पृथ्वीराज चौहान जिस समय शासक बना वह समय राजनीतिक उथल-पुथल का युग था। हिन्दू राजवंशों में चौहानों के बाद कन्नौज के गहड़वाल-राठौरों का शक्तिशाली राज्य था। वहां का शासक जयचन्द चौहानों की विस्तारवादी आकांक्षा पर रोक लगाना चाहता था। दक्षिण पूर्व में महोबा के चन्देल शासक चौहानों की भूमि हथियाने को लालायित थे। चन्देलों के विस्तृत राज्य में बुन्देलखण्ड, जैजाकभुक्ति, महोबा आदि सम्मिलित थे तथा महोबा उनकी राजधानी थी। उस समय महोबा राज्य का शासक परमर्दी देव (परमाल देव) चंदेल था। एक बार पृथ्वीराज चौहान के सैनिक दिल्ली से युद्ध करके लौट रहे थे, रास्ते में महोबा राज्य में उसके कुछ जख्मी सिपाहियों को चंदेल राजा परमर्दी देव ने मरवा दिया। लिहाजा अपने सैनिकों की हत्या का बदला लेने के लिए पृथ्वीराज चौहान एक विशाल सेना लेकर महोबा विजय के लिए निकल पड़ा। 1182 ई. में पृथ्वीराज चौहान की सेना ने नरायन के स्थान पर अपना डेरा डाला। यह देखकर परमर्दीदेव घबरा गया और उसने शीघ्र ही अपने पुराने सेनानायक आल्हा और ऊदल को महोबा की रक्षा के लिए वापस बुलाया। इसके बाद पृथ्वीराज और आल्हा-ऊदल की सेना के बीच तुमुल का युद्ध हुआ। इस युद्ध में आल्हा-ऊदल अपने साथियों के साथ वीर गति को प्राप्त हुए और इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान की विजय हुई।
हांलाकि जगनिक के ‘आल्हखंड’ में जो वीरगाथा वर्णित है, उसे सुनकर उत्तर भारत के जनमानस का हृदय जोश और रोमांच से भर जाता है। महोबा के शासक परमर्दीदेव चन्देल के दरबारी कवि जगनिक ने दो सेनानायकों आल्हा-ऊदल को महानायक मानकर आल्हखण्ड नामक ग्रंथ की रचना की, जो उत्तर भारत में लोगों के बीच आल्हा के नाम से जाना जाता है। आल्हखण्ड को आल्हा के रूप में विभिन्न बोलियों में गाया जाता है। अनुमानत: आल्हखण्ड नामक मूल ग्रंथ बहुत बड़ा रहा होगा। जानकारी के लिए बता दें कि 1865 ई.में फर्रूखाबाद के कलक्टर सर चार्ल्स इलियट ने 'आल्ह खण्ड' नाम से इसका संग्रह कराया जिसमें कन्नौजी भाषा की बहुलता है। ‘आल्ह खण्ड’ में वर्णित दो महायोद्धा भाईयों आल्हा-ऊदल की वीरगाथा उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों के प्रत्येक गांवों में आज भी सुनी जा सकती है। लोकगाथा आल्हा को विशेष रूप से वर्षा ऋतु में ज्यादा गाया जाता है।
महोबा के चन्देल शासक परमर्दीदेव के सैन्य प्रमुख दसराज के पुत्र आल्हा-ऊदल परमशक्तिशाली सेनापति थे। माता देवल से जन्मे ऊदल अपने बड़े भाई आल्हा से 12 वर्ष छोटे थे। आल्हा-ऊदल चन्द्रवंशी क्षत्रिय बनाफर राजपूत योद्धा थे। आल्हा के बेटे का नाम इंदल था। आल्हा मैहर माता (मां शारदा ) के उपासक थे, कहा जाता है कि मां भगवती से आल्हा को अमर रहने का आशीर्वाद प्राप्त था। जानकारी के लिए बता दें कि देशभर में मौजूद 51 शक्तिपीठों में से एक मां शारदा का पावन धाम सतना जिले के मैहर में त्रिकूट पर्वत की ऊंची चोटी पर है, जिसके बारे में मान्यता है कि यहां पर सती का हार गिरा था। महोबा का महावीर सेनापति आल्हा इसी मां शारदा का परमभक्त था। आल्हा-ऊदल को बचपन से ही सैन्य प्रशिक्षण मिलना शुरू हो चुका था। इन दोनों भाईयों को मल्लयुद्ध में भी महारत हासिल थी। इसके अतिरिक्त ये वीर योद्धा अपने गुरु गोरखनाथ से विभिन्न प्रकार की युद्ध पद्धतियां तथा सैन्य तकनीकों से अवगत हो चुके थे।
