महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु (27 जून 1839 ई.) के साथ ही पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता आ गई। सिखों में आपसी कलह एवं गृहयुद्ध आरम्भ हो गया। महाराजा रणजीत सिंह के बाद उनका उत्तराधिकारी खड्ग सिंह राजा बना परन्तु उसके प्रशासन में वजीर ध्यानसिंह का प्रमुख हाथ था। खड्ग सिंह को प्रारम्भ से ही अपने विरोधियों का सामना करना पड़ा। खड्ग सिंह अफीमची था अत: उसे सिख सरदारों ने बन्दी बना लिया। इसके बाद खड्ग सिंह के सबसे योग्य पुत्र नौनिहाल सिंह को गद्दी पर बैठाया गया। सम्भवत: रणजीत सिंह के उत्तराधिकारियों में नौनिहाल सिंह सबसे चतुर था। उसने पंजाब में पुन: व्यवस्था स्थापित कर दी। उसने मंडी और सुकेत के राजाओं के दमन हेतु सेना भेजी, लद्दाख और बलतिस्तान के कुछ भाग भी जीत लिए तथा अंग्रेजों पर कड़ी नजर रखी। 1840 ई. में खड्ग सिंह की मृत्यु हो गई। खड्ग सिंह की मृत्यु के दिन ही शाम को दाह संस्कार से लौटते वक्त हजूरी बाग के द्वार कोष्ठक की एक शहतीरी गिरने से नौनिहाल सिंह की भी मृत्यु हो गई।
अब खड्ग सिंह की विधवा चांद कौर को राज्य का संरक्षक बनाया गया तथा महाराजा रणजीत सिंह के दूसरे पुत्र शेर सिंह को उसका सहायक बनाया गया। चूंकि शेरसिंह इस व्यवस्था से संतुष्ट नहीं था लिहाजा उसने खालसा सेना की मदद से चांद कौर का वध करवा दिया। इसके बाद 1841 ई. में शेरसिंह स्वयं राजा बना। इस समय पंजाब में षड्यंत्रों और हत्याओं का सिलसिला जारी हो गया, अत: सेना की प्रशासन पर पकड़ मजबूत होती चली गई। चांद कौर के समर्थक अजीत सिंह ने 1843 ई. में शेरसिंह की हत्या कर दी। इस प्रकार एक-एक करके चांद कौर, शेर सिंह, ध्यान सिंह आदि प्रमुख व्यक्ति मारे गए। ऐसे में 1843 में महाराजा रणजीत सिंह के पांच वर्षीय पुत्र दलीप सिंह को उसकी माता जिंदन कौर के संरक्षण में गद्दी पर बैठाया गया। इस समय खालसा सेना इतनी शक्तिशाली हो चुकी थी कि उससे लाहौर दरबार भी डरने लगा। ऐसे में महारानी जिंदन कौर और लाल सिंह ने खालसा सेना को कमजोर करने के लिए अंग्रेजों से भिड़ाने की योजना बना ली। महारानी जिंदन कौर के इस लक्ष्य ने अंग्रेजों को पंजाब विजय करने पर बाध्य कर दिया।
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-1846 ई.)
