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History of Mahatma Gandhi's love for goat

कितना महंगा था महात्मा गांधी का बकरी प्रेम !

महात्मा गांधी रोजाना बकरी का दूध पीते थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में महात्मा गांधी जहां भी जाते थे, उनके लिए बकरी के दूध की व्यवस्था जरूर की जाती थी। यहां तक कि साल 1931 में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में शिरकत करने के लिए जब महात्मा गांधी लंदन गए थे तब भी अपने साथ दो ब​करियां ले गए थे। ऐसे में महात्मा गांधी का बकरी प्रेम जगजाहिर है। महात्मा गांधी ने जो बकरियां पाल रखी थी, उनकी देखभाल वह स्वयं करते थे। इस बात का उल्लेख गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में भी किया है। परन्तु यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि महात्मा गांधी का बकरी प्रेम कितना महंगा था। यह जानने के लिए इस रोचक स्टोरी को जरूर पढ़ें।

महात्मा गांधी क्यों पीने लगे बकरी का दूध

स्टोरी तब शुरू होती है, जब महात्मा गांधी साल 1919 में बवासीर से पीड़ित थे। बवासीर के कारण वह शारीरिक रूप से काफी कमजोर हो चुके थे। अत: बवासीर के ऑपरेशन के लिए गांधीजी मुंबई पहुंचे जहां डॉ. दलाल ने उनसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि यदि दूध का सेवन करेंगे तभी मैं आप को स्वस्थ्य कर पाउंगा। परन्तु महात्मा गांधी ने तो गाय-भैंस का दूध नहीं पीने की कसम खा रखी थी।

ऐसे में कस्तूरबा गाँधी ने महात्मा गांधी को बकरी का दूध पीने की सलाह दी। डॉ. दलाल ने भी कस्तूरबा के सुझाव का समर्थन किया। इसके बाद गांधी जी ने बकरी का दूध पीना स्वीकार किया। तत्पश्चात डॉ. दलाल ने गांधी जी के बवासीर का सफल आपरेशन किया और गांधीजी के स्वास्थ्य में तेजी से सुधार हुआ। फिर क्या था, महात्मा गांधी को बकरी के दूध से इतना प्रेम हो गया कि वह जहां भी जाते उनके लिए बकरी के दूध की व्यवस्था की जाती थी।

महात्मा गांधी का बकरी प्रेम

महात्मा गांधी प्रतिदिन बकरी का दूध पीते थे, इसलिए उनके लिए बकरी पालना जरूरी हो चुका था। अत: महात्मा गांधी के लिए एक बकरी लाई गई। महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘The Story of My Experiments with Truth’ के अनुसार, वह अपनी बकरी की देखभाल बहुत प्यार से करते थे। गांधीजी ने जो बकरी पाल रखी थी, उसका नाम निर्मला था। यह बकरी उनके साथ तकरीबन सात साल तक रही।

महात्मा गांधी जब 1931 ई. में द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन जाने लगे तो अपने साथ दो बकरियां भी ले गए थे। इस दौरान लंदन के एक पत्रकार ने गांधी जी से सवाल पूछा कि द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने आए हैं फिर ये बकरियां क्यों साथ लाए हैं? जवाब में गांधीजी ने हमेशा की तरह स्वदेशी का गुणगान और विदेशी बहिष्कार की बात की। तब उस चालाक पत्रकार ने कहा कि ये तो इटली की बकरियां हैं, इनका यहां क्या काम है।

कहते हैं, महात्मा गांधी की बकरी को काजू-बादाम खिलाया जाता था ताकि गांधीजी को पौष्टिक दूध मिल सके। यहां तक उसे महंगे सोप से नहलाया भी जाता था। गांधीजी की बकरी के खाने का रोजाना खर्च 10 से 20 रुपए तक था, जो उस जमाने में एक स्कूल टीचर की महीनेभर की तनख्वाह हुआ करती थी। जाहिर जितने खर्चे में भारत का कोई पढ़ा-लिखा आदमी महीनेभर अपने परिवार का गुजारा करता था, उतने रुपए तो गांधीजी की बकरी रोज खा जाती थी। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि गांधीजी की बकरी को आखिर में किस प्रकार से रखा जाता था कि उसका रोजाना खर्च इतना महंगा था।

