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Two strong horses of Indian history, in front of Agra and Ranthambore fort became dwarf

भारतीय इतिहास के दो बलवान घोड़े जिनके आगे बौने पड़ गए भारत के दो सबसे मजबूत किले

अब तक आपने महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक और मेवाड़ के ही एक अन्य शासक कर्ण सिंह के घोड़े शुभ्रक के रणकौशल की ​कहानी ही सुनी होगी लेकिन इस स्टोरी में हम आपको सल्तनतकाल और मुगलकाल के ऐसे दो राजपूत महायोद्धाओं के घोड़ों के बारे में बताने जा रहे हैं, जिनके आगे भारत के दो सबसे मजबूत किले न केवल बौने साबित हुए बल्कि इन किलों में उन घोड़ों की निशानियां आज भी मौजूद है। जी हां, मैं रणथम्भौर के शासक हम्मीरदेव चौहान के घोड़े बादल तथा मारवाड़ रियासत के राजकुमार और नागौर के सूबेदार अमरसिंह राठौड़ के घोड़े बहादुर की बात कर रहा हूं। रणथम्भौर तथा आगरा के किले में मौजूद साक्ष्य इस बात की पुरजोर गवाही देते हैं कि मध्यकालीन इतिहास के ये दोनों बलवान घोड़े अपने घुड़सवार योद्धाओं की तरह ही अजेय थे।

रणथम्भौर का अभेद्य किला 

वैभव और शक्ति के प्रतीक इस किले की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह दूर से नजर नहीं आता है। रण और थम नाम की दो पहाड़ियों के ​बीच एक छोटी सी घाटी है जिसे भवर कहा जाता है। इस प्रकार दो प​हाड़ियों के बीच निर्मित इस अभेद्य किले को (रण + थम + भवर) रणथम्भौर कहा गया।

इस अजेय किले के बारे में अकबर के नवरत्नों में से एक अबुलफजल ने लिखा है कि "अन्य सब दुर्ग नंगे हैं जबकि यह दुर्ग बख्तरबंद है।"  दरअसल यह रणथम्भौर का किला चारो तरफ से पहाड़ियों से घिरा है। रणथम्भौर किले में सात प्रवेशद्वार हैं- नवलखा पोल, हाथी पोल, गणेश पोल, अंधेरी पोलसतपोल, सूरज पोल और दिल्ली पोल। इनमें के कुछ प्रवेश द्वार अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, जैसे- किले का दूसरा प्रवेश द्वार हाथी पोल जो बाहर से दिखाई नहीं देता है, क्योंकि इसके सामने एक मोटी और मजबूत ​दीवार बनी है। इसके पीछे यह मुख्य कारण बताया जाता है कि शत्रु के आक्रमण के दौरान किले के मुख्य प्रवेश द्वार को हाथियों से तुड़वाया जाता था। चूंकि हाथी पोल में इस मोटी दीवार के कारण हाथियों को अन्दर जाने के लिए जगह नहीं मिल पाने के कारण यह आक्रमणकारियों से सुरक्षित रहता था।

शासक हम्मीरदेव चौहान

रणथम्भौर पर शासन करने वालों में हम्मीर देव अंतिम चौहान राजा थे, बतौर रणथम्भौर शासक इस राजा का कार्यकाल 1282 से 1301 ई. है। बता दें कि पृथ्वीराज चौहान के बाद हम्मीर देव को ही चौहान वंश का शक्तिशाली और प्रतिभावान शासक माना जाता है। हम्मीर देव को चौहान काल का कर्ण भी कहा जाता है। हम्मीर देव  की गौरवगाथा से जुड़े अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं, जिनमें नयचन्द्र सूरि द्वारा रचित 'हम्मीर महाकाव्य', जोधराज द्वारा रचित हम्मीर रासो और चन्द्रशेखर द्वारा रचित हम्मीर-हठ प्रमुख हैं। हम्मीर देव अपनी हठ के लिए भी विख्यात था। हम्मीर देव के बारे में कहा गया है कि

