व्यापार करने के उद्देश्य से भारत आने वाली यूरोपीय कम्पनियों ने कुछ ही वर्षों में यहां की राजनीति में भी दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया। मुगल सत्ता की कमजोरी का लाभ उठाकर यूरोपीय कम्पनियों में विशेषकर अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों ने क्रमश: बंगाल और कर्नाटक में अपनी-अपनी स्थिति मजबूत कर ली। चूंकि ये दोनों ही यूरोपीय कंपनियां भारत के व्यापार पर एकाधिकार स्थापित करने के लिए पुरजोर प्रयास कर रही थीं लिहाजा इनके बीच संघर्ष होना सुनिश्चित था। 17वीं-18वीं शताब्दी में अंग्रेज और फ्रांसीसी पारम्परिक शत्रु बन चुके थे, यूरोप में इनके बीच युद्ध शुरू होते ही संसार के किसी भी कोने में मौजूद जहां ये दोनों कम्पनियां कार्य करती थीं, आपसी संघर्ष प्रारम्भ हो जाते थे। भारत में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों के बीच संघर्ष आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध से शुरू हुआ।
फ्रांसीसियों का मुख्य कार्यालय पांडीचेरी तथा मसुलीपत्तनम, कारिकल, माही, सूरत तथा चन्द्रनगर में उपकार्यालय थे। जबकि अंग्रेजों की मुख्य बस्तियां मद्रास, बम्बई और कलकत्ता में थीं तथा अनेक उपकार्यालय भी थे। बता दें कि दक्षिण (कर्नाटक) में अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों के बीच सर्वोच्चता के लिए 1746 से 1763 के बीच तीन महत्वपूर्ण युद्ध हुए जिसमें भारत से फ्रांसीसियों की सत्ता लगभग समाप्त हो गई और अंग्रेजों ने अपनी सत्ता स्थापित की।
कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48)
कर्नाटक का प्रथम युद्ध 1740 में आरम्भ हुए आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध का विस्तार मात्र था। युद्ध की शुरूआत इस कारण से हुई कि बारनैट के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जलयानों को अपने कब्जे में ले लिया। ऐसे में पांडीचेरी के फ्रांसीसी गर्वनर डूप्ले ने अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए मॉरीशस के फ्रांसीसी गर्वनर ला-बूर्डोने से सहायता मांगी।
ला-बूर्डोने 3000 सैनिक लेकर कोरोमण्डल तट के रास्ते जल्द ही डूप्ले की सहायता के लिए पहुंच गया। फिर दोनों ने मद्रास का रूख किया जो दक्षिण में अंग्रेजी सत्ता का केन्द्र था। मार्ग में फ्रांसीसियों ने अंग्रेजों को जलयुद्ध में पराजित कर दिया। मद्रास पहुंचते ही फ्रांसीसी सेना ने नगर को जल-थल दोनों तरफ से घेर लिया। मद्रास ने आत्मसमर्पण कर दिया लिहाजा फ्रांसीसी सेना ने राबर्ट क्लाइव सहित अनेक अंग्रेजों को बन्दी बना लिया। ला-बूर्डोने की मंशा अंग्रेजों से हरजाना वसूलकर उन्हें मद्रास लौटा देने की थी लेकिन डूप्ले इसके खिलाफ था। ला-बूर्डोने ने 4 लाख पौंड लेकर मद्रास को लौटा दिया लेकिन डूप्ले ने नगर को दोबारा जीत लिया, हांलाकि पांडीचेरी से 18 मील दक्षिण में स्थित फोर्ट सेंट डेविड को जीतने में नाकाम रहा।