बकरियों को खिलाए गए हफ्तेभर सूखे मेवे

साल 1933 में महात्मा गांधी का खंडवा दौरा था, यहां घंटाघर चौक पर आमसभा होनी थी। लिहाजा कई स्वतंत्रता सेनानी भी आए हुए थे। चूंकि वहां इंतजार कर रहे स्वतंत्रता सेनानियों को पहले से पता था कि गांधीजी बकरी का दूध पीना पसन्द करते हैं, अत: उनके लिए खास व्यवस्था की गई। स्थानीय लोगों के माध्यम से बकरियों का इंतजाम किया गया और इन बकरियों को तकरीबन हफ्तेभर पहले से सूखे मेवे खिलाए गए ताकि गांधीजी को बेहद पौष्टिक दूध मिल सके।

जब सुभाषचन्द्र बोस के भाई ने मंगवाई 15 बकरियां

साल 1932 में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक कोलकाता में सुभाष चन्द्र बोस के बड़े भाई श्री शरत चन्द्र बोस के घर में आयोजित करने का निर्णय लिया गया। बता दें कि उन दिनों शरतचन्द्र बोस कोलकाता में कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार किए जाते थे। कांग्रेस कार्यसमिति की यह बैठक इसलिए खास बन चुकी थी क्योंकि इसमें महात्मा गांधी शामिल होने के लिए बड़ी मुश्किल से राजी हुए थे।

परन्तु एक बड़ी समस्या यह थी कि वह प्र​तिदिन बकरी का ताजा दूध पीते थे। गांधीजी के लिए बकरी की दूध की व्यवस्था उनके निजी सचिव महादेव देसाई किया करते थे। इसके लिए शरतचन्द्र बोस ने गांधीजी के लिए 15 बकरियां मंगवाई ताकि महादेव देसाई इनमें से किसी एक उत्तम बकरी का चयन कर सकें।

उद्योगपति घनश्याम दास बिरला ने खरीदी 50 बकरियां

राजस्थान के शेखावटी क्षेत्र में स्थित पिलानी शहर मशहूर उद्योगपति श्री घनश्यामदास बिड़ला का पैतृक स्थल है। पिलानी अपने बेहतरीन मौसम के ​लिए भी विख्यात है। चूंकि गांधीजी और उद्योगपति घनश्यामदास बिड़ला की दोस्ती जगजाहिर थी, इसी घनिष्ठता के चलते वह कुछ दिन पिलानी में रहना चाहते थे।

ऐसे में गांधीजी के पिलानी आगमन से पूर्व बिरला परिवार ने उनके लिए पिलानी स्थित विद्याविहार कैम्पस में एक बड़े आकार का झूंपा बनवाया। इतना ही नहीं, गांधीजी के लिए बकरी के दूध की व्यवस्था हेतु 50 बकरियां भी खरीदी गईं। परन्तु इन्हीं दिनों भारत छोड़ो आन्दोलन की शुरूआत हो गई और महात्मा गांधी पिलानी नहीं आ पाए।

सरोजिनी नायडू का चर्चित बयान

हर पल अहिंसा की बात करने वाले महात्मा गांधी का गुस्सा जगजाहिर है। इस बारे में मीराबेन और सरोजिनी नायडू तो गांधीजी को आग का गोला कहती थीं, कि कब वो फट पड़ें किसी को पता नहीं। गांधीजी का झोपड़ी में रहना, बकरियों का दूध पीना और ट्रेन के थर्ड क्लास डिब्बे में यात्रा करना, देश की आम की जनता को खूब रास आया।

देश के गरीब लोगों ने सोचा कि हमारे देश का यह महानायक एक गरीब आदमी की तरह रहता है, परन्तु शायद उन्हें यह नहीं पता था कि गांधीजी की गरीबी कितनी महंगी थी। भारतीय मुक्ति संग्राम के बड़े नेताओं में शुमार सरोजिनी नायडू ने एक बार मजा​किए लहजे में कहा था कि “महात्मा गांधी को गरीब रखने के लिए, हमें खजाने को लुटाते रहना होगा। उनकी गरीबी बहुत महंगी है।

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