
दिल्ली सल्तनत सैन्य शक्ति पर आधारित थी अत: सुल्तानों की शक्ति उनके सैनिक बल पर निर्भर करती थी। तकरीबन सभी सुल्तान भारत में इस्लाम की सत्ता स्थापित और विस्तृत करने के लिए प्रयत्नशील रहे। यही वजह है कि सम्पूर्ण सल्तनत युग में सुल्तानों को हिन्दू राजाओं से संघर्ष और आंतरिक विद्रोहों का सामना करना पड़ा। दिल्ली के सुल्तानों को काफी लम्बे समय तक मंगोल आक्रमणों का भी सामना करना पड़ा। इन परिस्थितियों में सुल्तान के लिए एक बड़ी सेना रखना आवश्यक था।
सैन्य संगठन मुख्यत: तुर्की और मंगोल पद्धति पर आधारित था। सल्तनत युग में चार प्रकार के सैनिक होते थे।
1- वे सैनिक जो स्थायी रूप से सुल्तान के सैनिक के रूप में भर्ती किए जाते थे। इनमें शाही अंगरक्षक, शाही गुलाम और कुछ अन्य सैनिक सम्मिलित होते थे। इस सेना को ‘खास-खेल’ पुकारा जाता था।
2- वे सैनिक जो प्रान्तीय सूबेदारों (इक्तादारों) और दरबार के सरदारों आदि के द्वारा भर्ती किए जाते थे।
3- वे सैनिक जो केवल युद्ध के समय ही भर्ती किए जाते थे।
4- मुसलमान स्वयंसेवक जो हिन्दुओं के विरूद्ध जिहाद के लिए युद्ध में सम्मिलित होते थे।
दिल्ली सल्तनत के सैन्य संगठन में सुधार
इल्तुतमिश- सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था का शुभारम्भ इल्तुतमिश के शासनकाल से होता है। उसके शासनकाल में सल्तनत की सेना को ‘हश्म-ए-कल्ब’ (केन्द्रीय सेना) या ‘कल्ब-ए-सुल्तानी’ कहा जाता है। इसी में अलग से एक नए वर्ग का नाम ‘बंदगान-ए-खास’ या ‘खादम-ए-खास’ था। इल्तुतमिश की सेना का गठन गुलामों के रूप में भर्ती किए गए सैनिकों की शक्ति पर आधारित था। इन सैनिकों का सैन्य संगठन में एक विशिष्ट स्थान था।
इल्तुतमिश के काल में प्रान्तों में जो सेना रखी गई थी उसे ‘हश्म-ए-अतरफ’ कहा जाता था। शाही घुड़सवार सेना को ‘सवार-ए-कल्ब’ कहा जाता था। सैनिकों को नकदी वेतन नहीं दिया जाता था वरन इसके बदले उन्हें ‘अक्ता’ प्रदान किया जाता था। सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने शाही अंगरक्षकों का दल संगठित किया जिसे ‘सर-ए-जांदार’ कहते थे।
बलबन- बलबन ने केंद्रीय सैन्य निकाय यानी दीवान-ए-अर्ज़ का पुनर्गठन किया। उन्होंने अरिज-ए-ममालिक की प्रतिष्ठा और अधिकार को भी बढ़ाया। बलबन ने ‘सवार-ए-कल्ब’ (शाही घुड़सवार सेना) में काफी वृद्धि की। अनुभवी सेनानायकों की नियुक्ति की। उसने दो रक्षा इकाइयाँ भी स्थापित कीं। राजकुमार मुहम्मद के अधीन लाहौर, मुल्तान और दीपालपुर प्रांत पहले थे। उसके सबसे छोटे बेटे राजकुमार बुगरा खान ने सुनाम, समाना और भटिंडा में दूसरी इकाई की स्थापना की।
अलाउद्दीन खिलजी- दिल्ली सल्तनत के इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी ऐसा प्रथम सुल्तान था जिसने एक विशाल स्थायी सेना का गठन किया था जिसकी भर्ती सीधे केन्द्रीय सरकार करती थी। अलाउद्दीन खिलजी सैनिकों को नकद भुगतान देने वाला पहला सुल्तान था। इतना ही नहीं, अलाउद्दीन खिलजी ने अपनी सेना को वेतन देने के साथ-साथ छह महीने का वेतन इनाम के रूप में नकद दिया।
