मुगलकाल की प्रभावशाली महिलाओं में गुलबदन बेगम, नूरजहां, मुमताज महल, जहां आरा, रोशन आरा और ज़ेबुन्निसा का नाम शामिल है। अगर हम जहांआरा की सुंदरता की बात करें तो वह मुगलिया वंश में रूप और चरित्र के लिहाज से बेमिसाल और बहुत ही खूबसूरत बेगम थीं । डॉक्टर बर्नियर ने लिखा है कि ‘रोशन आरा भी बहुत सुन्दर हैं, लेकिन जहांआरा बेगम की सुन्दरता इससे कहीं ज्यादा बेमिसाल है’।
शाहजहां ने मुगल बादशाह बनने के बाद अपनी बड़ी बेटी जहांआरा के लिए छह लाख रुपये वार्षिक का वजीफ़ा तय किया था। इस प्रकार 14 वर्ष की उम्र में जहांआरा मुग़लकाल की सबसे अमीर शहज़ादी हो गई थी। दिल्ली की जामिया मिलिया में इतिहास और संस्कृति विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉक्टर रोहमा जावेद राशिद के अनुसार जहांआरा 17 साल की उम्र में भारत की ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की सबसे अमीर महिला बन चुकी थीं। यह बात सभी जानते हैं कि जहांआरा के पिता शाहजहां भारत के सबसे अमीर बादशाह थे, जिनके काल को भारत का स्वर्ण युग कहा गया है।
'डॉटर ऑफ़ द सन' की लेखिका, एरा मख़ोती के मुताबिक शाहजहां के दौर में जितने अधिकार मुग़ल महिलाओं के पास थे, शायद उस समय ब्रिटीश महिलाओं के पास भी नहीं थे। आपको यह बात जानकर हैरानी होगी कि मुगल महिलाएं व्यापार कर रही थीं और वह दिशा-निर्देश दे रही थीं कि किस चीज का व्यापार करना और किस चीज का व्यापार नहीं करना है।
अगर हम मुगल शहजादी जहांआरा के दौलत की बात करें तो उनके पास एक-दो नहीं बल्कि कई जागीरें थीं। इतना ही नहीं जिस दिन शाहजहां की ताजपोशी हुई थी उस दिन उन्हें एक लाख स्वर्ण अशर्फियां और चार लाख रुपए दिए गए थे। इसके अतिरिक्त छह लाख वार्षिक वजीफ़े देने का ऐलान किया गया था। मुमताज महल के निधन के बाद उनकी संपत्ति का आधा हिस्सा जहांआरा को दे दिया गया था, बाकी के आधे हिस्से को सभी बच्चों में बांट दिया गया था।
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर डॉक्टर एम.वसीम राजा बताते हैं कि जहांआरा को अछल, फरजहरा और बाछोल, सफापुर, दोहारा की सरकारें और पानीपत का परगना दिया गया था। इतना ही नहीं बाग़ जहाँ आरा, बाग़ नूर और बाग़ सफा भी जहांआरा को सुपूर्द किए गए थे। जहांआरा को सूरत शहर भी दिया गया था, जहां उनके जहाज चलते थे और अंग्रेजों के साथ उनका व्यापार होता था। बतौर उदाहरण- सूरत बंदरगाह से जो भी आय प्राप्त होती थी वो सब जहांआरा के हिस्से में आती थी। जहांआरा का पानी का जहाज़ 'साहिबी' था जो डच और अंग्रेज़ों से व्यापार करने सात समंदर पार जाता था। पंजाब हिस्टॉरिकल सोसाइटी के समक्ष पढ़े गए शोधपत्र में निज़ाम हैदराबाद की सल्तनत में पुरातत्व के निदेशक जी. यज़दानी ने लिखा है कि नवरोज़ के अवसर पर जहाँ आरा को 20 लाख के आभूषण और जवाहरात तोहफ़े में दिए गए थे। बादशाह के जन्मदिन से लेकर नवरोज आदि उत्सवों की मुख्य कार्यवाहक जहांआरा ही थीं। ऐसे में उल्लेख मिलता है कि साल 1637 में एतदाल शबो रोज़ के अवसर पर जहांआरा ने बादशाह शाहजहां को ढाई लाख का एक अष्टकोणीय सिंहासन अपनी तरफ से भेंट किया था।
जानकारी के लिए बता दें कि 1644 में जहांआरा आग की चपेट में आई थीं, इसके बाद लगभग आठ महीने तक बिस्तर में रहने के बाद, जब स्वस्थ हुईं तो बादशाह ने गरीबों के सल्तन के खजाने खोल दिए और बड़ी संख्या में कैदियों को रिहा किया गया।
इतिहासकार जी. यज़दानी लिखते हैं कि जहांआरा के स्वस्थ होते ही उन्हें सोने में तोला गया और वो सोना गरीबों में बांट दिया गया। आठ दिनों तक जश्न मनाया गया। पहले दिन शाहजहां ने शहजादी जहांआरा को 130 मोती और पांच लाख रुपये के कंगन उपहार में दिए। दूसरे दिन सरपेच दिया गया जिसमें हीरे और मोती जड़े हुए थे। जहांआरा को सूरत का बंदरगाह भी इसी अवसर पर दिया गया था, जिसकी वार्षिक आमदनी 5 लाख रुपए थी।
बताया जाता है कि दाराशिकोह की शादी में उस जमाने में 32 लाख रुपए खर्च हुए थे। दाराशिकोह की शादी को मुगलकाल की सबसे महंगी शादी माना जाता है। जब दाराशिकोह की शादी हुई तब जहांआरा पादशाह बेगम थीं और शादी में खर्च हुए 32 लाख रुपए में से 16 लाख रुपए जहांआरा ने दिए थे। जहांआरा की सालाना आय उस ज़माने में 30 लाख रुपए होती थी। आज के ज़माने में इसका मूल्य डेढ़ अरब रुपए के बराबर है।
जहांआरा का निधन सितम्बर 1681 को हुआ, उस वक्त वह 67 साल की थी। जब औरंगजेब के पास जहांआरा के मौत की खबर पहुंची तब वह अजमेर के रास्ते दक्कन की तरफ जा रहा था। उसने जहाँआरा की मौत का शोक मनाने के लिए शाही काफ़िले को तीन दिनों तक रोक दिया था। जहाँआरा की वसीयत के अनुसार उनकी क़ब्र खुली होनी चाहिए, उसे पक्का नहीं किया जाना चाहिए। इसलिए जहांआरा की क़ब्र बिल्कुल साधारण और पक्की बनवाई गई।