ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उत्तर भारत की मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में अनेक धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हुआ। अनेक मत तथा दर्शनों के प्रादुर्भाव ने बौद्धिक तथा धार्मिक आन्दोलन का रूप ग्रहण किया। इस धार्मिक आन्दोलन के दौरान तकरीबन 62 सम्प्रदाय अस्तित्व में आए किन्तु बौद्ध तथा जैन धर्म ही ज्यादा प्रसिद्ध हुए। इन दोनों धर्मों के अतिरिक्त हमें भागवत धर्म, शैव धर्म तथा शाक्त धर्मों के विषय में भी पर्याप्त जानकारी मिलती है।
धार्मिक आन्दोलन के प्रमुख कारण- वैदिक धर्म अब कर्मकाण्ड में परिवर्तित हो चुका था। धार्मिक कृत्य अत्यन्त खर्चीले, जटिल तथा आडम्बरपूर्ण बन चुके थे।
— वर्ण विभाजित समाज में तनाव पैदा हो चुका था। ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज को विशेषाधिकार प्राप्त था। जबकि वैश्य कृषक, पशुपालक और मुख्य करदाता था। इन तीनों की सेवा करना शूद्र का कर्तव्य था। समाज में शूद्र का स्थान निम्न था। ऐसे में समाज में तनाव होना स्वाभाविक था।
— ब्राह्मणों और पुरोहितों की श्रेष्ठता के विरूद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना भी नए धर्मों के उदय का एक अन्य कारण था।
— वैदिक दर्शन अपनी पवित्रता खो चुके थे, समाज में अन्धविश्वास तथा रूढ़िवादिता का बोलबाला हो चुका था।
— सभी धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में लिखे गए थे, जो आम लोगों की भाषा नहीं थी।
— कुछ लोग समाज की जटिल एवं पुरानी व्यवस्था के अतिरिक्त निजी सम्पत्ति के संचय के विरूद्ध थे, इसके विपरीत वे शुद्ध, सरल और संयमित जीवन जीने के इच्छुक थे।
बौद्ध धर्म- छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हुई धार्मिक क्रांति से ब्राह्मणवादी धर्म को जिससे सबसे अधिक आघात पहुंचा, वह था बौद्ध धर्म। बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध थे। बौद्ध धर्म के तीन आधार स्तम्भ थे— बुद्ध (संस्थापक), धम्म (उपदेश) और संघ (भिक्षु और भिक्षुणियों का संगठन)। बौद्ध धर्म की शिक्षाएं एवं सिद्धान्त ‘त्रिपिटक’ (पालि भाषा) में संकलित हैं।
महात्मा बुद्ध - पालि ग्रन्थों में गौतम बुद्ध की जीवन सम्बन्धी कथाओं में अनेक चमत्कारिक तथा अतिशयोक्तिपूर्ण उपाख्यान भी सम्मिलित हैं। बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध का जन्म 563 ईसा पूर्व में नेपाल की तराई में स्थित एक छोटे से गणराज्य कपिलवस्तु के लुम्बिनी (आधुनिक रूम्मिनदेई) नामक गांव के शाक्य क्षत्रिय कुल में हुआ था। गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। गौतम बुद्ध के पिता शुद्धोधन शाक्य कुल के मुखिया थे, तथा बुद्ध की माता महामाया कोलिय वंश की राजकन्या थी। महामाया का देहान्त बुद्ध के जन्म के सातवें दिन ही हो गया अत: उनका पालन-पोषण इनकी मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया। बालक गौतम को देखकर कालदेव और कौण्डिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि यह चक्रवर्ती राजा अथवा संन्यासी होगा। अत: बड़े होने पर राजकुमार सिद्धार्थ को युद्ध कला, पुस्तकीय ज्ञान, घुड़सवारी, मल्लयुद्ध तथा अस्त्र-शस्त्र आदि की शिक्षा प्रदान की गई। किन्तु सिद्धार्थ बचपन से ही चिन्तनशील थे, वे जम्बू वृक्ष के नीचे बैठकर प्राय: ध्यानमग्न रहा करते थे।