सिंह सवन सत्पुरूष वचन, कदली फलत इक बार।

तिरिया-तेल, हम्मीर हठ चढ़े न दूजी बार।।

अर्थात- सिंह एक ही बार संतान को जन्म देता है। सज्जन लोग बात को एक ही बार कहते हैं। केला एक ही बार फलता है। स्त्री को एक ही बार तेल एवं उबटन लगाया जाता है अर्थात उसका विवाह एक ही बार होता है। ऐसे ही हम्मीर देव का हठ है, वह जो ठानते हैं, उस पर दुबारा विचार नहीं करते।

कहते हैं कि हम्मीर देव इतना वीर था कि तलवार के एक ही वार से मदमस्त हाथी का सिर काट देता था। उसके मुक्के के प्रहार से बिलबिला कर ऊंट धरती पर लेट जाता था। 18 वर्षों के शासनकाल में उसका अधिकांश समय युद्धों में व्यतीत हुआ। हम्मीर देव ने राजपुरोहित विश्वरूप के जरिए कोटियजन यज्ञ करवाया था। उसने अपने जीवन में कुल 17 युद्ध लड़े जिनमें 16 युद्धों में वह विजयी रहा लेकिन 17वें युद्ध में उसे दिल्ली के सुल्तान के अलाउद्दीन खिलजी के हाथों पराजय का सामना करना पड़ा। हांलाकि कुछ विद्वान हम्मीरदेव के 17वें युद्ध को विजय अभियान का अंग नहीं मानते हैं। इसके पीछे कई मतभेद हैं।

हम्मीरदेव चौहान द्वारा ​विद्रोही मुहम्मद शाह को शरण देना

बता दें कि अलाउद्दीन खिलजी से पहले जलालुद्दीन खिलजी भी 1291 ई. में रणथम्भौर को जीतने का असफल प्रयास कर चुका था। जलालुद्दीन ने रणथम्भौर दुर्ग को नष्ट करने के लिए कई यन्त्रों का प्रयोग करने का आदेश दिया लेकिन हम्मीरदेव के आगे उसे सफलता नहीं। जलालुद्दीन के सलाहकार मलिक अहमद चाप ने उसे घेरा नहीं उठाने की सलाह दी लेकिन सुल्तान ने कहा कि ऐसे दस किलों को तो मैं मुसलमान के एक बाल के बराबर भी महत्व नहीं देता। आखिरकार हार मानकर वह दिल्ली लौट गया। लेकिन 1296 ई. में अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या कर अलाउद्दीन खिलजी दिल्ली का सुल्तान बना तो अपनी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा के चलते रणथम्भौर की बढ़ती शक्ति को सहन नहीं कर पाया और उसने रणथम्भौर को जीतने का मन बना लिया। 

रणथम्भौर के दुर्ग पर आक्रमण करने का बहाना भी अलाउद्दीन खिलजी को जल्द ही मिल गया। हमीर महाकाव्य के अनुसार 1299 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने उलूग खां तथा नुसरत खां को गुजरात अभियान के लिए भेजा था। खिलजी की शाही सेना गुजरात से लूटे हुए माल के साथ वापस दिल्ली जा रही थी, तभी रास्ते में जालौर के पास लूट के माल के बंटवारे को लेकर शाही सैनिकों तथा मंगोल सैन्याधिकारियों में झगड़ा हो गया। ऐसे में मंगोल शासक मुहम्मद शाह और केहब्रू ने लूट का माल लेकर रणथम्भौर के किले में हम्मीर देव के पास शरण ले ली। अब अलाउद्दीन खिलजी ने हम्मीर देव से इन विद्रोहियों को उसे सौंप देने की मांग की लेकिन हम्मीर देव ने इन शरणार्थियों को लौटाने से इनकार कर दिया।

