भारत का इतिहास

Description of foreign travelers in medieval Indian history

मध्यकालीन भारतीय इतिहास के प्रमुख स्रोत (स)

विदेशी यात्रियों का वर्णन

मध्यकाल में अनेक विदेशी यात्रियों का भारत में आगमन हुआ। इन यात्रियों ने अपने यात्रा विवरणों में भारत के तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। ये विदेशी यात्री उन तमाम घटनाओं के साक्षी रहें हैं जो उनके सामने ​घटित हुईं। बतौर उदाहरण-इब्नबतूता के ग्रन्थ रेहला से हमें सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ में सुल्तान के चरित्र, न्यायप्रियता, उसकी योजनाओं आदि का उल्लेख किया गया है। बर्नियर के ग्रन्थ से हमें भारत में रहने वाले हिन्दुओं के संबंध में अधिक सामग्री मिलती है। वहीं औरंगजेब के शासनकाल के वृत्तान्त के लिए मनुची का ग्रन्थ स्टोरिया डो मोगोर महत्वपूर्ण स्रोत है। इसी क्रम में हम कुछ अति प्रसिद्ध यात्रियों के यात्रा विवरणों के बारे में जानकारी प्रस्तुत कर रहे हैं।

1— इब्नबतूता; रेहला

अब्दुल्ला का पुत्र, शेख फकीह अबू अब्दुल्ला मुहम्मद जो भारतीय इतिहास में साधारणतया इब्नबतूता के ​नाम से विख्यात है। इब्नबतूता मोरक्को के तानजीर का निवासी था। पूर्वीय देशों में इब्नबतूता को शम्सउद्दीन के नाम से जाना जाता था। इब्नबतूता एक महत्वपूर्ण यात्री था जो 1333 ई. में मुहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में भारत आया। सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे काजी नियुक्त किया। इसी वजह से घनिष्ठ संबंध होने के कारण सुल्तान ने उसे राजदूत बनाकर चीन भेजा था। 

उसने उत्तरी अफ्रीका, अरब प्रदेश, फारस, कुस्तुनतुनिया आदि की यात्राएं की। इब्नबतूता के ग्रन्थ रेहला में उसकी विचित्र तथा आश्चर्यजनक यात्रा वृत्तान्त का पूर्ण विवरण प्राप्त होता है। अपनी वैदेशिक यात्रा के क्रम में इब्नबतूता आठ वर्ष तक दिल्ली में ही रहा। इब्नबतूता के ग्रन्थ रेहला में सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के पूर्ण विवरण के साथ ही दिल्ली के अन्य सुल्तानों का भी संक्षिप्त उल्लेख मिलता है।  चूंकि यह अफ्रीकी यात्री सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के 17 साल बाद भारत आया था, ऐसे में अलाउददीन के समय के कुछ लोग तब भी जीवित थे जिनसे इब्नबतूता ने महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त की।

मुहम्मद बिन तुगलक के कृपापात्र इब्नबतूता ने तत्कालीन सूफियों, दरवेशों, कवियों तथा विद्वानों का भी वर्णन किया है। उसके यात्रा विवरण से भारतीय भूगोल, उपज, वनस्पति, मार्ग दिशाओं, बन्दरगाहों तथा व्यापारिक केन्द्रों की जो जानकारी मिलती है, वह इतिहास के लिए अमूल्य है।

2— सर टामस रो

सर टॉमस रो प्रथम अंग्रेज यात्री था जिसे मुगल दरबार में व्यापा​रिक सुविधाएं मिली। वह 1615 ई. में मुगल बादशाह जहांगीर के शासनकाल में भारत आया था। वह अपने समकालीन यात्री वि​लियम हाकिन्स से अधिक शिक्षित था। सर टामस रो में व्यापारिक बुद्धि की प्रचुरता थी। चूंकि वह भारत आने से पूर्व कुस्तुनतुनिया का राजदूत रह चुका था इसलिए एशिया के सम्राटों के शिष्टाचार से भलीभांति परिचित था।

