भारत का इतिहास

History of sultan Balban

गियासुद्दीन बलबन (1265-1287 ई.)

बलबन का मूल नाम बहाउद्दीन था, हांलाकि बलबन के जन्म से जुड़ी जानकारी अभी तक अज्ञात है। इतिहासकार डॉ. ए.एल. श्रीवास्तव के अनुसार, “वह इल्तुतमिश की भांति इल्बारी तुर्क था।” बहाउद्दीन बलबन को बचपन में ही मंगोलों ने पकड़ लिया था और उन्होंने उसे बगदाद ले जाकर गुलाम के रूप में बेच दिया। बगदाद में एक शख्स ख्वाजा जमालुद्दीन बसरी ने बलबन को खरीदा और उसे वर्ष 1232-1233 ई. में गुजरात के रास्ते दिल्ली ले आया। सुल्तान इल्तुतमिश ने ग्वालियर विजय के पश्चात सन 1233 ई. में बलबन को खरीदा। बलबन ने अपनी योग्यता के बल पर जल्द ही सुल्तान इल्तुतमिश के खासदार का पद प्राप्त कर लिया। रजिया के शासनकाल में बलबन ‘अमीर-ए-शिकार’ के महत्वपूर्ण पद पर पहुंच गया। 

रजिया सुल्तान के विरूद्ध षड्यंत्र करने वाले तुर्की सरदारों में से एक बलबन भी था, इसलिए जब बहरामशाह सुल्तान बना तो उसे “अमीर-ए-आखूर” (अश्वशाला का प्रधान) का पद प्रदान किया गया। वहीं बहरामशाह को हटाकर अलाउद्दीन मसूदशाह को सुल्तान बनाने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। इसीलिए मसूदशाह के शासनकाल में बलबन को ‘अमीर-ए-हाजिब’ के महत्वपूर्ण पद पर आसीन किया गया। तुर्की सरदारों ने मसूदशाह को इसी शर्त पर सुल्तान बनाया था कि वह स्वयं राज्य की सम्पूर्ण शक्ति का प्रयोग नहीं करेगा, ऐसे में बलबन धीरे-धीरे अपनी शक्ति का निर्माण कर रहा था और मसूदशाह उसके हाथों की कठपुतली मात्र था। आखिरकार बलबन के इशारों पर तुर्की सरदारों ने 1246 ई. में मसूदशाह को सिंहासन से हटाकर इल्तुतमिश के प्रपौत्र नासिरूद्दीन महमूद को दिल्ली का सुल्तान बनाया।

सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद के संबंध में इतिहासकार इसामी लिखता है कि “वह बिना तुर्की सरदारों की पूर्व आज्ञा के अपना कोई विचार व्यक्त नहीं करता था। वह बिना उनके आदेश के अपने हाथ-पैर तक नहीं हिलाता था। वह बिना उनकी जानकारी न पानी पीता था न सोता था।” चूंकि अब तुर्की सरदारों का नेता बलबन था अत: सुल्तान ने अपनी समस्त शक्तियां बलबन को सौंप दी। 1249 ई.में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद से कर दिया। इसके बाद उसे नाइब-ए-मामलिकात का पद दिया गया और उलूग खां की उपाधि से विभूषित किया गया।

नाइब के पद रहकर एक वर्ष तक सत्ता का संचालन करने वाले भारतीय मुसलमान रायहान को पदच्युत करके बलबन नाइब के पद पर आसीन हो गया। यहां तक कि वह सुल्तान के छत्र (सुल्तान के पद का प्रतीक) का प्रयोग करने में भी सफल रहा। 1265 ई. में सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद की अचानक मृत्यु हो गई। इतिहासकार इसामी लिखता है कि “बलबन ने नासिरूद्दीन को जहर देकर मरवा दिया।” वहीं इतिहासकार वूल्जले हेग का मत है कि “सुल्तान की कोई सन्तान नहीं थी इसलिए बलबन स्वयं सुल्तान बन गया।” इब्नबतूता​ लिखता है कि “नाइब ने उसे मार डाला और स्वयं सुल्तान बन गया।”

