
अब तक यह बात सर्वविदित हो चुकी है कि भारत के ‘प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ (1857 की महाक्रांति) में तवायफों ने भी महती भूमिका निभाई थी। लखनऊ की बेगम हज़रत महल (शादी से पहले तवायफ) और कानपुर की अज़ीज़न बाई तो इतिहास में नामचीन उदाहरण हैं, परन्तु न जानें कितनी ऐसी तवायफें थी जो 1857 की महाक्रांति के दौरान ब्रिटिश हुकूमत से जुड़ी जरूरी सूचनाएं क्रांतिकारियों तक पहुंचाने का काम करती थीं। इतना ही नहीं, ये तवायफें क्रांतिकारियों को अपने कोठों पर शरण देती थीं और उन्हें आर्थिक मदद भी प्रदान करती थीं।
ठीक इसी प्रकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में भी असंख्य तवायफों ने राष्ट्रवादी आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी करने के साथ-साथ क्रांतिकारियों की भी भरपूर मदद की थी। इस रोचक स्टोरी में हम आपको बनारस की उन मशहूर तवायफों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिन्होंने महात्मा गांधी द्वारा जारी असहयोग आन्दोलन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
महात्मा गांधी 13 बार आए थे बनारस
महात्मा गांधी साल 1902 से 1942 के बीच 13 बार बनारस आए। हर बार वह तकरीबन बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय व काशी विद्यापीठ में ही रूकते थे और विद्यार्थियों के बीच सभाएं करते थे। 30 मई 1920 को लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में बनारस में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई थी जिसमें महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव रखा जिसे सर्वसम्मति से स्वीकार किया गया। महात्मा गांधी ने साल 1921 के शुरूआती दौर में देशव्यापी दौरा किया था, तब भी उन्होंने बहिष्कार और असहयोग का दर्शन समझाने के लिए बनारस की यात्रा की। परिणामस्वरूप असहयोग आंदोलन में बनारस अग्रणी रहा।
साल 1921 में बनारस में असहयोग के साथ -साथ रचनात्मक कार्यक्रम भी हुए। बनारस में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई गई और विदेशी सरकार से सहायता प्राप्त या संचालित शिक्षण संस्थाओं का बहिष्कार किया गया। ऐसे में महात्मा गांधी का प्रभाव न केवल बुद्धिजीवियों, विद्यार्थियों, राजनेताओं पर पड़ा अपितु बनारस की गलियों, महलों एवं जनता में मशहूर तवायफों पर भी पड़ा। बनारस की तवायफों ने गांधीजी द्वारा जारी असहयोग आन्दोलन को मजबूत करने के लिए कई मजबूत कदम उठाए।
असहयोग आन्दोलन और बनारस की तवायफें
एक जमाना था जब चौक, मणिकर्णिका घाट और दालमंडी में तवायफों के कोठे हुआ करते थे। वाराणसी की दालमंडी वर्तमान में व्यापार और व्यापारियों का केन्द्र बन चुकी है, परन्तु किसी जमाने में इसकी गली में तवायफों की घूंघरूओं की आवाज सुनाई दिया करती थी। इन्हीं तवायफों ने भारतीय मुक्ति संग्राम में अपनी सशक्त भागीदारी से ब्रिटिश हुकूमत की नींद हराम कर रखी थी।
बनारस की मशहूर तवायफों में राजेश्वरी बाई, जद्दन बाई, ज़ोहरा बाई, रसूलन बाई से लेकर हुस्ना बाई, विद्याधरी बाई, गौहर जान कुछ ऐसे प्रमुख नाम हैं, जिनके नेतृत्व में बनारस की तवायफों ने भारतीय मुक्ति संग्राम में सशक्त भागीदारी की थी।
तवायफ और ठुमरी गायिका हुस्ना बाई
बनारस की तवायफ हुस्ना जान अथवा हुस्ना बाई खयाल, ठुमरी और टप्पा गायकी में पूरे उत्तर प्रदेश में मशहूर थीं। जब महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन शुरू किया तो हुस्ना बाई ने महिला गायकों को भजन और देशभक्ति गीतों का गायन कर जीविकोपार्जन के लिए प्रेरित किया। हुस्ना बाई ने साथी तवायफों को सलाह दी कि इसके लिए वे बनारस की एक अन्य प्रसिद्ध गायिका व तवायफ विद्याधरी बाई से इन गीतों को एकत्र करें।
इसके पीछे हुस्ना बाई का उद्देश्य तवायफों की गरिमा से जुड़ा था क्योंकि इनके पेशे को आमतौर पर नीचा बताया जाता था। हुस्ना बाई की वजह से ही कुछ गायिकाएं चरखा आन्दोलन से जुड़ गईं। हुस्ना बाई ने असहयोग आन्दोलन के समर्थन में बनारस में ‘तवायफ सभा’ का गठन किया। तवायफ सभा के उद्धघाटन के दौरान अपने अध्यक्षीय भाषण में हुस्ना बाई ने बनारस की तवायफों से यह अपील किया कि वे ब्रिटिश हुकूमत के विरोध के तौर पर सोने के गहनों के बदले लोहे की बेड़ियां पहनें और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करें। इस कार्यक्रम में हुस्ना बाई ने एक राष्ट्रवादी कविता का पाठ भी किया।
