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Why is there no authentic description of Dalit woman warrior Jhalkari Bai in history?

दलित महिला योद्धा झलकारी बाई का इतिहास में प्रमाणिक विवरण क्यों नहीं है?

1857 के महाक्रान्ति की जहां भी चर्चा होती है, वहां रानी लक्ष्मी बाई और उनके साथ अपनी जान की बाजी लगाने वाली झलकारी बाई का नाम एकबारगी लोग जरूर लेते हैं। लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि दलित महिला योद्धा झलकारी बाई जिसकी सोच और बहादुरी के किस्से को दुनिया सलाम करती है, उसे ऐतिहासिक दस्तावेजों में कहीं भी जगह नहीं मिली। बावजूद इसके झलकारी बाई उपन्यासों, कहानियों, किस्सों तथा कविताओं के माध्यम से आज भी लोगों की स्मृति में बनी हुई हैं।

जबकि असली सच्चाई यह है कि ब्रिटीश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाले दबे कुचले समाज के लोग इतिहास की किताबों में ढूंढे भी नहीं मिलते हैं। भारत का हर पढ़ा-लिखा आदमी रानी लक्ष्मी बाई को पढ़ता चला आ रहा है, लेकिन उनके साथ अपने प्राणों की आहूति देने वाली झलकारी बाई का नाम इतिहास के किसी किताब में नहीं मिलता है।

सदोवर सिंह और जमुना देवी की इकलौती बेटी झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर, 1830 को झाँसी के पास भोजला गाँव में हुआ था। उनका परिवार कोरी जाति से था। उनकी माँ की मृत्यु के बाद उनके पिता ने उनका पालन-पोषण किया। बहुत कम उम्र में, उन्हें हथियार चलाना, घोड़े की सवारी करना और एक योद्धा की तरह लड़ने का प्रशिक्षण मिला हुआ था। झांसी के कोरी ​जाति के लोगों में यह कहानी बड़ी चर्चित है कि झलकारी बाई ने जंगल में एक तेंदुए को उस छड़ी से मार डाला, जिसका इस्तेमाल वह बचपन में मवेशियों को चराने के लिए करती थी। इस घटना से उनके अदम्य साहसी होने का प्रमाण मिलता है।

झलकारी बाई का विवाह 1843 ई. में पूरन नाम के एक साहसी और ख्या​तिप्राप्त पहलवान से हुआ था। झलकारी बाई के पति पूरन बहादुर पहलवान होने के साथ-साथ तीरंदाजी में अनुभवी और घुड़सवारी, आग्नेयास्त्र और तलवार चलाने में विशेषज्ञ थे। पूरन पहलवान झाँसी की रानी की सेना के सैनिक थे और अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लड़ते हुए शहीद हुए।

झलकारी बाई की असली कहानी तब शुरू होती है जब अंग्रेज अधिकारी ह्यूरोज ने एक विशाल सेना के साथ झांसी के किले को घेर रखा था तथा रानी लक्ष्मीबाई की सेना के अनेक योद्धा वीर गति को प्राप्त हो चुके थे, यहां तक कि रानी के कुछ सरदार अंग्रेजों से जा मिले थे। ऐसे में एक ही रास्ता बचा था कि किले का द्वार खोल दिया जाए।  किले का द्वार खुलते ही सम्भव था अंग्रेजों की विशाल सेना के सामने रानी लक्ष्मीबाई की पराजय, वैसे भी अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को जिन्दा पकड़ने की ठान रखी थी। लेकिन लक्ष्मीबाई का कहना था कि लड़ते-लड़ते शहीद हो जाउंगी लेकिन अंग्रेजों के हाथ कभी नहीं आउंगी।

ठीक इसी समय रानी लक्ष्मीबाई के दुर्गादल की एक दलित महिला योद्धा झलकारी बाई महारानी की वेशभूषा में तैयार होकर रानी के सम्मुख खड़ी हो गई और बोली- रानी मां! मैं किले के द्वार पर अंग्रेजों का उलझा कर रखूंगी तब तक आप दामोदर को लेकर किले से बहुत दूर निकल चुकी होंगी।फिर क्या था? रानी लक्ष्मी बाई के वेश में झलकारी बाई घायल बाघिन की तरह अंग्रेजों पर टूट पड़ी। बुन्देलखंड में यह पंक्ति बहुत चर्चित है

मचा झाँसी में घमासान, चहुँओर मची किलकारी थी,

अंग्रेज़ों से लोहा लेने, रण में कूदी झलकारी थी।

कहते हैं झलकारी बाई ने युद्ध में ऐसा तांडव मचाया कि कुछ देर के लिए अंग्रेज समझ बैठे कि यही रानी लक्ष्मीबाई है। आखिरकार जब अंग्रेजी सेना के हाथों झलकारी बाई गिरफ्तार हुईं तब उन्हें कई गोलियां लग चुकी थी। इतने में सर हॅयूरोज के पास आकर राव दूल्हाजू ने कहा, यह रानी नहीं है जनरल साहब, झलकारी कोरिन है। तब तक झलकारी बाई शहीद हो चुकी थीं।

