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Jyotiba Phule did not marry again despite the advice of her in-laws and her father

ससुराल वालों और अपने पिता के कहने पर भी ज्योतिबा फूले ने दूसरी शादी नहीं की, जानिए क्यों?

महात्मा ज्योतिबा फूले दलितों के मसीहा, हिन्दू विधवाओं के उद्धारक और ब्राह्मणवाद के कट्टर शत्रु थे। महात्मा ज्योतिबा फूले ऐसे समाज की पुनर्रचना करना चाहते थे, जिसका आधार सामाजिक और न्यायिक समानता हो। उन्होंने दलितों, महादलितों व महिलाओं की मुक्ति के लिए एक जबरदस्त आन्दोलन छेड़ा था। ज्योतिबा ने विधवा विवाह का समर्थन किया तथा उन ब्राह्मणों की भी प्रशंसा की जो सामाजिक न्याय के समर्थक थे। महाराष्ट्र के कट्टरपंथी ब्राह्मणों के तीव्र विरोध के बावजूद ज्योतिबा अपने मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें ‘वास्तविक महात्मा’ और विनायक दामोदर सावरकर ने उन्हें ‘क्रान्तिकारी समाज-सुधारक’ कहा।

महात्मा ज्योतिबा फूले का जन्म 1827 ई. में पूना में हुआ था, यह वह दौर था जब महाराष्ट्र में पेशवा का पतन हो चुका था। चूंकि पेशवा को ब्राह्मणों का मुखिया माना जाता था अत: ब्राह्मण जाति एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग था। ऐसे में ब्राह्मणों का मानना था कि समाज का निम्न वर्ग उनकी दासता के लिए पैदा हुआ है। इसलिए वे समाज के निम्न जाति के लोगों पर अमानवीय अत्याचार  करते थे। यहां तक कि निम्न जाति की महिलाओं की इज्जत भी सुरक्षित नहीं थी। हांलाकि महाराष्ट्र में पेशवा के पतन के बाद ब्राह्मणराज समाप्त हो चुका था बावजूद इसके ब्राह्मणवर्ग अपने विशेषाधिकारों को बनाए रखने तथा समाज में अपने प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील था।

पूना में पैदा हुए ज्योतिबा फूले के पिता का नाम गोविन्दराव और माता का नाम चिमनाबाई था। जिस समय ज्योतिबा फूले एक वर्ष के थे, उनकी मां चिमनाबाई का निधन हो गया। हिन्दू समाज के अत्यन्त निम्न श्रेणी के कृषक वर्ग में पैदा हुए ज्योतिबा के दादा शेतिबा फूलों का व्यवसाय करते थे। इसलिए उनके परिवार को ‘फूले परिवार’ कहा गया। उन दिनों शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार केवल उच्च वर्ग यानि ब्राह्मणों तथा क्षत्रियों तक ही सीमित था। समाज में निम्न जाति के लोग शिक्षा प्राप्त करने की बात सोच भी नहीं सकते थे।

फिर भी ज्योतिबा के पिता गोविन्दराव ने उन्हें स्कूल में भर्ती करवा दिया। स्कूल में ज्योतिबा ने अपनी तीव्र बुद्धि के चलते उल्लेखनीय प्रगति की लेकिन गोविन्दराव की फूलों की दुकान में काम करने वाले ब्राह्मणों ने गोविन्दराव को भड़काया जिससे उन्होंने ज्योतिबा की पढ़ाई छुड़वा दी। इसके बाद ज्योतिबा ईमानदारीपूर्वक अपने पिता के काम मदद करने लगे। ज्योतिबा की शादी तेरह वर्ष की उम्र में सावित्री बाई नामक कन्या से कर दी गई। पैतृक व्यवसाय में हाथ बंटाने के बाद ज्योतिबा हर रोज रात को लालटेन की रोशनी में किताबे पढ़ा करते थे। ज्योतिबा के इस नेक कार्य को देखकर पड़ोस के कुछ लोगों ने गोविन्दराव को समझाया जिससे उन्होंने एक बार फिर से ज्योतिबा को पढ़ने के लिए मिशनरी स्कूल में भेज दिया। मिशनरी स्कूल में अध्ययन के दौरान ही ज्योतिबा को हिन्दू धर्म के नाम पर होने वाले मिथ्या आचरण व अन्धविश्वासों का ज्ञान हुआ। अत: ज्योतिबा ने निश्चय किया कि वे सभी धर्मों के समान सिद्धान्तों का पालन करेंगे।