अलाउद्दीन खिलजी का रणथम्भौर पर आक्रमण

1299 ई. में खिलजी की शाही सेना ने रणथम्भौर मार्ग की कुंजी कहे जाने वाले झाईन पर ​आक्रमण किया। इस दौरान हम्मीर देव कोटियजन यज्ञ को समाप्त कर मुनिव्रत धारण किए हुए था। अत: उसने अपने दो सेनानायकों भीम सिंह और धर्मसिंह को शत्रु का मुकाबला करने के लिए भेजा। इस हमले में राजपूतों की सेना शत्रु सेना को पीछे खदेड़ दिया और लूट का माल लेकर किले में वापस आ गई। हांलाकि रण​थम्भौर किले में लौटते ही सूचना मिली कि शत्रु एक बार फिर से हमले की तैयारी कर रहा है। इस बार उलूग खां ने बड़ी चतुराई से हमला किया था, इस हमले में भीमसिंह लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ। हांलाकि इस विजय से शाही सेना को कोई विशेष फायदा नहीं हुआ।

इतिहासकार इसामी के मुताबिक खिलजी सेनानायकों ने हम्मीरदेव को पत्र लिखा कि दिल्ली सुल्तान के मन में हम्मीर देव के प्रति कोई व्यक्तिगत द्वेष नहीं है, यदि वह शरणागतों को मौत के घाट उतार दे अथवा उन्हें सौंप दें तो शाही सेना दिल्ली लौट जाएगी।

लेकिन हम्मीर देव ने ऐसा कुछ भी करने से इनकार कर दिया। समझौता वार्ता असफल होने के बाद उलूग खां और नुसरत खां ने रणथम्भौर दुर्ग की घेराबंदी कर उसकी प्राचीरों को तोड़ना शुरू कर दिया। उधर रणथम्भौर दुर्ग की प्राचीरों से राजपूत सैनिक पत्थरों की वर्षा करते रहे। इस दौरान एक बड़े पत्थर से जख्मी होकर सेनानायक नुसरत खां की मृत्यु हो गई। यह देखकर तुर्की सेना भागने लगी ऐसे में उलूग खां ने दिल्ली से अधिक सैनिक भेजने का अनुरोध किया।

मौके की गंभीरता को देखकर अलाउद्दीन खिलजी स्वयं ही एक विशाल सेना लेकर दिल्ली से रणथम्भौर के लिए रवाना हो गया। रणथम्भौर पहुंचकर उसने किले को चारो तरफ से घेर लिया। यह घेरा काफी दिनों तक चला। वर्षा ऋतु निकट आ चुकी थी, दिल्ली और अवध में विद्रोह होने की सूचनाओं से अलाउद्दीन खिलजी चिन्तित हो उठा। इसलिए उसने छल-कपट से रणथम्भौर दुर्ग को जीतने का निश्चय किया।

हम्मीरदेव चौहान और उनके घोड़े बादलका पराक्रम

अलाउद्दीन खिलजी ने हम्मीरदेव को संदेश भिजवाया कि वह उससे सन्धि करना चाहता है। इसलिए हम्मीरदेव ने अपने दो सेनानायकों रणमल और र​तिपाल को संधि के लिए ​भेजा। अलाउद्दीन खिलजी ने रणमल और रतिपाल को रण​थम्भौर दुर्ग का लालच देकर अपनी तरफ मिला​ लिया। रतिपाल ने दुर्ग के दरवाजे खोल दिए और तुर्क सेना के किले में घुसते ही हाहाकार मच गया। दुर्ग की महिलाओं ने जौहर कर लिया और हम्मीर देव चौहान वीरतापूर्वक लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ। लेकिन ठीक इसके विपरीत किले में मौजूद साक्ष्य और हमीर महाकाव्य के अनुसार, रतिपाल, रणमल तथा एक अन्य सेनानायक सर्जुनशाह ने षड्यंत्र के तहत राजा की हार का संदेश पहुंचाने के लिए काले झण्डे लहराते हुए सैनिकों के साथ किले के अन्दर प्रवेश किया। उनकी चाल चल गई काले झण्डे देखते ही किले के अन्दर हम्मीरदेव की रानी रंगदेवी ने अन्य राजपूत स्त्रियों के सा​थ जौहर कर लिया जबकि राजा की अविवाहित पुत्री राजकुमारी पद्मला ने जल जौहर कर लिया।

