दिल्ली सल्तनत की स्थापना 1206 ई. में मानी जाती है। इसकी स्थापना का श्रेय मुहम्मद गोरी के भारतीय क्षेत्रों के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को जाता है। दिल्ली सल्तनत का काल 1206 ई. से 1526 ई. तक माना जाता है। अब हम बात करने जा रहे हैं दिल्ली सल्तनत के गुलाम वंश के सुल्तानों की जिनका कार्यकाल 1206 से 1290 ई. तक है। बता दें कि गुलाम वंश के सभी सुल्तान तुर्क थे लेकिन उनके वंश अलग-अलग थे। बतौर उदाहरण- कुतुबुद्दीन ऐबक ने कुत्बी वंश, इल्तुतमिश ने शम्सी और बलबन ने बलबनी राजवंश की स्थापना की थी। इस प्रकार से मामलूक सुल्तानों में तीन राजवंशों ने शासन किया था। इनमें से प्रत्येक सुल्तान स्वतंत्र माता-पिता की संतान था अत: इन्हें गुलाम वंश का सुल्तान कहने के बजाय तुर्क सुल्तान अथवा दिल्ली के मामलूक सुल्तान कहना ज्यादा उपयुक्त है।
कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है। मुहम्मद गोरी ने 1192 ई. हुए तराईन के द्वितीय युद्ध के पश्चात कुतुबुद्दीन ऐबक को भारतीय प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त किया था। मुहम्मद गोरी के भारत से वापस चले जाने के बाद ऐबक ने अपने स्वामी के द्वारा जीते हुए प्रदेशों को न केवल तुर्कों के आधिपत्य में रखा बल्कि राज्य विस्तार भी किया। कुतुबुद्दीन की वास्तविक सफलता भारत के तुर्की राज्य को गोर और गजनी के सुल्तानों के स्वामित्व से मुक्त करके उसे स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करने का प्रयत्न करना था तथा गोरी की मृत्यु के बाद उत्पन्न हुई अस्थिर परिस्थितियों में उसे स्थायित्व प्रदान करना था। यही वजह है कि उसे भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक माना जाता है।
कुतुबुद्दीन ऐबक का प्रारम्भिक जीवन-
कुतुबुद्दीन ऐबक के मां-बाप तुर्किस्तान के निवासी थे। ऐबक को निशापुर के काजी फखरूद्दीन अब्दुल अजीज कैफी ने उसे दास के रूप में खरीदा था। चूंकि उन दिनों तुर्कों में अपने गुलामों को योग्य बनाने की परम्परा थी, ऐसे में अनेक तुर्क अमीर अपने गुलामों को साहित्य, कला और सैनिक शिक्षा मुहैया करवाते थे। गुलामों को राज्य के अलावा सुल्तानों की सेवा के योग्य बनाया जाता था ताकि इन गुलामों से इन्हें अधिकतम मूल्य प्राप्त हो सके।
अपनी इसी योग्यता के बलबूते कई गुलाम राज्य सेवा के दौरान श्रेष्ठतम पद प्राप्त कर लेते थे। इसी क्रम में इल्तुतमिश को कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197 ई. में हुए अन्हिलवाड़ युद्ध के पश्चात खरीदा था। यही इल्तुतमिश कालान्तर में ऐबक का दामाद और फिर दिल्ली का सुल्तान बना।
आपको याद दिला दें कि निशापुर के काजी ने ऐबक को सभी प्रकार की शिक्षा मुहैया करवाई थी। काजी की मौत के बाद उसके पुत्रों ने कुतुबुद्दीन ऐबक को ग़लीम बाज़ार में एक व्यापारी को बेच दिया और अन्त में मुहम्मद गोरी ने उसे खरीदा। ऐबक ने अपनी योग्यता के दम पर जल्द ही अमीर-ए-अखूर (अश्वशाला का अध्यक्ष) का पद प्राप्त कर लिया, जो उस समय बहुत ही सम्मानित पद माना जाता था। मुहम्मद गोरी ने उसे विजित भारतीय प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त था। बता दें कि मुहम्मद गोरी के मौत के समय कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में दिल्ली, अजमेर, लाहौर के अतिरिक्त अन्य भारतीय प्रदेशों का गर्वनर था।
गोरी के सहायक के रूप में ऐबक की सैन्य प्रतिभा-