तवायफ रसूलन बाई
आजाद भारत में संगीत नाट्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित की जाने वाली रसूलन बाई को ‘फुलगेंदवा न मारो, लगत करेजवा में चोट...’ जैसे गीत ने मशहूर कर दिया था। रसूलन बाई को महात्मा गांधी के असहयोग आन्दोलन ने इस कदर प्रभावित किया था कि उन्होंने आभूषण पहनना ही छोड़ दिया था। यहां तक कि अपने वायदे के मुताबिक, रसूलन बाई ने भारत को आजादी मिलने के बाद ही विवाह भी किया।
रसूलन बाई ऐसी कलाकार थीं जिनका ज़िक्र भारत रत्न एवं प्रख्यात शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान भी बेहद आदर से किया करते थे। इलाहाबाद रेडियो स्टेशन में कभी-कभार रसूलन बाई के गानों का ब्रॉडकास्ट होता था। एक बार रसूलन बाई ने इलाहाबाद रेडियो स्टेशन में लगी कलाकारों की तस्वीर के साथ लिखे नामों में अपना नाम ‘रसूलन बाई’ लिखा देखा तब उन्होंने कहा कि, “बाकी सब बाई देवी बन गई, एक मैं ही बाई रह गई।”
विद्याधरी बाई
महात्मा गांधी के बनारस आगमन के दौरान उनके भाषण से प्रभावित होकर विद्याधरी बाई ने अपनी महफिलों में राष्ट्रवादी गीत गाना शुरू कर दिया था। हिन्दुस्तान में देशभक्ति का पहला मुजरा भी विद्याधरी बाई ने ही गाया था। कहते हैं, विद्याधरी बाई आजादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारियों को साजिंदा बनाकर अपने यहां छिपाती भी थीं। असहयोग आन्दोलन से प्रभावित विद्याधरी बाई ने स्वदेशी कपड़े पहनने शुरू कर दिए तथा विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार कर दिया।
मशहूर तवायफ गौहर जान
गौहर जान को भारत की पहली महिला सिंगिंग सुपरस्टार का तगमा प्राप्त है। 1920 ई. तक गौहर जान ने 10 भाषाओं में तकरीबन 600 से ज्यादा गाने रिकॉर्ड किए। इसी वजह से भारत के घर-घर में विख्यात गौहर जान को ‘ग्रामोफोन गर्ल’ भी कहा जाता था। हमारे देश में जब सोना 20 रुपए तोला बिकता था, तब गौहर जान एक गाना गाने की फीस 3000 रुपए लेती थीं। कहते हैं, गौहर जान के पास इतना पैसा था कि वह आवागमन के लिए निजी ट्रेन का इस्तेमाल करती थी।
महात्मा गांधी जब स्वराज आन्दोलन के लिए फंड जुटा रहे थे, तब उनकी मुलाकात गौहर जान से हुई जो सबसे धनी भारतीयों में से एक मानी जाती थी। ऐसे में गांधीजी ने गौहर जान से स्वराज कोष में आर्थिक मदद करने को कहा। इसके लिए गौहर जान ने अपने कार्यक्रम में गांधीजी के शामिल होने की शर्त रखी। विक्रम संपत अपनी किताब ‘माई नेम इज गौहर जान’ में लिखते हैं कि “गौहर जान के प्रदर्शन कार्यक्रम में महात्मा गांधी शामिल नहीं हुए, ऐसे में गौहर जान ने प्रदर्शन से इकट्ठे हुए 24000 रुपए में से केवल 12,000 रुपए ही स्वराज फंड को दिए”।
तवायफों ने गंगा में बहा दिए तानपूरे, तबले और सारंगी
असहयोग आन्दोलन के दौरान बनारस की तवायफों ने महात्मा गांधी से आर्थिक मदद देने का अनुरोध किया परन्तु गांधीजी ने उन्हें नैतिक रूप से पतित होने की बात कर उनके इस आग्रह का ठुकरा दिया। इस बात से बनारस की तवायफों को बहुत दुख हुआ था अत: कई तवायफों ने अपने तानपूरे, तबले, सारंगी आदि गंगा में बहा दिए और घर में चरखा कातना शुरू कर दिया। दरअसल मजबूत आर्थिक आधार वाले पारम्परिक पेशे को छोड़कर चरखा कातने का निर्णय स्वयं में एक मिशाल था।
परन्तु दुख की बात यह है कि इतनी सशक्त भूमिकाओं के बावजूद राष्ट्रवादी आन्दोलन की बैठकों में तवायफों को जो मान-सम्मान मिलना चाहिए था, इससे उन्हें इतर रखा गया। बतौर उदाहरण- कांग्रेस की एक बैठक में गौहर जान को बाहर ही बैठने को कहा गया। वहीं साल 1924 में बेलगाम कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी की मौजूदगी में किराना घराने की गायिका गंगू बाई हंगल को खाना खाने के लिए अलग बैठने कहा गया।
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