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध महारानी जिंदन कौर की महत्वाकांक्षा का परिणाम था। उसने जानबूझकर खालसा सेना को यह विश्वास दिलाया कि अंग्रेज पंजाब विजय की योजना बना रहे हैं। अंग्रेजों की संदिग्ध गतिविधियों से खालसा सेना भी सशंकित हो उठी। एक तरफ जहां अंग्रेजों एवं सिखों में सीमा सम्बन्धी झगड़े शुरू हो चुके थे वहीं दूसरी तरफ पंजाब में अंग्रेज सैन्य टुकड़ी की संख्या बढ़ाई जा रही थी।
पंजाब में अंग्रेजी सेना की संख्या 32000 कर दी गई जिसके पास 68 तोपें थीं और 10000 आरक्षित सैनिक तैयार कर लिए गए। इसके अतिरिक्त बम्बई से 57 नावें लाई गईं ताकि पोनटून पुल बनाए जा सकें। 1844 ई. में मेजर ब्रांडफुट की बतौर अंग्रेज एजेंट के रूप में लुधियाना में नियुक्ति हुई। कमाण्डरों ने सैनिकों को पुल बनाने का प्रशिक्षण देना भी आरम्भ कर दिया। सतलुज पारकर सिख सैनिकों ने यह सब देखा और अपने अर्थ निकाले।
इस बारे में कम्पनी का कहना था कि पंजाब में राजनीतिक अस्थिरता के कारण यह सब रक्षणात्मक तैयारियां की गई है, इस झूठ पर किसी को विश्वास नहीं था। अत: खालसा सेना ने अंग्रेजों से युद्ध करने का निश्चय किया। लिहाजा खालसा सेना सतलुज नदी पारकर फिरोजपुर पहुंच गई।
इसके बाद लार्ड हार्डिंग्ज ने 13 दिसम्बर 1845 ई. को सिखों के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। खालसा सेना और अंग्रेजों के बीच लगातार चार लड़ाईयां हुईं- मुदकी (18 सितम्बर,1845 ई.), फीरोजशाह (21 दिसम्बर 1845 ई.), बद्दोवल और आलीवाल (28 जनवरी 1846 ई.), ये सभी लड़ाईयां अनिर्णायक रहीं। पांचवी लड़ाई सबराओं की लड़ाई (28 जनवरी 1846 ई.) निर्णायक साबित हुई। यद्यपि खालसा सेना ने वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन लाल सिंह और तेजसिंह जैसे देशद्रोहियों के चलते सिखों की पूर्णतया हार हुई। अंग्रेजों ने लाहौर पर अधिकार कर लिया और 9 मार्च 1846 को सिखों को लाहौर की सन्धि करने हेतु बाध्य कर दिया।
लाहौर की सन्धि (9 मार्च 1846 ई.)
अंग्रेजी सेना ने 20 फरवरी 1846 ई. को लाहौर पर अधिकार कर लिया। अत: 9 मार्च 1846 को अंग्रेजों तथा सिखों के बीच लाहौर की सन्धि हुई और इसी के साथ प्रथम-आंग्ल सिख युद्ध समाप्त हुआ। लाहौर सन्धि की प्रमुख शर्तें निम्नलिखित थीं-
1- महाराजा ने सतलुज पार के समस्त प्रदेश सदैव के लिए छोड़ दिए।
2- महाराजा ने सतलुज और व्यास नदियों के बीच स्थित सभी दुर्गों पर से अपना अधिकार पूर्णतया छोड़ दिया, इन पर ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अधिकार कर लिया।
3- सिखों को डेढ़ करोड़ रुपए युद्ध दंड के रूप में कंपनी को देने पड़े।
4- अंग्रेजों ने कश्मीर को एक करोड़ रुपए में गुलाब सिंह को बेच दिया।
5- खालसा सेना की संख्या घटाकर 20 हजार पैदल सैनिक तथा 12000 घुड़सवार तक सीमित कर दी गई।
6- अल्पवयस्क दलीप सिंह को महाराजा स्वीकार कर लिया गया। महारानी जिन्दन कौर को उसकी संरक्षिका और लाल सिंह उसके वजीर स्वीकार किए गए।
7- लाहौर में हेनरी लारेन्स के नेतृत्व में एक वर्ष के लिए एक अंग्रेज रेजीडेन्ट की नियुक्ति की गई। उसने पंजाब के आंतरिक प्रशासन में हस्तक्षेप नहीं करने का वचन दिया।
8- वजीर लाल सिंह के अनुरोध पर अंग्रेजी सेना ने लाहौर निवासियों तथा महाराजा की सुरक्षा का वचन दिया।
9- सिखों को कश्मीर गुलाब सिंह को बेचना पसन्द नहीं आया, ऐसे में लाल सिंह ने कश्मीर के गवर्नर इमादुद्दीन को प्रेरित किया कि वह अंग्रेजों की आज्ञा का पालन नहीं करे। तत्पश्चात लाल सिंह के नेतृत्व में सिखों ने पुन: विद्रोह कर दिया।
10- अंग्रेजों ने विद्रोह का दमन कर दिया और महाराजा दलीप सिंह के साथ पुन: भैरोवाल की सन्धि की।
भैरोवाल की सन्धि (16 दिसम्बर 1846 ई.)
