
27 वर्ष के एक बलिष्ठ युवक ने जंगल से गुजरते वक्त रॉयल बंगाल टाइगर को मार डाला था। जंगल में हुई इस खतरनाक मुठभेड़ के बाद गम्भीर रूप से घायल उस युवक के शरीर से सर्जन ने बाघ के नाखून निकालने थे। उस युवक की बहादुरी से प्रभावित होकर सर्जन सुरेश सरबाधिकारी (लेफ्टिनेंट कर्नल) ने एक लेख प्रकाशित किया, तत्पश्चात वह युवक जनता में ‘बाघा’ (बाघ) के नाम से लोकप्रिय हो गया। जी हां, मैं युवा क्रांतिकारी बाघा जतिन की ही बात कर रहा हूं।
स्वामी विवेकानन्द और सिस्टर निवेदिता के सबसे उत्साही युवकों में से एक बाघा जतिन (मूल नाम यतींद्रनाथ मुखर्जी) ने क्रांतिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिति’ तथा ‘युगांतर’ के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यहां तक कि ‘गार्डन रीच’ की मशहूर डकैती के नेता भी बाघा जतिन ही थे, जिसमें बंगाल के क्रांतिकारियों को 52 माउजर पिस्तौलें और 50 हजार गोलियां प्राप्त हुई थीं।
इतना कुछ जानने के बाद निश्चितरूप से आप युवा क्रांतिकारी बाघा जतिन के रोमांचकारी जीवन के बारे में जानने के प्रबल इच्छुक अवश्य होंगे, ऐसे में यह रोचक स्टोरी जरूर पढ़ें।
बाघा जतिन का जन्म
युवा क्रांतिकारी यतींद्रनाथ मुखर्जी देश की जनता में ‘बाघा जतिन’ के नाम से मशहूर थे। दरअसल इस नाम के पीछे भी एक रोमांचक स्टोरी छुपी है। बाघा जतिन का जन्म साल 1879 में 7 दिसम्बर को बंगाल (अब बांग्लादेश) के जैसोर में हुआ था। बाघा जतिन जब पांच वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहान्त हो गया।
अत: बाघा जतिन का पालन-पोषण उनकी मां ने किया, जो स्वयं एक प्रतिभाशाली कवयित्री थीं। 18 साल की उम्र में मैट्रिक (हाईस्कूल) की परीक्षा पास करने के बाद पारिवारिक जीविकोपार्जन के लिए बाघा जतिन ने स्टेनोग्राफी सीखी और कलकत्ता विश्वविद्यालय से जुड़ गए।
स्वामी विवेकानंद के संपर्क में आए बाघा जतिन
बाघा जतिन ने कृष्णानगर से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद ललित कला का अध्ययन करने के लिए साल 1895 में कोलकाता सेंट्रल कॉलेज (अब खुदीराम बोस के नाम पर) में दाखिला लिया, जहां वे स्वामी विवेकानन्द के सम्पर्क में आए। स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा से बाघा जतिन इतने प्रभावित हुए कि वह स्वामीजी के सबसे उत्साही लोगों में से एक बन गए।
इतना ही नहीं, बाघा जतिन ने सिस्टर निवेदिता (स्वामी विवेकानन्द की शिष्या) के सेवा मिशनों में सक्रिय रूप से सहायता की। कुश्तीकला में पारंगत बाघा जतिन ने नियमित रूप से लिखना भी शुरू किया। बाघा जतिन ने अपनी लेखनी में भारत के ब्रिटिश शोषण का उल्लेख किया है।
रॉयल बंगाल टाइगर से मुठभेड़
यतीन्द्रनाथ मुखर्जी यानि की बाघा जतिन की शादी साल 1900 में इन्दुबाला बनर्जी से हुई। बाघा जतिन और इन्दुबाला बनर्जी से चार बच्चे हुए। बड़े बेटे अतीन्द्र की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई, जिससे व्यथीत बाघा जतिन ने आंतरिक शांति के लिए हरिद्वार और वृंदावन की तीर्थयात्रा की। वहां से पैतृक गांव लौटते समय यतीन्द्रनाथ मुखर्जी की मुठभेड़ जंगल में रॉयल बंगाल टाइगर से हुई।
बाघ के साथ हुई मुठभेड़ में यतीन्द्रनाथ गम्भीर रूप से घायल हो गए किन्तु उन्होंने अपनी खुखरी से उस बाघ को मार गिराया। यतीन्द्रनाथ का इलाज करने वाले सर्जन सुरेश सरबाधिकारी (लेफ्टिनेंट कर्नल) ने उनके शरीर से बाघ के नाखून निकाले थे। यतीन्द्रनाथ मुखर्जी की बहादुरी से प्रभावित होकर सर्जन सुरेश सरबाधिकारी ने एक लेख प्रकाशित किया। फिर क्या था, यतीन्द्रनाथ मुखर्जी जनता में ‘बाघा जतिन’ के नाम से मशहूर हो गए।
