भारत का इतिहास

Discuss the relations of Maharaja Ranjit Singh with the British

महाराजा रणजीत सिंह का अंग्रेजों के साथ सम्बन्ध

मुगल सत्ता की दुर्बलता का लाभ उठाकर अफगान आक्रमणकारी अहमदशाह अब्दाली ने पंजाब पर एक के बाद एक कई आक्रमण किए जिससे इस राज्य में अराजकता फैल गई। अहमदशाह अब्दाली के पंजाब पर कब्जा करने का एकमात्र उद्देश्य यहां से कर’ (Tax) एकत्र करने तक ही सीमित ​था। ऐसे में यहां किसी का भी राज्य नहीं रहा। इन राजनीतिक परिस्थितियों में पंजाब में बारह सिक्ख मिसलों (अहलूवालिया, सुकरचकिया, सिंहपुरिया, भंगी, फुलकिया, रामगढ़िया, कन्हैया, शहीदी, नकी, बुलेवालिया, निशानवालिया तथा करोड़ खिधिंया) का उदय हुआ।

आधुनिक पंजाब के निर्माण का श्रेय सुकरचकिया मिसल को जाता है। महाराजा रणजीत सिंह का जन्म 2 नवम्बर 1780 ई. को सुकरचकिया मिसल के मुखिया महासिंह के घर हुआ। रणजीत सिंह की मां का नाम राज कौर था जो जींद के जाट सिख शासक राजा गजपत सिंह की बेटी थीं। रणजीत सिंह के बचपन का नाम बुद्ध सिंह था परन्तु सरदार पीर मुहम्मद पर विजय हासिल करने के बाद महासिंह ने अपने बेटे बुद्ध सिंह का नाम बदलकर रणजीत सिंह रख दिया।

महाराजा रणजीत सिंह अभी 12 वर्ष के ही थे तभी उनके पिता महासिंह का निधन हो गया। रणजीत सिंह ने जब कार्यभार सम्भाला तब सुकरचकिया मिसल का प्रभुत्व रावी और चिनाब नदियों के बीच के कुछ जिलों तक ही सीमित था। अहमदशाह अब्दाली का पोता जमानशाह खुद को पंजाब का स्वामी मानता था, ऐसे में पंजाब पर अपना प्रभुत्व दिखाने के लिए उसने भी कई आक्रमण किए। 1798 ई. में जमानशाह ने पंजाब पर आक्रमण किया परन्तु वापस जाते समय उसकी कुछ तोपें चिनाब में गिर गईं जिन्हें रणजीत सिंह ने निकलवाकर वापस भेजवा दिया। इस कार्रवाई से प्रसन्न होकर जमानशाह ने रणजीत सिंह को न केवल राजा की उपाधि दी बल्कि लाहौर पर भी अधिकार करने की अनुमति दे दी। इसके बाद रणजीत सिंह ने तुरन्त ही लाहौर पर अधिकार कर लिया। रणजीत सिंह ने 1805 ई. में भंगी मिसल से अमृतसर भी छीन लिया। इस प्रकार पंजाब की राजनीतिक राजधानी लाहौर और धार्मिक राजधानी अमृतसर पर अधिकार करने के बाद रणजीत सिंह की शक्ति और प्रतिष्ठा में अप्रत्याशित वृद्धि हो गई और वे सिक्खों के सबसे महत्वपूर्ण सरदार बन गए। इसके बाद शीघ्र ही रणजीत सिंह ने झेलम से सतलुज नदी तक प्रदेश पर अधिकार कर पंजाब में एक संगठित सिख राज्य की स्थापना की।

रणजीत सिंह का प्रशासन

महाराजा रणजीत सिंह अपने आपको खालसा अथवा सिख राष्ट्रमण्डल का सेवक मानते थे तथा खालसा के नाम पर ही शासन करते थे। रणजीत सिंह ने अपनी सरकार को सरकार--खालसा जी कहा। यहां तक कि रणजीत सिंह ने गुरु नानक और गुरु गोविन्द सिंह के नाम के सिक्के चलवाए। यद्यपि शासन के सूत्राधार महाराणा रणजीत सिंह ही थे परन्तु उनकी सहायता के लिए मंत्रिपरिषद होती थी। रणजीत सिंह का साम्राज्य प्रान्तों में विभाजित था जो नाजिम के अधीन थे। प्रान्तों को जिलों में बांटा गया ​था। जिले का मुखिया कारदार कहलाते थे। गांव में पंचायतें प्रभावशाली ढंग से कार्य करती थीं।