ईस्ट इंडिया कंपनी के संचालकों के मुताबिक सर टामस रो गहरी सूझबूझ का व्यक्ति, व्यवहार कुशल, पढ़ा-लिखा, परिश्रमी और दिखने में सुन्दर था। वह मुगल दरबार में तीन वर्ष तक रहा, यह जहांगीर के शासनकाल की एक महत्वपूर्ण घटना थी।

जहांगीर के दरबार में रहते हुए सर टामस रो ने कई महत्वपूर्ण संधियों के प्रारूप तैयार किए थे, उनमें से एक संधि का प्रारूप कुछ इस प्रकार से था- “अंग्रेजों को मुगल सम्राट के सभी बन्दरगाहों में बंगाल तथा सिन्ध के बन्दरगाहों में भी स्वतंत्रतापूर्वक आवागमन की छूट होगी। उनके माल पर सामान्य चुंगी को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार का कर नहीं लगेगा। उन्हें इच्छानुसार बेचने-खरीदने, गोदाम किराए पर लेने, नावों तथा गाड़ियां भाड़े पर करने तथा रसद खरीदने का अधिकार होगा। अन्य शर्तें यह भी थी कि अंग्रेज व्यापारियों की संपत्ति जब्त नहीं की जाएगी, तट पर जाने वाले व्यापारियों की तलाशी नहीं ली जाएगी साथ ही सम्राट के लिए जो भी उपहार भेजा जाएगा उसे खोलकर नहीं देखा जाएगा तथा चुंगी कार्यालयों में विलम्ब नहीं किया जाएगा।उपरोक्त व्यापारिक प्रारूप से पता चलता है कि सर टामस रो ने ईस्ट इंडिया कंपनी के एजेन्टों, अधिकारियों तथा व्यापा​रियों को हिन्दुस्तान में वह प्रतिष्ठा दिला दी जिसके बाद से अंग्रेजी शक्ति का विस्तार होता चला गया।

स्पष्ट है कि सर टामस रो ने जहांगीर के शासनकाल का विशद वर्णन किया है। उसके यात्रा वृत्तांत से ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ मुगलों के व्यापारिक संबंधों के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है। वास्तव में देखा जाए तो अंग्रेज राजदूत के रूप में मुगल दरबार में प्राप्त सम्मान का प्रथम हकदार सर टामस रो ही था।

3— फ्रेंकोई बर्नियर; ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर

 कृषक माता-पिता के पुत्र फ्रेंकोई बर्नियर का जन्म 1620 ई. में फ्रांस के जोई गांव में हुआ था। 1647 से 1650 के मध्य उसने उत्तरी जर्मनी, पोलैंड, ​स्विटजरलैण्ड और इटली की यात्राएं की। फ्रेंकोई बर्नियर ने उच्च शिक्षा प्राप्त करते हुए औषधि विज्ञान में योग्यता अर्जित की। वह 1654 ई. में मिस्र के काहिरा में तकरीबन एक वर्ष तक रहा। इसी बीच उसने हिन्दुस्तान की ओर रवाना होने का विचार किया। एक लम्बी यात्रा के पश्चात 1658 ई. में वह सूरत बन्दरगाह पहुंचा। सूरत से आगरा जाते समय अहमदाबाद में उसकी मुलाकात शाहजहां के ज्येष्ठ पुत्र दाराशिकोह से हुई। इसके बाद दाराशिकोह ने उसे अपना निजी ​चिकित्सक नियुक्त किया।

दाराशिकोह के उत्तराधिकार युद्ध में पराजित होने तथा औरंगजेब के बादशाह बनने के बाद बर्नियर मुगल अमीर दानिशमन्द खां के संरक्षण में 1660 से 1665 तक दिल्ली, लाहौर तथा कश्मीर आदि की यात्राएं करता रहा। औरंगजेब के दरबार में कई वर्ष व्यतीत करने के कारण उसके राजनीतिक संसाधनों में कमी नहीं आई लिहाजा उसका डायरी एक ग्रन्थ के रूप में ‘Histoire dela derniere Revolution des Etats du Grand Mogul’ (The Travels in the Mughal Empire) नाम से प्रकाशि​त हुआ।