डूप्ले द्वारा मद्रास पर दोबारा अधिकार कर लेने से अंग्रेजों के हौसले पस्त पड़ गए। अंग्रेजों ने कर्नाटक के नवाब अनवरूद्दीन से मदद मांगी। नवाब भी खुद इन दोनों कंपनियों के युद्ध से परेशान था, उसने अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों को युद्ध बंद करने की आज्ञा दी। परन्तु डूप्ले ने नवाब अनवरूद्दीन को झूठा आश्वासन दिया कि वह मद्रास को जीतकर नवाब को सौंप देगा। ऐसे में नवाब अनवरूद्दीन शान्त हो गया। इसके बाद डूप्ले ने अपना वायदा पूरा नहीं किया ठीक इसके विपरीत लूट का सारा माल अपने पास रख लिया और मद्रास पर अपना अधिकार बनाए रखा।
क्रुद्ध होकर कर्नाटक के नवाब अनवरूद्दीन ने मद्रास पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना भेजी। नवाब की सेना का नेतृत्व महफूज खां कर रहा था जिसके पास 10000 भारतीय सैनिक थे जबकि फ्रांसीसी सेना का नेतृत्व कैप्टेन पेराडाइज कर रहा था, उसकी सेना में महज 230 फ्रांसीसी तथा 700 भारतीय सैनिक थे। अदयार नदी स्थिति सेन्ट टोमे नामक स्थान पर फ्रांसीसियों ने नवाब की सेना को पराजित कर यह साबित कर दिया कि असंठित भारतीय सेना के मुकाबले यूरोपीय सेना अनुशासित और श्रेष्ठ है। इसी समय 1748 में एक्स ला शापल की सन्धि द्वारा आस्ट्रिया का उत्तराधिकार युद्ध समाप्त हो गया। परिणामस्वरूप भारत में भी अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों में समझौता हो गया और युद्ध बंद हो गया। मद्रास पुन: अंग्रेजों को मिल गया। हांलाकि कर्नाटक का प्रथम युद्ध भारतीय राजनीति से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित नहीं था बावजूद इसके भारतीय राजनीति के खोखलेपन और सैनिक दुर्बलता की पोल खुल गई। मैलिसन लिखता है कि “अधीनस्थ की स्थिति से छलांग मारकर यूरोपीय सीधे प्रभु की स्थिति में पहुंच गए थे।” अब यूरोपीय शक्तियां केवल व्यापारी न रहकर राजनीतिक शक्ति की दावेदार बन गईं।
कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1749-54)
यद्यपि एक्सला-शेपेल की संधि ने आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष को कुछ समय के लिए शांत कर दिया था, लेकिन कर्नाटक के प्रथम युद्ध से डूप्ले की राजनीतिक पिपासा जाग उठी थी। डूप्ले भारत में फ्रांसीसी आधिपत्य कायम करने के लिए व्यग्र हो उठा था, हांलाकि ऐसी ही दशा अंग्रेजों की भी थी। संयोगवश यह सुअवसर इन दोनों यूरोपीय कम्पनियों को हैदराबाद और कर्नाटक के सिंहासनों के विवादास्पद उत्तराधिकार के कारण प्राप्त हुआ।
आसफजाह ने दक्कन में स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी, 21 मई 1748 को हैदराबाद के निजाम आसफजाह के निधन के पश्चात उसका पुत्र नासिरजंग निजाम की गद्दी पर बैठा। परन्तु आसफजाह के पोते मुजफ्फरजंग (नासिरजंग का भतीजा) ने नासिरजंग को निजाम के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
