशाह कैस्पियन सागर की ओर भाग गया था जबकि उसके बड़े बेटे जलालुद्दीन मंगबरनी ने भारत की तरफ रूख किया। चंगेज खान ने खुरासान, अफगानिस्तान होते हुए सिन्धु नदी के तट तक उसका पीछा किया।
उस समय पंजाब और सिन्ध सागर के दोआब का उपरी क्षेत्र जलालुद्दीन मंगबरनी तथा कुबाचा के बीच संघर्ष का रणक्षेत्र बना हुआ था। हांलाकि इल्तुतमिश ने इन परिस्थितियों पर अपनी पैनी नजर बनाए रखा था। चूंकि जलालुद्दीन मंगबरनी एक योग्य और साहसी नेता था, इसलिए उसने सिंध सागर दोआब पर अधिकार करते हुए इल्तुतमिश से मंगालों के विरुद्ध सहायता मांगी। ऐसे में इल्तुतमिश ने बहुत होशियारी से काम लिया, उसने मंगबरनी के दूत का वध करा दिया और बड़ी विनम्रता से शरण देने की मांग को ठुकरा दिया। आखिरकार मंगबरनी सिन्ध के दक्षिणी भाग को लूटकर तथा अपने कुछ सैन्याधिकारियों को भारत में ही छोड़कर पर्शिया भाग गया। इस प्रकार इल्तुतमिश एक बड़े संकट से बच गया। गौरतलब है कि यदि इल्तुतमिश ने जलालुद्दीन मंगबरनी को शरण देने की गलती की होती तो संभव है चंगेज खान दिल्ली पर आक्रमण अवश्य करता, ऐसे में इल्तुतमिश के विजय की संभावना बिल्कुल भी नहीं थी। यह भी देखने को मिलता कि चंगेज खान के तूफान में इल्तुतमिश की सल्तनत सूखे पत्तों की तरह उड़ जाती।
बंगाल विजय-
कुतुबुद्दीन ऐबक की सहायता से ही अलीमर्दान खान ने बंगाल में अपनी सत्ता स्थापित की थी, ऐसे में ऐबक की मृत्यु के बाद उसने खुद को स्वतंत्र घोषित कर लिया। लेकिन उसके सरदारों ने अलीमर्दान खान की हत्या कर दी और उसकी जगह हिसामुद्दीन एवाज खिलजी को बंगाल की गद्दी पर बैठाया। अब एवाज ने गियासुद्दीन की उपाधि ग्रहण की और बंगाल का एक स्वतंत्र शासक बन बैठा। इतना ही नहीं एवाज ने बिहार को अपने राज्य में सम्मिलित करते हुए जाज नगर, तिरहुत, बंग तथा कामरूप सहित अन्य पड़ोसी राज्यों से कर वसूल किया।
जब इल्तुतमिश ने अपनी पश्चिमी सीमा को सुदृढ़ कर लिया तो उसने पूर्व की ओर ध्यान दिया। इल्तुतमिश दक्षिणी बिहार को जीतकर जैसे ही आगे बढ़ा बंगाल का शासक एवाज यानि गियासुद्दीन ने उसका मुकाबला करने का निश्चय किया लेकिन बिना किसी युद्ध के इल्तुतमिश की आधीनता स्वीकार कर ली और युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में बहुत ज्यादा धन भी दिया। ऐसे में इल्तुतमिश मलिक जानी को बिहार का सूबेदार नियुक्त वापस आ गया। लेकिन कुछ ही दिनों पश्चात गियासुद्दीन ने मलिक जानी को बिहार से बाहर खदेड़ दिया तथा दिल्ली राज्य का आधिपत्य स्वीकार करने से इन्कार कर दिया।