आरिज-ए-ममालिक का काम योद्धाओं की तत्काल भर्ती व सैन्य भर्ती के आंकड़ों को रखना था। अलाउद्दीन खिलजी ने दाग (घोड़े पर दाग लगाना) और हुलिया या चेहरा (वर्णनात्मक सैन्य कर्तव्य) प्रणाली की स्थापना की। शाही फौज के एक घोड़ा रखने वाले अश्वारोही सैनिक का वार्षिक वेतन 234 टंका तथा दूसरा घोड़ा रखने के लिए दो-अस्पा सैनिक को 78 टंका वार्षिक अतिरिक्त प्रदान किया जाता था। अलाउद्दीन खिलजी ने घोड़े को दागने की प्रथा इसलिए प्रारम्भ की ताकि उसकी अदला-बदली न हो सके। अलाउद्दीन खिलजी के पास पैदल सेना के अतिरिक्त 4,75,000 घुड़सवार थे।
मुहम्मद बिन तुगलक - मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में सेना का वर्गीकरण खान, मलिक, अमीर, सिपहसालार तथा व्यक्तिगत सैनिकों के रूप में था। 10000 सवारों का सेनानायक खान, 1000 सवारों का सेनानायक मलिक, 100 सवारों सेनानायक अमीर तथा 10 सवारों का सेनानायक सिपहसालार कहलाता था। शाही सैनिकों का वेतन 600 टंका वार्षिक था। उपरोक्त सेनानायकों को वेतन के अतिरिक्त भोजन, वस्त्र तथा घोड़े का चारा-दाना मुफ्त में मिलता था।
फिरोज तुगलक- सुल्तान फिरोज तुगलक के काल में दिल्ली सल्तनत का आकार छोटा हो चुका था। ऐसे में उसने सेना को नकद वेतन देने के स्थान पर अक्ता के रूप में वेतन देने की प्रथा फिर से शुरू की। उसने सेना के संगठन को सामन्ती रूप दिया तथा पूरी तरह से जागीरदारों द्वारा प्रदान की गई सेना पर निर्भर रहना शुरू कर दिया। योद्धाओं को वंशानुगत भूमि दी जाती थी। इस प्रकार फिरोजशाह तुगलक ने सेना का लगभग सत्यानाश कर दिया।
इसके अलावा फिरोज तुगलक ने सेना में दासों को भर्ती करना प्रारम्भ किया। इस व्यवस्था के घातक परिणाम हुए, परवर्ती तुगलक सुल्तानों के शासनकाल में दास सैनिक राज्य के मामलों में खुलेआम हस्तक्षेप करने लगे तथा हत्या व षड्यंत्र जैसे कुचक्रों में भाग लेने लगे।
लोदी सुल्तान- लोदी काल में अफगानों की प्रजातंत्रात्मक मनोवृत्ति के कारण सेना का स्वरूप बदल गया तथा वह जनजातीय लड़ाकू सेना हो गई।
सल्तनतकालीन सेना का स्वरूप
युद्ध के समय सूबेदारों एवं अमीरों की सेनाएं ‘दीवान-ए-आरिज’ के अधीन होती थीं। प्रान्तीय सेना के वेतन, अनुशासन व उसके संगठन का भार सूबेदार के उपर ही था। सल्तनत की सेना का स्वरूप राष्ट्रीय नहीं था। सेना में तुर्क, अफगान, ताजिम, ईरानी, मंगोल, हिन्दू आदि सभी वर्गों के लोग थे। यद्यपि उच्च पदों पर विदेशी मुसलमानों की नियुक्ति की जाती थी। हांलाकि दिल्ली सल्तनत की सेना में अधिकांशत: मुसलमान होते थे, सेना की शक्ति सेनापति अथवा सुल्तान के सेनापतित्व व योग्यता पर निर्भर करती थी।
सेना के अंग- दिल्ली सल्तनत की सेना के तीन प्रमुख अंग थे। 1- घुड़सवार सेना। 2- गज सेना। 3- पैदल सेना (पायक) जिसमें अधिकांश धनुर्धर थे।