फ्रेंकोई बर्नियर ने अपने ग्रन्थ में दाराशिकोह तथा औरंगजेब के बीच उत्तराधिकार युद्व से जुड़ी घटनाओं का विस्तृत वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त उसके विवरणों में शाहजहां को कैद से मुक्त कराने का प्रयास, पुर्तगालियों का दरबार में आना, मुगल दरबार की प्रमुख घटनाएं, शिवाजी की सूरत लूट का विस्तार से उल्लेख मिलता है।

निष्कर्षत: मुगल काल की कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं, आर्थिक स्थिति तथा भारतीय जीवन दर्शन को जानने के लिए बर्नियर का ग्रन्थ द ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर एक महत्वपूर्ण साधन है।

4— निकोलाओ मनूची; स्टोरिया डो मोगोर (History of Mughal India)

निकालाओ मनुची का जन्म इटली के प्रख्यात शहर वेनिस में 1639 ई. में हुआ था। वह 14 वर्ष की उम्र में घर से भाग गया और विसकाउन्ट बैलेमाउन्ट की सेवा में उ​पस्थित हुआ। वह जनवरी 1656 ई. में विसकाउन्ट के साथ सूरत बन्दरगाह पहुंचा। तीन महीने बाद वह सूरत से रवाना हुआ और बुरहानपुर, ग्वा​लियर होता हुआ मथुरा पहुंचा। इसके बाद जैसे ही वह मथुरा से दिल्ली के रवाना हुआ मार्ग में ही विस्काउन्ट बैलेमाउन्ट की मौत हो गई जिससे मनूची बेसहारा हो गया।

दिल्ली पहुंचने के बाद मनूची को दाराशिकोह ने अपने तोपखाने में नियुक्त कर दिया। मुगल उत्तराधिकार युद्ध में उसने औरंगजेब के खिलाफ दारा की ओर से भाग लिया। दाराशिकोह के पराजित होते ही उसने आगरा की तरफ पलायन किया और औरंगजेब की सेना में शामिल हुआ। हांलाकि बाद में एक बार फिर से दारा की सेवा में चला गया। भक्खर और मुल्तान में भी वह दाराशिकोह के साथ रहा, वह दाराशिकोह के तोपखाने का प्रधान तोपची था। हांलाकि दारा के वध के पश्चात वह पुन: औरंगजेब के पक्ष में शामिल हो गया। औरंगजेब से असंतुष्ट होने की स्थिति में उसने कश्मीर, पटना, राजमहल, ढाका, कासिमबाजार की यात्रा की। आखिरकार एक बार फिर से वह दिल्ली लौट आया। उसने कुछ समय तक दिल्ली और आगरा में बतौर चिकित्सक भी कार्य किया। 

मनूची का महत्वपूर्ण ग्रन्थ स्टोरिया डो मोगोर जिसे हिस्ट्री आफ द मुगल्स भी कहा जाता है। भारतीय इतिहास का एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज है। यह ग्रन्थ इटालियन, पुर्तगाली और फ्रेंच भाषाओं में लिखा गया है। मनूची ने इस ग्रन्थ प्रत्यदर्शी घटनाओं के बारे में लिखा है। स्टोरिया डो मोगोर को पांच भागों में बांटा जा सकता है।

प्रथम भाग में मनूची ​के वेनिस से दिल्ली आने तक विवरण, इसके अतिरिक्त तैमूर से लेकर दाराशिकोह तथा औरंगजेब के बीच उत्तराधिकार युद्ध तक मुगल शासकों का वर्णन है। इस ग्रन्थ के दूसरे भाग में औरंगजेब के शासनकाल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन है। इसी भाग में जयसिंह के साथ मनूची के द्वारा शिवाजी के विरुद्ध युद्ध में भाग लेने, शिवाजी को अपनी आंखों से देखने तथा पुरन्दर की सन्धि एवं शर्तों का भी वर्णन है। स्टोरिया डो मोगोर के तीसरे भाग में मुगल बादशाह, दरबार व्यवस्था, राजकीय प्रबंध, हरम का विवरण, गुलामों के नाम, सैनिक व्यवस्था, प्रान्त की सूचनाएं, आवागमन के मार्ग मद्रास, पांडीचेरी और गोआ का विवरण है।

