मध्ययुगीन इतिहास लेखन में गैर फारसी स्रोतों में राजस्थानी स्रोत ग्रन्थों का विशेष महत्व है। इसके पीछे दो मुख्य कारण है, पहला राजस्थान का मुस्लिम शासकों के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है और दूसरा दिल्ली सुल्तानों और मुगल बादशाहों का राजस्थान के साथ संबंधों का जहां मुस्लिम इतिहासकारों ने धार्मिकता के आधार पर एकपक्षीय दृष्टिकोण से वर्णन किया है, वहां वस्तुस्थिति की वास्तविकता को जानने के लिए राजस्थानी इतिहास लेखन का अध्ययन करना उचित होगा।
बता दें कि राजस्थान के मध्यकालीन इतिहासकारों में मुहणोत नैणसी को प्रमुख स्थान प्राप्त है। विद्यानुरागी, इतिहास प्रेमी, वीर कथाओं पर अनुराग रखने वाले नीति निपुण नैणसी ने 33 वर्ष की अवस्था से ही राजपूत राज्यों का विस्तृत और प्रमाणिक इतिहास लिखने के लिए इतिहास सामग्री का संकलन शुरू कर दिया था। उसने अपने जीवनकाल में दो ऐतिहासिक ग्रन्थ लिखे- ‘मुहणोत नैणसी री ख्यात’ और ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’।
इस प्रकार मुहणोत नैणसी राजस्थान का एक अमूल्य इतिहासकार है, जिसके ग्रन्थों का अध्ययन किए बिना हम राजस्थान के इतिहास के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त नहीं कर सकते अत: मुहणोत नैणसी री ख्यात राजस्थान के इतिहास से जुड़े स्रोत के लिए एक अमूल्य ग्रन्थ है।
पद्मनाभ द्वारा रचित कान्हड़दे-प्रबन्ध तथा मुहणौत नैणसी रचित ख्यात से हमें दिल्ली के शक्तिशाली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के जालौर अभियान की विस्तृत जानकारी मिलती है। कान्हड़दे-प्रबन्ध के अनुसार, 1298 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने सोमनाथ मन्दिर को नष्ट करने तथा गुजरात विजय के लिए उलूग खां और नुसरत खं के नेतृत्व में एक शाही सेना भेजी। चूंकि गुजरात जाने का सीधा रास्ता मारवाड़ (जालौर) से था, इसी कारण अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर के शासक कान्हड़देव को सन्देश भिजवाया कि वह शाही सेना को अपने राज्य से गुजर जाने दे। लेकिन कान्हड़देव ने अलाउद्दीन खिलजी के आदेश को ठुकरा दिया। इसके बाद खिलजी की सेना मेवाड़ के मार्ग से होते हुए गुजरात गई। सुल्तान की सेना ने गुजरात और काठियावाड़ को जीता और सोमनाथ मंदिर तथा शिवलिंग को नष्ट करके विपुल धन सम्पदा के साथ वापस दिल्ली जाने के लिए जालौर की सीमा से गुजरी।
इस बार जालौर के शासक कान्हड़देव ने अलाउद्दीन खिलजी की सेना को सबक सिखाने का निर्णय लिया। शाही सेना की वास्तविक जानकारी हासिल करने के लिए कान्हड़देव ने अपनी मंत्री जैता और देवड़ा को उलूग खां के पास भेजा। मंत्रियों ने लौटकर कान्हड़देव को सलाह दी कि इस समय शाही सेना पर आक्रमण करना उचित नहीं होगा। लेकिन संयोगवश लूट के माल में से राज्य के हिस्से को वसूल करने की बात को लेकर शाही अधिकारियों, सैनिकों तथा मंगोल सैनिकों में तनाव उत्पन्न हो गया था। ऐसे में उचित समय जानकर कान्हड़देव ने खिलजी की सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अचानक हुए हमले में उलूग खां और शाही सेना भाग खड़ी हुई और गुजरात के लूट का माल वहीं छोड़ गए। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि कान्हड़देव के इस आचरण से अलाउद्दीन खिलजी क्रोधित हो उठा। हांलाकि परिस्थितिवश उसने तात्कालिक कदम नहीं उठाया लेकिन पांच वर्ष बाद उसने जालौर पर विध्वंसक आक्रमण किया। इस युद्ध में कान्हड़देव के साथ उसका पुत्र वीरमदेव भी वीरगति को प्राप्त हुआ। राजपूत स्त्रीयों ने किले में जौहर रचाया। भयंकर रक्तपात के बाद जालौर किले पर अलाउद्दीन खिलजी ने अधिकार कर लिया।