बलबन ने 20 वर्ष तक वजीर की हैसियत से तथा 20 वर्ष तक सुल्तान के रूप में शासन किया। उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय शासन का युग आरम्भ हुआ। तुर्की सरदारों की शक्ति और प्रभाव को न​ष्ट करना और जनसाधारण में सुल्तान के प्रति भय एवं सम्मान की भावना जाग्रता करना बलबन की पहली कठिनाई थी। इसलिए उसने सबसे पहले उसने तुर्कान-ए -चिहालगानी को नष्ट किया तथा वजीर तथा नाइब के पद के महत्व को कम ​कर दिया।

बलबन ने सुल्तान की प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए ‘रक्त एवं लौह की नीति’ अपनाई। इतना ही नहीं उसने स्वयं को फिरदौसी के ‘शाहनामा’ में वर्णित अफरासियाब का वंशज घोषित किया तथा ईरानी आदर्श के रूप में शासन को व्यवस्थित किया। बलबन ने अपने शासन को सफल बनाने के लिए गुप्तचर विभाग (दीवान-ए-बरीद) की स्थापना की ताकि सामन्तों की गतिविधियों पर निगरानी रखी जा सके।

बलबन ने मंगोलों से अपने राज्य की सुरक्षा करने के लिए एक सैन्य विभाग (दीवान-ए-आरिज) को पुनर्गठित किया तथा रक्त एवं लौह नीति के जरिए अपने शासन को आधार प्रदान किया। शासन में अमीरों के प्रभाव को कम करने के लिए उसने अपने दरबार में सिजदा (भूमि पर लेटकर प्रणाम करना) और पायबोस (सुल्तान के सिंहासन निकट आकर उसके चरणों को चूमना) की प्रथा को शुरू किया जो मूलत: ईरानी थी। इसके अतिरिक्त उसने ईरानी त्यौहार नौरोज भी प्रारम्भ किया। बलबन ने विख्यात कवि अमीर खुसरो जिसका नाम तुतिए-हिन्द (भारत का तोता) तथा अमीर हसन को राजाश्रय दिया।

बलबन काफी वृद्ध हो चुका था और मंगोल आक्रमण के दौरान शाहजादा मुहम्मद की मृत्यु ने उसको बहुत दु:खी कर दिया था क्योंकि बलबन की सम्पूर्ण आशाएं उसी पर केन्द्रित थीं। उसका दूसरा पुत्र बुगरा खां विलासी प्रवृत्ति का था। जब बलबन बीमार हो गया तो उसे बंगाल से बुला लिया। वह बुगरा खां को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहता था लेकिन विलासी बुगरा खां को आरामपसन्द और स्वतंत्र जीवन पसन्द था इसलिए वह चुपके से बंगाल लौट गया। अब बलबन ने अपने सबसे बड़े पुत्र महमूद के बेटे कैखुसरव को अपना उत्तराधिकारी चुना और कुछ समय पश्चात 1287 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।

बलबन का राजत्व सिद्धान्त

बलबन दिल्ली सल्तनत का ऐसा पहला शासक था ​जिसने सुल्तान के पद और अधिकारों के बारे में विस्तृत रूप से विचार प्रकट किए। सुल्तान के सम्मान में वृद्धि और सरदारों के संघर्ष से बचने के लिए उसे सरदारों को यह विश्वास दिलाना आवश्यक था कि सुल्तान किसी की कृपा से नहीं बल्कि दैवीय कृपा से बना है।

बलबन के राजत्व सिद्धान्त की दो मुख्य विशेषताएं थीं। 1- सुल्तान का पद ईश्वर के द्वारा प्रदान किया हुआ होता है। 2- सुल्तान का निरंकुश होना आवश्यक है। उसके अनुसार, “सुल्तान पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि (नियावत-ए-खुदाई) है और उसका स्थान केवल पैगम्बर के पश्चात है। सुल्तान को कार्य करने की प्रेरणा और शक्ति ईश्वर से प्राप्त होती है। इस कारण जनसाधारण या फिर सरदारों को उसके कार्यों की आलोचना करने का कोई अधिकार नहीं है।”

