भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की बागडोर संभालने वाले महात्मा गांधी के बारे में कुछ भी जानने से पहले उनके दक्षिण अफ्रीका प्रवास के बारे में जानना जरूरी हो जाता है क्योंकि यही वो देश है जहां से वह गांधीवादी रणनीति व संघर्ष के तरीकों की खामियां और मजबूतियां, दोनों को ही अच्छी तरह से जान गए।
इंग्लैंड से बैरिस्टर की उपाधि लेकर लौटे महात्मा गांधी 24 साल की उम्र में वर्ष 1893 ई. में दक्षिण अफ्रीका गए। दरअसल महात्मा गांधी एक गुजराती व्यापारी दादा अब्दुला झावेरी का मुकदमा लड़ने के लिए डरबन पहुंचे। आपको यह बात जानकर हैरानी होगी कि दक्षिण अफ्रीका की धरती पर कदम रखने वाले पहले भारतीय बैरिस्टर महात्मा गांधी ही थे।
दक्षिण अफ्रीका के गोरे पहली बार 1860 ई. में गन्ने की खेती करने के लिए इकरारनामे के तहत भारतीय मजूदरों को अपने यहां ले गए। इसके बाद से दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के बसने का सिलसिला शुरू हो गया जो आज तक जारी है। दक्षिण अफ्रीका में जब भारतीय मजदूर गए तो उनके पीछे-पीछे व्यापारी भी गए, जिसमें ज्यादातर मेमन मुसलमान थे। दक्षिण अफ्रीका में ऐसे भारतीय भी थे, जो इकरारनामें की अवधि खत्म हो जाने के बाद वहीं बस गए। दक्षिण अफ्रीका में जो भारतीय बस गए थे, उनमें से ज्यादातर अशिक्षित थे, थोड़े-बहुत पढ़े लिखे थे लेकिन अंग्रेजी का ज्ञान नाममात्र का था।
दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीयों के साथ गोरे आए दिन जातीय भेदभाव करते थे। हांलाकि भारतीय प्रवासी भी इसे अपनी नियति मान चुके थे लेकिन इनके बीच एक ऐसा युवक पहुंचा जिसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी था, जो अत्याचार सहने का आदी नहीं था। ब्रिटेन से बैरिस्टर बनकर लौटे मोहनदास करमचंद गांधी गुजरात के एक सम्मानित परिवार के सदस्य थे। ब्रिटेन में तीन साल रह चुके गांधी को दक्षिण अफ्रीका में पहली बार रंगभेद का सामना करना पड़ा था।
यह घटना उन दिनों की है, जब डरबन में सात दिन रहने के बाद गांधीजी प्रिटोरिया के लिए रवाना हुए। इस दौरान उन्हें रास्ते में कई बार अपमानित किया गया। यह बात तो सभी जानते हैं कि एक बार एक गोरे ने उन्हें ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे से उतार दिया था। गांधीजी के पास प्रथम श्रेणी का टिकट था, बावजूद इसके उन्हें जबरदस्ती ट्रेन से नीचे उतार दिया गया। गांधीजी ने तब यात्री प्रतिक्षालय में ठिठुरते हुए जाड़े की रात बिताई थी। इससे भी बढ़कर कुछ ऐसी शर्मनाक घटनाएं महात्मा गांधी के साथ हुईं जिनके बारे में जानकर आप दंग रह जाएंगे।
गांधीजी ने एक गाड़ी में यात्रा करने के लिए प्रथम श्रेणी का टिकट खरीदा था। लेकिन दक्षिण अफ्रीकी गोरों ने उन्हें प्रथम श्रेणी की जगह ड्राइवर के साथ बैठने को कहा। इतना ही नहीं उन्हें ड्राइवर के पास भी बैठने के लायक नहीं समझा गया और उनसे पायदान पर बैठने को कहा गया। जब उन्होंने पायदान पर बैठने का विरोध किया तो उन्हें मारापीटा गया। जोहांसबर्ग पर उतरने के बाद रात बिताने के लिए गांधीजी ने होटल में कमरा लेना चाहा और जिस होटल में भी गए उन्हें यही जवाब मिला कि कमरा खाली नहीं है।
इतना ही नहीं जोहांसबर्ग से प्रिटोरिया जाने के लिए जब महात्मा गांधी ने प्रथम श्रेणी का टिकट मांगा तो बुकिंग क्लर्क ने टिकट देने से इनकार कर दिया। गांधीजी के द्वारा तमाम रेलवे कानूनों का हवाला देने के बाद उन्हें किसी तरह फर्स्ट क्लास का टिकट मिला। इस बार भी उन्हें ट्रेन से धक्का मारकर बाहर निकाला जाने लगा लेकिन किसी दूसरे गोरे के विरोध करने पर वे प्रथम श्रेणी के डिब्बे में यात्रा कर पाए।
मुकदमे की पैरवी करने के लिए प्रिटोरिया पहुंचने के बाद गांधीजी ने सबसे पहले भारतीयों की एक बैठक आयोजित की और गोरों के अत्याचार का विरोध करने की अपील की। गांधीजी ने प्रेस के माध्यम से भी अपना विरोध जाहिर किया। उन्होंने नटाल एडवर्टाइजर को एक पत्र लिखा- “क्या यही ईसाइयत है, यही मानवता है, यही न्याय है, इसी को सभ्यता कहते हैं?”
गौरतलब है कि दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी का अनुभव एक तरह से अनोखा था। ऐसे में दक्षिण अफ्रीका में जब उन्होंने भारतीय विरोध-पत्र तैयार किया तो कई चीजें हक से मांगी, जिनमें ट्रेन से प्रथम श्रेणी का टिकट और होटल में ठहरने के लिए कमरा पहले पायदान पर थे। हैरानी की बात यह है कि इससे पहले दक्षिण अफ्रीका में कोई भारतीय इस तरह की बात करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता था।