हम्मीरदेव ने हाथीपोल के सामने रणमल का सिर काट दिया

दूसरी तरफ जब राजा हम्मीरदेव को इस षड्यंत्र का पता चला तो उन्होंने इन तीनों विश्वासघातियों का पीछा किया और किले के बाहर हाथी पोल के सामने रणमल का सिर काट दिया। रणथम्म्भौर किले में हाथी पोल पर मौजूद रणमल के कटे ​हुए सिर की प्रतिमा इस घटना की पुष्टि करने को बाध्य करता है। 

गणेश पोल के पास किले की ऊंची दीवार पर चढ़ गया बादल

इतने में रतिपाल और सुर्जनशाह ने गणेश पोल को बंद कर दिया ताकि हम्मीरदेव किले में नहीं घुस पाए। यही वो मोड़ है, जहां से महान शासक हम्मीरदेव के घोड़े बादल का इतिहास सबके सामने आता है। गणेश पोल का द्वार बंद होते ही हम्मीरदेव ने अपने इष्ट भगवान शिव से प्रार्थना की और अपने प्रिय घोड़े बादल को छलांग लगवा दी, देखते ही देखते बादल गणेश पोल के पास किले की काफी ऊंची दीवार पर चढ़ गया। बता दें कि मुख्य द्वारों में से एक गणेश पोल के पास से किले की दीवार की ऊंचाई बहुत ज्यादा है, फिर भी बादल एक ही बार में किले के अन्दर प्रवेश कर गया। किले के द्वार गणेश पोल के पास चट्टान पर घोड़े बादल के खुर के निशान आज भी मौजूद हैं, जो घटना की पुष्टि करते हैं।

हम्मीर देव चौहान जब अपने घोड़े बादल पर सवार होकर किले के अन्दर गए तो जौहर की लपटों को देखकर उन्हें अपनी भूल का अहसास हुआ। हम्मीर महाकाव्य के अनुसार, अपना सर्वस्व गंवाने के पश्चातापस्वरूप किले में मौजूद प्राचीन शिव मंदिर में अपना मस्तक काटकर भगवान शिव को अर्पित कर दिया। अलाउद्दीन को जब इस घटना का पता चला तो उसने लौटकर दुर्ग पर कब्जा कर लिया।

बादल महल-

हम्मीरदेव चौहान ने अपने शासनकाल में रण​​थम्भौर किले के अन्दर महल के उत्तरी भाग में अपने प्रिय बादल घोड़े के नाम पर बादल महल का निर्माण करवाया था। बादल महल में 84 खंभों का एक बड़ा हाल है, इसकी इसकी ऊंचाई 61 मीटर है, जिसका उपयोग हम्मीर देव अपनी प्रजा को संबोधित करने के लिए करता था। इस महल में हम्मीर देव के घोड़े बादल तथा अन्य सैन्याधिकारियों के घोड़ों के लिए भी हाल बने हुए हैं। रात के समय मसालें जलाने के लिए बादल महल में असंख्य ताखे बने हुए हैं। अब आपको इस तथ्य से अन्दाजा लग गया होगा कि हम्मीर देव का घोड़ा बादल उनके जीवन में कितना महत्व रखता था।