दूसरी तरफ कर्नाटक के नवाब अनवरूद्दीन तथा उसके बहनोई चंदा साहब के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। इस तरह की अनिश्चित परिस्थिति का लाभ उठाकर डूप्ले ने अपने प्रभावक्षेत्र को विस्तृत करने की योजना बनाई। डूप्ले ने मुजफ्फरजंग तथा चंदा साहब को समर्थन देने का निश्चय किया। उसने इन दोनों की मदद के लिए फ्रांसीसी सेना की टुकड़ी भेजी। इस सेना की मदद से नासिरजंग को पराजित कर एवं उनकी हत्या कर हैदराबाद में मुजफ्फरजंग गद्दी पर बैठा। उसने तत्काल डूप्ले को कृष्णा नदी के दक्षिणी भाग में मुगल प्रदेशों का गर्वनर नियुक्त कर दिया। यहां तक कि उत्तरी सरकारों के कुछ जिले भी फ्रांसीसियों को दे दिए। इधर कर्नाटक में अनवरूद्दीन की हत्या कर चंदा साहब को कर्नाटक का नवाब बनाया गया। ऐसे में हैदराबाद तथा कर्नाटक में फ्रांसीसियों की ताकत अत्यधिक बढ़ गई। इन घटनाओं से अंग्रेज आशंकित हो उठे, अब वे भी किसी ऐसे मौके की ताक में रहने लगे जिससे फ्रांसीसियों पर अंकुश लगाया जा सके। संयोगवश कर्नाटक के नवाब अनवरूद्दीन के पुत्र मोहम्मद अली ने अपने पिता की हत्या के बाद चंदा साहब के डर से त्रिचनापल्ली में शरण ली। फ्रांसीसी तथा चंदासाहब मिलकर भी त्रिचनापल्ली के दुर्ग को जीत नहीं पाए।
रॉबर्ट क्लाइव ने त्रिचनापल्ली से फ्रांसीसियों को ध्यान हटाने के लिए चंदा साहब की राजधानी अर्काट पर पर घेरा डाल दिया। क्लाइव ने महज 210 सैनिकों की सहायता से अर्काट को अपने कब्जे में ले लिया। चंदा साहब ने 4000 सैनिक भेजे लेकिन अर्काट को जीतने में नाकाम रहे। 53 दिनों की नाकाम कोशिश के बावजूद यह फ्रांसीसियों की अंग्रेजों के हाथों पहली महत्वपूर्ण पराजय थी। इसी बीच स्ट्रिंगर लारेन्स की अगुवाई वाली अंग्रेजी सेना ने त्रिचनापल्ली पर भी अधिकार कर लिया। त्रिचनापल्ली में फ्रांसीसी हार ने डूप्ले के भाग्य का अंत कर दिया। चंदा साहब भागकर तंजौर पहुंचा जहां उसकी हत्या कर दी गई। अंग्रेजों का हिमायती मोहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बना।
डूप्ले ने अपनी प्रतिष्ठा और शक्ति स्थापित करने के लिए भरसक प्रयास किया लेकिन वह असफल रहा। कर्नाटक के द्वितीय युद्ध में हुई धन हानि के चलते फ्रांसीसी सरकार ने डूप्ले को 1754 ई. में वापस बुला लिया और गोडेहू को भारत में फ्रांसीसी प्रदेशों का गर्वनर जनरल तथा डूप्ले का उत्तराधिकारी नियुक्त किया। 1755 में गोडेहू ने एक अस्थायी सन्धि कर ली लिहाजा कर्नाटक का द्वितीय युद्ध समाप्त हो गया।
हांलाकि कर्नाटक के द्वितीय युद्ध से अंग्रेजी सेना की सर्वोच्चता सिद्ध गई थी लेकिन हैदराबाद में फ्रांसीसी अभी भी सुदृढ़ अवस्था में थे, उन्होंने हैदराबाद के सूबेदार सालारजंग से और भी अधिक जागीर प्राप्त कर ली थी।
कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1758-63)
कर्नाटक का तृतीय युद्ध 1756 में यूरोप में शुरू होने वाले सप्तवर्षीय युद्ध का परिणाम था। फ्रांसीसी सरकार ने भारत में अपनी खोई शक्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए अप्रैल 1757 में काउंट लैली को भेजा। वह एक वीर, साहसी तथा कुशल सेनापति था, लेकिन क्रोधी और हठी होने के कारण कभी-कभी जोश में आकर वह बिना सोचे-समझे निर्णय लेता था। इसी वजह से उसे स्वयं तथा अपने राष्ट्रीय हितों की बर्बादी मोल लेनी पड़ी।
