भारत का इतिहास

Land Revenue Policy of the British in India: An Evaluation

भारत में अंग्रेजों की भूमि राजस्व नीति : एक मूल्यांकन

भारत में अंग्रेजों का प्राथमिक लक्ष्य अधिक से अधिक राजस्व एकत्र करना था। ब्रिटिश भारत में स्थाई वित्तीय सुरक्षा का मुख्य स्रोत भूमि कर ही था, इसलिए अंग्रेजों ने भूमि राजस्व पर विशेष ध्यान दिया। अंग्रेजों ने भारत में लगान वसूलने के लिए तीन प्रमुख भू-राजस्व नीतियां लागू की जो स्थायी बंदोबस्त, रैय्यतवाड़ी बंदोबस्त और महालवाड़ी व्यवस्था के नाम से जानी जाती हैं।

स्थायी बन्दोबस्त  (The Permanent Settlement)

लार्ड कार्नवालिस चाहता था कि जमींदारों को जमीन के मालिक के रूप में स्वीकृत कर एक निश्चित अव​धि के लिए निश्चित लगान के बदले उन्हें जमीन दे दी जाए। इस उद्देश्य से 1790 ई. में बंगाल और बिहार के जमींदारों के साथ ‘दस साला’ प्रबन्ध किया गया। इसकी योजना सर जॉन शोर ने बनाई थी।

परन्तु 22 मार्च, 1793 ई. को लार्ड कार्नवालिस ने इस भूमि व्यवस्था को स्थायी बना दिया जो आधुनिक भारत के इतिहास में  ‘स्थायी बन्दोबस्त’ अथवा ‘इस्तमरारी बंदोबस्त’ के नाम से मशहूर है। स्थायी बन्दोबस्त को बंगाल, बिहार के अतिरिक्त उड़ीसा, मद्रास के उत्तरी जिलों के साथ ही वाराणसी​ और गाजीपुर जिले तक बढ़ा दिया गया।

स्थायी बन्दोबस्त की शर्तें

स्थायी बन्दोबस्त के तहत जमींदारों को जमीन का मालिक बना दिया गया और किसान मात्र रैय्यत के रूप में जमींदारों पर आश्रित हो गए। किसानों के भूमि सम्बन्धी पैतृक अधिकार समाप्त कर दिए गए।

जमींदारों के लिए यह निश्चित किया गया कि वे ​निश्चित अवधि के भीतर तय किए लगान का 10/11 हिस्सा कम्पनी  के कोष में जमा करवा दें और शेष 1/11 भाग लगान वसूली में होने वाले खर्च के लिए अपने पास रख लें।

जमींदारों के लिए निश्चित अवधि में लगान जमा कराना अनिवार्य था अन्यथा सूर्यास्त कानून (1794 ई.) के तहत उनका भू-स्वामित्व समाप्त कर जमींदारी नीलाम कर दी जानी थी। इसलिए जमींदार प्रत्येक स्थिति में चाहे फसल हो या नहीं, निश्चित समय में लगान वसूल कर कम्पनी के कोष में जमा करा देते थे। 

लगान वसूली में अकाल के दौरान भी कोई छूट नहीं दी गई अत: किसानों के लिए निर्धारित उच्च राजस्व का भुगतान करना मुश्किल हो गया। यहां तक कि भूमि सुधार में भी कोई निवेश नहीं किया गया।

स्थायी बन्दोबस्त के लाभ

कम्पनी को आर्थिक लाभ- स्थायी बन्दोबस्त से सबसे अधिक आर्थिक लाभ कम्पनी को हुआ। अब कम्पनी के समक्ष आर्थिक अस्थिरता की स्थिति समाप्त हो गई। कम्पनी की आय निश्चित हो गई जिससे उसे अपनी योजनाएं बनाने और निर्धारित करने में सहूलियत हुई।