16 दिसम्बर 1846 ई. को सम्पन्न भैरोवाल सन्धि की शर्तों के अनुसार, दलीप सिंह के वयस्क होने तक ब्रिटिश सेना का लाहौर में स्थायी प्रवास सुनिश्चित कर दिया गया जिसका खर्च 22 लाख रुपए प्रतिवर्ष दलीप सिंह को ही देने थे। महारानी जिन्दन कौर की संरक्षिता समाप्त कर उसे डेढ़ लाख रुपए वार्षिक पेन्शन दिया गया। सर हेनरी लारेन्स को लाहौर का रेजीडेन्ट नियुक्त किया गया। अब रेजीडेन्ट ही वास्तविक प्रशासनिक शक्ति बन गया। रेजीडेन्ट के अधीन आठ सिख सरदारों का एक संरक्षक परिषद नियुक्त किया गया जिसका कार्य प्रशासन की देखभाल करना था।
यद्यपि लाहौर की सन्धि ने सिखों की शक्ति पर कुठाराघात किया था परन्तु सिखों ने अपना साहस नहीं खोया। खालसा सेना अपनी पराजय के लिए सिख नेताओं को दोषी मानती थी। संयोगवश साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी के शासनकाल में अंग्रेज और सिख आमने-सामने आ गए अत: द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध होना अनिवार्य हो गया।
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द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-1849 ई.)
प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध में पराजित होने के बावजूद सिखों ने अपनी हार नहीं मानी। सिख सेना खालसा शक्ति को पुन: प्रतिष्ठित करना चाहती थी। महारानी जिन्दन कौर तथा लाल सिंह पर लगाए गए अभियोग और दुर्व्यवहार ने सिखों को और भी उत्तेजित कर दिया। महारानी जिन्दन कौर के साथ अंग्रेजों ने बुरा व्यवहार किया। भैरोवाल की सन्धि के अनुसार, रानी को डेढ़ लाख रुपए वार्षिक पेन्शन दिया जाना था जिसे घटाकर 48 हजार रुपए कर दिया गया। इतना ही नहीं, जिन्दन कौर के आभूषण ले लिए गए और उसे नजरबंद कर शेखपुरा भेज दिया गया।
मूलराज मुल्तान का गवर्नर था, उसे हटाकर कम्पनी ने काहन सिंह को गवर्नर नियुक्त किया। इसके बाद समूचे मुल्तान में सिखों ने विद्रोह कर दिया। मौका पाकर मूलराज, चतरसिंह, शेरसिंह आदि ने विद्रोहियों का नेतृत्व किया। ऐसे में गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने इस विद्रोह का सहारा लेकर पंजाब को अंग्रेजी साम्राज्य में विलय मिलाने का निश्चय किया। युद्ध घोषणा में लार्ड डलहौजी ने कहा, “पूर्व चेतावनी के बिना तथा अकारण ही सिखों ने युद्ध की घोषणा कर दी है। श्रीमन्, मैं सौगन्ध खाकर कहता हूं कि उनसे यह युद्ध प्रतिशोध सहित ही किया जाएगा।” इस प्रकार द्वितीय-आंग्ल सिख युद्ध के तहत कुल तीन लड़ाईयां हुईं।
1- रामनगर का युद्ध (22 नवम्बर 1848 ई.)- लार्ड डलहौजी ने जनरल गॉफ को मुल्तान भेजा। जनरल जनरल गॉफ के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने रावी नदी पारकर रामनगर नामक स्थान पर विद्रोहियों के साथ एक अनिर्णायक युद्ध लड़ा। मुल्तान ने जनवरी 1849 ई. में हथियार डाल दिए।