चतु​र्थ भाग में मुगल दरबार में 1701 में घटित घटनाओं का विवरण है। जिसमें जोरिस नामक अंग्रेज राजदूत का आगमन, जेसुइट पदा​धिकारियों का आना, मद्रास नगर का विवरण है। ग्रन्थ के पांचवे भाग में उसने विभिन्न विषयों पर प्रकाश डाला है जिसमें उसके अनुभवों, कुछ कहानियों तथा धर्म संबंधी चर्चा को अधिक विस्तृत किया गया है। गौरतलब है कि औरंगजेब के शासनकाल संबंधित विवरण विश्वसनीय एवं प्रमाणिक है, इस दृ​ष्टिकोण से मनूची का ग्रन्थ स्टोरिया डो मोगोर एक मूल्यवान ऐतिहासिक स्रोत है।

5— एडवर्ड टैरी

सर टामस रो के पादरी का नाम एडवर्ड टैरी था। वह टामस रो के साथ मांडू और फिर वहां से अहमदाबाद चला गया। उसने विशेषकर मालवा और गुजरात के बारे में ही लिखा है। एडवर्ड टैरी को मांडू में जहांगीर को देखने का अवसर मिला। वह लिखता है कि पादशाह कभी न्यायप्रिय और दयालु लगता था तो कभी उसमें भयानक क्रूरता भी देखने को मिली, वह दो विपरीत गुणों का मिश्रण था।

एडवर्ड टैरी अपने विवरण में जहांगीर के बारे में लिखता है कि दुनिया में शायद ही कोई ऐसा पादशाह होगा जो ऐसे महंगे वस्त्र और हीरे-जवाहरात रोज ही बदलता हो। उसके विवरण से पता चलता है कि पादशाह जहांगीर कहीं भी स्थित हो, उसके लिए गंगा जल की व्यवस्था की जाती थी, इसके लिए अलग से कर्मचारी नियुक्त थे। गंगाजल को सुन्दर तांबे के बर्तनों में लाया जाता था।

एडवर्ड टैरी ने मुगलकालीन सिक्कों, मुगल छावनियों, लड़ाई के साजो-समान जैसे तोप, गोले, नगाड़ों के अतिरिक्त मुगल महिलाओं के पहनावों तथा हिन्दू-मुसलमानों की सामाजिक और धार्मिक संस्कृति के अलावा उनके भोजन, पहनावे तथा भारत में पैदा होने वाली फसलों तथा फलों के बारे में भी उल्लेख किया है।

6— राल्फ फिच

राल्फ फिच पहला अंग्रेज यात्री है जिसने भारत के लोगों के बारे में, उनकी वेशभूषा और रीति-​रिवाजों के बारे में लिखा है। वह भारत में 1588-91 के बीच रहा। उसने हुगली, चिटगांव, पेगू और श्याम तक यात्राएं की। राल्फ ​फिच के अनुसार, गुजरात का मुख्य शहर खंभात था। वह आगरा और फतेहपुर सीकरी के बारे में लिखता है कि ये दोनों शहर आकार में तब के लंदन से बड़े और अधिक आबादी वाले शहर थे।

राल्फ फिच लिखता है कि बनारस में नदी किनारे बहुत से मंदिर थे तथा यह शहर सूती कपड़ों के निर्माण का भी बड़ा केन्द्र था। वह पटना के बारे में लिखता है कि यहां रूई, बंगला चीनी और अफीम का बाजार था। पटना के पास सोने की खानें थीं। फिंच ने गोलकुंडा के जनजीवन और गंगा घाटी के नि​वासियों के बारे में महत्त्वपूर्ण बातें लिखी हैं।

राल्फ फिच बाल विवाह के बारे में लिखता है कि यह एक बहुप्रचलित थी। उसने विवाह के साथ-साथ धार्मिक मान्यताओं और अंधविश्वासों का भी विस्तार से विवरण दिया है। गुजरात के बारे में उसने ​उल्लेख किया है कि यदि विधवा चाहती तो उसे अपने मृत पति के साथ सती होने दिया जाता था, किन्तु ऐसा करने से मना करने पर उसे जबरदस्ती सती होने के लिए मजबूर नहीं किया जाता था। उस दशा में केवल उसका सिर मूंड़ दिया जाता था। यही प्रथा बनारस में भी थी। राल्फ फिच ने मुगल दरबार तथा तत्कालीन मुगल पादशाह का प्रासंगिक उल्लेखमात्र ही किया है।