अब सुल्तान इल्तुतमिश ने अपने बेटे व अवध के सूबेदार नासिरूद्दीन महमूद को अवसर की प्रतीक्षा करने को कहा। गियासुद्दीन युद्ध के लिए पूर्वी सीमा पर गया हुआ था, तभी नासिरूद्दीन ने लखनौती पर आक्रमण कर दिया। गियासुद्दीन अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिए वापस तो जरूर लौटा लेकिन युद्ध में मारा गया। इसी के साथ 1226 ई. में बंगाल दिल्ली सल्तनत का इक्ता बन गया। हांलाकि इसके ठीक 2 वर्ष बाद यानि 1229 ई. में शहजादा नासिरूद्दीन की मृत्यु हो गई जिससे मलिक इख्तियारूद्दीन बल्का खिलजी ने विद्रोह करके बंगाल पर अधिकार कर लिया। इसके बाद इल्तुतमिश ने न केवल इस विद्रोह का दमन किया बल्कि युद्ध में मलिक इख्तियारूद्दीन बल्का खिलजी की हत्या भी कर दी। इस प्रकार इल्तुतमिश ने एक बार फिर से बंगाल और बिहार में अलग-अलग इक्तेदारों की नियुक्ति की जो इल्तुतमिश की मृत्यु तक उसके अधीन रहे।
राजपूत राजाओं से संघर्ष-
कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल में ही राजपूत राजाओं ने आक्रमणकारी रणनीति स्वीकार कर ली थी और तुर्की राज्य को समाप्त करने की कोशिश में जुटे हुए थे। बतौर उदाहरण- चन्देलों ने कालिंजर और अजयगढ़ को जीत लिया था। प्रतिहारों ने ग्वालियर, नरवर, झांसी पर अधिकार कर लिया था। पृथ्वीराज चौहान के बेटे गोविन्दराज के नेतृत्व में चाहौनों ने रणथम्भौर को तुर्कों से छीनकर जोधपुर और उसके आसपास के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। इतना ही नहीं, चौहानों ने दक्षिण पश्चिमी राजपूताना के अधिकांश प्रदेशों को जीत लिया था और कई बार तुर्कों को परास्त भी किया था। राजस्थान की ही भांति दोआब (आधुनिक उत्तर प्रदेश) में भी हिन्दू शासक विद्रोह कर रहे थे। बदायूं, कन्नौज, बनारस, फरूखाबाद तथा बरेली जैसे स्थानों पर हिन्दू शासकों ने दुर्ग बना लिए थे।
इस प्रकार हिन्दू शासकों को दुर्बल करना और उनके प्रति आक्रमणकारी नीति का पालन इल्तुतमिश के लिए जरूरी हो चुका था। इसलिए उसने मुख्यरूप से तुर्की राज्य से छीने गए स्थानों को पुन: जीतने और अपने अधीन प्रदेशों में सत्ता स्थापित करने का प्रयत्न किया। इस क्रम में उसने 1228-1229 ई. में जालौर के शासक उदय सिंह को आधिपत्य स्वीकार करने तथा कर देने के लिए बाध्य किया। इसके बाद बयाना, थंगीर, अजमेर, नागौर और उसके आस-पास के प्रदेशों को विजीत किया। 1231 ई. में इल्तुतमिश ने तकरीबन एक वर्ष की लंबी घेराबंदी के बाद ग्वालियर को अपने अधीन किया। 1233-34 ई. में इल्तुतमिश के सूबेदार मलिक तयसाई ने कालिंजर और उसके आसपास के क्षेत्रों को लूटने में सफलता प्राप्त की। इल्तुतमिश द्वारा नागदा के गुहिलौतों तथा गुजरात के चालुक्यों पर विफल आक्रमण के पश्चात 1234-1235 ई. में मालवा पर आक्रमण करके भिलसा के हिन्दू मंदिर तथा उज्जैन के महाकाल मंदिर को लूटने में सफलता प्राप्त की। इल्तुतमिश ने दोआब में बदायूं, कन्नौज, बनारस, कटेहर तथा बहराइच को दोबारा जीतने में सफलता प्राप्त की तथा अवध में तुर्की सत्ता स्थापित की।
इल्तुतमिश की मृत्यु-