दरअसल महोबा के शासक परमर्दीदेव ने किसी बात को लेकर सेनापति आल्हा तथा ऊदल को अपने राज्य से निष्कासित कर दिया था, ऐसे में ये दोनों महायोद्धा भाई कन्नौज के शासक जयचन्द की सेवा में चले गए। आल्हा तथा ऊदल के कन्नौज चले जाने के बाद महोबा की सैनिक शक्ति कमजोर माने जाने लगी। जब पृथ्चीराज चौहान ने आक्रमण किया तो परमर्दीदेव ने पत्र के जरिए अपने सेनानायकों को महोबा की रक्षा के लिए बुलाया। आल्हा तथा ऊदल महोबा की रक्षा करने के लिए परमर्दीदेव के समक्ष उपस्थित हुए, इन महावीर योद्धाओं को देखकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ क्योंकि उसे पता था कि 52 युद्ध जीतने वाले आल्हा तथा ऊदल को पराजित करना असम्भव है।
आल्हखंड के मुताबिक, 52 लड़ाईयों में विजयश्री हासिल कर चुके आल्हा और ऊदल का पृथ्वीराज चौहान के साथ यह अंतिम युद्ध था। पृथ्वीराज चौहान के विरुद्ध बैरागढ़ में हुई भीषण लड़ाई में ऊदल को वीरगति प्राप्त हुई थी। कहा जाता है कि ऊदल के मृत्यु का समाचार सुनते ही आल्हा इतना क्रोधित हुआ था कि वह पृथ्वीराज की सेना पर कहर बनकर टूट पड़ा। इस युद्ध में वीर आल्हा के सामने पृथ्वीराज चौहान आ गए जिन्हें आल्हा ने पराजित कर दिया। कहते हैं कि अपने गुरु गोरखनाथ के आदेश पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दे दिया था। इस युद्ध में अपने भाई की मृत्यु से दुखी होकर आल्हा ने संन्यास ले लिया और मां शारदा की भक्ति में लीन हो गया। आल्हा-उदल के बाहुबल और पराक्रम की आज भी मिसाल दी जाती है।
लोगों के बीच ऐसी मान्यता है कि आज भी महावीर आल्हा मां शारदा की पूजा-अर्चना करते हैं। इस संबंध में कहा जाता है कि मंदिर के कपाट बंद होने के बाद जब सुबह कपाट दोबारा खोले जाते हैं तो आरती तथा पूजा पाठ के प्रमाण मिलते हैं। मां शारदा के मंदिर में आल्हा की खड़ाऊ रखी हुई है, जिससे आल्हा के विशालकाय कद-काठी का अंदाजा लगाया जा सकता है। तालाब के पास बाकायदा एक सरकारी बोर्ड लगा है, जिसमें साफ-साफ लिखा है कि आल्हा अमर हैं और इसी तालाब में स्नान के बाद आल्हा मैहर देवी के मंदिर की पहली पूजा करते हैं।
अगर इतिहास के दृष्टिकोण से देखा जाए तो चौहानों तथा चन्देलों के इस संघर्ष को पृथ्वीराज रासो तथा आल्हखण्ड में काव्य रचना द्वारा इतना अतिरंजित बना दिया है कि वास्तविक तथ्य को निकालना अत्यंत कठिन है। किन्तु इतना निश्चित है कि पृथ्वीराज चौहान ने चन्देलों को पराजित किया था। हांलाकि कुछ शिलालेखों से प्रमाणित होता है कि पृथ्वीराज के चले जाने के बाद चन्देलों ने 1183 ई. में अपने खोये हुए राज्य पर पुन: अधिकार कर लिया था। वैसे तो तुमुल विजय से चौहानों के प्रभाव में वृद्धि हुई थी लेकिन चन्देलों तथा गहड़वालों का गठबन्धन पृथ्वीराज चौहान के लिए सैनिक व्यय का कारण बन गया।