भारत आते ही काउन्ट लैली ने फोर्ट सेन्ट डेविड को अपने कब्जे में ले लिया। चूंकि तंजौर के शासक पर फ्रांसीसी कंपनी का 56 लाख रुपया बकाया था, जिसे काउन्ट लैली वसूलना चाहता था। फलत: काउन्ट लैली ने तंजौर पर आक्रमण कर दिया। अंग्रेजों के हस्तक्षेप के चलते लैली को तंजौर से अपना घेरा उठाकर लौटना पड़ा जिससे फ्रांसीसी सेना की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची।
तंजौर में मिली हार की कीमत चुकाने के लिए लैली ने अंग्रेजों के गढ़ मद्रास पर आक्रमण कर दिया तथा अपनी सहायता के लिए हैदराबाद से बुस्सी को भी बुला लिया। यह लैली की एक बड़ी गलती थी, इससे हैदराबाद में फ्रांसीसियों की स्थिति कमजोर हो गई। इस स्थिति से निबटने के लिए क्लाइव ने कर्नल फोर्ड को मद्रास भेजा जिसने मसुलीपत्तनम पर अधिकार कर लिया। हैदराबाद के निजाम से भी अंग्रेजों ने सन्धि करके अपनी स्थिति मजबूत कर ली। इसी बीच एक अन्य जहाजी बेड़ा अंग्रेजों की मदद करने के लिए मद्रास पहुंच गया लिहाजा बाध्य होकर काउन्ट लैली को 1758 ई. में मद्रास से अपना घेरा उठाना पड़ा।
अब काउन्ट लैली की स्थिति कमजोर हो चुकी थी, न तो उसके पास पर्याप्त साधन थे और न ही फ्रांस की सरकार से उसे पर्याप्त सहायता मिल सकी बावजूद इसके लैली अपने शत्रुदल के साथ छिटपुट युद्ध करता रहा। 1760 में वांडीवाश का निर्णायक युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेज सेनापति आयरकूट ने फ्रांसीसियों को बुरी तरह से पराजित करते हुए बुस्सी को गिरफ्तार कर लिया। मैलिसन लिखता है कि “मार्टिन, डुमास और डूप्ले ने जिस शक्तिशाली इमारत को खड़ा करने में अपना योगदान दिया था, उसे इस युद्ध ने मिट्टी में मिला दिया; काउन्ट लैली की सभी आशाओं पर इसने पानी फेर दिया; पांडीचेरी के भाग्य को इसने चौपट कर दिया।”
आठ महीने की घेरेबंदी के बाद अंग्रेजों ने पांडीचेरी को भी अपने कब्जे में ले लिया। काउन्ट लैली को 1761 में बाध्य होकर समर्पण कर देना पड़ा। पांडीचेरी के बाद अंग्रेजों ने माही तथा जिंजी पर भी अधिकार कर लिया। इस प्रकार कर्नाटक का तृतीय युद्ध पूर्ण रूप से निर्णायक साबित हुआ। इस युद्ध ने भारत में फ्रांसीसियों की सत्ता समूल नष्ट कर दी। काउन्ट लैली की असफलता से अप्रसन्न होकर फ्रांस की सरकार उसे बंदी के रूप में वापस बुलाकर 1763 में मृत्युदंड की सजा दे दी।
अंग्रेजों की विजय और फ्रांसीसियों की पराजय के मुख्य कारण
आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष में अन्तत: अंग्रेजों की विजय तथा फ्रांसीसियों की पराजय हुई। एक समय फ्रांसीसियों की राजनीतिक विजयों ने भारत के लोगों को स्तब्ध कर दिया था परन्तु वे अन्त में हार गए। उनकी इस पराजय के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे-
फ्रांसीसियों का यूरोप की राजनीति में उलझना-