बाघा जतिन की क्रांतिकारी गतिविधियां
बचपन से ही बाउल गीतों से प्रभावित बाघा जतिन ‘जाति और पंथ’ के विरुद्ध लड़ने वाले शख्सियत थे। क्रांति के दिनों में बाघा जतिन यह वाक्य बार-बार दोहराते थे — "अमरा मोरबो, जगत जागबे" अर्थात हम मर जाएंगे, लेकिन दुनिया जाग जाएगी।
साल 1903 में ढाका में क्रांतिकारी संगठन ‘अनुशीलन समिति’ की एक शाखा स्थापित करते समय उनकी मुलाकात अरबिन्दो से हुई, और उन्होंने उनका सहयोग करने का निर्णय लिया। साल 1905 में कोलकाता में प्रिंस ऑफ वेल्स के जुलूस के दौरान बाघा जतिन ने ब्रिटिश सैनिकों के एक समूह पर हमला किया, जो भारतीय महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने पर आमादा थे। इस घटना ने ब्रिटिश उच्चाधिकारियों का ध्यान बाघा जतिन की तरफ आकर्षित किया।
साल 1906 बंगाल विभाजन का दौर था, बंगालियों ने इसका विरोध पुरजोर तरीके से किया। ऐसे में बंगभंग आन्दोलन से बाघा जतिन भी कहां अछूते रहने वाले थे, उन्होंने अंग्रेजों की नौकरी को लात मारकर क्रांतिकारी आन्दोलन की राह पकड़ी। बाघा जतिन ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध बेहद गोपनीय तरीके से कई बड़ी कार्रवाईयां की। बतौर उदाहरण— साल 1908 में बंगाल के उपराज्यपाल की हत्या का प्रयास, धन जुटाने के लिए बैंक डकैतियां आदि। तत्पश्चात 27 जनवरी, 1910 को ‘हावड़ा षड्यंत्र केस’ में बाघा जतिन को गिरफ्तार कर लिया गया और एक साल की सजा हुई।
साल 1911 में जेल से रिहा होने के बाद बाघा जतिन ने कुछ समय के लिए अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों पर विराम लगा दिया। और फिर कोलकाता से दूर जैसोर में रेलवे की ठेकेदारी का काम करना शुरू किया। इस दौरान उन्हें बंगाल घूमने और अपनी क्रांतिकारी इकाईयों को पुनर्जीवित करने पर्याप्त समय मिला।
क्रांतिकारी संगठन ‘युगांतर’ का नेतृत्व
बाघा जतिन ‘अनुशीलन समिति’ के सक्रिय सदस्य तो ही थे, इसी के साथ बंगाल में क्रांतिकारियों के मुख्य संगठन ‘युगांतर पार्टी’ के भी प्रमुख नेता थे। बाघा जतिन ने ‘युगान्तर’ के संस्थापक सदस्यों में से एक बारिन्द्र घोष के साथ मिलकर देवघर (अब झारखंड में) के पास एक बम फैक्ट्री स्थापित की। वहीं बारिन्द्र घोष ने मानिकतला में भी एक बम फैक्ट्री स्थापित की।
इसी के साथ ‘युगान्तर’ के इन दोनों सक्रिय सदस्यों ने युवाओं का एक ऐसा नेटवर्क तैयार किया जो समाज कल्याण के साथ ही धार्मिक सभाओं तथा रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद की वार्षिक जयन्ती का आयोजन करता था। हांलाकि बाघा जतिन पर ब्रिटिश सरकार अपनी नजर बनाए हुई थी। बावजूद इसके बाघा जतिन ने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखते हुए दार्जिलिंग और सिलीगुड़ी में ‘अनुशीलन समिति’ की शाखाएं स्थापित की।
पुलिस के साथ हुई एक झड़प चलते बाघा जतिन पर हुई कानूनी कार्रवाई के तहत मजिस्ट्रेट उन्हें ऐसा नहीं करने की चेतावनी दी, किन्तु बाघा जतिन ने कहा कि वह अपने भारतीय साथियों के अधिकारों के लिए दोबारा ऐसा करने में तनिक भी संकोच नहीं करेंगे।
'गार्डन रीच' की मशहूर डकैती
इतिहासकार सुमित सरकार लिखते हैं कि “26 अगस्त 1914 को बंगाल में क्रांतिकारियों को एक बड़ी सफलता मिली। कलकत्ता (अब कोलकाता) के रोडा फर्म से दिन के उजाले में ही क्रांतिकारियों ने एक बड़े लूट को अंजाम दिया था, इस दौरान उन्हें 50 माउजर c96 पिस्तौलें तथा 460000 कारतूस प्राप्त हुए थे।”