नए जमींदार वर्ग का उदय- स्थायी बन्दोबस्त से जमींदार के रूप में एक ऐसे वर्ग का सहयोग मिला जो लम्बे समय तक कम्पनी के प्रति निष्ठावान बना रहा। पुश्त दर पुश्त जमीन उनके कब्जे में रहने से जमींदारों की सामा​जिक और आर्थिक स्थिति मजबूत हुई।

कृषि का विकास- लगान निश्चित होने से किसानों में अ​तिरिक्त उत्पादन करने की प्रेरणा जागृत हुई। किसान इस बात से प्रसन्न हुआ कि जितना अधिक पैदा होगा उतना ही उसे लाभ होगा। जमींदार भी ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के उद्देश्य से कृषि को प्रोत्साहित करने लगे।

स्थायी बन्दोबस्त के दोष

कम्पनी को दीर्घकालीन घाटा- स्थायी बन्दोबस्त से ब्रिटिश सरकार को दीर्घकालीन घाटा ही हुआ। कालान्तर में जमींदारों की आमदनी तो बढ़ी लेकिन सरकारी आमदनी जस की तस रही। बतौर उदाहरण- 1901 ई. में जमींदार किसानों से जो राशि लगान के रूप में वसूलता था उसका सिर्फ 28 फीसदी ही सरकार को मिलता था, बाकी जमींदार अपने पास रख लेता था।

किसानों की दुर्दशा- स्थायी बन्दोबस्त से किसानों की स्थिति दयनीय हो गई। किसान अब लालची और अत्याचारी जमींदारों की दया पर निर्भर थे। जमींदार अब किसानों से मनमानी रकम वसूलकर कम्पनी को एक निश्चित रकम देते थे शेष रकम अपने पास रख लेते थे।

सामाजिक विभेद में बढ़ोतरी- स्थायी बन्दोबस्त ने समाज में सुविधा सम्पन्न एवं सुविधारहित वर्ग को एक दूसरे के सामने ला दिया। इन दोनों वर्गों के बीच सामाजिक विभेद और असंतोष बढ़ता ही गया।

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कम्पनी के हिमायती जमींदारों ने कदम-कदम पर रोड़े अटकाए। येनकेन इस व्यवस्था से कम्पनी को तो लाभ ही हुआ परन्तु भारत के लिए यह व्यवस्था हानिकारक ​साबित हुई।

रैयतवाड़ी व्यवस्था  (The Ryotwari System )

गवर्नर-जनरल लॉर्ड हेस्टिंग्स के कार्यकाल में भू राजस्व वसूली के लिए रैय्यतवाड़ी व्यवस्था लागू की गई जिसका जन्मदाता सर थामस मुनरो और कैप्टन रीड को माना जाता है। कैप्टन रीड के प्रयासों से इस व्यवस्था को सर्वप्रथम 1792 ई. में तमिलनाडु के बारामहल जिले में लागू किया गया।

थॉमस मुनरो 1820 से 1827 ई. तक मद्रास के गवर्नर रहे। प्रारम्भिक प्रयोग के बाद थॉमस मुनरो ने 1820 ई. में रैय्यतवाड़ी व्यवस्था को मुख्य रूप से मद्रास और बम्बई प्रेसिडेंसियों के अतिरिक्त पूर्वी बंगाल, असम, कुर्ग के कुछ हिस्से में लागू किया। बम्बई में रैय्यवाड़ी व्यवस्था कैप्टन जी. विनगेट ने लागू की थी। जी. विनगेट और गोल्डस्मिथ बॉम्बे सर्वे सिस्टम के जनक थे।

ब्रिटिश भारत के तकरीबन 51 फीसदी हिस्से पर यह व्यवस्था लागू थी। रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के अन्तर्गत रैय्यतों (किसानों) को भूस्वामी मान ​लिया गया। अत: किसान अब प्रत्यक्ष रूप से सीधे सरकार को भूराजस्व का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी थे।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था के तहत किसान को कुल उपज का 55 से 33 प्र​तिशत के बीच लगान कम्पनी को अदा करना होता था। कम्पनी को लगान चुकाने के लिए रैय्यत अपनी जमीन दूसरे किसान को दे सकता था, गिरवी रख सकता था या फिर बेच भी सकता था।