2- चिलियानवाला का युद्ध (13 जनवरी 1849 ई.)- जनरल गॉफ के नेतृत्व में लड़ा गया चिलियानवाला का युद्ध भी अनिर्णाय रहा, परन्तु इस युद्ध में अंग्रेजों को भारी क्षति उठानी पड़ी।
3- गुजरात का युद्ध (21 फरवरी 1849 ई.)- अंग्रेजी सेना का नेतृत्व इस बार जनरल गॉफ की जगह चार्ल्स नैपियर को सौंपा गया। उसने तोपों के युद्ध में सिख सेना को करारी शिकस्त दी। सिख सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया। अब समस्त पंजाब अंग्रेजों के चरणों में लोट रहा था। लार्ड डलहौजी के मुताबिक, “इस युद्ध को भारतवर्ष में ब्रिटिश युद्ध के इतिहास में सबसे अधिक स्मरणीय युद्धों में से एक समझना चाहिए।”
पंजाब का विलय- इस अंतिम और निर्णायक युद्ध के बाद लार्ड डलहौजी ने 29 मार्च 1849 ई. को पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया। सिख सेना भंग कर दी गई। पंजाब का शासन कमिश्नरों के एक बोर्ड को सौंप दिया गया। सर हेनरी लारेन्स को प्रशासनिक व्यवस्था, जॉन लारेन्स को भूराजस्व प्रबन्ध तथा चार्ल्स मैटसन को न्याय विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। महाराजा दलीप सिंह को 50, 000 रुपए वार्षिक पेन्शन देकर रानी जिन्दन कौर के साथ उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैण्ड भेज दिया गया। दलीप सिंह की सारी सम्पत्ति कम्पनी ने जब्त कर ली और दलीप सिंह से विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा लेकर ब्रिटिश राजमुकुट में लगा दिया गया। दलीप सिंह ने ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया और कुछ समय तक नारफाक में एक जमींदार की तरह से रहे। बाद में वे पंजाब लौट आए और अपना धर्म स्वीकार कर लिया।
अंग्रेजी साम्राज्य में पंजाब विलय का औचित्य
साम्राज्यवादी गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी की राज्य हड़प नीति की तीव्र आलोचना की जाती है। मेजर इवान्स बैल के मुताबिक, “यह कार्य अनुचित था और पंजाब का विलय कोई विलय नहीं था अपितु यह तो विश्वासघात था।” पंजाब की दुर्व्यवस्था के लिए अंग्रेजी रेजिडेन्ट उत्तरदायी था क्योंकि भैरोवाल की सन्धि के तहत प्रशासन का जिम्मेदारी रेजीडेन्ट की थी न कि महाराज की। महाराजा दलीप सिंह ने तो विद्रोह भी नहीं किया था। ऐसे में नैतिक दृष्टिकोण से लार्ड डलहौजी का यह कदम अनुचित था। वहीं अंग्रेजी दृष्टिकोण से पंजाब पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार करना उचित ही था क्योंकि पंजाब पर अधिकार करते ही कम्पनी की उत्तर-पश्चिमी सीमा सुरक्षित हो गई। यदि देखा जाए तो अंग्रेजों की पंजाब विलय की मंशा पहले से ही थी। रणजीत सिंह की मृत्यु से पहले 1838 ई. में ही डब्ल्यू.एफ.आसबर्न ने लिखा था कि “हमें रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद पंजाब को तुरन्त जीत लेना चाहिए और सिन्ध को अपनी सीमा बना लेना चाहिए। कम्पनी तो बड़े-बड़े ऊंटों को खा चुकी है, इस मच्छर की तो बात ही क्या है।” वहीं 1840 में आक्लैण्ड ने यह विचार व्यक्त किया कि “हमारे बहुत से राजनीतिज्ञ और सैनिक पंजाब जीतने को आतुर हैं।” तत्पश्चात लार्ड एलनबरो ने महारानी विक्टोरिया तथा उसके प्रधानमंत्री ड्यूक आफ वैलिंग्टन को एक पत्र में लिखा कि “वह समय दूर नहीं जब पंजाब हमारे अधीन होगा।”
