भारत का इतिहास

Establishment of East India Company and superiority of British power in India.

भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना और अंग्रेजी शक्ति की सर्वश्रेष्ठता

यह इतिहास है उस वक्त का जब दिल्ली की सत्ता पर मुग़ल बादशाह जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर का अधिकार था। उन दिनों भारत अपनी आर्थिक समृद्धि की बुलन्दियों पर था यानि दुनिया के कुल उत्पादन का एक चौथाई माल भारत में तैयार होता था। ठीक इसके विपरीत ब्रिटेन में दुनिया के कुल उत्पादन का महज तीन फ़ीसद माल तैयार होता था। उन दिनों ब्रिटेन में महारानी एलिज़ाबेथ प्रथम की सत्ता थी।

भारत से व्यापार करने के कारण यूरोप की प्रमुख शक्तियाँ पुर्तगाल और स्पेन समृद्ध हो रहे थे, उनकी इसी बढ़ती समृद्धि ने अंग्रेजों को भारत से व्यापार करने को प्रेरित किया। जबकि इससे पहले ब्रिटेन के समुद्री लुटेरे पुर्तगाल और स्पेन के व्यापारिक जहाज़ों को लूटकर ही संतुष्ट हो जाते थे।

उसी दौरान लंदन का व्यापारी राल्फ फिच जो मेसोपोटामिया, फारस की खाड़ी और हिंद महासागर, भारत और दक्षिण पूर्व एशिया की यात्रा करने वाले शुरुआती अंग्रेजी यात्रियों और व्यापारियों में से एक था। वह 1588-91 के बीच भारत में रहा। इस दौरान उसने आगरा, बनारस, पटना, हुगली, चिटगांव, पेगू और श्याम तक यात्राएं की।  1591 ई. में इंग्लैंड लौटने पर राल्फ फिच ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए एक मूल्यवान सलाहकार बन गया। लिहाजा 1599 ई. सर जेम्स लैंकेस्टर सहित ब्रिटेन के 200 से अधिक प्रभावशाली और व्यावसायिक पेशेवरों (मर्चेंट एडवेंचर्स नामक दल) ने भारत से व्यापार करने का निर्णय लिया। इस व्यापारिक समूह ने 31 दिसम्बर 1600 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी अथवा दि गर्वनर एण्ड कम्पनी ऑफ मर्चेण्ट्स ऑफ इन टू द ईस्ट इं​डीज की स्थापना की। इसके बाद ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने ईस्ट इंडिया कंपनी को पूर्व के साथ व्यापार के लिए पन्द्रह वर्षों के लिए अधिकार पत्र प्रदान किया।

15 ​वर्ष के पश्चात जेम्स प्रथम ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारिक अधिकार को अनिश्चितकाल के लिए बढ़ा दिया। ईस्ट इंडिया कंपनी की प्रथम समुद्री यात्रा 1601 ई. में जावा, सुमात्रा तथा मोलक्को के लिए आगे बढ़ी और 1604 ई. में भारत की तरफ रूख किया। तत्पश्चात दूसरे क्षेत्रों में यात्रा करने के बाद अगस्त 1608 में कैप्टन विलियम हॉकिंस अपने जहाज 'हेक्टर' से सूरत बंदरगाह पर पहुंचा। इसके बाद विलियम् हाकिन्स सूरत से सीधे आगरा पहुंचा और जेम्स प्रथम के राजदूत के रूप में जहांगीर से मुलाकात की और पत्रक देकर बादशाह से व्यापार करने की अनुमति मांगी।

चूंकि हाकिन्स फारसी भाषा का बहुत अच्छा ज्ञाता था, लिहाजा पादशाह जहांगीर उससे बहुत अधिक प्रभावित था। ऐसे में जहांगीर ने विलियम हाकिन्स को आगरा में बसने तथा 400 की मनसब एवं जागीर प्रदान की। इतना ही नहीं 6 फरवरी 1613 को जहांगीर ने अंग्रेजों को सूरत में फैक्टरी खोलने तथा मुगल दरबार में अपना राजदूत रखने की अनुमति प्रदान कर दी। लेकिन पुर्तगालियों द्वारा जहांगीर का कान भरे जाने के कारण सम्राट ने अपने इस आदेश को रद्द कर दिया।