आगरा का अजेय किला

ताजमहल से महज ढाई किलोमीटर की दूरी पर स्थित आगरा का विशाल किला यमुना नदी के दाहिने किनारे पर स्थित है। इस भव्य किले का निर्माण मुगल बादशाह अकबर ने साल 1573 ई. में करवाया था। तकरीबन तीन किलोमीटर के दायरे में फैला आगरा का किला 70 फीट ऊंची दीवार से घिरा हुआ है, किले की दीवारें राजस्थान से लाए गए लाल बलुआ पत्थर से बनी हैं। किले के चारों तरफ चार मुख्य द्वार हैं। इनमें से एक द्वार को खिजरी गेट के नाम से जाना जाता है और यह नदी के सामने की तरफ खुलता है।

आगरा किले का दक्षिणी द्वार से प्रवेश करते ही मुख्य परिसर तक का मार्ग 60 डिग्री झुका हुआ है ताकि आक्रमण के दौरान दुश्मन के हा​थी-घोड़े तेजी से किले के अन्दर प्रवेश नहीं कर सकें। साथ ही इस द्वार पर आक्रमण के दौरान गर्म तेल भी डाला जाता था, ताकि शत्रु का प्रवेश करना मुश्किल हो जाए।

आगरा किले के अन्दर जहांगीर महल, मुसम्मन बुर्ज, शीश महल, खास महल तथा नगीना मस्जिद जैसी कई बड़ी ऐतिहासिक इमारतें आज भी अपने स्वरूप में हैं। आगरा किले की सबसे आकर्षक इमारत का नाम शीश महल है, जिसके अन्दर छोटे-छोटे शीशों को बड़ी ही सुंदरता के साथ सजाया गया है।

अकबर के इतिहासकार अबुल फ़ज़ल के मुताबिक, किले के अन्दर बंगाली के साथ-साथ गुजराती शैली में 5000 इमारतें बनाई गई थीं। उनमें से अधिकांश ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान नष्ट हो गईं।  किले के शेष खंडहरों में से केवल दिल्ली गेट, अकबरी गेट (जिसे अब अमरसिंह गेट कहा जाता है) और बंगाली महल आज भी अस्तित्व में हैं।

अमर सिंह द्वार (Amar Singh Gate)

अमर सिंह गेट को पहले अकबरी दरवाजा के नाम से जाना जाता था। यह प्रवेश द्वार मुगल बादशाह अकबर और उनके निजी दल के लिए आरक्षित था। शाहजहां ने अपने शासनकाल में इसका नाम जोधपुर के वीर राव अमर सिंह राठौड़ के नाम पर रख दिया। इसके पीछे भी एक दिलचस्प इतिहास है।

अमर सिंह राठौड़ और मुगल दरबार

मारवाड़ रियासत के महाराज गज सिंह प्रथम के पुत्र अमर सिंह राठौड़ का जन्म 12 दिसंबर 1626 ई. को हुआ था। बचपन से ही निडर,स्वाभिमानी और चंचल प्रवृत्ति के अमर सिंह राठौड़ को किसी दूसरे का हस्तक्षेप बिल्कुल भी पसन्द नहीं था। अमर सिंह राठौड़ के इसी व्यवहार से कुंठित होकर इनके पिता गज सिंह ने छोटे पुत्र जसवन्त सिंह को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। हांलाकि मारवाड़ का हर शख्स अमर सिंह की देशभक्ति और इनकी वीरता से परिचित था। अमर सिंह राठौड़ ने एक बार मुगलों से एक डाकू को बचाने के लिए अपने यहां शरण दी थी, जिससे नाराज होकर उनके पिता गज सिंह ने उन्हें राज्य से निर्वासित कर दिया।

बाध्य होकर कटार के धनी अमर सिंह राठौड़ ने मुगल दरबार की ओर रूख किया। मुगल बादशाह शाहजहां मारवाड़ के राजकुमार अमर सिंह की वीरता के किस्से पहले ही सुन चुका था। ऐसे में शाहजहां ने अमर सिंह को न केवल नागौर का सूबेदार नियुक्त कर जागीर में 5 परगने दिए बल्कि डेढ़ हजार का मनसबदार भी बना दिया। 1640-1641 में पंजाब विद्रोह का दमन करने के साथ ही मारवाड़ के पड़ोसी राज्य बीकानेर पर विजयश्री प्राप्त करने के बाद अमर सिंह राठौड़ का कद मुगल दरबार में काफी बढ़ गया।