आंग्ल-सिख युद्ध से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
— महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उसका मूर्ख पुत्र खड्ग सिंह गद्दी पर बैठा लेकिन लाहौर दरबार दो गुटों में बंट गया। इससे पंजाब में अराजकता फैल गई।
— रणजीत सिंह की मृत्यु के 5 वर्षों के भीतर सेना की संख्या (120000) तीन गुना हो गई थी।
— खड्ग सिंह के दाह संस्कार से लौटते वक्त हजूरी बाग के द्वार कोष्ठक की एक शहतीरी गिरने से नौनिहाल सिंह की मृत्यु हो गई थी।
— लाहौर दरबार के संधावालिया गुट में चैतसिंह, अतरसिंह, लेहना सिंह तथा उसका भतीजा अजीतसिंह था। जबकि डोगरा बंधुओं के गुट में ध्यान सिंह, गुलाब सिंह व सुचेतसिंह था।
— सत्ता संघर्ष मे संधावालिया गुट ने नौनिहाल सिंह की माता चांद कौर का पक्ष लिया जबकि डोगरा बन्धुओं ने रणजीत सिंह के एक अन्य पुत्र शेरसिंह का समर्थन किया।
— 1841 में शेर सिंह राजा बना परन्तु ठीक दो वर्ष बाद यानि 1843 में अजीत सिंह ने गोली मारकर शेर सिंह की हत्या कर दी।
— इसके बाद 1843 ई. में महारानी जिन्दा कौर के संरक्षण में अल्पवयस्क दलीप सिंह शासक बना तथा हीरासिंह डोगरा वजीर बना। परन्तु महारानी जिन्दा कौर का प्रेमी लालसिंह सेना को अपनी तरफ मिलाकर 1845 में स्वयं वजीर बन बैठा व तेजसिंह को सेनापति बनाया।
— 1839 ई. से 1845 ई. के बीच छह वर्षों में पंजाब में चार राजा तथा 4 वजीर बदल जा चुके थे।
— महाराजा दलीप सिंह के शासनकाल में प्रथम एवं द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध हुए।
— लार्ड हर्डिंग्ज के समय प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध हुआ और सर ह्ययू गफ अंग्रेजी सेना का प्रधानसेनापति था।
— लार्ड डलहौजी के समय द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध हुआ और अंग्रेजी सेना का प्रधानसेनापति चार्ल्स नैपियर था।
— गुजरात युद्ध को ‘तोपों के युद्ध’ के नाम से भी जाना जाता है। इस युद्ध के बाद पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।
— लाहौर में नियुक्त अंग्रेज रेजीडेन्ट हेनरी लारेन्स तथा पूर्व गवर्नर जनरल लार्ड एलनबरो ने पंजाब विलय का विरोध किया था।
— अंग्रेजी राज्य में विलय के पश्चात सर जॉन लारेन्स पंजाब का प्रथम चीफ कमिश्नर बना।
महत्वपूर्ण संम्भावित प्रश्न—
— पंजाब के विलय की परिस्थितियों का उल्लेख करें। क्या यह उचित था?
— प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध के कारणों और परिणामों की विवेचना करें?
— द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध के कारणों और परिणामों का उल्लेख करें?
— गुजरात युद्ध के बारे में लार्ड डलहौजी के कथन की समीक्षा कीजिए?