विलियम हाकिन्स की इस असफलता के बाद सर टामस रो ब्रिटेन के राजा जेम्स प्रथम के राजदूत की हैसियत से 18 सितम्बर 1615 को सूरत बन्दरगाह पहुंचा और 10 जनवरी 1616 को टामस रो ने अजमेर के किले में जहांगीर से मुलाकात की। उसने मुगल दरबार में एक याचक की तरह व्यापार करने की अनुमति मांगी। उसने अपनी इस पहली मुलाकात में जहांगीर को बहुमूल्य उपहार भेंट किया, जिसमें शिकारी कुत्ते और उनकी पसंदीदा शराब भी शामिल थी।

सर टामस रो की यात्रा वृत्तांत के मुताबिक जब भी बात होती थी, तो बादशाह उससे व्यापार के बजाय घोड़ों, कलाकृतियों और शराब के विषय में चर्चा करने लगता, ब्रिटेन के साथ संबंध बनाना पादशाह की प्राथमिकता नहीं थी।

सर टामस रो 10 जनवरी 1616 से 17 फरवरी 1618 तक मुगल दरबार में रहा, इस दौरान उसने अनुनय-विनय करके जहांगीर से ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ एक व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर कराने में सफलता प्राप्त कर ली। लिहाजा 1619 ई. में कंपनी और ब्रिटेन के सभी व्यापारियों को उपमहाद्वीप के प्रत्येक बंदरगाह और ख़रीदने तथा बेचने के लिए जगहों के इस्तेमाल की इजाजत मिल गईं। फलस्वरूप अहमदाबाद, भड़ौच, बड़ौदा, व आगरा में ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक कारखाने स्थापित हो गए। इन सभी व्यापारिक कोठियों का नियंत्रण सूरत से होता था।

इस व्यापारिक समझौत में कंपनी ने यूरोपीय उत्पादों को भारत को देने का वादा किया गया था, हांलाकि तब ब्रिटेन के पास बहुमूल्य उत्पाद नाम की कोई चीज ही नहीं थी। अब कंपनी व्यापारी मुग़लों की रज़ामंदी से भारत से सूत, नील, पोटैशियम नाइट्रेट और चाय ख़रीदते, विदेशों में उन्हें महंगे दामों में बेचकर खूब मुनाफा कमाने लगे। यह सच है कि कंपनी जो भी वस्तु ख़रीदती उसका मूल्य चाँदी देकर अदा करती थी।

मुगलों से मिले इस व्यापारिक अधिकार का लाभ उठाकर अंग्रेजों ने व्यापारिक केन्द्रों की स्थापना का कार्य जारी रखा था। इस क्रम में उन्होंने 1631 में मसुलीपत्तनम, 1633 में हरिपुर और बालासोर तथा 1640 में चन्द्रगिरी के राजा दरमेला वेंकटप्पा से मद्रास खरीदकर उन्होंने मद्रास में ही सेन्ट जार्ज नामक किले का निर्माण ​करवाया।  यह भारत में अंग्रेजों का प्रथम किला था। फ्रांसिस डे को मद्रास का संस्थापक माना जाता है। इतना ही नहीं 1651 में अंग्रेजों ने हुगली, पटना, कासिमबजार में भी अपनी व्यापारिक कोठियां स्थापित की। 

हुगली में ही आज का कोलकाता नगर बसा हुआ है। साल 1661 ई. में ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाल की राजकुमारी कैथरीन ब्रेगांजा से होने पर उसे मुम्बई दहेज में मिला। चार्ल्स द्वितीय ने मुम्बई को 10 पौण्ड वार्षिक किराए की दर से ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया।

1669 से 1677 तक गेराल्ड औंगियार बम्बई का गर्वनर रहा, जिसे इस शहर का वा​स्तविक संस्थापक माना जाता है। गेराल्ड ने ही बम्बई में किलेबंदी की और वहां गोदी का निर्माण करवाया, बम्बई नगर बसाया तथा वहां एक न्यायालय और पुलिस दल की नियुक्ति की। इतना ही नहीं बम्बई के गर्वनर गेराल्ड औंगियार के कार्यकाल में ही यहां तांबे और चांदी के सिक्के ढालने के लिए टकसाल की स्थापना हुई। 

साल 1670 में, ब्रिटेन के राजा चार्ल्स द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कंपनी को विदेश में युद्ध लड़ने और उपनिवेश स्थापित करने की अनुमति दे दी। फिर क्या था, ब्रिटीश सेना और कंपनी के सैनिकों ने भारत में पुर्तगालियों, डचों और फ्रांसीसी प्रतिद्वंदियों का जमकर मुकाबला किया और ​अधिकांश युद्धों में परा​जित करके बंगाल के तटीय क्षेत्रों को अपने नियंत्रण में ​ले लिया।