20 से 30 वर्षों के बाद रैय्यवाड़ी व्यवस्था में परिवर्तन किए जा सकते थे। ब्रिटिश सरकार को यह स्वतंत्रता थी कि वह लगान राशि में बढ़ोतरी करे। चूंकि लगान की वसूली बड़ी कठोरता से की जाती थी और लगान दर भी काफी उंची थी जिससे किसान महाजनों के चंगुल में फंसते चले गए।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था की विशेषताएं

1858 ई. तक मद्रास और बम्बई प्रेसिडेंसियों के अतिरिक्त रैय्यतवाड़ी व्यवस्था पूर्वी बंगाल, असम सहित सम्पूर्ण दक्कन तथा अन्य क्षेत्रों में लागू हो गई। रैय्यतवाड़ी व्यवस्था की मुख्य विशेषताएं निम्नलिखित थीं-

सरकार एवं किसानों के बीच कोई बिचौलिया वर्ग नहीं था।

भूमि का स्वामित्व किसानों के पास था जिससे वह बेच सकते थे या फिर गिरवी रख सकते थे

लगान जमा नहीं करने पर किसानों की भूमि जब्त की जा सकती थी।

लगान अदायगी की प्रत्येक 30 वर्ष बाद दोबारा समीक्षा की जाती थी।

इस व्यवस्था के तहत किसानों को उपज का आधा भाग राजस्व के रूप में देना था।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का प्रभाव

सूखे, बाढ़ की ​स्थिति में फसल नष्ट होने बावजूद किसानों को लगान देना ही पड़ता था। इससे किसानों को अत्यधिक कष्ट हुआ। लगान की रकम बहुत ज्यादा थी ​जिसे चुकाने के लिए किसानों को साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता था। ऐसे में ज्यादातर किसानों को अपनी जमीनें बेचनी पड़ी या गिरवी रखनी पड़ी।

लगान वसूल करने वाले अधिकारी किसानों के साथ अमानवीय व्यवहार करते थे, जैसे- दोषी किसान को कोड़े मारना, कुबड़ा बनाकर बांधना आदि।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था से ब्रिटिश सरकार के राजस्व में अत्यधिक वृद्धि हुई। सबसे ज्यादा लाभ ब्रिटिश सरकार को यह हुआ कि वह अपनी आमदनी बढ़ाने के लिए लगान दर में कभी भी बढ़ोतरी कर सकती थी।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का एक अन्य लाभ यह ​हुआ कि जमीन सम्बन्धी ​अधिकारों का रिकॉर्ड तैयार हो गया। जमीन व्यक्तिगत सम्पत्ति बन गई। इसके चलते गांवों का सामुदायिक बन्धन ढीला पड़ गया। जमीन अब हस्तांतरित वस्तु बन गई जिससे सामाजिक गतिशीलता बढ़ गई।

महालवाड़ी व्यवस्था  (The Mahalwari System)

महाल शब्द से तात्पर्य है- जागीर अथवा गांव महालवाड़ी व्यवस्था जमींदारी व्यवस्था का ही संशोधित संस्करण था। महालवाड़ी व्यवस्था के तहत प्रति खेत के आधार लगान निश्चित नहीं करके प्रत्येक महाल (गांव) या जागीर के आधार पर सुनिश्चित किया गया था। इसीलिए यह व्यवस्था महालवाड़ी पद्धति के रूप में जानी जाती है।

ब्रिटिश भारत में महालवाड़ी व्यवस्था की शुरुआत का श्रेय लॉर्ड विलियम बेंटिक को जाता है। इस पद्धति का जन्मदाता हाल्ट मैकेन्जी था। हाल्ट मैकेन्जी ने 1819 ई. में महालवाड़ी भूमि व्यवस्था का सूत्रपात किया। इसके बाद 1822 ई. में यह व्यवस्था कानूनी रूप से लागू हुई। 1833 ई. में मार्टिन बर्ड और जेम्स टाम्सन के प्रबन्धन में यह अपने सबसे अच्छे रूप में सामने आई।