सिद्धार्थ के पिता शुद्धोधन ने उन्हें सांसारिक मोहमाया में बांधने के लिए तीन ऋतुओं के लिए अलग-अलग राजप्रासाद बनवाए थे। इन राजप्रासादों में सिद्धार्थ के लिए मनोरम उपवन, नृत्य, वाद्य एवं संगीत की व्यवस्था की गई थी। इतना ही नहीं, 16 वर्ष की ही आयु में सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा (अन्य नाम गोपा, बिम्बा, भद्कच्छना) से कर दिया गया। सिद्धार्थ से यशोधरा को एक पुत्र हुआ, परन्तु उसे मोहबन्धन मानकर ‘राहु’ कहा और उसका नाम राहुल रखा गया। सांसारिक मोहमाया से विरक्त होकर एक रात राजकुमार गौतम ने पत्नी यशोधरा और पुत्र राहुल को छोड़कर 29 वर्ष की आयु में अपने घोड़े कन्थक और सारथी छन्दक को लेकर गृह त्याग दिया। इस गृहत्याग को बौद्ध धर्म में ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहा गया है। गृह त्याग के पश्चात सिद्धार्थ ने अनोमा नदी के किनारे सिर मुंडवाकर भिक्षुओं के वस्त्र धारण किए।
राजकुमार गौतम सात वर्ष तक ज्ञान की खोज में इधर-उधर भटकते रहे। इसके बाद सर्वप्रथम वैशाली के समीप सांख्य दर्शन के आचार्य आलार कलाम के आश्रम में आए। यहां गौतम ने कठिन योगाभ्यास सीखा। इसके बाद राजगृह के रूद्रक रामपुत्त सिद्धार्थ के गुरू बने किन्तु सिद्धार्थ संतुष्ट नहीं हुए। रूद्रक ने सिद्धार्थ को ‘नैव संज्ञा-नासंज्ञायतन’ नामक योग के उपदेश दिए। तत्पश्चात गौतम उरूवेला (बोधगया) पहुंचे जहां उन्होंने कौंडिन्य सहित पांच साधक मिले। सिद्धार्थ ने कठोर साधना छोड़कर निरंजना नदी के किनारे सुजाता के हाथों से भोजन ग्रहण किया।
छह वर्ष तक कठोर साधना करने के बाद 35 वर्ष की आयु में एक पीपल वृक्ष के नीचे समाधि अवस्था में 49वें दिन वैशाख पूर्णिमा की रात निरंजना (पुनपुन) नदी तट पर सिद्धार्थ को ज्ञान प्राप्त हुआ। इसी दिन से वह तथागत हो गए और गौतम बुद्ध नाम से प्रसिद्ध हुए। महात्मा बुद्ध तीन नामों से जाने गए— बुद्ध, तथागत और शाक्यमुनि।
उरूवेला से गौतम बुद्ध वाराणसी के निकट सारनाथ आए जहां उन्होंने अपना पहला धर्मोपदेश (धर्मचक्रप्रवर्तन) दिए जिसमें बुद्ध के प्रथम पांच शिष्य थे। सारनाथ में ही बुद्ध ने बौद्ध संघ की स्थापना कर बौद्ध संघ में प्रवेश आरम्भ किया। बुद्ध ने बनारस के यश नामक श्रेष्ठि को भी अपने संघ का सदस्य बनाया। काशी होते हुए बुद्ध मगध की राजधानी राजगृह पहुंचे जहां का शासक बिम्बसार उनका शिष्य बन गया। गौतम बुद्ध ने अपने जीवन के सर्वाधिक उपदेश कोशल की राजधानी श्रावस्ती में दिए। अंगुलिमाल नामक डाकू को बुद्ध ने श्रावस्ती में ही बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। उन्होंने मगध को अपना प्रचार केन्द्र बनाया। बुद्ध के प्रधान शिष्य उपालि व सर्वाधिक प्रिय शिष्य आनन्द थे।
गौतम बुद्ध अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव में हिरण्यवती नदी के तट पर स्थित कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) पहुंचे जहां चुन्द नामक लुहार के घर भोजन (सुकरमद्दव) किया जिससे वे उदार विकार (पेचिश) से पीड़ित हो गए और 80 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई। बुद्ध के निधन को महापरिनिर्वाण के नाम से जाना जाता है। अपनी मृत्यु से पूर्व गौतम बुद्ध ने कुशीनारा में परिव्राजक शुभच्छ (शुभद्द) तथा शिष्य आनंद को अपना अंतिम उपदेश दिया।