इन परिस्थितियों में कंपनी की स्थिति मजबूत हो गई और अब वह व्यापारिक कंपनी के साथ-साथ राजनीतिक शक्ति के रूप में अपनी सुरक्षा के लिए किसी अन्य पर निर्भर रहने के बजाय स्वयं ही तैयार होने लगी। परिणामस्वरूप 17वीं शताब्दी में मुगलों और अंग्रेजों की भिड़न्त हुई। साल 1681 ई. में कंपनी के कर्मचारियों ने कंपनी के निदेशक सर चाइल्ड से शिकायत की कि बंगाल में कर सहित अन्य मामलों को लेकर बादशाह औरंगजेब का भांजा शाइस्ता खान उन्हें परेशान करता है। फिर क्या था, सर चाइल्ड ने सैन्य सहायता के लिए ब्रिटेन के सम्राट को पत्र लिखा। इसके बाद 1686 में उन्नीस युद्धपोतों, दो सौ तोपों और छह सौ सैनिकों वाला एक नौसैनिक बेड़ा लंदन से बंगाल की ओर रवाना हुआ। इधर मुगल सेना भी अंग्रेजों का सामना करने के लिए तैयार बैठी थी।

इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल के मुताबिक ईस्ट इंडिया कंपनी और मुगल सेना के बीच हुगली में भिड़न्त हुई और इस युद्ध में मुग़ल सेना ने ब्रितानी सैनिकों को मक्खियों की तरह मारा। बंगाल, सूरत तथा मुम्बई में भी उनका यही हाल किया गया। विवश होकर कुछ अंग्रेजों को एक ज्वारग्रस्त द्वीप पर शरण लेनी पड़ी। कंपनी के कर्मचारियों को ज़ंजीरों में जकड़कर शहरों में घुमाया गया और अपराधियों की तरह उन्हें अपमानित किया गया।

कंपनी के निदेशक सर जॉन चाइल्ड को भी बंगाल से बाहर निकाल दिया गया। अब कंपनी के पास माफी मांगने और अपने व्यापारिक कारखानों को वापस पाने के लिए मुगल दरबार में भिखारियों की तरह उ​पस्थित होना पड़ा। ब्रिटिश सम्राट ने आधिकारिक रूप से मुगल बादशाह औरंगजेब से माफी मांगी। औरंगजेब ने 1690 ई. में कंपनी को माफ कर दिया। साल 1690 में जॉब चारनाक बंगाल में कंपनी के एजेन्ट के रूप में आए और उन्होंने 1691 में सुतनाती में अंग्रेज फैक्ट्री की स्थापना की। दरअसल बर्दवान के जमींदार शोभासिंह के विद्रोह के कारण अंग्रेजों को सुतनाती में किलेबंदी की जरूरत पड़ी।

1698-99 में बंगाल के सूबेदार अजीमुश्शान से अनुमति प्राप्त कर कंपनी ने जमींदार इब्राहिम खां से 1200 रूपए में सुतनाती, गोविन्दपुर और कालिकाता की जमींदारी प्राप्त की। सुतनाती, गोविन्दपुर और कालिकाता को मिलाकर जॉब चारनाक ने 1699 में आधुनिक कलकत्ता की नींव डाली और वहां फोर्ट ​विलियम बनवाया। 1700 ई. में सर चार्ल्स आयर को फोर्ट विलियम का गर्वनर बनाया गया तथा इसी साल बंगाल को मद्रास से स्वतंत्र प्रेसीडेन्सी बनाया गया।

आपको बता दें कि औरंगजेब के राज्यकाल के आखिरी सालों में चारो तरफ अशांति फैल चुकी थी। राजनीतिक व्यवस्था के कमजोर होने के कारण आर्थिक समृद्धि का हृास होने लगा था। निरंतर युद्धों के चलते प्रशासन दिवालिया हो चुका था। इसका कृ​षि, व्यवसायों तथा व्यापार पर इतना बुरा प्रभाव पड़ा कि व्यापार लगभग ठप्प हो चुका था। स्थिति यह हो गई थी कि 1690-98 के बीच अंग्रेज व्यापारी बाहर भेजने के लिए पर्याप्त वस्त्र नहीं प्राप्त कर सके। 