बलबन ने उपरोक्त विचारों को व्यवहार में परिणित किया। सर्वप्रथम उसने स्वयं को विद्वान फिरदौसी की रचना शाहनामा के शूरवीर पात्र अफरासियाब का वंशज बताया। सुल्तान की प्रति​ष्ठा के अनुकूल उसने स्वयं को अत्यंत गम्भीर और एकाकी बना लिया। उसने शराब पीना छोड़ दिया, विनोदप्रिय व्यक्तियों के साथ बैठना बंद कर दिया तथा एकान्त में रहना शुरू कर दिया। बलबल कभी भी पूर्ण वेशभूषा के बिना किसी के सम्मुख नहीं आता था। इतना ही नहीं, वह दरबार में न ही हंसता था और न हीं मुस्कुराता था।

उसने अपने दरबार में सिजदा (भूमि पर लेटकर प्रणाम करना) और पायबोस (सुल्तान के सिंहासन निकट आकर उसके चरणों को चूमना) की प्रथा को शुरू किया जो मूलत: ईरानी थी। उसने लम्बे तथा भयानक व्यक्ति​यों को अपना अंगरक्षक बनाया जो हमेशा नंगी तलवार लिए उसके सिंहासन के चारो तरफ खड़े रहते थे। उसके दरबार में प्रत्येक वर्ष ईरानी त्यौहार नौरोज मनाया जाने लगा। इस प्रकार शान-शौकत और सत्ता के इस प्रदर्शन का प्रभाव सरदारों और जनसाधारण पर पड़ा तथा सुल्तान की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। 

चालीस गुलाम सरदारों के गुट का दमन

बलबन भी पूर्व में तुर्कान-ए-चिहालगानी यानि चालीस गुलाम सरदारों के दल का सदस्य था,इसलिए उसने सुल्तानों और सरदारों के बीच हुए संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लिया था। अत: वह इस बात को भलीभांति जानता था कि गुलाम सरदारों के दल को नष्ट किए बिना सुल्तान की प्रतिष्ठा और उसके वंश की सुरक्षा सम्भव नहीं है। ऐसे में बलबन ने इन गुलाम सरदारों के पूर्ण विनाश तथा प्रजा की नजरों में गिराने के लिए साधारण अपराधों के लिए कठोर दण्ड देना शुरू किया। कुछ सरदारों को तो उसने सरेआम कोड़ों से पीटकर तथा कुछ को विष देकर तथा शेष को कूटनीति के द्वारा समाप्त कर दिया जिससे चालीस सरदारों का गुट नष्ट हो गया। उन सरदारों की जगह उसने छोटे सरदारों की पदोन्नति की जो उसके प्रति वफादार थे। इस प्रकार चालीस सरदारों के गुट को नष्ट करके बलबन ने सुल्तान की प्रतिष्ठा और आतंक को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

सैन्य संगठन

बलबन के समय में एक बड़ी एवं सुगठित सेना प्रासंगिक थी क्योंकि मंगोल आक्रमणों से सुरक्षा एवं आन्तरिक विद्रोहों के दमन के लिए सेना के पुनर्गठन की आवश्यकता थी। इसलिए उसने अपनी सेना की संख्या में वृद्धि तथा हजारों वफादार सैनिक अधिकारियों की नियुक्ति की। उसने सैनिकों के वेतन में वृद्धि की। उसने अपना सेनामंत्री (दीवान-ए-अर्ज) इमाद-उल-मुल्क को नियुक्त किया जो बेहद ईमानदार और परिश्रमी व्यक्ति था। बलबन सैन्य आक्रमण की योजनाओं तथा सैन्य कार्रवाईयों को स्वयं अंजाम देता था। सैनिक सेवा के बदले भूमि एवं नकद वेतन दोनों ही सैन्य वेतनमान के स्रोत थे।

गुप्तचर विभाग का गठन

बलबन के शासन की सफलता का मुख्य आधार उसका गुप्तचर विभाग था। उसने अपने पुत्रों, सैनिक अधिकारियों, प्रशासकीय अधिकारियों आदि सभी के साथ अपने गुप्तचर (बरीद) नियुक्त किए। इसके अलावा प्रत्येक इक्ता (सूबा) और जनसाधारण में भी उसके गुप्तचर रहा करते थे। बलबन स्वयं ही गुप्तचरों की नियुक्ति करता था और उन पर पर्याप्त धन व्यय करता था। अपने ​कर्तव्य की पूर्ति में असफल गुप्तचरों को कठोर दण्ड दिया जाता था। इस प्रकार बलबन ने एक अच्छा गुप्तचर विभाग संगठित किया।