घुड़सवार सेना
सल्तनतकालीन सैन्य संगठन में सबसे ज्यादा महत्व घुड़सवार सेना का था। घोड़ों का आयात अरब, तुर्कीस्तान, रूस और अन्य सुदूरस्थ देशों से किया जाता था। सेना की सफलता काफी हद तक घुड़सवार की शक्ति और गतिशीलता पर निर्भर करती थी। प्रत्येक सवार के पास दो तलवारें, एक भाला और धनुष-बाण होता था। सैनिक कवच पहनते थे तथा घोड़ों को फौलादी बख्तर पहनाए जाते थे। घुड़सवार सैनिक भी तीन भागों में विभाजित थे। 1. मुरतब- दो घोड़ों वाला सैनिक। 2. सवार - एक घोड़े वाला सैनिक। 3. दो अस्पा- जिसके पास एक घोड़ा फालतू होता था।
गज सेना
सुल्तान हाथियों पर बहुत अधिक विश्वास करते थे, हाथी रखना सुल्तान का विशेषाधिकार माना जाता था। सुल्तान के अतिरिक्त किसी अमीर अथवा सूबेदार को हाथियों की सेना रखने की अनुमति नहीं थी। हाथी मुख्य रूप से बंगाल से प्राप्त किए जाते थे। इस विभाग की देखरेख ‘शहना-ए-पील’ नामक अफसर करता था। सामान्यत: सेना के बाएं और दाएं भाग के लिए अलग-अलग ‘शहना’ होते थे।
हाथियों को युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया जाता था। युद्ध के दौरान हाथियों को बख्तर से सुरक्षित किया जाता था और उनकी सूंड में तलवार अथवा हंसिए रख दिए जाते थे। हाथी की पीठ पर हौदा रखा जाता था जिसमें योद्धा सैनिक बैठते थे।
पैदल सेना
पैदल सैनिक ‘पायक’ कहलाते थे। पैदल सैनिक तलवार, बरछा-कटार, धनुष-बाण, ढाल आदि का इस्तेमाल करते थे। सल्तनत काल में बारूद, गोले या तोपखाने का निर्माण नहीं किया गया था। यद्यपि कुशकंजिर, मगरिब, मंजनिक तथा अरादा का वर्णन मिलता है। इनका प्रयोग भारी पत्थर फेंकने या धातु के गोले फेंकने में किया जाता था। इन हथियारों से किले की दीवार तथा मीनार आदि नष्ट किए जाते थे। चर्ख (शिला प्रक्षेपास्त्र) और फलाखून (गुलेल) का भी प्रयोग किया जाता था। गरगज एक चलायमान मंच था जिस पर खड़े होकर घेरा डालने वाले अधिकतम ऊंचाई पर पहुंचकर शत्रु पर आक्रमण कर सकते थे। ‘सबत’ एक सुरक्षित गाड़ी थी जो प्रक्षेपक से रक्षा करती थी।
सेना के अन्य अंग
किलों को सुरक्षा पंक्ति का एक मुख्य भाग समझा जाता था जिसकी सुरक्षा के आश्यक प्रबन्ध किए जाते थे। प्रत्येक किले का एक दुर्गपाल होता था जिसे सामान्यतया कोतवाल कहा जाता था। किले के सर्वोच्च अधिकारी कोतवाल अथवा किलेदार के पास ही किले की चाबी होती थी। किले खाद्यान्न तथा चारे से पूरी तरह भरे होते थे। सुल्तानों के पास नदी में चलने वाली नावों का एक बेड़ा होता था जिसे ‘बहर’ कहते थे, इसका अध्यक्ष ‘अमीर-ए-बहर’ कहलाता था।
सैन्य विभाग का प्रमुख ‘आरिज-ए-मुमालिक’ कहलाता था तथा प्रान्तों में भी इसी के समान आरिज होते थे। इनका कार्य सेना का संगठन, संचालन, अनुशासन, नियंत्रण आदि करना होता था। सैन्य अभियानों में अरिज-ए-मुमालिक सुल्तान के बाद दूसरे स्थान पर था। संघर्ष के समय, वह उस समय चुने गए कमांडर-इन-चीफ के बाद दूसरे स्थान पर था।
