1453 ई. में कुस्तुनतुनिया पर तुर्कों का अधिकार हो जाने से पूर्वी और पश्चिमी देशों के मध्य सम्पर्क स्थापित करने वाले मार्ग भी तुर्क लोगों के अधीन आ गए। ऐसे में गरम मसालों के महत्व और भारत के विख्यात वैभव के लोभ से तथा यूरोप में सोने की अपर्याप्तता के कारण पश्चिमी यूरोपीय देश और व्यापारी, भारत तथा पूर्वी द्वीप समूह पहुंचने के नए और सुरक्षित मार्ग ढूंढने लगे। जिस प्रकार से 1498 में पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा ने उत्तमाशा अंतरीप से होकर भारत पहुंचने का एक नया समुद्री मार्ग खोज निकाला और पुर्तगाल ने तकरीबन एक शताब्दी तक पूर्वी व्यापार का एकाधिकार अपने हाथों में बनाए रखा तथा भारत के कोचीन, गोआ, दमन, दीव, हुगली आदि में व्यापारिक कोठियों की स्थापना की। ठीक उसी प्रकार भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से हालैण्ड में एमस्टरडम के व्यापारियों ने एक व्यापारिक कंपनी की स्थापना की, इस प्रकार डच नाविक भी उत्तमाशा अंतरीप पार करके 1595 ई. में भारत पहुंचे।
बता दें कि 1595 ई. में पहला डच जहाजी बेड़ा कोरनिलियन हाउतमैन के नेतृत्व में हालैण्ड से भारत के लिए चला और पूर्वी द्वीप समूहों से व्यापार कर 1597 में वापस लौट गया। इस व्यापारिक यात्रा से डचों को काफी लाभ हुआ। इससे उत्साहित होकर 20 मार्च 1602 ई. को राजकीय घोषणा के आधार पर ‘यूनाईटेड ईस्ट इंडिया कंपनी आफ दी नीदरलैण्ड’ (डच ईस्ट इंडिया कंपनी) अथवा ‘वेरिंगिदे ओस्त इण्डिशे कम्पनी’ की स्थापना की गई। हालैण्ड की संसद ने इस व्यापारिक कंपनी को 21 वर्षों तक भारत तथा पूर्व के देशों के साथ व्यापार करने का अधिकार दिया। इसमें युद्ध करने, सन्धि करने, प्रदेशों पर अधिकार करने तथा किलेबंदी करने का अधिकार भी शामिल था।
भारत में डचों ने मच्छलीपट्टनम (मसुलीपट्टनम) में 1605 ई. प्रथम डच कारखाने की स्थापना की। 1605 ई. में ही डचों ने पुर्तगालियों से अम्बोयना ले लिया तथा धीरे-धीरे उन्हें मसाला द्वीप समूह इण्डोनेशिया से हटाकर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया। 1610 ई. में पुलीकट में फैक्ट्री की स्थापना के लिए डचों ने चन्द्रगिरी के राजा से समझौता किया। पुलीकट में ही डचों ने अपने (स्वर्ण सिक्के) पगोडा ढाले। चूंकि इण्डोनेशिया से मसाले प्राप्त होने लगे, जिसके कारण इण्डोनेशिया ही डच कम्पनी का मुख्य केन्द्र बन गया। भारत के साथ मसाला व्यापार में डचों की विशेष रूचि नहीं रही। डच भारत से नील, शोरा, सूती वस्त्र, रेशम, शीशा और अफीम बाहर भेजते थे। इस क्रम में डचों ने भारत में कई महत्वपूर्ण व्यापारिक कोठियां स्थापित की जैसे- पुलीकट, सूरत, चिनसुरा, कासिम बाजार, पटना, बालासोर, बारानगर, नेगपट्टनम, कोचीन आदि। इन बस्तियों की स्थापना से पूर्वी द्वीप समूहों के मसाला व्यापार पर डचों का एकाधिकार रहा।
दूसरी तरफ अंग्रेज व्यापारी भी 16वीं सदी के अंत तक पुर्तगाल और स्पेन की जलशक्ति की सर्वश्रेष्ठता के चलते भारत पहुंचने के अन्य समुद्री मार्ग ढूंढते रहे लेकिन उन्हें असफलता हाथ लगी। 1579 ने ड्रेक ने संसार की परिक्रमा की और 1588 ई. में स्पेनिश आर्मेडा (जहाजी बेड़े) की पराजय के साथ अंग्रेजी जलशक्ति की श्रेष्ठता स्थापित हो गई। अब भारत और पूर्वी देशों तक पहुंचने के जल मार्ग सभी यूरोपीयों के लिए खुल गए।
डच-पुर्तगाल संघर्ष (Dutch-Portuguese conflict)
डचों के आगमन से पूर्व भारत में व्यापार पर पुर्तगालियों का एकाधिकार था। इस वजह से पुर्तगालियों के कारण डचों का व्यापार सुरक्षित नहीं रह सकता था। अत: डचों ने स्थानीय शासकों से मित्रता की और जनता को भड़काकर पुर्तगाली क्षेत्रों पर अधिकार करना शुरू कर दिया। 1605 में डचों ने पुर्तगालियों से अम्बयाना ले लिया और मसाले के द्वीप से उन्हें बाहर कर दिया।