अपनी तलवार पर भरोसा करने वाले अमर सिंह राठौड़ स्वतंत्रतापूर्वक अपनी इच्छानुसार कार्य करते रहे। इसलिए ईमानदार और निडर अमर सिंह राठौड़ से कई मुगल दरबारी ईर्ष्यावश बादशाह शाहजहां के कान भरने लगे। इन्हीं षड्यंत्रकारियों में से एक मीर बख्शी सलाबत खां भी था, जो रिश्ते में बादशाह शाहजहां का साला था।

4000 के मनसबदार सलाबत खान को यह मौका भी जल्द ही मिल गया। बता दें कि मुगल काल में सभी रियासतों को हाथी चराई का कर देना पड़ता था, जिसे फिरचराई कहा जाता था। लेकिन नागौर के सबूदार अमर सिंह ने फिरचराई कर देने से इन्कार कर दिया। हांलाकि अमर सिंह इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि मुगल दरबार में उनके विरुद्ध बादशाह शाहजहां को भड़काया जाता है, इसलिए बादशाह की नाराजगी दूर करने हेतु वह दरबार में स्वयं पेश हुए।

फिचराई कर के बहाने सलाबत खान ने मुगल दरबार में बैठे शाहजहां तथा सभी मनसबदारों के समक्ष अमर​ सिंह राठौड़ को अपमानित करना शुरू कर दिया, इतना ही नहीं उसने अमर सिंह को गंवार तक कह दिया। फिर क्या था, स्वाभिमानी अमर सिंह राठौड़ ने अपनी तलवार निकाली और भरे दरबार में सलाबत खान का सिर धड़ से अलग कर दिया। कहते हैं मुगल बादशाह शाहजहां यह दृश्य देखते ही डरकर महल के अन्दर भाग गया।

क्रोधित होकर अमर सिंह राठौड़ ने मुगल सैनिकों में रक्तपात मचाना शुरू कर दिया। इसलिए मुगल सेना ने उन्हें आगरा के किले में कैद करने की कोशिश की लेकिन अमर सिंह राठौड़ मुगल सैनिकों से युद्ध करते हुए अपने घोड़े बहादुर पर सवार होकर किले की दीवार से कूद गए। इस दौरान किले से नीचे गिरते ही उनके घोड़े बहादुर की मौत हो गई लेकिन अमरसिंह राठौड़ सुरक्षित बच निकले।

अंत में मुगल बादशाह शाहजहां ने अमरसिंह राठौड़ को पकड़ने के लिए उनके साले अर्जुन सिंह को मनसबदार बनाने का लालच दिया। ऐसे में अर्जुन सिंह साजिश के तहत अमर सिंह को किले में लेकर आया जहां अर्जुन सिंह तथा मुगल सैनिकों ने मिलकर अमर सिंह की हत्या कर दी।

अमर सिंह गेट के बाहर घोड़े बहादुर की प्रतिमा      

आगरा किला में अमर सिंह गेट के बाहर बिजलीघर जाने वाले रास्ते पर लाल पत्थर की घोड़े की प्रतिमा स्थापित है। दरअसल यह प्रतिमा मारवाड़ योद्धा अमर सिंह राठौड़ के घोड़े बहादुर की है। ऐसा माना जाता है कि ब्रिटिश काल में राजपूतों की मांग पर अमर सिंह के घोड़े बहादुर की प्रतिमा की स्थापना की गई थी।

गौरतलब है कि मध्यकालीन इतिहासकारों द्वारा इन दो बलवान घोड़ों बादल और बहादुर के बारे में कुछ ज्यादा नहीं लिखा गया है, हांलाकि अपेक्षित शोध करने पर इनके बारे में विशेष जानकारियां प्राप्त हो सकती हैं।