जबकि ठीक इसके विपरीत मुहणौत नैणसी ने अपनी ‘ख्यात’ में अलाउद्दीन खिलजी के विध्वंसक जालौर अभियान का मुख्य कारण राजकुमारी फिरोजा और वीरमदेव सोनगरा की प्रेम कहानी बताया है।
मुहणौत नैणसी लिखता है कि जालौर का शासक कान्हड़देव सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में आया-जाया करता था। कभी-कभी कान्हड़देव के साथ उसका पुत्र वीरमदेव भी सुल्तान के दरबार में जाया करता था। इसी दौरान अलाउद्दीन खिलजी के हरम की राजकुमारी फिरोजा जालौर के सोनगरा राजकुमार वीरमदेव से प्रेम करने लग गई। जब सुल्तान को इसका पता लगा तो पहले उसने राजकुमारी फिरोजा को डरा-धमकाकर वीरमदेव के साथ प्रेम करने का विचार छोड़ने को कहा। हांलाकि सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को इसमें सफलता नहीं मिली तो उसने जालौर के युवराज वीरमदेव सोनगरा को राजकुमारी फिरोजा से विवाह करने के लिए विवश करने का निश्चय किया।
लेकिन वीरमदेव एक मुस्लिम राजकुमारी से विवाह करने को तैयार नहीं था। वीरमदेव चोरी छुपे रात को दिल्ली से जालौर भाग गया। सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोध में आकर उसने जालौर पर आक्रमण करने का आदेश दे दिया।
कान्हड़दे-प्रबन्ध में इसके बाद की घटनाओं का विवरण मिलता है। इस ग्रन्थ के मुताबिक जब शाही सेनाओं को जालौर पर अधिकार करने में सफलता नहीं मिली तो राजकुमारी फिरोजा स्वयं जालौर गई, जहां शासक कान्हड़देव ने उसका आदर-सत्कार किया बावजूद इसके वीरमदेव ने शादी करने से इनकार कर दिया।
मारवाड़ क्षेत्र में वीरमदेव सोनगरा के बारे में एक कहावत बहुत ही विख्यात है-
'मामो लाजे भाटियां, कुल लाजे चौहान, जे मैं परणु तुरकणी, तो पश्चिम उगे भान…।''
इसका अर्थ है-अगर मैं तुरकणी से शादी करूं तो मामा का भाटी कुल और स्वयं का चौहान कुल लज्जित हो जाएंगे और ऐसा तभी हो सकता है जब सूरज पश्चिम से उगे।
ऐसे में निराश होकर राजकुमारी फिरोजा दिल्ली लौट गई। तब सुल्तान ने राजकुमारी फिरोजा की धाय गुलबहिश्त के नेतृत्व में जालौर पर आक्रमण करने के लिए एक शक्तिशाली सेना भेजी। इस युद्ध राजकुमार वीरमदेव लड़ता हुआ मारा गया। वीरमदेव का सिर काटकर दिल्ली ले जाया गया। इसके बाद राजकुमारी फिरोजा ने उसका विधिवत दाह-संस्कार करवाया और फिर स्वयं भी यमुना नदी में कूदकर मर गई। हांलाकि अन्य समकालीन रचनाओं में राजकुमारी फिरोजा और वीरमदेव के प्रेम सम्बन्धों की पुष्टि नहीं होती है। इस बारे में डॉ. गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि ‘कान्हड़दे-प्रबन्ध’ जो फरिश्ता, हाजी उदवीर और मुहणौत नैणसी से पहले लिखा गया था, यदि कुछ घटनाओं को बता देता है तो उनमें अधिकांश सत्य है। इसको निराधार मानकर अस्वीकार करना उचित नहीं। उदाहरण के लिए, फिरोजा का वीरम से प्रेम होना तथा गुलबहिश्त को भेजना आदि के अंश अस्वाभाविक नहीं है। केवल एकमात्र इनका जिक्र समसामयिक फारसी तवारीखों में न होना इनकी अस्वीकार करने के लिए पर्याप्त नहीं है।