बौद्ध धर्म की शिक्षाएं एवं सिद्धान्त
बौद्ध धर्म के त्रिरत्न हैं— बुद्ध, धम्म तथा संघ। बौद्ध धर्म के मूलाधार चार आर्य सत्य- 1- दुख 2- दुख समुदय 3- दुख निरोध 4- दुख निरोध गामिनी प्रतिपदा अर्थात अष्टांगिक मार्ग। चार आर्य सत्य में तृष्णा का नाश करने वाले अष्टांगिक मार्ग हैं— 1- सम्यक दृष्टि 2- सम्यक संकल्प 3- सम्यक वाणी 4-सम्यक कर्मान्त 5- सम्यक आजीव 6- सम्यक व्यायाम 7- सम्यक स्मृति 8- सम्यक समाधि। अष्टांगिक मार्ग को मझ्झिम प्रतिपदा अर्थात् मध्यम मार्ग भी कहते हैं। बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग का स्रोत तैत्तिरीय उपनिषद है। अष्टांगिक मार्ग को भिक्षुओं का ‘कल्याण मित्र’ कहा गया है। चार आर्य सत्य और अष्टांगिक मार्ग का वर्णन धर्मचक्रप्रवर्तन सूत्र में मिलता है। बौद्ध धर्म में पंचशील सिद्धान्त छान्दोग्य उपनिषद से लिया गया है। बौद्ध धर्म में निर्वाण की प्राप्ति जीवित रहते हुए सम्भव है परन्तु महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही प्राप्त हो सकता है।
बौद्ध दर्शन- बौद्ध धर्म की तीन महत्वपूर्ण अवधारणाएं हैं- अनित्या, अनात्मा, अनीश्वरवाद।
अनित्यता— बुद्ध के अनुसार, जीवन में कोई भी वस्तु स्थिर नहीं रह सकती। भौतिक वस्तुएं क्षणभंगुर होती हैं, सभी वस्तुएं नष्ट होने वाली हैं। ऐसे में इनसे मोह करना ही दुख का कारण है। इनको ठीक से समझे बिना निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं है।
अनात्मा— गौतम बुद्ध ने लोगों कोअनात्मवाद की शिक्षा दी। इसमें आत्मा के अमर होने की बात का खंडन किया गया है। परन्तु बुद्ध ने पुनर्जन्म की व्याख्या करने के लिए प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त दिया। प्रतीत्यसमुत्पाद ही बुद्ध के उपदेशों का सार एवं उनकी सम्पूर्ण शिक्षाओं का आधार स्तम्भ है। प्रतीत्यसमुत्पाद के अनुसार, पुनर्जन्म और जन्म-मरण के चक्र का मूल कारण अविद्या है। अविद्या का कारण संस्कार यानि कर्म की रचना है। संस्कार का कारण विज्ञान (गर्भ में पुनर्जन्म सम्बन्धी चेतना प्रारम्भ होती है) है। विज्ञान का कारण नामरूप (मानसिक और शारीरिक अस्तित्व) है। नामरूप का कारण षडायतन (छह ज्ञानेन्द्रियां) हैं। षडायतन का कारण स्पर्श (संवेदी प्रभाव) है। स्पर्श का कारण वेदना (भावना) है। वेदना का कारण तृष्णा (इच्छा) है। तृष्णा का कारण उपादान प्रक्रिया है। उपादान का कारण भाव है। भाव का कारणा जाति (पुनर्जन्म की इच्छा) है। पुनर्जन्म का कारण जन्म-मरण है। बौद्ध धर्म के इस अति महत्वपूर्ण सिद्धान्त को स्वयं बुद्ध ने दिया था।
अनीश्वरवाद— गौतम बुद्ध को अज्ञेयवादी कहा जाता है। उन्होंने ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार या अस्वीकार नहीं किया। उन्होंने अनेक जटिल प्रश्नों जैसे ईश्वर कौन है? आत्मा कौन है? आत्मा की प्रकृति कैसी है? का उत्तर मौन रहकर दिया।