भूमिकर और न्याय व्यवस्था- महाराजा रणजीत सिंह के सरकार की आय का मुख्य स्रोत भूमि कर ही था, जिसे बड़ी कठोरता से वसूला जाता था। कर वसूली का अधिकार नीलामी के आधार पर ऊंची बोली लगाने वाले को दिया जाता था। सरकार उत्पादन का 33 फीसदी से 40 फीसदी तक लेती थी, जो भूमि की उर्वरता पर निर्भर था। ग्रिफिन लिखता है कि महाराजा अपने किसानों से अधिक से अधिक कर वसूलने का प्रयत्न करता था लेकिन वह किसानों के हितों की रक्षा भी करता था। यह राजाज्ञा थी कि सैन्य अभियान के दौरान कोई भी सैनिक फसल को क्षति नहीं पहुंचाए।

महाराजा रणजीत सिंह की न्याय व्यवस्था कठोर किन्तु निष्पक्ष थी। स्थानीय प्रशासक स्थानीय परम्पराओं के अनुसार न्याय करते थे। राजधानी लाहौर में एक सर्वोच्च न्यायालय था जिसे अदालत--आला कहा जाता था, जो प्रान्तीय तथा जिला अदालतों से अपीलें सुनता था। हांलाकि महाराजा रणजीत सिंह के शासनकाल में बड़े-बड़े अपराधी जुर्माना देने पर छोड़ दिए जाते थे।

सैन्य प्रशासन

महाराजा रणजीत सिंह ने सर्वाधिक ध्यान सेना की ओर ही दिया क्योंकि वह इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि एक सशक्त सेना ही उनके इतने बड़े राज्य को संगठित रख सकती थी। महाराजा ने लाहौर और अमृतसर में तोपें, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगवाए। रणजीत सिंह ने सैनिकों को मासिक वेतन देना शुरू किया जिसे माहदारी कहते थे। रणजीत सिंह की स्थायी सेना को फौज--आइन कहा जाता था जो उस समय एशिया में दूसरे स्थान पर थी। इस सेना में चार पैदल बटालियन, तीन घुड़सवार रेजिमेंन्ट तथा एक तोपखाना भी था। तोपखाने का प्रमुख इलाही बख्श था।

रणजीत सिंह की फौज-- बेकवायद में घुड़सवार होते थे। घुड़चढ़ों को अपने घोड़े लाने पड़ते थे, जिन्हें राज्य की ओर से वेतन दिया जाता था जबकि मिसलदार वे सरदार थे जिन्हें रणजीत सिंह ने जीत लिया था जो अपने अनुयायियों के साथ सेना में शामिल हो गए थे।

महाराजा रणजीत सिंह की सेना में अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, यूनान, रूस, इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, स्पेन तथा एंग्लों-इंडियन सहित 39 विदेशी अफसर थे। इनमें जनरल बन्तूरा को पैदल सेना तथा अलॉर्ड को घुड़सवार सेना को प्रशिक्षित करने के लिए नियुक्त किया गया था। 1835 ई. में रणजीत सिंह की सैन्य संख्या 75000 थी जिसमें 35000 प्रशिक्षित सैनिक थे। यूरोपीय​ प्रशिक्षकों बन्तूरा, अलॉर्ड, एविटेबल के अधीन रणजीत सिंह की सेना में सिख, गोरखा, बिहारी, उड़िया, पठान, डोगरे तथा पंजाबी मुसलमान शामिल थे।

रणजीत सिंह का अंग्रेजों के साथ सम्बन्ध  (Ranjit Singh's relationship with the British)

महाराजा रणजीत सिंह की बढ़ती शक्ति ने अंग्रेजों को सिखों की तरफ ध्यान देने को वि​वश कर दिया। उन दिनों रणजीत सिंह सतलुज नदी के पूर्व प्रदेशों में राज्य विस्तार करने की कोशिश कर रहे थे। जब रणजीत सिंह ने लुधियाना पर अधिकार कर लिया और पटियाला तक पहुंच गए। तब रणजीत सिंह को यमुना की तरफ बढ़ने से रोकना अंग्रेजों के लिए आवश्यक हो गया। जमानशाह दुर्रानी के भारत पर पुन: आक्रमण की चर्चा थी। ऐसे में सामरिक और कूटनीतिक कारणों से अंग्रेजों की स्थिति बहुत नाजुक थी। इसके लिए अंग्रेजों ने मुन्सिफ युसूफ अली को महाराजा के पास भेजा कि यदि जमानशाह आक्रमण करे तो वे उसका साथ न दें।