1837 ई. में कृषि का खर्च निकालकर 2/3 हिस्सा कर वसूलना तय किया गया। 1855 ई. में यह उपज का 1/2 कर दिया गया। इस व्यवस्था में लगान तय करने के लिए पहली बार मानचित्रों तथा पंजियों का प्रयोग किया गया। महालवाड़ी व्यवस्था के अन्तर्गत संयुक्त प्रान्त (अब उत्तर प्रदेश), मध्य प्रान्त, पंजाब के कुछ हिस्से तथा दक्कन के कुछ जिले शामिल थे। यह व्यवस्था ब्रिटिश भारत के 30 फीसदी हिस्से पर लागू की गई थी।

समस्त महाल (गांव अथवा जागीर) सम्मिलित रूप से राजस्व चुकाने के लिए उत्तरदायी था। राजस्व वसूली का काम ग्रामप्रधानों या जमींदारों पर छोड़ दिया गया। इस व्यवस्था में भूमि का स्वामी किसान नहीं था बल्कि समस्त महाल अथवा गांव ही भूमि का मालिक था। यदि कोई किसान अपनी भूमि छोड़ देता था तब ग्राम समाज ही उस भूमि की देखभाल करता था।

महालवाड़ी व्यवस्था बुरी तरह से विफल साबित हुई क्योंकि इसमें लगान का निर्धारण अनुमान पर आधारित था और इसकी विसंगतियों का लाभ उठाकर कम्पनी के अधिकारी अपनी जेब भरने लगे। कम्पनी को लगान वसूली पर लगान से अधिक खर्च करना पड़ता था।

इस व्यवस्था का परिणाम ग्रामीण समुदाय के विखण्डन के रूप में सामने आया। सामा​जिक दृष्टि से यह व्यवस्था विनाशकारी और आर्थिक दृष्टि से विफल सिद्ध हुई।

अंग्रेजों की भू-राजस्व नीति का कृषि पर प्रभाव

अंग्रेज भारत में व्यापारी बनकर आए और सदा व्यापारी के समान ही व्यवहार करते रहे। उन्होंने भारत के सम्पूर्ण आर्थिक साधनों का प्रयोग ब्रिटेन के व्यापारी, उद्योगपति और धनीवर्ग के आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए किया।

अंग्रेजों की भू-राजस्व नीति ने भारतीय कृषि ढांचे को चौपट कर दिया। अत्यधिक भूराजस्व से किसानों की स्थिति दयनीय हो गई। अत्यधिक लगान के कारण परम्परागत सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक ढांचा बिखर गया।

अंग्रेजों ने नकदी फसलों (नील, गन्ना, जूट, कपास) को बढ़ावा दिया जिससे खाद्यान्न उत्पादन प्रभावित हुआ। ग्रमीण आवश्यकताओं की जगह बाजार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उत्पादन किया जाने लगा। ऐसे में किसानों की ऋणग्रस्तता बढ़ी तथा किसानों की जमीन साहूकारों में हाथों में चली गई।

खाद्यान्नों के निर्यात के कारण अकाल की स्थिति हो जाती थी। अंग्रेजों के वाणिज्यीकरण से भारत में गरीबी एवं अकाल की स्थिति उत्पन्न हुई तथा शोषण आधारित श्रम सम्बन्धों की शुरूआत हुई।

ब्रिटिश भारत में भू राजस्व नीति से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

बंगाल में गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स ने 1772 ई. में सबसे पहले इजारेदारी प्र​था या​ खेती व्यवस्था की शुरूआत की। इस व्यवस्था में सबसे ऊंची बोली लगाने वाले को भूमि ठेके पर दी जाती थी।

1777 ई. में इज़ारेदारी प्रथा के तहत भूमि के पंचवर्षीय ठेके को वार्षिक कर दिया गया।

स्थायी बन्दोबस्त का विचार सर्वप्रथम फिलीप फ्रांसिस ने दिया था परन्तु वारेन हेस्टिंग्स ने इसका विरोध किया।