हिन्दू विद्रोहियों का दमन

बलबन के समय में दोआब, बदायूं, अमरोहा, कटेहर आदि स्थानों पर विद्रोह हो रहे थे, यहां तक कि दिल्ली के नागरिकों का जीवन भी सुरक्षित नहीं था। विद्रोही और लुटेरे राजमार्गों पर आक्रमण करने के अलावा व्यापारियों को लूटते रहते थे और लगान अधिकारियों भी पीटकर भगा दिया करते थे।

ऐसे में सुल्तान बनते ही बलबन ने सबसे पहले दिल्ली की सुरक्षा का प्रबन्ध किया जहां मेवा​तियों ने आतंक फैला रखा था।  राजधानी के चारों दिशाओं में चार किलों का निर्माण करके वहां अफगान सैनिकों की नियुक्ति की गई। इस प्रकार एक ही वर्ष में दिल्ली को लुटेरे आतंकियों से मुक्त करा दिया गया। सम्पूर्ण विद्रोही इलाकों को सैनिकों इलाकों में बांट दिया गया। दूसरे वर्ष बलबन ने दोआब और अवध के विद्रोह को दबाया।

कटेहर में बलबन ने निर्ममता का व्यवहार किया, गांव के गांव जला दिए गए और सभी पुरूषों को वध करने के आदेश दिए गए। इस प्रकार बलबन अपने राज्य की सीमाओं के अन्तर्गत शान्ति की स्थापना करने में सफलता प्राप्त की।

बंगाल विजय

बलबन के समय उसके अधीन बंगाल सूबे का गर्वनर तुगरिल खां जिसने 1279 ई. में विद्रोह करके सुल्तान मुगासुद्दीन की उपाधि ग्रहण की तथा अपने नाम के सिक्के चलवाए और खुतबा पढ़वाया। बलबन के विरोधियों ने तुगरिल खां को विद्रोह करने के लिए यह कहकर प्रेरित किया कि सुल्तान अब 80 वर्ष का वृद्ध हो चुका है और उसके दो बेटे मंगोल आक्रमण की सुरक्षा में सीमा पर लगे हुए हैं। तुगरिल खां के दमन हेतु बलबन ने अवध के शासक अमीन खां को भेजा परन्तु अमीन खां न केवल पराजित हुआ ब​ल्कि उसकी सेना भी नष्ट हो गई।

बलबन ने क्रोधित होकर अमीन खां को अयोध्या के फाटक पर लटकवा दिया। बलबन ने क्रमश: तिमित तथा अवध के नए सूबेदार शहाबुद्दीन के नेतृत्व में बारी-बारी से सेना भेजी लेकिन इन सभी को हार का सामना करना पड़ा। लगातार असफलता से क्रुद्ध होकर बलबन दो लाख की विशाल सेना लेकर अपने पुत्र बुगरा खां के साथ बंगाल पहुंचा।

तुगरिल खां भयभीत होकर जंगलों में जा छिपा जहां बलबन के एक सैनिक अधिकारी मलिक मुकद्दर ने उसका सिर काट लिया। यही नहीं तुगरिल खां के सहयोगियों को बलबन ने लखनौती के मुख्य बाजार के दोनों तरफ दो मील लम्बी सड़क पर खूंटियों में गाड़कर टंगवा दिया। यह वीभत्स दृश्य देखकर अनेक व्यक्ति मूर्छित हो गए। बुगरा खां को बंगाल का शासक नियुक्त कर उसे भी विद्रोह न करने की चेतावनी देकर बलबन वापस चला आया।

मंगोल आक्रमण

बलबन के सम्मुख मंगोल आक्रमण का भय हमेशा बना रहा इसलिए इस आक्रमण से सुरक्षा के लिए उसने उत्तर-पश्चिमी सीमा पर बलबन ने चचेरे भाई शेर खां को नियुक्त किया था। हांलाकि शेर खां कुछ ही वर्षों में मंगोलों की सेवा करने को तत्पर हो गया इसलिए बलबन ने उसे जहर देकर मरवा दिया।