इसके अतिरिक्त 1805 ई. में अंग्रेजों से पराजित जसवन्त राव होल्कर भागकर पंजाब पहुंचा था। रणजीत सिंह उन दिनों पश्चिम में प्रसार कर रहे थे, इसलिए उन्होंने अंग्रेजों से वैर मोल लेना ठीक नहीं समझा। अत: रणजीत सिंह ने जनवरी 1806 ई. को लॉर्ड लेक से मित्रता की सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिए। इस सन्धि के तहत जहां महाराजा को जसवन्त राव होल्कर को वापस जाने के लिए बाध्य करना था वहीं अंग्रेजों ने यह विश्वास दिलाया कि वे रणजीत सिंह के राज्य को जीतने की कोई योजना नहीं बनाएंगे।

1807 ई. में यूरोप में नेपोलियन और जार अलेक्जेंडर के बीच सन्धि हो गई अत: इन दोनों शक्तियों के भारत पर आक्रमण का भय हो गया। अत: लॉर्ड मिन्टों ने चार्ल्स मेटकॉफ को रणजीत सिंह के साथ सन्धि वार्ता करने हेतु भेजा। इस प्रकार महाराजा रणजीत सिंह ने कम्पनी के अनाआक्रमणात्मक तथा रक्षात्मक सन्धि को स्वीकार कर लिया, बदले में शर्त यह थी कि यदि सिख-अफगान युद्ध हो तो अंग्रेज निष्पक्ष रहेंगे और रणजीत सिंह को सार्वभौम राजा स्वीकार करेंगे। चूंकि स्पेन में विद्रोह हो गया अत: नेपोलियन का डर खत्म हो गया। अत: कम्पनी ने रणजीत सिंह के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का निर्णय लिया। 1809 ई.में अंग्रेज कमाण्डर डेविड आक्टरलोनी ने सेना एकत्र की ​और लुधियाने की ओर बढ़ा। उसने घोषणा की कि सतलुज पार के प्रदेश अंग्रेजी संरक्षण में है, यदि लाहौर की तरफ से आक्रमण हुआ तो उसे सैन्य कार्रवाई के द्वारा रोका जाएगा। अपने नवोदित राज्य की सुरक्षा के लिए रणजीत सिंह ने अंग्रेजों से सन्धि करना ही उचित समझा। परिणामस्वरूप 25 अप्रैल 1809 ई. को महाराजा रणजीत सिंह ने अमृतसर की सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिए।

अमृतसर की सन्धि (25 अप्रैल 1809 ई.)

अंग्रेजों तथा महाराजा रणजीत सिंह के बीच हुई अमृतसर की सन्धि के तहत निम्नलिखित शर्तें थीं। 1— अंग्रेजों तथा महाराजा रणजीत सिंह के बीच निरन्तर मित्रता रहेगी। सतलुज के दक्षिणी राज्य ब्रिटिश संरक्षण में चले गए। वहीं ब्रिटिश सरकार सतलुज के उत्तर के प्रदेश और जनता से कोई सम्बन्ध नहीं रखेगी। 2— महाराजा रणजीत सिंह सतलुज नदी के बाएं तट पर जो प्रदेश हैं, वहां आवश्यकता से अधिक सेना नहीं रखेंगे। इसके साथ ही किसी भी सीमावर्ती प्रदेशों का अतिक्रमण नहीं करेंगे। 3— उपरोक्त शर्तों के उल्लंघन पर सन्धि निष्प्रभाव समझी जाएगी। इस प्रकार अमृतसर की सन्धि ने महाराजा रणजीत सिंह की महत्वाकांक्षाओं पर अंकुश लगा दिया। इस सन्धि ने परोक्ष रूप से यह दर्शा दिया कि महाराजा रणजीत सिंह अंग्रेजी कम्पनी की तुलना में कमजोर हैं।

गौरतलब है कि पश्चिम दिशा में प्रसार करने की खुली छूट मिलते ही महाराजा रणजीत सिंह ने 1818 ई. में मुल्तान, 1819 ई. में कश्मीर और 1834 ई. में पेशावर जीत लिया। 27 जून 1839 में महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई इसके बाद उनका पुत्र खड़ग सिंह गद्दी पर बैठा परन्तु दरबार में विरोध के कारण उसके स्थान उसके पुत्र नौनिहाल सिंह को सिंहासन पर बैठाया गया जो एक योग्य शासक था। नौनिहाल सिंह की मृत्यु के बाद रणजीत सिंह के दूसरे पुत्र शेर सिंह का समर्थन डोगरा तथा अंग्रेजों ने किया। वहीं संधावालिया सरदारों ने खड़क सिंह की विधवा रानी चांद कौर का समर्थन किया। इस प्रकार कुछ समय के लिए रानी चांद कौर को सत्ता प्राप्त हो गई। किन्तु डोगरों ने उसे हराकर शेर सिंह को गद्दी पर बैठा दिया। 1843 ई. में शेर सिंह की हत्या कर दी गई। तत्पश्चात 1843 ई. में ही  महाराजा रणजीत सिंह के अल्पवयस्क पुत्र दिलीप सिंह को महाराजा घोषित किया। महारानी जिंदा (झिंदन) को दिलीप सिंह की संरक्षिका तथा हीरा सिंह डोगरा को वजीर नियुक्त किया गया। अंत में दिलीप सिंह और महारानी झिंदन को इंग्लैण्ड भेजकर पंजाब का अंग्रेजी साम्राज्य में विलय कर लिया गया।