3 मार्च 1707 को मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद विशाल और वैभवशाली मुगल साम्राज्य तेजी से पतन के गर्त में जाने लगा। औरंगजेब की मृत्यु और अंग्रेजों द्वारा बंगाल विजय के मध्य जितने भी मुगल सम्राट हुए वे अशक्त और राजनीतिक सूझ-बूझ से परे थे। उनके आपसी संघर्षों तथा दरबारी षडयंत्रों ने मुगल सम्राटों की शक्ति और प्रतिष्ठा को नष्टप्राय बना दिया।

1715 ई. में सर जान सरमन के नेतृत्व में एक ब्रिटीश दूत मण्डल व्यापारिक रियायतें प्राप्त करने के उद्देश्य से मुगल बादशाह फर्रूखसियर से मिला। इस दौरान ब्रिटीश दूत मण्डल में शामिल विलियम हैमिल्टन नाम के एक डाक्टर ने फर्रूखसियर को एक गंभीर बीमारी से मुक्ति दिलाई। इसलिए फर्रूखसियर ने प्रसन्न होकर 1717 में एक फरमान जारी किया जिसके मुताबिक महज 3000 रूपए वार्षिक कर के बदले कम्पनी को नि:शुल्क व्यापार करने का अधिकार मिल गया। इतना ही नहीं कंपनी कलकत्ता के पास अतिरिक्त भूमि किराए पर ले सकती थी। हैदराबाद और मद्रास में भी व्यापार करने का अधिकार मिल गया। सूरत में भी 10000 की राशि देकर कंपनी को नि:शुल्क व्यापार करने का अधिकार प्राप्त हो गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी के जो भी सिक्के बम्बई के टकसाल में ढाले गए थे, उन्हें मुगल साम्राज्य में मान्यता मिल गई। इस प्रकार ईस्ट इंडिया कम्पनी एक झटके में शक्तिशाली बन गई। इतिहासकार ओर्म्स ने इस फरमान को कंपनी का मैग्नाकार्टा कहा है। 

दूसरी तरफ मुगल साम्राज्य की नष्ट होती शक्ति का लाभ उठाकर अनेक क्षेत्रीय शक्तियों ने भी स्वतंत्र राज्यों की स्थापना करनी शुरू कर दी। इन शक्तियों में मुख्यरूप से सिख, मराठा, हैदराबाद, अवध और बंगाल के नवाब का नाम शामिल है। आपको याद दिला दें कि औरंगजेब की मृत्यु के समय मुर्शीद कुली खान बंगाल का नायब निजाम और उड़ीसा का सूबेदार था। हांलाकि औरंगजेब की मृत्यु के बाद कमजोर केन्द्रीय सत्ता का लाभ उठाकर मुर्शीद कुली खां ने बंगाल में स्वतंत्र राज्य की नींव डाली और बंगाल की राजधानी ढाका से मुर्शिदाबाद ले गया। लिहाजा फर्रूखसियर के जारी फरमान को मुर्शिद कुली खान ने बंगाल में नियंत्रित करने की ​कोशिश की। फार्मिंगर की एक रिपोर्ट के मुताबिक मुर्शीद कुली खां के राजस्व सुधारों के कारण बंगाल का वार्षिक राजस्व लगभग डेढ़ करोड़ रूपए हो चुका था। कालान्तर में मुर्शीद कुली खां का उत्तराधिकारी शुजाउद्दीन मुगल दरबार को राजस्व तो जरूर भेजता रहा लेकिन व्यवहार में वह पूर्णत स्वतंत्र रहा। उसने 1732 ई. अलीवर्दी खां को बिहार का नायब सूबेदार नियुक्त किया। शुजाउद्दीन के पुत्र सरफराज खान ने आलम-उद-दौला हैदर जंग की उपाधि धारण की लेकिन उसे अलवर्दी खां ने 1740 में गिरिया के युद्ध में पराजित कर मार डाला और खुद को बंगाल का नवाब घोषित कर दिया।

अलवर्दी खां ने बंगाल को दिल्ली से पूर्णरूप से स्वतंत्र कर लिया, शुरूआत में तो उसने दो करोड़ रूपए नजराना दिल्ली दरबार में भेजा बाद में नजराना भेजना और नियुक्तियों के लिए अनुशंसा प्राप्त करना बंद कर दिया। अलीवर्दी खां ने कलकत्ता में अंग्रेजों द्वारा और चन्द्रनगर में फ्रांसीसियों की किलेबन्दी का विरोध किया। अलीवर्दी की कोई संतान नहीं थी लिहाजा उसने अपनी मृत्यु से पूर्व अपने नाती सिराजुद्दौला को बंगाल का उत्तराधिकारी नियुक्त किया। हांलाकि अलीवर्दी खां ने अपने नाती सिराजुद्दौला को सीख दी थी कि यूरोपीय लोग मधुमक्खी के समान हैं यदि उन्हें न छेड़ा जाए तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो वे डंक मारेंगी।