7— विलियम हाकिन्स

विलियम हाकिन्स ईस्ट इंडिया कंपनी  का कर्मचारी होने के साथ-साथ एक व्यापारी भी था। वह भारत में 1608 से 1613 तक रहा था। वह फारसी का ज्ञाता था, उसे जहांगीर की शराब पार्टियों में आमंत्रित किया जाता था। विलियम हाकिन्स से जहांगीर बहुत प्रभावित था, इसलिए उसके द्वारा जहांगीर के व्यक्तित्व और दिनचर्या के विषय में लिखे गए विवरण अत्यधिक विश्वसनीय हैं।

विलियम हा​किन्स के मुताबिक जहांगीर के हरम का दैनिक खर्च लगभग तीस हजार रूपए था। वह लिखता है कि पादशाह खजाने और शेरों को छोड़कर अन्य सभी का प्रतिदिन निरीक्षण करता था। किसी अमीर के मरने पर सारी संपत्ति पर पादशाह का अधिकार हो जाता था। आगरा में पादशाह की अनुमति के बिना कोई भी स्त्री सती नहीं हो सकती थी।

हाकिन्स ने पादशाह की संपत्ति से जुड़ा विवरण भी दिया है जिसमें हीरे-जवाहरात, अस्त्र-शस्त्र तथा हीरे-जवाहरात से मंडित हौदे काठियां, कीमती बर्तन, कीमती सुराहियां, कटोरे, शराब, पीने के प्याले, सीनी आदि शामिल थे।

हाकिन्स का चांदी से जुड़ा कथन ध्यान देने योग्य है- “भारत में चांदी के मामले में बहुत ही समृद्ध है, क्योंकि सभी देशों के व्यापारी अपने सिक्कों के बदले में यहां से माल ले जाते हैं। चांदी यहां आती है, यहां से जाती नहीं है। यह कथन एक प्रकार से भारत में व्यापार और वाणिज्य की उन्नत स्थिति का परिचायक है। गौरतलब है कि व्यापारी यहां से माल खरीदने को स्वत: आते थे, भारतीय व्यापारियों को माल खरीदने और बेचने या उसका प्रचार-प्रसार के लिए कहीं नहीं जाना पड़ता था। यह सुविधा केवल भारतीय व्यापारियों को ही थी।

8— पियेत्रा देला वाले

इतावली यात्री पियेत्रा देला वाले 1622 ई. में सूरत पहुंचा। उसने कैम्बे, अहमदाबाद, चाल, गोवा, इक्कड़ी और मंगलूर और कालीकट तक की यात्राएं की। हांलाकि उसे मुगल भारत के केवल तीन शहरों सूरत, अहमदाबाद और खंभात देखने का ही अवसर मिला।

वह लिखता है कि सूरत का चुंगीघर दोगाना कहलाता था। इस शहर के अधिकारी प्रत्येक माल की गहनता से जांच करते थे, बिना लाइसेंस के वे किसी भी सामान को नहीं लाने देते थे। उसने अहमदाबाद की कारवां-सराय व्यवस्था के बारे में ​भी लिखा है। अहमदाबाद शहर की कुछ गलियां यात्रियों आदि के लिए नियत कर दी जाती थीं। इनमें स्थित मकान आदि में यात्री ठहरते थे। रात्रि में गलियों के दरवाजों पर ताले लगा दिए जाते थे, ताकि समान सुरक्षित रहे। पियेत्रा के मुताबिक अहमदाबाद की कुछ सराएं फारस शैली की भी थीं। वह खंभात में लंगड़े तथा बीमार पशु-पक्षियों के अस्पताल होने का उल्लेख करता है। यह ​इतालवी यात्री गुजरात के उच्च वर्गीय हिन्दू-मुसलमानों के बारे में लिखता है कि सभी अपने-