कर्म सिद्धान्त- गौतम बुद्ध ने कर्म सिद्धान्त पर जोर दिया। वर्तमान और भविष्य में मानव की स्थिति उसके द्वारा किए गए कर्मों पर निर्भर करते हैं। व्यक्ति स्वयं के कर्म फल के कारण ही बार-बार जन्म लेता है। यही कर्म सिद्धान्त है। पाप कर्मों का नाश करने से ही जीवन-मरण चक्र से मुक्ति मिल सकती है और यही मोक्ष है।
बौद्ध धर्म ग्रन्थ— बौद्ध धर्म में तीन पालि धर्म ग्रन्थ प्रमुख हैं।
विनय पिटक— इसमें भिक्षु-भिक्षुणियों के लिए आचरण सम्बन्धी अथवा मठ सम्बन्धी नियमों का उल्लेख है।
सुत्त पिटक— इसमें भगवान बुद्ध के जनसामान्य को दिए गए छोटे-बड़े प्रवचनों का संकलन है। इसके पांच निकाय हैं— दीघ निकाय, मज्झिम निकाय, अंगुत्तर निकाय, संयुक्त निकाय एवं खुद्दक निकाय। सुत्तपिट्टक को प्रारम्भिक बौद्ध धर्म का एनसाइक्लोपीडिया कहा जाता है। बुद्ध के पूर्व जन्म की कथाएं (जातक कथाएं) सुत्तपिटक में वर्णित हैं।
अभिधम्म पिटक— इस ग्रन्थ में बुद्ध की शिक्षाओं का दार्शनिक विवेचन एवं आध्यात्मिक विचारों का पांडित्यपूर्ण शैली में संकलन किया गया है।
बौद्ध धर्म के महान टीकाकार बुद्धघोष हैं। इनके द्वारा पालि में रचित विसुद्धिमग्ग नामक ग्रन्थ को बौद्ध धर्म का विश्वकोश कहा जाता है। कनिष्क के दरबार में कवि, नाटककार, संगीतकार, विद्वान एवं तर्कशास्त्री अश्वघोष रचित ग्रन्थ बुद्धचरित में महात्मा बुद्ध का जीवन चरित वर्णित है।
भारत के आइन्सटीन कहे जाने वाले नागार्जुन ने माध्यमिकारिका अथवा शून्यवादी सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया था। नागार्जुन द्वारा लिखित प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं— प्रज्ञापारमिताशास्त्र, शून्यतासप्तति, विग्रहव्यावर्तनी आदि। शून्यवाद के भाष्यकार थे—बुद्धपालित तथा भावविवेक।
वसुबन्ध की महानतम कृति का नाम अभिधम्मकोश है। पालि भाषा में आचार्य नागसेन द्वारा रचित मिलिन्दपन्हों एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है जिसमें ग्रीक नरेश मिनाण्डर और आचार्य नागसेन के मध्य प्रश्नोत्तर संकलित है। दीपवंश और महावंश में बौद्ध धर्म के श्रीलंका में प्रवेश का वर्णन है। महायान साहित्य संस्कृत भाषा में लिखा गया है। महायान सूत्रों में कुछ महत्वपूर्ण ग्रन्थ हैं— अष्ट सहिस्त्रिका—प्रज्ञा पारमिता, सधर्मपुण्डरीक, ललितविस्तार, आवतंशक, सुवर्ण प्रभास, गोडव्यूह, तथागत गुह्यक, सम्माधिराज, देशभूमिसार।
बौद्ध धर्म के पंथ— हीनयान, महायान, स्थविरवाद, सर्वास्तिवादी, महासंघिक, वैभाषिक सम्प्रदाय, सौत्रांतिक सम्प्रदाय, माध्यमिक सम्प्रदाय, योगाचार विज्ञानवाद, वज्रयान सम्प्रदाय, काल चक्रयान।
बौद्ध संगीतियां— प्रथम बौद्ध संगीति: स्थान— राजगृह, समय— 483 ई.पू., शासनकाल— अजातशत्रु, अध्यक्ष— महाकश्यप। उद्देश्य— बुद्ध के उपदेशों को विनय पिटक तथा सुत्त पिटक में संकलित किया गया।
द्वितीय बौद्ध संगीति : स्थान— वैशाली, समय—383 ई.पू., शासनकाल— कालाशोक, अध्यक्ष—साबकमीर। उद्देश्य— बौद्ध धर्म स्थाविर एवं महासंघिक दो भागों में बंट गया।
तृतीय बौद्ध संगीति : स्थान— पाटलिपुत्र, समय—251 ई. पू., शासनकाल—अशोक, अध्यक्ष— मोग्गालिपुतिस्स। उद्देश्य— बौद्ध धर्म को स्थायित्व प्रदान करने का प्रयत्न किया गया।