आधुनिक भारत के इतिहास में इस लूट कांड को ‘रोडा आर्म्स डकैती’ के नाम से जाना जाता है। गार्डन रीच डकैती के मुख्या नेता बाघा जतिन (यतींद्र नाथ मुखर्जी) थे। उस वक्त इस घटना को दैनिक समाचार पत्र ‘स्टे्टसमैन’ ने “ग्रेटेस्ट डेलाइट रॉबरी” (दिनदहाड़े सबसे बड़ी डकैती) कहा था।
ब्रिटिश पुलिस से मुठभेड़ और बाघा जतिन की शहादत
बाघा जतिन ने अपने करीबी सहयोगी नरेन्द्र भट्टाचार्य (आधुनिक भारत के इतिहास में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक एम.एन. रॉय के रूप में प्रसिद्ध) को वित्तीय सहायता तथा हथियार प्राप्त करने के लिए जर्मनी भेजा। हांलाकि चेक जासूसों ने भारत-जर्मनी षडयंत्र का भंडाफोड़ कर दिया जिससे इस योजना की भनक ब्रिटेन और अमेरिका के उच्चाधिकारियों को लग गई। ऐसे में ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध बाघा जतिन की यह शानदार योजना विफल हो गई।
ब्रिटिश पुलिस ने बाघा जतिन को पकड़ने के लिए चटगांव से लेकर गोपालपुर तक तथा पूरे गंगा डेल्टा को सील कर दिया था। आखिरकार 9 सितम्बर 1915 को अंग्रेजों ने बाघा जतिन की वह गुप्त जगह 'काली पोक्ष' (कप्तिपाड़ा गांव) ढूंढ़ निकाला जहां वे अपने साथियों प्रियराय चौधरी, मनोरंजन सेनगुप्ता, नरेन और यतीश के साथ छुपे हुए थे।
पुलिस अफसर राज महन्ती ने ग्रामीणों की मदद से बाघा जतिन एवं उनके साथियों को पकड़ने की कोशिश की। ऐसे में विवश होकर बाघा जतिन ने भीड़ को दूर भगाने के लिए गोली चला दी और राज महन्ती वहीं ढेर हो गया।
इतनी देर में बालासोर का जिला मजिस्ट्रेट किल्वी ब्रिटिश सेना की एक रेजिमेंट के साथ वहां आ पहुंचा। बाघा जतिन के साथियों ने उन्हें वहां भागने की सलाह दी किन्तु उनका एक साथी यतीश बीमार था, जिसे अकेला छोड़कर जाने के लिए बाघा जतिन तैयार नहीं थे, लिहाजा दोनों तरफ से गोलियां चलने लगी।
तकरीबन 75 मिनट तक चले इस मुठभेड़ में क्रांतिकारी चित्तप्रिय को गोली लगी और वहीं शहीद हो गया। हांलाकि वीरेन्द्र तथा मनोरंजन के साथ अन्य क्रांतिकारी मोर्चा सम्भाले हुए थे। बाघा जतिन और उनके साथियों ने अंग्रेजों के सैन्य दल को बड़ी संख्या में हताहत किया।
हांलाकि इस मुठभेड़ में जतिन और यतीश भी गंभीर रूप से घायल हो चुके थे। बाघा जतिन का शरीर भी गोलियों से छलनी हो चुका था। वहीं मनोरंजन और नरेन की गोलियां भी खत्म हो चुकी थीं, ऐसे में घायल बाघा जतिन को पकड़ लिया गया। इस घटना के अगले दिन यानि की 10 सितम्बर 1915 को पुलिस मुठभेड़ में गम्भीर रूप से घायल बाघा जतिन ने अस्पताल में ही दम तोड़ दिया। इस प्रकार बंगाल का यह शेर हमेशा-हमेशा के लिए खामोश हो गया।
बाघा जतिन के बारे में किसने क्या कहा
अंग्रेज पुलिस अफसर चार्ल्स टेगार्ट ने कहा कि “यदि बाघा जतिन इंग्लैंड में पैदा हुए होते तो उनकी मूर्ति ट्राफलगर स्क्वायर पर नेल्सन की प्रतिमा के बगल में लगी होती।” वहीं प्रख्यात फ्रांसीसी दार्शनिक रेमंड एरन ने यतीन्द्र नाथ मुखर्जी बाघा जतिन को एक ‘क्रियाशील विचारक’ (activist-philosopher) के प्रतीक के रूप में वर्णित किया है। अमेरिकी प्रचारक रॉस हेडविसेक ने लिखा है कि, “यदि चेक जासूस भारत-जर्मनी षडयंत्र का भंडाफोड़ नहीं करते तो आज महात्मा गांधी के बारे में कोई नहीं जानता होता और भारत के राष्ट्रपिता बाघा जतिन होते।” यहां तक कि साल 1925 में महात्मा गांधी ने बाघा जतिन को ‘दिव्य पुरुष’ कहा था। इन लोगों के अलावा भारत के तमाम लोगों ने बाघा जतिन के बारे में बहुत कुछ लिखा-पढ़ा किन्तु गौर करने वाली बात यह है कि भारत के साथ-साथ बंग्लादेश में भी बाघा जतिन उपेक्षित हैं।
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