अपने स्तर के हिसाब से बारीक या मोटे सूती वस्त्र पहनते थे। वह चूड़ीदार पायजामा के बारे में लिखता है कि जिनके पायजामें में जितनी अधिक चूड़ियां या सिलवटें होती थीं, उन्हे उनकी उतनी ही अधिक बहादुरी का प्रतीक माना जाता था। वह लिखता है कि मुसलमान महिलाएं सफेद और सादे कपड़े पहनती थीं या फिर सुनहरी बेलबूटेदार। जबकि हिन्दू महिलाएं लाल रंग के वस्त्र पहनती थीं, या फिर सूती छींट पहनती थी जिस पर अनेक रंगों की छपाई होती थी।

पियेत्रा देला वाले ने लिखा है कि महावीर स्वामी के मंदिर के प्रति लोगों में अपार श्रद्धा ​थी। उसने नागौर में ब्रह्मा मंदिर होने का भी जिक्र किया है, जिसमें संगमरमर की अनेक मूर्तियां थी। सबसे बड़ी मूर्ति के अनेक हाथ और अनेक मुख थे। उसने मूर्ति की लंबी नुकीली दाढ़ी और मोटी तोंद का भी उल्लेख किया है। उसने सूरत में बट वृक्ष की पूजा का भी वर्णन किया है। 

9— जीन बैप्टिस्ट टेवर्नियर

पेशे से जौहरी फ्रांसीसी यात्री जीन बैप्टिस्ट तेवर्नियर शाहजहां के काल में भारत आया था। वह एक साहसिक नाविक था, उसने छह बार हिन्दुस्तान की यात्रा की थी। तेवर्नियर ने अपनी पहली दो यात्राओं में पूरा हिन्दुस्तान छान मारा था। प्रथम यात्राकाल में उसने सूरत, बुरहानपुर, आगरा, ढाका, गोवा तथा गोलकुंडा की यात्रा की थी। जबकि दूसरी यात्रा में वह दौलताबाद- नान्देर मार्ग से गोलकुंडा पहुंचा था और गोलकुंडा स्थित हीरे की खानों के अतिरिक्त गनी या कोलूर के खानों की भी यात्रा की थी।

तेवर्नियर ने शाइस्ता खां द्वारा आर्डर किए गए माल की आपूर्ति के लिए उसने 1657 में हिन्दुस्तान की यात्रा की। उसके पास अनेक दुर्लभ वस्तुएं थीं जिसे उसने शाइस्ता खां को बेच दिया। कार्य संपन्न होने के बाद उसने पर्याप्त समृद्धि प्राप्त कर ली थी, ऐसे में जब वह स्वदेश लौटा तब लुई चौदहवें द्वारा उसे कुलीनता की पदवी से सम्मानित किया। तेवर्नियर जिनेवा के नि​कट औबोन की बैरोनी को खरीद लिया और वहां आराम व एश्वर्य से रहने लगा। यहीं पर उसने अपनी यात्रा वृत्तांत के प्रकाशन का विचार किया। 1675 में उसका यात्रा वृत्तांत ‘Nouvelle Relation du Searcilda Grand Signior’  नाम से प्रकाशित हुआ।

80 वर्ष की आयु में तेवर्नियर ने सन 1686 में हिन्दुस्तान की अंतिम यात्रा की, इस यात्रा के दौरान उसने औरंगजेब और उसके अमीरों से भेंट की। उसने पादशाह को अपने सबसे कीमती जवाहरात बेचने में सफलता प्राप्त की। दो महीने तक जहानाबाद में रहने के बाद आगरा होते हुए वह सूरत पहुंचा। चूंकि यह उसकी अंतिम यात्रा थी, इसलिए अब वह अपनी मेहनत की कमाई से सुख-चैन से जीवन बिताने लगा।

आर्थिक तथा व्यापारिक लिहाज से तेवर्नियर के यात्रा वृत्तांत काफी महत्वपूर्ण हैं। उसने गरम मसाले, जहरमोहरा, स्नैक-स्टोन, कस्तूरी, नील, हाथीदांत आदि के क्रय-विक्रय के तरीकों का वर्णन किया है। उसने जवाहरात और मोतियों के बारे में अत्यन्त स्पष्ट विवरण लिखा है।