1236 ई. में इल्तुतमिश का अंतिम युद्ध अभियान बनियान का था। बता दें कि जलालुद्दीन मंगबर्नी के अधिकारी व बनियान का शासक सैफुद्दीन हसन कार्लूग ने गजनी तथा सिन्ध नदी के बीच में एक बड़े प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इसलिए कार्लूग पर आक्रमण करने के लिए इल्तुतमिश सैन्य अभियान पर निकला ही था कि मार्ग में बीमार पड़ गया जिसके कारण उसे दिल्ली लौटना पड़ा। इस प्रकार अप्रैल 1236 ई. में इल्तुतमिश की मृत्यु हो गई।
दिल्ली सल्तन के वास्तविक संस्थापक के रूप में इल्तुतमिश का मूल्यांकन
इल्तुतमिश ने कुतुबुद्दीन ऐबक के उत्तराधिकारी आरामशाह को पराजित कर दिल्ली की सत्ता प्राप्त की तथा ऐबक द्वारा प्रारम्भ किए गए कार्यों को पूरा करने का प्रयास किया। उसने अपने विरोधियों का दमन किया तथा यल्दौज और कुबाचा को पराजित कर अपनी स्थिति सुदृढ़ की। उसने भारत के शक्तिशाली तथा महत्वाकांक्षी तुर्क सरदारों का दमन किया। इसके अतिरिक्त बंगाल एवं बिहार के खिलजी शासकों को हराकर उन्हें अपने अधीन कर लिया।
इल्तुतमिश ने अपनी दूरदर्शिता से भारत पर चंगेज खां के होने वाले आक्रमणों से रक्षा की। इसके साथ ही दोआब तथा राजपूताना के हिन्दू राजाओं को अपनी आधीनता स्वीकार कराकर न केवल राज्य में शान्ति व्यवस्था स्थापित की बल्कि अपने राज्य का विस्तार भी किया।
इल्तुतमिश ने राज्य विस्तार के साथ-साथ कई प्रशासनिक सुधार भी किए। मुद्रा-प्रणाली तथा न्याय व्यवस्था में भी उसने अनेक सुधार किए और सल्तनत की शासन प्रणाली को अरबी स्वरूप प्रदान किया। उसने भारत के मुस्लिम साम्राज्य को गजनी से पृथक कर स्वतंत्र एवं स्थाई सत्ता स्थापित की तथा खलीफा से स्वयं के लिए सुल्तान की मान्यता प्राप्त की। इससे नैतिक और वैधानिक दृष्टि से उसकी सल्तनत और अधिक मजबूत हो गई।
इल्तुतमिश ने अपने वैयक्तिक और चारित्रिक गुणों से सुल्तान की पद-प्रतिष्ठा में बृद्धि की। उसने अपने 26 वर्ष के शासनकाल में अपने उत्तराधिकारियों के लिए सुव्यस्थित और सुदृढ़ राज्य विरासत में छोड़ा।
डॉ. ए. के. निजामी के शब्दों में, “कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की रूपरेखा के बारे में केवल दिमागी आकृति बनाई थी परन्तु इल्तुतमिश ने उसे एक व्यक्तित्व, एक पद, एक प्ररेणा शक्ति, एक दिशा, एक शासन व्यवस्था और एक शासक वर्ग प्रदान किया।” अतः इल्तुतमिश को ही दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक कहा जा सकता है।
सुल्तान इल्तुतमिश से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य-
- इल्तुतमिश ने मिनहाज-उस-सिराज, मलिक ताजुद्दीन दबीर को संरक्षण प्रदान किया था।
- निजामुल मुल्क मुहम्मद जुनैदी, मलिक कुतुबुद्दीन हसन गोरी और फखरूल मुल्क इसामी जैसे प्रमुख विद्वान इल्तुतमिश के दरबार की शोभा बढ़ाते थे। उसके समय में ही नुरूद्दीन मुहम्मद ने लुबाव-उल-अल्बाव की रचना की।
- इल्तुतमिश के ही शासनकाल में फख्रे मुदब्बिर ने आदाब-उल-हर्ब नामक प्रथम भारतीय मुस्लिम ग्रंथ तैयार किया। यह कृति राजनयिक सिद्धान्त और राजकीय संघटन की कला पर आधारित थी।