महाराजा रणजीत सिंह से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

अहमदशाह अब्दाली का पौत्र शाहशुजा दुर्रानी (ज़मानशाह का भाई) लाहौर में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहा था। 1809 ई. में महाराजा रणजीत सिंह ने उसे पुन: सत्तासीन करने में सहायता दी। 

महाराजा रणजीत सिंह को विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा अफगान शासक शाहशुजा दुर्रानी ने दिया था, जिसे 1739 में नादिरशाह लाल किले से लूटकर ले गया था।

सिख सेनापति हरि सिंह नलवा ने जमरूद और पेशावर को अफगानों से छीन लिया था।

महाराजा रणजीत सिंह द्वारा जारी सिक्के नानकशाही सिक्के कहलाए।

महाराजा रणजीत सिंह के वित्तमंत्री दीनानाथ और भवानीदास थे। जबकि विश्वसनीय ​विदेश मंत्री का नाम फकीर अजीजुद्दीन था। मोहकमचन्द उनके दीवान थे। ध्यानसिंह डोगरा प्रधानमंत्री था जबकि नुरूद्दीन शाही परिवार विभाग का अध्यक्ष था।

फ्रांसीसी लेखक विक्टर जैक्विमो ने रणजीत सिंह को एक असाधारण पुरूष और छोटे पैमाने पर नेपोलियन बोनापार्ट कहा है।

रणजीत सिंह बचपन में चेचक से पीड़ित हो गए थे, जिसके कारण उन्हें अपनी एक आँख खोनी पड़ी और उनके चेहरे पर कई दाग भी थे।

महाराजा रणजीत सिंह कभी स्कूल नहीं गए। गुरुमुखी वर्णमाला के अतिरिक्त उन्होंने कुछ भी पढ़ना-लिखना नहीं सीखा। घुड़सवारी, बंदूक चलाने और अन्य मार्शल आर्ट की ट्रेनिंग उन्हें घर पर ही मिली थी।

अमृतसर के हरमन्दिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) में संगमरमर और सोना मढ़वाने का काम महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया था।

सिख साम्राज्य के महाराजा रणजीत सिंह को शेर--पंजाब भी कहा जाता है।

खुशवंत सिंह की किताब हिस्ट्री आफ सिक्ख के मुताबिक, 12 अप्रैल 1801 को 20 वर्षीय रणजीत सिंह को पंजाब के महाराजा का ताज मिला। साहिब सिंह बेदी ने रणजीत सिंह के ललाट पर केसरिया तिलक लगाकर उन्हें पंजाब का महाराजा घोषित किया।

महाराजा रणजीत सिंह भारत के प्रथम शासक थे जिन्होंने सहायक सन्धि स्वीकार नहीं की और कभी अंग्रेजों के समक्ष समर्पण नहीं किया।

साल 2003 में संसद भवन में महाराजा रणजीत सिंह की 22 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई थी।

साल 2016 में फ्रांसीसी शहर सेंट ट्रोपेज़ में भी महाराजा रणजीत सिंह की कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई थी।

लाहौर में महाराजा रणजीत सिंह की समाधि में शव के अवशेष संग्रहित हैं।

स्वर्ण मंदिर के अतिरिक्त महाराजा रणजीत सिंह ने पटनासाहिब, हजूरसाहिब सहित अन्य प्रमुख गुरुद्वारों का पुनर्निर्माण करवाया था।

महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद उनके तीन अयोग्य उत्तराधिकारियों खड़क सिंह, नौनिहाल सिंह और शेर सिंह के बाद 1843 ईं. में उनके अल्पवयस्क पुत्र दिलीप सिंह को राजमाता झिंदन के संरक्षण में गद्दी पर बैठाया गया।

— 1889 में फ्रांसीसी पत्रिका ले वोल्टेयर के साथ एक साक्षात्कार में महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र दिलीप सिंह ने कहा था कि मैं अपने पिता की छियालीस पत्नियों में से एक का बेटा हूँ। 