शाही दरबार में उठने-बैठने के कारण उसे कोहिनूर को देखने-परखने का अवसर मिला था। उसने शाइस्ता खां के चरित्र चित्रण के अतिरिक्त मीर जुमला की प्रशासनिक कुशलता तथा व्यापार संचालन के प्रशंसनीय तरीकों का उल्लेख किया है। तेवर्नियर ने अपने यात्रा विवरण में मंदिरों, मस्जिदों, उपासना के तरीकों तथा मंदिरों से जुड़े अनके उत्सवों का वर्णन किया है। इसी प्रकार से हिन्दुओं के उत्सवों, शोभा यात्रा का उसने बड़ा ही रोचक वर्णन किया है।

बता दें कि जिस समय तेवर्नियर हिन्दुस्तान में मौजूद था, उस समय डच कंपनी दक्षिणी-पूर्वी एशिया में सर्वश्रेष्ठ व्यापारिक कंपनी थी। उसने अपने विवरण में स्पष्ट लिखा है कि डच दक्षिण भारत में एक प्रमुख शक्ति के रूप में उभर रहे थे उपर्युक्त तथ्यों को भांप लेना किसी मामूली व्यक्ति का काम नहीं ​था। गौरतलब है कि तेवर्नियर का यात्रा वृत्तांत मुगल साम्राज्य के आर्थि​क इतिहास की जानकारी के लिए बेहद महत्वपूर्ण है।

10— फ्रांसिस्को पेलसार्ट

फ्रांसिस्को पेलसार्ट एक डच फैक्टर था, जो जहांगीर के काल में आगरा में रहता था। उसने भारत के अनेक जगहों की सामाजिक तथा आर्थिक परिस्थितियों का बहुत ही रोचक वर्णन किया है। उसका वर्णन एक रिपोर्ट है जो उसने डच कंपनी के निदेशकों को भेजा था ताकि उससे दक्षिण एशिया और यूरोप में डचों को व्यापार में लाभ पहुंचाने की संभावना जानने में मदद मिल सके।

पेलसार्ट ने भारत में मसुलीपत्तनम से प्रवेश किया और पूरे उपमहाद्वीप के अधिकांश महत्वपूर्ण स्थानों का भ्रमण किया। गुजरात के कपड़ों की अनेक किस्मों तथा उत्पादन के अनेक केन्द्रों तथा पटना और बंगाल जैसे दूरस्थ स्थानों से अथवा गुजरात के दक्षिण पश्चिम में​ स्थित मालाबार से कच्चे माल के आयात के बारे में लिखा है।

डच यात्री पेलसार्ट ने लाहौर का व्यापारिक केन्द्र के रूप में जिक्र किया है। वह लिखता है कि मुल्तान और थट्टा जो वस्त्र उद्योग, चीनी, सल्फर और नील के लिए प्रसिद्ध थे। उसने आगरा शहर की बनावट तथा वहां के अमीर-गरीबों के घर, लोगों के खान-पान की आदतों तथा अलग-अलग वस्तुओं के बाजार के बारे में वर्णन किया है। पेलसार्ट ने उन सभी मार्गों का जिक्र किया है जो आगरा को उत्पादन के महत्वपूर्ण केन्द्रों से जोड़ते थे। उसने महत्वपूर्ण केन्द्रों के रूप में जौनपुर, बनारस, अवध, लखावर, पटना, सूरत आदि का उल्लेख किया है। 

भारतीय व्यापारी मसाले के व्यापार में डचों से होड़ करते समय क्या-क्या तरीके अपनाते थे, इसका वर्णन किया है। उसने डच कंपनी के निदेशकों को यह सलाह दी थी कि उन्हें भारत में मसाले का व्यापार किस तरह से व्य​वस्थित करें ताकि अधिकतम लाभ कमाया जा सके और इस लाभ को भारतीय वस्त्रों तथा नील के व्यापार में निवेश कर सकें। पेलसार्ट ने नील उत्पादन विशेषकर बयाना के नील उत्पादन के बारे में जो कुछ भी लिखा है, वैसा वर्णन कहीं नहीं मिलता है।