चतुर्थ बौद्ध संगीति : स्थान — कश्मीर (कुण्डलवन), समय— ईसा की प्रथम शताब्दी, शासनकाल—कनिष्क, अध्यक्ष— वसुमित्र एवं अश्वघोष। उद्देश्य— बौद्ध धर्म हीनयान और महायान सम्प्रदाय में विभाजित हो गया।
बौद्ध धर्म के पतन के कारण— 1- भागवत सम्प्रदाय का उदय एवं ब्राह्मण धर्म में सुधार आन्दोलन।
2- पालि के स्थान पर संस्कृत भाषा का प्रयोग। 3- मठों में धन एवं भ्रष्टाचार का बोलबाला।
4- मूर्ति पूजा, दान आदि कारणों ने नैतिक मूल्यों में कमी ला दी। 5- पांचवी व छठी सदी में हूणों तथा 12वीं सदी में तुर्कों के आक्रमण।
जैन धर्म
जैन धर्म के उद्भव के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है। ऋग्वेद में ऋषभदेव और अरिष्टनेमि नामक दो तीर्थंकरों का उल्लेख है। उनके सबसे महान तीर्थंकर महावीर के अतिरिक्त तेईस अन्य तीर्थंकर भी थे। जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ माने जाते हैं, जो वाराणसी के निवासी थे। वे एक क्षत्रिय राजकुमार थे जिन्होंने राजसिंहासन छोड़कर संन्यास धारण कर लिया था। उनके चार मुख्य उपदेश थे- अंहिसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह। महावीर ने इन सभी के अतिरिक्त एक अन्य उपदेश ब्रह्मचर्य को जोड़ा। जैन धर्म में इसे ‘पंच अणुव्रत’ कहा गया है। 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी को छोड़कर अन्य सभी तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है। पार्श्वनाथ के अनुयायियों की निर्ग्रन्थ कहा जाता था। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार, पार्श्वनाथ को 100 वर्ष की आयु में सम्मेद पर्वत पर कैवल्य प्राप्त हुआ। यथार्थ में जैन धर्म की स्थापना 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ के आध्यात्मिक शिष्य व 24वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने की। उन्हें ‘जिन’ (विजेता) कहा जाता था।
जैन धर्म में 24 तीर्थंकरों के नाम इस प्रकार हैं— ऋषभदेव या आदिनाथ, अजितनाथ, सम्भव, अभिनन्दन, धर्म, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुन्धु, अरह, मल्लि, मुनि सुब्रत, नेमि, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ, महावीर।
महावीर स्वामी- जैनियों के 24वें तीर्थंकर (पथ प्रदर्शक) और जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी का जन्म 540 ई. पू. वैशाली के निकट कुंडग्राम (वज्जिसंघ का गणराज्य) ज्ञातृक कुल के प्रधान सिद्धार्थ के यहां हुआ था। महावीर की मां का नाम त्रिशला था जो कि लिच्छिवी राजकुमारी थी तथा इनकी पत्नी का नाम यशोदा था। यशोदा से जन्मी महावीर की पुत्री प्रियदर्शना का विवाह जामालि नामक क्षत्रिय से हुआ, वह महावीर का प्रथम शिष्य था। महावीर के बचपन का नाम वर्धमान था किन्तु अपरिमित पराक्रम दिखाने के कारण उनका नाम ‘महावीर’ पड़ा।
महावीर ने जब गृहत्याग किया तब उनकी 30 वर्ष थी। 12 वर्ष तक कठोर तपस्या के बाद 42वर्ष की उम्र में जम्भिकग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल वृक्ष के नीचे कैवल्य (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात महावीर स्वामी को कैवलिन, जिन (विजेता), अर्ह्त (योग्य), निर्ग्रन्थ (बन्धनरहित) जैसी उपाधियां मिलीं। बौद्ध साहित्य में महावीर स्वामी को निगण्ठ-नाथपुत्त कहा गया है। महावीर स्वामी की मृत्यु पावापुरी (राजगृह के निकट) में 468 ई.पू. में हुई।