1613 ई. में डचों ने पुर्तगालियों से जकार्ता को जीतकर बैटविया नामक नगर बसाकर उसे अपनी सत्ता का प्रमुख केन्द्र बना लिया। डचों ने 1641 में मलक्का और 1658 ई. में श्रीलंका जीतकर पुर्तगाली शक्ति को नष्ट कर दिया। 1664 ई. तक मालाबार तट पर पुर्तगालियों के अधिकांश क्षेत्र डचों के अधीन हो गए और इससे डचों की शक्ति का विस्तार हो गया।
डच-अंग्रेज संघर्ष (Dutch–Anglo conflict)
डचों ने पुर्तगालियों को तो भारतीय समुद्री व्यापार से निष्कासित कर दिया लेकिन वे अंग्रेजों के सामने नहीं टिक पाए। डचों की निरन्तर विस्तारवादी नीति के कारण अंग्रेजों के साथ उनका संघर्ष होना लाजिमी था। अंग्रेजों को मसाले के व्यापार से दूर रखने के लिए डच गर्वनर रेण्टा ने न केवल अंग्रेजों को दंडित किया बल्कि उन्हें ओम्बियाना से खदेड़ दिया। 1618 में डचों ने अंग्रेजों को थल और जल दोनों युद्धों में परास्त कर दिया।
साल 1819 में बाध्य होकर अंग्रेजों को डचों से सन्धि करनी पड़ी। सन्धि के कुछ समय पश्चात डचों ने लंतोर व नुलोरेन से अंग्रेजों को खदेड़ दिया। ओम्बियाना के डच गवर्नर बेंसपेल्ट ने डच किले पर हमला करने के झूठे आरोप में 18 अंग्रेजों को मृत्युदंड दे दिया। इस घटना के बाद अंग्रेजों ने अपना ध्यान मसाले के द्वीपों से हटाकर भारत की तरफ कर लिया। भारत में भी डचों और अंग्रेजों के बीच संघर्ष जारी रहा। आखिरकार अंग्रेजों ने नवम्बर 1759 ई. हुगली के निकट बेदारा के युद्ध में डचों को हराकर उन्हें भारत से खदेड़ दिया।
भारत में डचों के पतन के मुख्य कारण
भारत में डचों की पराजय का सबसे मुख्य कारण अंग्रेजों के मुकाबले उनकी कमजोर समुद्री शक्ति होना, डच कम्पनी का सीधे सरकार के नियंत्रण में होना तथा कंपनी के भ्रष्ट तथा अयोग्य अधिकारी थे।
बता दें कि हालैण्ड की सरकार उन दिनों यूरोप की राजनीति में बुरी तरह से फंसी हुई थी। हालैण्ड की सरकार को हमेशा इंग्लैण्ड और फ्रांस के साथ युद्धरत रहना पड़ रहा था, परिणास्वरूप हालैण्ड की सरकार भारत में मौजूद डच कम्पनी के आर्थिक हितों की रक्षा करने में असमर्थ हो गई और आवश्यकता पड़ने पर उसकी कोई सहायता नहीं कर पाई। डच कंपनी के अधिकारियों में देश के प्रति भक्ति की भावना का सर्वथा अभाव था। डच अधिकारी हमेशा अपने निजी स्वार्थपूर्ति में लगे रहते थे।
वहीं डचों के मुकाबले अंग्रेजों के पास विश्व की सर्वश्रेष्ठ जलशक्ति तथा योग्य कूटनीतिज्ञ अधिकारी मौजूद थे। अंग्रेजों ने डचों को अपनी दूरदर्शिता तथा व्यवहारिक योग्यता से इतना बाध्य कर दिया कि उन्हें भारत में अपना राज्य स्थापित करने का स्वप्न त्यागकर सिर्फ मसालों के द्वीप पर निर्भर रहना पड़ा।
भारत में डचों से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
— डच फैक्ट्रियों के प्रमुख को ‘फेक्टर’ कहा जाता था।
— डचों ने मसालों के स्थान पर भारतीय वस्त्रों (मुख्यत: सूती वस्त्र ) के निर्यात को अधिक महत्व दिया।
— भारत में पुलीकट स्थित गेल्ड्रिया के दुर्ग के अतिरिक्त किसी भी डच बस्ती की किलेबन्दी नहीं की।
— डच व्यापारी नील का निर्यात मसुलीपट्टनम से करते थे।
— चिनसुरा में डचों ने ‘गुस्तावुस’ नामक किले का निर्माण करवाया था।
— बेदारां की निर्णाय लड़ाई में डचों के विरुद्ध अंग्रेजी सेना का नेतृत्व ‘कर्नल फोर्ड’ ने किया था।
संभावित प्रश्न— भारत में डच शक्ति की स्थापना व यूरोपीय शक्तियों के साथ संघर्ष के अतिरिक्त उनके पतन के मुख्य कारणों की विस्तार से चर्चा कीजिए?