1270 ई.में बलबन लाहौर गया और उसने वहां के किले को सुदृढ़ बनाने के आदेश दिए। उसने सीमा पर किलों की एक कतार बनवायी और प्रत्येक किले में एक बड़ी संख्या में सेना रखी। कुछ वर्षों के पश्चात उत्तर-पश्चिमी सीमा को दो भागों में बांटा गया। लाहौर, मुल्तान और दिपालपुर का क्षेत्र शाहजादा मुहम्मद को और उच्छ का क्षेत्र शाहजादा बुगरा खां को दिया गया और प्रत्येक शहजादे के लिए 18 हजार घुड़सवारों की एक शक्तिशाली सेना रखी गई।

बलबन का सबसे योग्य पुत्र शहजादा मुहम्मद था, वह योग्य सेनापति एवं साहित्यनुरागी भी था। उसने अमीर खुसरो तथा अमीर हसन को संरक्षण दिया। फारसी के महान कवि शेख सादी अपनी वृद्धावस्था के कारण उसका निमंत्रण स्वीकार नहीं कर सका। शहजादा मुहम्मद ने मंगोल आक्रमण को रोकने में आशातीत सफलता प्राप्त की थी लेकिन 1286 ई. में मंगालों से युद्ध करते हुए वह मारा गया। बावजूद इसके बलबन ने लाहौर तक के प्रदेशों तथा व्यास नदी की सीमा को मंगोलों को कभी पार नहीं करने दिया।

डॉ. ईश्वरी प्रसाद लिखते हैं कि “बलबन, जिसने घोर संकटमयी स्थिति में पड़े शैशवास्था के मुस्लिम साम्राज्य को सुरक्षित रखा, मध्यकालीन भारतीय इ​तिहास में सदैव उच्च स्थान पाता रहेगा।”

गियासुद्दीन बलबन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

-  गियासुद्दीन बलबन ने 1265 ई. में बलबनी वंश की स्थापना की थी।

-  गियासुद्दीन बलबन इल्बारी जाति का था।

- बलबन ने ‘तुगरिल कुश’ की उपाधि दी थी- मलिक मुकद्दीर को।

- ‘तुगरिल कुश’ का अर्थ है- तुगरिल की हत्या करने वाला।

- बंगाल की वह राजधानी जिसे ‘विद्रोह का नगर’ कहा जाता था- लखनौती।

- ‘नियाबत-ए-खुदाई’ कहा जाता था- ईश्वर के प्र​तिनिधि को।

- वह सुल्तान जिसका दरबार ईरानी परम्परा के अनुसार सजाया गया था- बलबन

- ‘नवरोज’ उत्सव आधारित था- फारसी रीति-रिवाज पर।

-भूमि पर लेटकर अभिवादन करना- सिजदा।

- सुल्तान के सामने झुककर उसके पांव को चूमना- पायबोस।

- फिरदौसी कृत शाहनामा के शूरवीर पात्र का नाम- अफरासियाब

- वह सुल्तान जो निम्न कुल के लोगों को सरकारी पद नहीं देता था- बलबन।

- 80 वर्ष की अवस्था में बलबन की मृत्यु हुई थी- 1287 ई. में।

- कैकुबाद और शमसुद्दीन क्यूमर्स ने शासन किया- 1287 से 1290 ई. तक।

- कैकुबाद को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया था- फखरूद्दीन मुहम्मद ने।

- कैकुबाद ने अपना सेनापति नियुक्त किया था- जलालुद्दीन फिरोज खिलजी को।

- कैकुबाद के पुत्र का नाम था— शमसुद्दीन।

- शमसुद्दीन क्यूमर्स की हत्या की थी- जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने।

सम्भावित प्रश्न

— मंगोल आक्रमण से सुरक्षा के लिए बलबन द्वारा अपनाई गई नीति का वर्णन कीजिए?

— बलबन ने तुर्कान-ए-चिहालगानी का अन्त क्यों किया?

— बलबन के राजत्व सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए?

— गुलाम वंश के एक महानतम शासक के रूप में बलबन पर टिप्पणी लिखिए?

— बलबन के बंगाल विजय का वर्णन कीजिए?