जैन दर्शन— जैन ग्रन्थ आचारांग सूत्र में महावीर की तपश्चर्या तथा कायाक्लेश का बड़ा ही रोचक वर्णन मिलता है। जैन धर्मानुसार यह संसार 6 द्रव्यों जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल से निर्मित है। जैन धर्म में त्रिरत्न हैं— सम्यक श्रद्धा, सम्यक ज्ञान, सम्यक आचरण। महावीर स्वामी ने वेदों तथा वैदिक कर्मकाण्डों को नकार दिया तथा शुद्ध, सरल और संयमित जीवन जीने का उपदेश दिया। उन्होंने जीवन का मुख्य लक्ष्य कैवल्य (निर्वाण) या ज्ञान प्राप्त करना बताया।
महावीर ने अपने जीवनकाल में जैन संघ की स्थापना की जिसमें 11 निकटतम शिष्य सम्मिलित थे, जिनको गणधर कहा जाता था। इनमें से दस शिष्यों की मृत्यु इनके जीवनकाल में ही हो गई। एकमात्र जीवित बचे शिष्य आर्य सुधर्मण को महावीर की मृत्यु के पश्चात जैन संघ का प्रमुख बनाया गया।
जैन धर्म में देवताओं के अस्तित्व को स्वीकारा गया है किन्तु उन्हें जिन से नीचे स्थान प्रदान किया गया है। महावीर स्वामी कर्म और आत्मा के पुनर्जन्म में विश्वास करते थे। महावीर के अनुसार, पूर्व जन्म में अर्जित पुण्य या पाप के अनुसार ही किसी व्यक्ति का जन्म उच्च या निम्न कुल में होता है। महावीर ने चाण्डालों में भी मानवीय गुण का होना सम्भव बताया है। उनके अनुसार,निम्न जाति में उत्पन्न व्यक्ति अपने अच्छे कर्मों के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है।
सल्लेखना क्या है?
सत् और लेखना से मिलकर बने शब्द ‘सल्लेखना’ का अर्थ होता है- अच्छाई का लेखा-जोखा करना। जैन दर्शन में ‘सल्लेखना’ शब्द उपवास द्वारा प्राणत्याग के सन्दर्भ में आया है। बतौर उदाहरण- ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने श्रावणबेलगोला (कर्नाटक) में सल्लेखन विधि द्वारा ही अपने शरीर का त्याग किया। अशोक के शासनकाल में भयंकर अपराधियों को यह प्रक्रिया अपनाने की व्यवस्था प्रशासनिक तौर पर की गई थी। आधुनिक काल में ‘सल्लेखना’ को महात्मा गांधी और विनाबा भावे जैसे महापुरूषों द्वारा व्यापक समर्थन मिला।
जैन महासभाएं— प्रथम जैन महासभा : समय— 300 ईसा पूर्व, स्थान—पाटलिपुत्र, अध्यक्ष— स्थूलभद्र। इस सभा में जैन धर्म का विभाजन श्वेताम्बर एवं दिगम्बर नामक दो सम्प्रदायों में हो गया। स्थूलभद्र के अनुयायी श्वेताम्बर और भद्रबाहु के अनुयायी दिगम्बर कहलाए।
द्वितीय जैन महासभा : समय—513—526 ई., स्थान— वल्लभी, अध्यक्ष— देवर्धिगण या क्षमाश्रमण। इसी समय जैन साहित्य में 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूल सूत्र एवं अनुयोग सूत्र का संकलन हुआ।
गौतम बुद्ध तथा महावीर स्वामी से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य (Some important facts related to Gautam Buddha and Mahavir Swami)
— बुद्ध के पूर्व जन्म (550 जन्म) कथाओं का वर्णन जातक में संकलित है।
— महायान धर्म के जरिए प्रथम सदी ई. में बुद्ध को देवता मानकर उनकी मूर्ति पूजा की जाने लगी।
— पांचवी-छठी शताब्दी में तंत्रवाद से प्रभावित होकर बौद्ध धर्म में वज्रयान सम्प्रदाय का उदय हुआ।
— दक्षिण दिशा बौद्ध धर्म की पवित्रतम दिशा है।