18वीं शताब्दी में फ्रांस के सम्राटों की यूरोपीय महत्वकांक्षाओं के कारण उनके साधनों पर अत्यधिक दवाब पड़ा। फ्रांस की सरकार इटली, बेल्जियम तथा जर्मनी में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए संघर्षरत थी इसलिए भारत की तरफ कम ध्यान दे पाती थी। ठीक इसके विपरीत ब्रिटीश सरकार का पूरा ध्यान भारत की ही तरफ था। इतना ही नहीं अंग्रेजों ने भारत में अपने हितों की सुरक्षा के लिए फ्रांसीसियों के मुकाबले अधिक परिश्रम किया और इसका फल भी उन्हें मिला। इस संबंध में अल्फ्रेड लायल ने अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है कि फ्रांसीसियों की असफलता का कारण दुर्भाग्य अथवा व्यक्तियों का अक्षम होना नहीं था, अपितु उन तत्वों का एकत्र होना था जिन्होंने उस समय फ्रांस और इंग्लैंड के बीच संघर्ष में फ्रांस को सफल नहीं होने दिया।
अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों की प्रशासनिक व्यवस्थाओं में अंतर-
फ्रांस और इंग्लैंड की प्रशासनिक व्यवस्थाएं एक-दूसरे से पूर्णतया भिन्न थीं। फ्रांस की सरकार तानाशाही एवं स्वेच्छाचारी प्रवृत्ति की थी। इस व्यवस्था में निहित बुराईयां सम्राट लुई चौदहवें के शासनकाल में ही स्पष्ट होने लगी थीं। लुई पन्द्रहवें के समय यह व्यवस्था और भी बिगड़ गई, उसने अपनी रखैलों, दरबारी चाटुकारों तथा भोग विलास के साधनों पर जमकर धन लुटाया। परिणामस्वरूप फ्रांस की सरकार अपने हितों की सुरक्षा में अक्षम थी। ऐसे में इसका दुष्प्रभाव भारत में मौजूद फ्रांसीसी हितों पर भी पड़ा। इसके ठीक विपरीत इग्लैंड की सरकार अपने हितों की सुरक्षा के लिए कटिबद्ध थी। इंग्लैंड अपनी गणतांत्रिक व्यवस्था के चलते दिन प्रतिदिन शक्तिशाली बनता जा रहा था।
फ्रांसीसियों को जब कभी भी सहायता की जरूरत पड़ती थी, फ्रांस की तरफ से पर्याप्त सहायता नहीं मिल पाती थी। वहीं अंग्रेजों को ब्रिटीश सरकार से पूर्ण समर्थन प्राप्त होता था। यही वजह है कि अनेक फ्रांसीसी इतिहासकारों ने फ्रांस की असफलता के लिए अपनी भ्रष्ट एवं अक्षम प्रशासनिक व्यवस्था को दोषी माना है।
आल्फ्रेड लायल लिखता है कि “डूप्ले की वापसी, ला बोर्डोने तथा डआश की भूलें, काउन्ट लैली का साहस आदि से कहीं अधिक लुई पन्द्रहवें की भ्रांतिपूर्ण नीति तथा उसके अक्षम मंत्री फ्रांस की असफलता के लिए उत्तरदायी थे।”
ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कम्पनी तथा फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रकृति में मूल अंतर
फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार के अधीन कार्यरत थी। 55 लाख लीव्र (फ्रैंक) की पूजीं से बनाई गई कम्पनी में 35 लाख लीव्र सम्राट ने लगाए थे। यही वजह था कि फ्रांस की सरकार को कम्पनी की समृद्धि से कोई विशेष लेनादेना नहीं था। 1725 से 1765 यानि 40 साल में कम्पनी के भागीदारों की एक भी बैठक नहीं हुई, कम्पनी का प्रबन्धन सरकार के हाथों में था। ऐसे में धीरे-धीरे फ्रेंच कम्पनी की वित्तीय हालत खराब होती चली गई। फ्रांसीसी कम्पनी उधार लिए धन से ही व्यापार करती रही। यही वजह है कि डूप्ले की महत्वाकांक्षाओं तथा युद्धों की पूर्ति करने में कम्पनी अक्षम थी।