मुहम्मद गोरी के गुलाम के रूप में ऐबक ने विलक्षण सैन्य प्रतिभा का प्रदर्शन किया। पृथ्वीराज चौहान के खिलाफ तराईन के द्वितीय युद्ध (1192 ई.) के दौरान ऐबक निरन्तर गोरी के साथ बना रहा। गोरी के स्वदेश लौटने के बाद उसने अजमेर, मेरठ आदि स्थानों पर हुए विद्रोहों को दबाया और दिल्ली को अपने अधिकार में कर लिया। 1194 ई. में कुतुबुद्दीन ऐबक ने चन्दावर के जंग में कन्नौज के शक्तिशाली शासक जयचन्द को पराजित किया। 1195 ई. में ऐबक ने न केवल अलीगढ़ पर अधिकार कर लिया बल्कि रणथम्भौर के किले को भी जीत लिया। गुजरात की राजधानी अन्हिलवाड़ को लूटने के साथ-साथ उसने बुन्देलखंड के राजा परमर्दिदेव को परास्त करके कालिंजर, महोबा और खजुराहो पर अधिकार कर लिया। ऐबक ने महोबा, कालपी और बदायूं को अधीन करने के दौरान भयंकर लूटमार मचाई, जिसमें हिन्दू मंदिरों के विनाश से लेकर धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया भी शामिल थी।
बतौर शासक कुतुबुद्दीन ऐबक-
1206 ई. में सिन्धु नदी के तट पर दमयक नामक पर स्थान पर नमाज पढ़ते समय शिया तथा हिन्दू खोक्खर विद्रोहियों ने मिलकर मुहम्मद गोरी की हत्या कर दी। चूंकि गोरी की मृत्यु अचानक हुई थी, इसी कारण उसे अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने अथवा कोई अन्य वैकल्पिक व्यवस्था करने का समय नहीं मिल सका था।
अत: गोरी की मृत्यु की सूचना मिलते ही लाहौर के स्थानीय नागरिकों ने कुतुबद्दीन ऐबक को लाहौर आकर शासन सत्ता अपने हाथों में लेने के लिए आमंत्रित किया। इस प्रकार स्थानीय नागरिकों के अनुरोध पर ऐबक ने सत्ता ग्रहण की और लाहौर को राजधानी बनाकर जीवनपर्यन्त वहीं रहा।
सत्ता ग्रहण करने के पश्चात ऐबक ने सुल्तान की उपाधि ग्रहण नहीं की बल्कि मलिक और सिपहसालार जैसी पदवियों से ही संतुष्ट रहा, जो उसने अपने स्वामी मुहम्मद गोरी से प्राप्त किया था। ऐबक ने न ही अपने नाम का खुतबा पढ़वाया और न ही अपने नाम के सिक्के चलवाए। मुहम्मद गोरी के उत्तराधिकारी गियासुद्दीन महमूद ने उसे सुल्तान स्वीकार किया और 1208 ई. में उसे दासता से मुक्त किया। अत: भारत का शासक बनने के समय वह तकनीकी रूप से गुलाम था।
मिनहाज-उस-सिराज लिखता है कि “ऐबक श्रेष्ठ भावनाओं से युक्त विशाल हृदयी बादशाह था, वह बहुत ही दानशील था।” अपनी उदारता के कारण वह इतना अधिक दान करता था कि उसे लाखबख्श (लाखों देने वाला) कहा गया। कुरान का अत्यन्त सुरीली आवाज में पाठ करने के कारण कुतुबद्दीन ऐबक को कुरान खां भी कहा जाता था। ऐबक हातिम द्वितीय के नाम से भी विख्यात था।
साहित्य अनुरागी होने के कारण वह अपने दरबार में विद्वानों को संरक्षण भी प्रदान करता था। तत्कालीन विद्वान हसन निजामी (ताज-उस-मसिर) तथा फक्र-ए-मुदब्बिर (तारीख-ए-मुबारकशाही) ने अपनी कृतियां ऐबक को समर्पित की थी।
यदि स्थापत्यकला की बात करें तो उसने प्रसिद्ध सूफी सन्त कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की स्मृति में दिल्ली में कुतुबुमीनार का निर्माण आरम्भ करवाया। इतना ही नहीं उसने अजमेर के निकट चौहान सम्राट विग्रहराज चतुर्थ द्वारा बनवाए गए संस्कृत विद्यालय को तोड़कर अढ़ाई दिन का झोपड़ा नामक मस्जिद बनवाई। इस इमारत पर संस्कृत नाटक हरिकेलि के कुछ अंश अंकित हैं। ऐबक ने दिल्ली में कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाया। अल्पावधि के चलते उसने साम्राज्य विस्तार नहीं बल्कि साम्राज्य सुदृढ़ीकरण पर विशेष ध्यान दिया। चौगान (आधुनिक पोलो की भांति का एक खेल) खेलते समय घोड़े से गिर जाने के कारण 1210 ई. में उसकी मृत्यु हो गई। इतिहासकार मिन्हाज-उस-सिराज ने इस बारे में इस तरह लिखा है, कि "जब मौत आई, तो 607 हिजरी (1210 ई.) में, पोलो खेलते हुए, वह घोड़े से गिर गया, घोड़ा उस पर आ गिरा, काठी के सामने का उठा हुआ हिस्सा क़ुतबुद्दीन की छाती में घुस गया और उसकी मृत्यु हो गई।" उसे लाहौर में ही दफनाया गया जहां उसकी कब्र पर एक साधारण स्मारक बना दिया गया।
कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियां-
भारत में अपने स्वतंत्र अस्तित्व को स्थापित करना कुतुबुद्दीन ऐबक की प्राथमिक और मुख्य उपलब्धि मानी जाती है। उसने अपने कौशल और कूटनीति के दम पर तुर्की सरदारों को अपनी आधीनता स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया। लाहौर के सिंहासन पर बैठने के बाद अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए उसने अपनी बेटी का विवाह इल्तुतमिश से तथा अपनी बहन की शादी नासिरूद्दीन कुबाचा से किया। संम्भवत: कुबाचा ने ऐबक को दिल्ली का सुल्तान स्वीकार कर लिया। चूंकि ताजुद्दीन यल्दौज की तरफ से उसे हमेशा खतरा बना रहा, इसीलिए वह सर्वदा लाहौर में रहा। ऐबक को दिल्ली में रहने का अवसर कभी नसीब नहीं हुआ।
ताजुद्दीन यल्दौज के साथ संघर्ष- सुल्तान गियासुद्दीन ने यल्दौज को दासता से मुक्त करके गजनी का शासक स्वीकार कर लिया था। हांलाकि ख्वारिज्मशाह के दबाव के कारण जल्द ही उसे गजनी छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा। गजनी का शासक होने के नाते ख्वारिज्मशाह ने भारत के तुर्की राज्य पर अपना पारम्परिक अधिकार मानते हुए पंजाब पर अधिकार कर लिया।
हांलाकि ऐबक ने जल्द ही उसे युद्ध परास्त करते हुए पंजाब छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया। गजनी के अरक्षित होने के नाते उस पर ख्वारिज्मशाह अधिकार कर लेता इसलिए गजनी की जनता ने ऐबक को आमंत्रित किया। ऐसे में कुतुबुद्दीन ऐबक ने आगे बढ़कर गजनी पर अधिकार कर लिया। लेकिन गजनी के नागरिक ऐबक से संतुष्ट नहीं हुए, इसलिए उन्होंने यल्दौज को पुन: आमंत्रित किया। ऐसे में 40 दिन पश्चात ही ऐबक को गजनी छोड़ना पड़ा। हांलाकि गजनी पर अधिकार करने में ऐबक सफल नहीं हुआ लेकिन ताजुद्दीन यल्दौज भी भारत के तुर्की राज्य पर अधिकार नहीं कर पाया। इस प्रकार कुतुबुद्दीन ऐबक ने दिल्ली के स्वतंत्र अस्तित्व को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।
बंगाल विद्रोह का दमन- बंगाल जैसे सूबे (इक्ता) ने भी कुतुबुद्दीन ऐबक को परेशान किया। खिलजी सरदारों ने मुहम्मद बख्तियार खिलजी के हत्यारे अलीमर्दान खां को कैद करके मुहमद शेरा को इस शर्त पर बंगाल की गद्दी पर बैठाया था कि वह दिल्ली की आधीनता स्वीकार नहीं करेगा। इस दौरान अलीमर्दान खां कैद से भागकर ऐबक के पहुंचा लिहाजा ऐबक ने उसे बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया और उसने वायदा किया कि वह ऐबक के अधीन रहकर काम करेगा। लेकिन खिलजी सरदार अलीमर्दान को बंगाल का सूबेदार मानने को तैयार नहीं थे। इसलिए ऐबक के सेनापति कैमाज रूमी ने खिलजी सरदारों को परास्त करते हुए उन्हें अलीमर्दान को बंगाल का सूबेदार मानने के लिए बाध्य कर दिया। इस प्रकार बंगाल सूबा भी दिल्ली सुल्तान के अधीन हो गया।
सिन्ध एवं मालवा- मुहम्मद गोरी की मृत्यु के पश्चात नासिरूद्दीन कुबाचा ने सिन्ध एवं मालवा पर अधिकार कर लिया तथा ऐबक के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया परन्तु ऐबक ने कूटनीति का सहारा लेते हुए अपनी बहन का विवाह कुबाचा से कर दिया। जिससे दिल्ली को मिलने वाली सबसे बड़ी चुनौती एक बार में ही समाप्त हो गई।