— ‘आर्यमंजूश्रीमूलकल्प’ तांत्रिक बौद्ध धर्म का प्राचीनतम ग्रन्थ है। वज्रयान की प्रधान देवता ताराएं थीं जो बुद्ध एवं बोधिसत्व की पत्नियां थीं। इन ताराओं के नाम इस प्रकार थे— मातंगी, पिशाची, योगिनी, डाकिनी आदि।
— नौंवी-दसवीं शताब्दी में कालचक्रयान नामक नवीन सम्प्रदाय का उदय हुआ। इसके प्रवर्तक मंजुश्री एवं सुचन्द्र थे। इस सम्प्रदाय के प्रमुख देवता भगवान श्रीकालचक्र थे और प्रमुख ग्रंथ कालचक्रतंत्र और विमलप्रभा हैं।
— महात्मा बुद्ध ने तपस्स और काल्लिक नामक दो शूद्रों को बौद्ध धर्म का सर्वप्रथम अनुयायी बनाया।
— महात्मा बुद्ध से जुड़े आठ स्थानों लुम्बिनी, गया, सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती, संकास्य, राजगृह तथा वैशाली को बौद्ध ग्रन्थों में अष्टमहास्थान नाम से जाना गया है।
— सांची, भरहूत, अमरावती के स्तूपों तथा अशोक के शिलास्तम्भों, कार्ले की बौद्ध गुफाएं, अजन्ता, ऐलोरा, बाघ तथा बराबर की गुफाएं बौद्ध कालीन स्थापत्यकला एवं चित्रकला के अनुपम उदाहरण हैं।
— नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय बौद्ध शिक्षा के प्रधान केन्द्र थे।
— अशोक, मिनाण्डर, कनिष्क और हर्षवर्द्धन ने बौद्ध धर्म के प्रचार में महती भूमिका निभाई।
— पश्चिमी भारत के जुन्नैर नामक स्थान से बौद्ध विहारों का समूह (130 गुफाएं) मिला है।
— चन्द्रगोमिन बौद्ध जगत में व्याकरणाचार्य, दार्शनिक तथा कवि के रूप में प्रसिद्ध थे।
— धर्मकीर्ति द्वारा रचित ग्रन्थ का नाम ‘न्यायबिन्दु’ है। धर्मकीर्ति को स्ट्रेचबात्सकी ने भारत का कान्ट कहा है।
— महावीर स्वामी ने अपना पहला उपदेश राजगृह के निकट विपुलचल पहाड़ी पर दिया था।
— मगध नरेश बिम्बसार, वत्स नरेश उदयन, अवन्ति नरेश प्रद्योत तथा पाटलिपुत्र का संस्थापक उदयन, ये सभी महावीर स्वामी के अनुयायी थे।
— चम्पा के शासक दधिवाहन की पुत्री चन्दना महावीर स्वामी की पहली महिला भिक्षुणी थी।
— जैन मूर्तिपूजा का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य हाथीगुम्फा अभिलेख है।
— जैन मठों को बसादि अथवा बसादिस कहा जाता है।
— कर्नाटक में चन्द्रगिरी पहाड़ी पर स्थित श्रवणबेलगोला में गंग शासक राजमल्ल चतुर्थ के मंत्री चामुण्ड राय ने 983 ई. में गोमतेश्वर (बाहुबली जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र थे) की 57 फीट उंची विशाल प्रतिमा का निर्माण करवाया।
— उत्तर भारत में उज्जैन एवं मथुरा जैन धर्म के प्रमुख केन्द्र थे।
— 11वीं तथा 12वीं शताब्दी में जैन धर्म गुजरात एवं राजस्थान में अधिक लोकप्रिय हुआ।
— कालान्तर में जैन धर्म दो समुदायों में विभाजित हो गया: तेरापन्थी (श्वेताम्बर), समैया (दिगम्बर)।
—विष्णु पुराण तथा भागवत पुराण में ऋषभ का उल्लेख नारायण अवतार के रूप में मिलता है।
— जैन धर्म को संरक्षण देने वाले दक्षिण के राज्य हैं— गंग, कदम्ब, चालुक्य एवं राष्ट्रकूट।
सम्भावित प्रश्न—
— बौद्ध धर्म के उत्थान और पतन के कारणों की व्याख्या कीजिए?
— महात्मा बुद्ध के जीवन तथा उनकी शिक्षाओं का वर्णन कीजिए?
— महावीर स्वामी की शिक्षाओं का वर्णन कीजिए?
— जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म की प्रमुख शिक्षाओं का तुलनात्मक विवरण दीजिए?
— भारतीय संस्कृति के विकास में बौद्ध धर्म के योगदान की विवेचना कीजिए?