- इल्तुतमिश ने कहा, “भारत अरब नहीं है। इसे दारूल इस्लाम में परिवर्तित करना व्यवहारिक रूप से सम्भव नहीं है।”
- इल्तुतमिश के वजीर का नाम निजाम-उल-मुल्क मुहम्मद जुनैदी था।
- इल्तुतमिश का आरिजे ममालिक (सैन्य प्रमुख) इमादुल मुल्क नामक एक गुलाम था। इसकी योग्यता से प्रभावित होकर इल्तुतमिश ने उसे रावत-ए-अर्ज की उपाधि से सम्मानित किया। बलबन के काल में भी उसे यह पद प्राप्त था।
- इल्तुतमिश ने कुतुबुमीनार का निर्माण कार्य पूर्ण करवाया।
- इल्तुतमिश ने बदायूं में जामा मस्जिद, नागौर (राजस्थान) में अतारकिन का दरवाजा बनवाया। इसके अतिरिक्त नासिरूद्दीन मुहम्मद का मकबरा, सुल्तानगढ़ी का मकबरा भी बनवाया। मकबरा शैली का जन्मदाता इल्तुतमिश को माना जाता है। सुल्तानगढ़ी का मकबरा सल्तनतकालीन प्रथम मकबरा माना जाता है।
- दिल्ली में मदरसा-ए- मुइज्जी का निर्माण भी इल्तुतमिश ने करवाया था।
- इल्तुतमिश के समय में अवध में पिर्थू विद्रोह हुआ था।
- इब्नबतूता लिखता है कि “इल्तुतमिश के महल के सामने संगमरमर के दो सिंह बने थे जिनके गले में घंटिया लटकी होती थी जिन्हें खींचने पर फरियादी को तुरन्त न्याय मिलता था।”
- इल्तुतमिश ऐसा पहला सुल्तान था जिसने ईरानी राजदरबार के रीति-रिवाज को अपने दरबार में आरम्भ किया।
- ख्वाजा-तश से तात्पर्य है- ‘एक मालिक का गुलाम’। तुर्की गुलाम सरदार स्वयं को ख्वाजा तश पुकारते थे।
- सर वुल्जले हेग के अनुसार, इल्तुतमिश गुलाम शासकों में सबसे महान शासक था।
- डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने इल्तुतमिश को गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक बताया है।
- आर.पी. त्रिपाठी ने इल्तुतमिश को भारत में मुस्लिम राज्य का वास्तविक संस्थापक माना है।
रूकनुद्दीन फिरोजशाह (1236 ई.)
सुल्तान इल्तुतमिश का सबसे बड़ा बेटा नासिरूद्दीन महमूद उसका योग्य उत्तराधिकारी साबित होता लेकिन 1229 ई. में ही उसकी मृत्यु हो चुकी थी। उसका दूसरा पुत्र रूकनुद्दीन फिरोजशाह आलसी और विलासी प्रवृत्ति का था, उसके अन्य पुत्रों की आयु अभी कम थी। ऐसे में इल्तुतमिश को अपना उत्तराधिकारी चुनने की आवश्यकता महसूस हुई। ग्वालियर विजय के दौरान इल्तुतमिश ने दिल्ली का कार्यभार रजिया पर छोड़ दिया था, ऐसे में रजिया ने कुशलतापूर्वक राजकार्य की पूर्ति की जिससे इल्तुतमिश इतना प्रभावित हुआ था कि चांदी के टंका पर रजिया का नाम अंकित करवाकर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। हांलाकि इल्तुतमिश के अमीरों ने रजिया के स्त्री होने के नाते उसका विरोध किया लेकिन इल्तुतमिश ने उनको यह कहकर शान्त कर दिया कि ‘मेरी मृत्यु के पश्चात यह पता लग जाएगा कि मेरी पुत्री के अतिरिक्त मेरे पुत्रों में से कोई भी शासक बनने के योग्य नहीं है।’