स्थायी बन्दोबस्त को इस्तमरारी, जागीरदारी, मालगुजारी अ​थवा बिस्वेदारी आदि नामों से भी जाना जाता था।

स्थायी बन्दोबस्त के तहत भूमि राजस्व निर्धारित समय पर जमा नहीं करने पर सूर्यास्त कानून (1794 ई.) के तहत जमींदारी जब्त कर नीलाम कर दी जाती थी।

स्थायी बन्दोबस्त बंगाल, बिहार, उड़ीसा व उत्तर प्रदेश के वाराणसी एवं गाजीपुर तथा उत्तर कर्नाटक के क्षेत्रों में लागू थी।

वाराणसी में स्थायी बन्दोबस्त के प्रमुख अधिकारी का नाम जोनाथन डंकन था।

राजा राममोहन राय तथा रमेशचन्द्र दत्त ने स्थायी बन्दोबस्त का समर्थन और प्रशंसा की।

रैयतवाड़ी व्यवस्था भारत में गुप्त राजवंश और पाल वंश के समय में भी प्रचलित थी।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था का जन्मदाता थॉमस मुनरो एवं कैप्टन रीड को माना जाता है।

1820 ई. में थॉमस मुनरो ने मद्रास में रैय्यतवाड़ी व्यवस्था लागू की उस समय बॉम्बे प्रेसिन्डेन्सी का गवर्नर एलफिन्सटन था।

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था में किसान ही भूस्वामी था तथा कम्पनी को राजस्व भुगतान के लिए किसान स्वयं जिम्मेदार थे।

रैय्यवाड़ी व्यवस्था के तहत कुल उपज का 33 से 55 फीसदी के बीच लगान कम्पनी को जमा करना होता था।

रैय्यवाड़ी व्यवस्था के प्रमुख दोष- अत्यधिक भूमिकर, भूमिकर की अनिश्चितता

बम्बई में रैय्यवाड़ी व्यवस्था कैप्टन जी. विनगेट ने लागू की थी।

जी. विनगेट और गोल्डस्मिथ बॉम्बे सर्वे सिस्टम के जनक थे।

महालवाड़ी व्यवस्था को अवध (संयुक्त प्रान्त) में ताल्लुकदारी व्यवस्था और मध्यप्रान्त में मालगुजारी व्यवस्था कहा जाता था।

महालवाड़ी व्यवस्था का प्रस्ताव सर्वप्रथम 1819 ई. में हॉल्ट मैकेन्जी ने दी थी।

महालवाड़ी व्यवस्था सर्वप्रथम आगरा तथा अवध के कुछ क्षेत्रों में लागू की गई।

महालवाड़ी व्यवस्था ब्रिटिश भारत के 30 फीसदी हिस्से पर लागू थी।

उत्तर भारत में भूमि व्यवस्था (विशेषकर महालवाड़ी व्यवस्था) के प्रवर्तक का नाम मार्टिन बर्ड है।

उत्तर पश्चिमी प्रान्त के गवर्नर जेम्स थॉमसन ने 1840 ई. में अपने क्षेत्र में महालवाड़ी व्यवस्था लागू किया। इसलिए इसे थॉम्सोनियन बन्दोबस्त भी कहा जाता है।

सम्भावित प्रश्न -

लार्ड कार्नवालिस के स्थायी बन्दोबस्त का विश्लेषण करें। इसके क्या परिणाम हुए?

स्थायी बन्दोबस्त से आप क्या समझते हैं, इसके लाभ-हानि का वर्णन करें?

रैय्यतवाड़ी व्यवस्था की व्याख्या करें और इसके परिणामों की समीक्षा करें?

महालवाड़ी व्यवस्था की व्याख्या करें और इसके परिणामों की समीक्षा करें?

ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों की भू राजस्व नीति की प्रमुख विशेषताओं का उल्लेख करें?

ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों की भू राजस्व नीति के परिणामों की समीक्षा करें?