ठीक इसके विपरीत ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कम्पनी व्यक्तिगत व्यापारियों की कम्पनी थी। कम्पनी के प्रबन्धन में कोई विशेष हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। कम्पनी के डायरेक्टर हमेशा व्यापार को महत्व देते थे, पहले व्यापार बाद में राजनीति। इसलिए कम्पनी अपने युद्धों के धन अक्सर स्वयं ही अर्जित करने में सक्षम थी। कम्पनी की समृद्धि का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1767 में ब्रिटीश संसद ने कम्पनी को आदेश दिया कि वह 4 लाख पौंड वार्षिक अंग्रेजी कोष में जमा करे। इतना ही नहीं एक बार यह भी सुझाव था कि कम्पनी की मदद से राष्ट्रीय ऋण का भुगतान किया जाए। इस प्रकार सुदृढ़ आर्थिक आधार के बदौलत अंग्रेज अपने उद्देश्यों की पूर्ति में सफल रहे। जबकि फ्रांसीसी हमेशा धन की कमी से ग्रस्त रहे।
अंग्रेजों के मुकाबले फ्रांसीसी नौ सेना की कमजोरी-
अंग्रेजों की विजय और फ्रांसीसियों की पराजय में नौसेना की महत्वपूर्ण भूमिका रही। अंग्रेजों के पास एक शक्तिशाली जलबेड़ा था। स्पेनिश आर्मेडा की पराजय के पश्चात अंग्रेजों की नौसैनिक शक्ति पूरे विश्व में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने लगी। अंग्रेजों का मुकाबला करने वाला अब कोई नहीं बचा था। यह साबित हो चुका था कि जिस देश का सामुद्रिक मार्ग पर अधिकार होगा, वही भारत के व्यापार पर नियंत्रण रख सकता है। चूंकि अंग्रेज तथा फ्रांसीसी एक ही जलमार्ग का व्यवहार करते थे, ऐसे में सामुद्रिक मार्ग पर अंग्रेजी श्रेष्ठता ने फ्रांसीसियों के पतन को सुनिश्चित बना दिया।
अंग्रेजों का कुशल सैन्य संगठन-
जलशक्ति के अतिरिक्त अंग्रेजों की थल सेना भी फ्रांसीसियों के मुकाबले अधिक सुसंगठित, प्रशिक्षित और अनुशासित थी। इसके विपरीत फ्रांसीसी सेना के पास क्षमता, अनुशासन एवं साधनों का अभाव था। फ्रांसीसी सेना के पास दीर्घकालीन युद्ध करने का कौशल प्राप्त नहीं था, जबकि अंग्रेज इसमें दक्ष थे। यह भी एक कारण था कि फ्रेंच कम्पनी अंग्रेजों के सामने नहीं टिक सकी।
अंग्रेजों के बंगाल विजय का प्रभाव-
अंग्रेजों के बंगाल विजय से न केवल प्रतिष्ठा बढ़ी अपितु बंगाल से अपार धन और जनशक्ति इन्हें प्राप्त हो गई। जिस समय फ्रांसीसी गर्वनर काउन्ट लैली को अपनी सेना को वेतन देने की चिन्ता थी, वहीं बंगाल से अंग्रेजों को पर्याप्त धन और जन दोनों ही प्राप्त हो रहे थे। स्मिथ ने लिखा है कि डूप्ले तथा बुस्सी दोनों मिलकर भी नौसेना तथा धन के मामले में गंगा घाटी के वित्तीय स्रोतों के स्वामी अंग्रेजों को परास्त नहीं कर सकते थे। इस बारे में मेरियट लिखता है कि डूप्ले ने भारत की चाबी मद्रास में खोजने की निष्फल चेष्टा की जबकि क्लाइव ने यह चाबी बंगाल में पहले ही प्राप्त कर ली थी।
डूप्ले की दोषपूर्ण नीतियां-