बता दें कि ऐबक को राजस्थान के राजपूतों ने काफी परेशान किया और कुछ क्षेत्रों को उससे छीन लिया लेकिन ऐबक उन्हें पुन: जीतने का प्रयत्न नहीं कर सका। दरअसल ऐबक को अपने चार साल के कार्यकाल में साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाने का मौका ही नहीं मिला। गौरतलब है कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने स्वतंत्र शासक की हैसियत से शासन करते हुए अपने जीते हुए नए राज्य को सुरक्षित रखा और प्रत्येक समस्या पर नियंत्रण कायम किया।
कुतुबुद्दीन ऐबक का मूल्यांकन-
एक गुलाम का अपनी योग्यता के दम पर सुल्तान के पद तक पहुंचना इस बात को साबित करता है कि कुत्बी वंश का कुतुबुद्दीन ऐबक अपने स्वामी मुहम्मद गोरी के गुलामों में सबसे योग्य था। वह एक ऐसे तुर्क राज्य का संस्थापक बना जो भारत में स्थायी रहा। इतिहासकार एवं प्रो. ए.बी.एम.हबीबुल्ला ने लिखा है कि “ऐबक में एक तुर्क का साहस और एक ईरानी की उदारता और सुसभ्यता मिश्रित थी।” हसन निजामी के मुताबिक, “कुतुबुद्दीन अपनी प्रजा को समान रूप से न्याय प्रदान करता था और अपने राज्य की शान्ति और समृद्धि के लिए प्रयत्नशील था।”
ऐबक में व्यावहारिक बुद्धि के साथ-साथ कूटनीतिज्ञता भी पर्याप्तरूप से विद्यमान थी। वह अपने मुख्य लक्ष्य तुर्की राज्य को मध्य एशिया की राजनीति से अलग रखने तथा गजनी के आधिपत्य से मुक्त कराने में सफल रहा। उसने अपनी छोटी सी अवधि में राज्य विस्तार की तुलना में साम्राज्य सुदृढ़ीकरण पर ज्यादा ध्यान दिया। ऐबक का एक कर्मठ सैनिक और योग्य सेनापति होना उसकी सबसे बड़ी योग्यता थी। मुहम्मद गोरी के भारत विजय अभियान का अधिकांश श्रेय कुतुबुद्दीन को ही जाता है।
कुतुबद्दीन ऐबक एक योग्य सेनापति, व्यावहारिक शासक तथा बेहद उदार व्यक्ति अवश्य था और भारत में तुर्की राज्य का संस्थापक भी माना गया है। लेकिन उसमें कुछ कमियां भी थीं, जैसे- बतौर शासन प्रबन्धक उसमें कोई विशेष प्रतिभा नहीं थी। उसका शासन एक फौजी जागीर की भांति ही रहा। हिन्दू मन्दिरों के अवशेषों से मस्जिदों का निर्माण करवाना भी उपयुक्त नहीं था। समय अभाव के कारण ऐबक के कुछ कार्य अधूरे रहे। यही वजह है कि इल्तुतमिश को उसके कार्यों की पूर्ति के लिए प्रयत्न करने पड़े।
कुतुबुद्दीन ऐबक का पुत्र आरामशाह (1210-1211 ई.)
1210 ई.में कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के पश्चात उसके सरदारों ने उसके पुत्र आरामशाह को लाहौर की गद्दी पर बैठा दिया लेकिन दिल्ली के तुर्क सरदार और नागरिक इस बात से संतुष्ट नहीं थे। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि आरामशाह एक अयोग्य नवयुवक था, दिल्ली सल्तनत की विपरीत परिस्थितियों में तुर्की राज्य के लिए एक योग्य और अनुभवी शासक की आवश्यकता थी। इसलिए दिल्ली की जनता और तुर्की सरदारों ने ऐबक के दामाद और बदायूं के सूबेदार इल्तुतमिश को सुल्तान बनाने के लिए आमंत्रित किया।
इल्तुतमिश ने दिल्ली पहुंचकर सुल्तान का पद ग्रहण किया। ऐसे में आरामशाह ने इल्तुतमिश पर आक्रमण कर दिया लेकिन युद्ध में पराजित होने के बाद उसे मार दिया गया। इस प्रकार आरामशाह का शासन महज 8 महीने में ही समाप्त हो गया और इल्तुतमिश दिल्ली का सुल्तान बन गया।
सम्भावित प्रश्न— मुहम्मद गोरी के गुलाम के रूप में कुतुबुद्दीन ऐबक के कार्यों का मूल्यांकन कीजिए?
— एक स्वतंत्र तुर्की शासक के रूप में ऐबक की उपलब्धियों का वर्णन कीजिए?
— क्या कुतुबुद्दीन ऐबक भारत में तुर्की राज्य का वास्तविक संस्थापक था?
— शासक बनने के बाद ऐबक को किन-किन कठिनाईयों का सामना करना पड़ा, विस्तार से चर्चा कीजिए?
— कुतुबद्दीन ऐबक के पुत्र आरामशाह पर टिप्पणी लिखिए?