1847 ई. में ज्योतिबा ने मिशनरी स्कूल से अपनी शिक्षा पूरी कर ली और 21 वर्ष की उम्र में महाराष्ट्र में समाज सुधारों का क्रान्तिकारी आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने हिन्दूओं स्त्रियों तथा दलितों को दासता से मुक्त कराने के लिए उन्हें शिक्षित करने का निश्चय लिया। इसके लिए ज्योतिबा ने 1848 ई. में दलितों तथा महादलित लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला।

ज्योतिबा ने ‘स्लेवरी’ नामक एक पुस्तक लिखी जिसकी कीमत बारह आना रखी लेकिन दलितों तथा महादलितों के लिए छह आने रखी। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने दलितों के साथ होने वाले भेदभाव और शोषण की आलोचना की।  ज्योतिबा ने समकालीन समाज में हिन्दू विधवा स्त्रियों की दयनीय स्थितियों को देखते हुए विधवा विवाह को प्रोत्साहन दिया। उन्होंने हिन्दू​ विधवाओं को समाज में सम्मानजन स्थान दिलवाने के लिए एक ऐसा अनाथालय स्थापित किया जहां गर्भवती हिन्दू विधवाएं गुप्त रूप से अपना प्रसव करा सकती थीं। यह संस्था सम्पूर्ण भारत में अपने प्रकार की पहली संस्था थी। इस नेक कार्य के चलते ज्योतिबा विधवा स्त्रियों के उद्धारक माने जाने लगे।

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ज्योतिबा की विचारधारा थी कि मंत्रों या जप से बच्चे पैदा नहीं हो सकते। यदि मंत्रों से ही बच्चे पैदा होते तो कोई भी ब्राह्मण नि:सन्तान नहीं होता। सहिष्णुता मनुष्य को शान्ति और सुख प्रदान करती है। प्रेम और सदाचार से साहस उत्पन्न होता है। एक पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करना, पहली पत्नी के साथ अत्याचार है। स्वयं ज्योतिबा नि:सन्तान थे, इसलिए उनके पिता और ससुराल वालों ने उन पर दूसरी शादी करने के लिए दबाव डाला। लेकिन ज्योतिबा ने कहा कि संतान नहीं होने का सारा दोष स्त्री पर नहीं डाला जा सकता। यह भी सम्भव है कि पुरूष में कोई खराबी हो, इस स्थिति में यदि उसकी पत्नी दूसरी शादी कर ले तो पति की मानसिक हालत कैसी होगी। अत: ज्योतिबा ने दूसरी शादी करने से इनकार कर दिया।

आपको जानकारी के लिए बता दें कि ज्योतिबा ने जो अनाथालय स्थापित किया था उसमें 1873 ई. में काशी बाई नामक एक ब्राह्मण विधवा ने एक बच्चे को जन्म दिया। ज्योतिबा और सावित्री बाई ने उसका नामकरण संस्कार कर, उस नवजात शिशु का नाम यशवन्त रखा। सावित्री बाई ने अन्य बच्चों की तरह उसका भी पुत्रवत पालन-पोषण किया। बाद में ज्योतिबा ने इसी बच्चे को गोद लिया था। ज्योतिबा ने 1873 ई. को सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस संस्था का उद्देश्य दलितों को हिन्दू धर्मग्रन्थों के प्रभाव से मुक्त कराना तथा उनके सामाजिक कल्याण के लिए कार्य करना था।

ज्योतिबा फूले ने गुलामगीरी, सार्वजनिक सत्य धर्म तथा सत्यशोधक समाज जैसी पुस्तकों और संगठनों के द्वारा दलित जातियों को पाखण्डी ब्राह्मणों तथा उनके अवसरवादी धर्म ग्रन्थों से सुरक्षा दिलाने की आवश्यकता पर जोर दिया। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि सत्य शोधक समाज का आन्दोलन एक गैर ब्राह्मण आन्दोलन था। किन्तु यह पूर्णतया सत्य नहीं है। ज्योतिबा के समय में इस आन्दोलन के कर्णधार ब्राह्मण ही थे।

गौरतलब है कि ज्योतिबा फूले ऐसे प्रथम व्यक्ति थे जो अपने पत्रों पर सबसे उपर ‘सत्यमेव जयते’ का नारा लिखते थे। देश की स्वाधीनता के बाद भारत सरकार ने अपने राजचिह्नों में इसी नारे को स्वीकार कर अंकित करवाया।