झांसी की शेरनी कविता में जगन्नाथ प्रसाद शाक्य लिखते हैं-

खूब लड़ी झलकारी तू तो, तेरी एक जवानी थी

दूर फिरंगी को करने में, वीरों में मर्दानी थी।।

हरबोलों के मुंह से सुनी हमने तेरी ये कहानी थी।

रानी की तुम साथिन बनकर, झांसी फतह करानी थी।।

दतिया फाटक रौंद फिरंगी, आगे बढ़ी झलकारी थी

काली रूप भयंकर गर्जन, मानो कड़क दामिनी थी,

कोई फिरंगी आंख दिखाए, धड़ से सिर उतारी थी।।

दोस्तों, झलकारी बाई की कहानी बुन्देलखण्ड के लोकगीतों तथा जनस्मृतियों में आज भी मौलिक बनी हुई है। ए​क ​दलित महिला योद्धा का ब्रिटीश सेना के सम्मुख अपने प्राणों की नि:स्वार्थ आहूति देकर रानी लक्ष्मी बाई तथा झांसी की रक्षा करने की मंशा पूरे उत्तर भारत के दलितों में गर्व और सांस्कृतिक एकता की भावना पैदा करने में मदद करता है।

समाजशास्त्री बद्रीनारायण कहते हैं कि ब्रिटीश रिकॉर्ड में उन्हीं लोगों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें वे विशेष समझते थे या फिर ब्रिटीश गर्वनमेंन्ट जिस व्यक्ति विशेष से ज्यादा आतंकित और घबराई रहती थी। ऐसे में हम झलकारी बाई को ब्रिटीश दस्तावेजों में ढूंढने की जगह जनता की आर्काइव में यानि लोक स्मृतियों में आसानी से ढूंढ सकते हैं।

बद्री नारायण के मुताबिक बुंदेलखण्ड की लोक स्मृतियों में झलकारी बाई एक वीरांगना हैं और उन्हें लोग बचपन से वीरांगना स्थापित करने की कोशिश करते हैं। झलकारी बाई के पति पूरन एक बहादुर पहलवान थे ​तथा झांसी की रानी के सैनिक थे। वह अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए थे। जाहिर सी बात है, उस वक्त के राजनीतिक हालात ने घुड़सवारी में माहिर और हथियार चलाने वाली तथा बचपन से साहसी झलकारी बाई जैसी एक वीरांगना पैदा करने का काम किया। 

'झलकारी बाई' के उपन्यासकार मोहनदास नैमिशराय के मुताबिक गजट में आमजन का नाम नहीं होता है। उन दिनों झलकारी बाई एक आम दलित महिला थीं। खास तो वह बाद में बनीं। गजट में नाम दर्ज होने के लिए कई चीजें जरूरी होती हैं, जैसे उस समय के कुछ खास लोगों पर यह निर्भर था। इतिहास झलकारी बाई के ​अस्तित्व को नकार नहीं सकता क्योंकि यदि किसी का परिवार है, तो सीधा अर्थ है कि वह व्यक्ति कभी मौजूद था।

मोहनदास नैमिशराय इस बात पर भी बखूबी जोर देते हैं कि उन दिनों वैसे भी दलित समाज के लोगों को सम्मान देने की परम्परा नहीं थी। इस बात को अंग्रेज अच्छी तरह से जानते थे, इसलिए अंग्रेज भी वंचितों तथा दलितों के साथ वैसा ही व्यवहार करते थे। यही वजह है कि ब्रिटीश दस्तावेजों अथवा लेखन में केवल झलकारी बाई ही नहीं अ​पितु उन जैसी अनेक वीरांगनाओं का जिक्र गायब है।

साहित्यकार वृंदावनलाल वर्मा का ऐतिहासिक उपन्यास 'झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई' ही झलकारी बाई की दास्तान का आधार माना जाता है। हांलाकि आज की तारीख में झलकारी बाई पर लिखित साहित्य की तादाद पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है, बतौर उदाहरण- मोहनदास नेमिशराय की किताब वीरांगना झलकारी बाई, मुकेश प्रिंटर्स ग्वालियर से छपी जगन्नाथ प्रसाद शाक्य की दो किताबें, झांसी की शेरनी और झलकारी बाई का जीवन चरित्र, अलीगढ़ के आनंद साहित्य सदन से प्रकाशित शंकर विशारद की वीरांगना झलकारी बाई, कल्चरल पब्लिशर्स से प्रकाशित माता प्रसाद सागर की अछूत वीरांगना, अनसुया अनु की भारत सरकार के प्रकाशन विभाग से प्रकाशित झलकारी बाई आदि। बावजूद इसके मुख्यधारा का इतिहास झलकारी बाई को आज भी स्वीकार नहीं करता है। कमोबेश साल 2001 में भारत सरकार ने झलकारी बाई की स्मृति में डाक टिकट जारी कर इतिहास में उन्हें मान्यता देने की भरसक कोशिश जरूर की है।