अश्वशाला का प्रमुख पदाधिकारी ‘अमीर-ए-आखूर’ एक अन्य महत्वपूर्ण सैन्य अधिकारी था। वह सेना को शक्तिशाली और सक्षम बनाए रखने के साथ-साथ सैनिकों, घोड़ों आदि के भोजन की भी व्यवस्था करता था। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सल्तनत काल में सैन्य संगठन पर पर्याप्त ध्यान दिया गया था परन्तु उसमें अनेक अवगुण भी थे जो आगे चलकर दिल्ली सल्तनत के विघटन के कारण बने।
सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य
1. केन्द्रीय सेना ‘हश्म-ए-कल्ब’ या ‘कल्ब-ए-सुल्तानी’ की स्थापना की थी — इल्तुतमिश ने।
2. सल्तनतकाल में शाही घुड़सवार सेना को कहा जाता था — सवार-ए-कल्ब।
3. सरदारों एवं इक्तादारों की सेना को कहा जाता था — हश्म-ए-अतरफ।
4. सुल्तान अथवा शाही महल की स्थायी सेना को कहा जाता था — खासखेल।
5. वह सुल्तान जो अपनी सेना को प्रशिक्षण हेतु शिकार पर ले जाता था — बलबन।
6. प्रान्तीय सेना का अफसर था — प्रान्तीय आरिज।
7. वह सेना जिसका निरीक्षण सुल्तान वर्ष में एक बार करता था — प्रान्तीय आरिज।
8. सल्तनतकालीन सेना के तीन अंग थे — घुड़सवार, गज सेना, पदाति व पायक।
9. सैनिकों का हुलिया रखना आरम्भ किया था— अलाउद्दीन खिलजी।
10. वह प्रणाली जिस पर सल्तनतकालीन सेना का गठन एवं पदों का विभाजन हुआ था — दशमलव प्रणाली।
11. सौ अश्वरोही सैनिकों का अफसर कहलाता था — सिपहसालार।
12. दस सिपहसालारों के प्रधान को कहा जाता था — अमीर।
13. एक हजार अश्वारोही सैनिकों का अफसर कहलाता था — अमीर
14. दस अमीरों की एक टुकड़ी का प्रधान कहलाता था — मलिक।
15. दस मलिकों की टुकड़ी को कहा जाता था — खान।
16. एक खान के अधीन होते थे — एक लाख अश्वारोही।
17. दस खान (सर्वोच्च सेनापति) से श्रेष्ठ अफसर होता था — सुल्तान।
18. सल्तनत काल में गोला फेंकने वाले यंत्र को कहा जाता था — मंगलीक व अर्रादा।
19. वह अधिकारी जो युद्ध की सम्पूर्ण जानकारी राजधानी को भेजता था — ‘साहिब-ए-बरीद’।
20. शत्रु सेना की गतिविधियों की सूचना एकत्र करने वाले गुप्तचर थे — तलेअह एवं यज्की।
21.सल्तनतकाल में उत्तम नस्ल के घोड़े मंगाए जाते थे — तुर्की, अरब व रूस से।
22.सल्तनतकाल में हाथी मंगाए जाते थे — बंगाल से।
23.सल्तनकाल में युद्ध विभाग को कहा जाता था —‘दीवान-ए-अर्ज’।
24.पैदल सैनिक कहलाते थे— पायक ।
25. शाही घोड़ों की नस्ल तथा घोड़ों का प्रबन्ध करने वाला विभाग— पायगाह ।
26. एक सैनिक अफसर कहलाता था — फौजदार।
27. घने जंगल या पहाड़ आदि की तरह का ऐसा स्थान जहां विद्रोही रक्षा के लिए छुप जाते थे— मवास।
28.दिल्ली की सेना को हश्म-ए-कल्ब, प्रान्तीय सेना को हश्म-ए-अतरफ कहा जाता था।
29. सैनिकों का ‘वेतन रजिस्टर’ कहा जाता था— वसीलात-ए-हश्म।
30. वह कौन सा सुल्तान था जिसने सर्वप्रथम किले बनाने पर ध्यान दिया— बलबन।
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