रूकनुद्दीन फिरोजशाह की मां शाह तुर्कान एक महत्वाकांक्षी तथा कुचक्री महिला थी। उसने इल्तुतमिश के प्रान्तीय इक्तेदारों के साथ मिलकर अपने पुत्र के पक्ष को दृढ़ कर लिया और इल्तुतमिश की मृत्यु के अगले ही दिन फिरोज को सुल्तान घोषित कर दिया। हांलाकि सुल्तान बनते ही फिरोजशाह भोग-विलास में फंस गया और अनावश्यक रूप से जनता में धन बिखेरने लगा। सुल्तान की मां शाह तुर्कान ने शाही परिवार की स्त्रियों और बच्चों पर अत्याचार करने आरम्भ किए और शासन की शक्ति का स्वयं उपभोग करने लगी।
शाह तुर्कान और फिरोज के व्यवहार से सल्तनत के अमीरों और सरदारों में असंतोष और ज्यादा गहरा गया। जब इल्तुतमिश के छोटे पुत्र कुतुबुद्दीन को अन्धा करके मरवा दिया गया तब सरदारों का फिरोज और उसकी मां पर कोई भरोसा न रहा। ऐसे में फिरोज के भाई और अवध के सूबेदार गियासुद्दीन ने विद्रोह करके बंगाल से दिल्ली आने वाले शाही खजाने और निकट के कई नगरों को लूट लिया। दूसरी तरफ प्रान्तीय इक्तादारों में बदायूं के सूबेदार मलिक इजाउद्दीन मुहम्मद सालारी, मुल्तान के इक्तादार कबीर खां ऐयाज, हांसी के इक्तादार सैफुद्दीन कूची, लाहौर के इक्तादार मलिक अलाउद्दीन जानी ने सम्मिलित रूप से विद्रोह कर दिया और अपनी-अपनी सेनाएं लेकर दिल्ली की ओर बढ़े। जब फिरोज अपनी शाही सेना लेकर इस विद्रोह को दबाने के लिए आगे बढ़ा तब कुहराम के पास उसकी सेना के ज्यादातर सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। इस प्रकार विवश होकर फिरोज को दिल्ली वापस लौटना पड़ा।
दिल्ली में फिरोज की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर रजिया शुक्रवार की नमाज के समय लाल वस्त्र पहनकर जनता के सामने गई। उसने जनता को इल्तुतमिश की इच्छा याद दिलाई और कहा कि शासक बनने का अवसर मिलने पर यदि वह अयोग्य साबित हुई तो उसका सिर काट लिया जाए। इस प्रकार दिल्ली की जनता ने उत्साहित होकर रजिया को सुल्तान के रूप में स्वीकार कर लिया। दिल्ली की गद्दी पर बैठते ही रजिया ने फिरोज की मां शाह तुर्कान को कारागार में डलवा दिया और फिरोज को कैद कर उसका कत्ल कर दिया गया। इस प्रकार रूकनुद्दीन फिरोजशाह का कार्यकाल महज सात महीने में उसके जीवन के साथ ही समाप्त हो गया और रजिया को दिल्ली का सिंहासन नसीब हुआ।
सम्भावित प्रश्न-
- सुल्तान इल्तुतमिश ने अपनी समस्याओं का आसानी से समाधान किया, विवेचना कीजिए?
- दिल्ली सल्तनत के वास्तविक संस्थापक के रूप में इल्तुतमिश की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए?
- इक्ता से क्या तात्पर्य है? इल्तुतमिश ने इक्तेदारी व्यवस्था क्यों लागू की?
- इल्तुतमिश के मुद्रा सुधार तथा तुर्कान-ए-चिहालगानी पर टिप्पणी लिखिए?
- इल्तुतमिश ने मंगोल आक्रमणकारी चंगेज खान से अपने साम्राज्य को किस प्रकार से सुरक्षित किया? वर्णन कीजिए?
- रूकनुद्दीन फिरोजशाह के अयोग्य शासन का किस प्रकार अन्त हुआ, मूल्यांकन कीजिए?