दिलीप सिंह के गद्दी पर बैठते ही अंग्रेजों ने पंजाब पर आक्रमण कर दिया परिणामस्वरूप प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध शुरू किया।

प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध (1845-46) के समय अंग्रेजी सेना ने लाहौर पर अधिकार कर लिया। लॉर्ड हार्डिंग्ज गर्वनर जनरल और लार्ड गफ इस युद्ध के समय भारत के प्रधान सेनापति थे।

सर ह्यूगफ के नेतृत्व वाली अंग्रेजी सेना ने लाल सिंह की अगुवाई वाली सिख सेना को 1845 ई. में मुदकी नामक स्थान पर पराजित किया।

फिरोजशाह, ओलीवाल और सोवरांव में पराजित होने के बाद सिख सेना को अंग्रेजों के साथ लाहौर सन्धि के लिए विवश होना पड़ा।

लाहौर की सन्धि (8 मार्च 1846 ई.) के तहत सिखों ने सतलुज नदी के दक्षिणी प्रदेशों को अंग्रेजों को सौंप दिया, लाहौर दरबार को 1.5 करोड़ रुपए का हर्जाना देना पड़ा। सिख सेना से 20000 पैदल सैनिकों तथा 12000 घुड़सवारों की कटौती कर दी गई। एक ब्रिटिश रेजिडेन्ट लाहौर में नियुक्त किया गया। इस ​सन्धि के बदले दिलीप सिंह को महाराजा, रानी झिंदन को सं​रक्षिका तथा लाल सिंह को वजीर के रूप में मान्यता मिली।

लाहौर के आकार को सीमित करने के लिए अंग्रेजों ने कश्मीर को 50000 रुपए में गुलाब सिंह को बेच दिया

— 16 दिसम्बर 1846 को भैरोवाल की सन्धि हुई जिसके तहत दिलीप सिंह के वयस्क होने तक ब्रिटिश सेना का लाहौर में प्रवास निश्चित कर दिया गया।

महारानी झिंदन को 48000 रुपए वार्षिक पेन्शन देकर शेखपुरा भेज दिया गया

सर हेनरी लारेन्स को लाहौर में रेजिडेन्ट नियुक्त किया गया।

द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध (1848-49) मुल्तान के सूबेदार मूलराज, शेरसिंह तथा छत्तर सिंह ने पंजाब को अंग्रेजों के प्रभाव से मुक्त कराने के लिए विद्रोह कर दिया, ऐसे में द्वितीय आंग्ल-सिख युद्ध हुआ।

चिलियानवाला युद्ध (13 जनवरी 1849 ई.) सिख सेनापति शेर सिंह और अंग्रेज सेनापति लॉर्ड गफ के नेतृत्व में लड़ा गया, परिणाम अनिर्णायक रहा।

भारत के तत्कालीन गर्वनर लार्ड डलहौजी ने चिलियानवाला युद्ध के बारे में कहा कि हमने भारी खर्च उठाकर एक ऐसी विजय प्राप्त की है जो पराजय के बराबर है।

चिलियानवाला युद्ध के बाद लॉर्ड डलहौजी ने लॉर्ड गफ की जगह चार्ल्स नेपियर को प्रधान सेनापति बनाया। चार्ल्स नेपियर ने गुजरात युद्ध में सिख सेना को बुरी तरह हराया।

तोपों के युद्ध के नाम से विख्यात गुजरात युद्ध (21 फरवरी 1849 ई.) के पश्चात सर हेनरी लारेन्स और लॉर्ड एलनबरो के इच्छा के विरूद्ध लॉर्ड डलहौजी ने पंजाब को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया।

— — ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने महाराजा दिलीप सिंह को 5 लाख रुपए वार्षिक पेन्शन देकर रानी झिंदन के साथ इंग्लैण्ड भेज दिया।

पंजाब विलय के बाद विश्व विख्यात कोहिनूर हीरा महारानी विक्टोरिया के हुज़ूर में पेश किया गया।

सर जॉन लारेन्स पंजाब का प्रथम चीफ कमिश्नर बना।

सम्भावित प्रश्न

महाराजा रणजीत सिंह के जीवन एवं कार्यों का मूल्यांकन कीजिए?

महाराजा रणजीत सिंह के साथ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के सम्बन्धों की विवेचना कीजिए?

अमृतसर की सन्धि की परिस्थितियों का उल्लेख करें।

महाराजा रणजीत सिंह की प्रशासनिक व्यवस्था का उल्लेख करें?

महाराजा रणजीत सिंह की सैनिक व्यवस्था के बारे में विस्तार से वर्णन करें?