पूर्णिया के फौजदार शौकत जंग, अलीवर्दी की बेटी घसीटी बेगम, राजवल्लभ, जगत सेठ, अमीचन्द और मीरजाफर की गुटबाजी के बीच साल 1756 में नवाब सिराजुद्दौला भारत के सबसे धनी अर्ध-स्वायत्त राज्य बंगाल के शासक बने। बंगाल के आर्थिक रूप से समृद्ध होने की सबसे बड़ी वजह यह थी कि यह राज्य केवल देश ही नहीं बल्कि पूरे विश्व में कपड़ा और जहाज़ निर्माण का एक प्रमुख केंद्र था। बंगाल के लोग रेशम, सूती वस्त्र, इस्पात, पोटैशियम नाइट्रेट और कृषि तथा औद्योगिक वस्तुओं का निर्यात करके अच्छी कमाई करते थे। बंगाल में नवाब सिराजुद्दौला के दरबारी गुटबंदी का लाभ उठाकर ईस्ट इंडिया कंपनी ने न केवल दस्तक का दुरूपयोग करना शुरू कर दिया था बल्कि कलकत्ता में अपने क़िलों का विस्तार करना शुरू कर दिया और अपने सैनिकों की संख्या बढ़ा दी। ईस्ट इंडिया कम्पनी की इस कार्रवाई से आशंकित होकर नवाब सिराजुद्दौला ने कंपनी को संदेश भेजा कि वह अपने क्षेत्र का विस्तार न करें। 

चेतावनी के बावजूद कंपनी ने नवाब की बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं दिया बल्कि इसके विपरीत नवाब के विरोधियों को सहायता और शरण भी दे रहे थे। लिहाजा नवाब सिराजुद्दौला ने कासिमबाजार पर अधिकार कर लिया, इसी दौरान काल कोठरी की दुर्घटना भी हुई। जब इसकी खबर मद्रास पहुंची तो वहां से लॉर्ड क्लाइव और वाटसेना सेना के साथ  पहुंचे और कलकत्ता और हुगली पर अधिकार कर इन्होंने 9 फरवरी 1757 को नवाब को अलीनगर की सन्धि करने पर बाध्य कर दिया, हांलाकि अंग्रेज इतने से संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने नवाब सिराजुद्दौला को गद्दी से हटाने का निश्चय किया और इसके लिए एक षड्यंत्र रचा गया नवाब के विरोधियों ने अंग्रेजों का साथ दिया।

षड्यंत्र के मुताबिक नवाब सिराजुद्दौला के से​नापति मीरजाफर के विश्वासघात के बदले उसे बंगाल का नया नवाब बनाना था। इसलिए क्लाईव ने नवाब सिराजुद्दौला पर अलीनगर की सन्धि भंग करने का आरोप लगाया और अंग्रेजी सेना लेकर युद्ध के लिए निकल पड़ा। 23 जून 1757 को प्लासी के मैदान में नवाब और अंग्रेजी सेना के बीच जंग हुई जिसमें मीरजाफर के विश्वासघात के कारण नवाब सिराजुद्दौला की हार हुई। मुर्शिदाबाद में सिराजुद्दौला को पकड़कर उसकी हत्या कर दी गई। शर्त के मुताबिक विश्वासघाती मीरजाफर को बंगाल का नया नवाब घोषित किया गया जो ईस्ट इंडिया कम्पनी का कठपुतली था, जिसके जरिए अंग्रेज अपनी जड़े मजबूत करते चले गए।

गौरतलब है कि प्लासी का युद्ध बंगाल में अंग्रेजी सत्ता की स्थापना का पहला चरण था जिसे 1764 में बक्सर के युद्ध ने पूरा कर दिया। बक्सर के युद्ध में बंगाल के नवाब, अवध के नवाब और मुगल सम्राट की सम्मिलित सेना को अंग्रेजों  ने निर्णायक रूप से परास्त कर दिया। इसके बाद मुगल सम्राट भी ईस्ट इंडिया कम्पनी के ​नियंत्रण में आ गया और भारतीय राजनीति पर अंग्रेजों का वर्चस्व कायम हो गया।