भारत में फ्रांसीसियों की पराजय के लिए काफी हद तक डूप्ले की नीतियां भी उत्तरदायी हैं। उसने व्यापार से ज्यादा राजनीति में दिलचस्पी दिखाई और राजनीतिक षड्यंत्रों में इतना उलझ गया कि इससे होने वाले दुष्परिणामों की तरफ ध्यान नहीं दे सका। डॉ. इश्वरी प्रसाद के मुताबिक, डूप्ले ने फ्रांसीसी साम्राज्य की स्थापना हेतु न तो कभी कोई विचारपूर्ण योजना ही बनाई और न उसे कार्यान्वित करने के लिए किसी निश्चित नीति का अनुसरण ही किया। दूसरी तरफ राबर्ट क्लाईव ने अंग्रेजों की रक्षा के लिए अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया और अंत में सफल भी हुए।
दोनों कम्पनियों का राजनैतिक तथा सैनिक नेतृत्व-
फ्रांसीसी कम्पनी के मुकाबले अंग्रेजी कम्पनी का राजनीतिक तथा सैनिक नेतृत्व अधिक बेहतर था। डूप्ले तथा बुस्सी व्यक्तिगत रूप से क्लाइव, लारेन्स तथा साण्डर्स से कम नहीं थे लेकिन वे सैनिको में क्लाइव की भांति जोश पैदा करने में अक्षम थे। काउण्ड लैली बहुत ही क्रोधी था, वह पांडीचेरी में कार्यरत सभी कार्यकर्ताओं को बईमान और धूर्त समझता था। उसका विश्वास था कि वह डरा धमकाकर सभी को ठीक कर लेगा लेकिन उल्टे उसने अपने ही साथियों से नाराजगी मोल ले ली। जब काउण्ट लैली पराजित हो गया तो उसके अधीनस्थ ही बहुत प्रसन्न हुए। दूसरी तरफ अंग्रेजों के पास दक्ष तथा अच्छे सैनिक नेता थे, उनके अधीनस्थ लोग भी उत्तम थे। मालेसन के मुताबिक, लॉरेन्स, सान्डर्स, केलिआड, फोर्ड आदि अनेक अंग्रेज पदाधिकारी डूप्ले के लान्ज, दान्त्यूल ब्रेनियर इत्यादि फ्रांसीसी अफसरों से कई गुणा वीर, साहसी तथा उत्तम थे।
डेनमार्क (डेनिश) के भारत आगमन से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य—
— डेनमार्क की ईस्ट इंडिया कम्पनी की स्थापना 1616 ई. में हुई।
— इस कम्पनी ने 1620 में त्रैंकोबार तमिलनाडु में प्रथम डेनिश व्यापारिक समझौते के तहत व्यापारिक कोठी की स्थापना की।
— 1676 ई. में सेरामपुर बंगाल में अपनी व्यापारिक कोठी स्थापित की।
— सेरामपुर डेनमार्क की कम्पनी का प्रमुख केन्द्र था।
— 1845 ई. डेन लोगों ने अपनी भारतीय वाणिज्यिक कम्पनी को अंग्रेजों को बेच दिया।
— डेनिश कम्पनी के लिए मिशनरी क्रिया कलाप उनके व्यापार-वाणिज्यिक कार्यों से अधिक महत्वपूर्ण थे।
— डेनिस कम्पनी का व्यापार केवल चीन तक ही सीमित था।
— भारत में यूरोपीय कंपनियों का आगमन का क्रम कुछ इस प्रकार से था- पुर्तगाली, डच, अंग्रेज, डेन, फ्रांसीसी।
भारत में यूरोपीय कम्पनियों के नाम और स्थापना वर्ष
— पुर्तगाल— एस्तादो द इंडिया— 1498 ईं.
— हालैंड— वेरिंगिदे ओस्त इण्डिशे कम्पनी—1602 ई.
(डच ईस्ट इंडिया कम्पनी)
— इंग्लैंड— ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कम्पनी— 1600 (1599) ई.
— डेनमार्क— डेन ईस्ट इंडिया कम्पनी— 1616 ई.
— फ्रांस— कम्पने देस इण्डसे ओरियंतलेस— 1664 ई.
(फ्रेंच ईस्ट इंडिया कम्पनी)
— स्वीडन — स्वीडिश ईस्ट इंडिया कम्पनी — 1731 ई.
सम्भावित प्रश्न—
- 18वीं शताब्दी में अंग्रेज-फ्रांसीसी संघर्ष का वर्णन करें?
- कर्नाटक के तीन युद्धों का वर्णन करते हुए उनका महत्व बताएं?
- भारत में फ्रांसीसियों की पराजय तथा अंग्रेजों की विजय के कारणों का वर्णन करें?
- कर्नाटक में अंग्रेजी सत्ता की स्थापना का विशद वर्णन कीजिए?