भारत का इतिहास

Complete History of Shaivism in india

शैव धर्म का सम्पूर्ण इतिहास : एक अध्ययन

भगवान शिव के उपासक शैव कहे गए और इनसे सम्बन्धित धर्म को शैव धर्म कहा गया। शैव धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म है। प्राचीन भारतीय इतिहास में सिन्धु घाटी सभ्यता से शैव धर्म की शुरूआत मानी जाती है। मोहनजोदड़ों से प्राप्त एक मुद्रा पर अंकित मूर्ति को इतिहासकार मार्शल ने शिव का प्रारम्भिक रूप प्रमाणित किया है।

भारत के सबसे प्राचीन वेद ऋग्वेद में शिव का नाम रुद्र मिलता है। वह अंतरिक्ष के देवता थे। ऋग्वेद के तीन सूक्तों में रुद्र का वर्णन मिलता है। वहीं उत्तर वैदिक काल के तैत्तिरीय संहिता में इनका नाम शिव प्राप्त होता है।

अथर्ववेद एवं श्वेताश्वर उपनिषद में शिव का एक नाम महादेव मिलता है। रुद्र की पत्नी के रूप में पार्वती का नाम तैत्तिरीय आरण्यक में मिलता है। तैत्तिरीय आरण्यक में ही अम्बिका का रुद्र की भगिनी के रूप में उल्लेख है।

शिव की उपासना लिंग रूप में भी की जाती है, सिन्धु घाटी सम्भयता से इसकी प्राचीनता तय की जाती है। शिव की सबसे प्राचीन मूर्ति पहली शताब्दी में मद्रास के निकट रेणुगुंटा स्थित प्रसिद्ध गुडिमल्लम लिंग के रूप में प्राप्त हुई है।

शैव धर्म का विकास

वैदिक काल में शिव

ऋग्वेद में ​भगवान शिव के लिए रुद्र शब्द का प्रयोग हुआ है। वैदिक रुद्र का पहला रूप संहारक है जबकि दूसरा बिल्कुल सौम्य। अथर्ववेद में रुद्र के विनाशकारी रूप को ही अधिक महत्व दिया गया। अथर्ववेद में भव और शर्व नामक छोटे देवों को कुछ मंत्रों में रुद्र में ही विलीन कर दिया गया है। यह रुद्र के निरन्तर बढ़ते प्रभाव का सूचक है। यजुर्वेद में भी रुद्र के भयंकर रूप पर और अधिक बल दिया गया। अब उन्हें किवि’ (विध्वंसक) तथा दौर्वात्य’ (उच्छृंखल आचरण )की संज्ञा दी गई।

उत्तर वैदिक काल में शिव

उत्तर वैदिक काल में रुद्र की विशिष्टता में वृद्धि हुई एवं उनके दो रूपों की कल्पना की गई- शिव एवं रुद्र। अपने शांत मंगलमय रूप में वह शिव कहलाए तथा विनाशक एवं उग्र रूप में रुद्र कहलाते थे। कौषीतिकी व शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ से पता चलता है कि प्रजापति द्वारा रखे गए उनके आठ नामों में से चार विध्वंसकारी नाम-रुद्र, शर्व, उग्र और अशनि तथा चार कल्याणकारी नाम- भव, पशुपति, महादेव और ईशान थे।

शतरुद्रीय स्तोत्र में शिव, शंकर, शिवतर आदि नामों का उल्लेख है। पर्वत पर शयन करने के ​कारण उन्हें गिरीश, गिरित्र, गिरिचर, गिरिशय आदि भी कहा जाता है। इसके साथ ही चर्म धारण करने के कारण उन्हें कृत्तिवासन की संज्ञा दी गई।

सूत्र ग्रन्थ-

सूत्र ग्रन्थों में रुद्र की स्तुति में 12 नाम मिलते हैं। शतपथ ब्राह्मण के आठ नामों में से अशनि के अतिरिक्त शेष सात तथा हर, ​मृड, शिव, भीम तथा शंकर ये पांच नाम और मिलते हैं। अब उनके साथ इंद्राणी, रूद्राणी, शर्वाणी और भवानी नामक चार नामों की कल्पना की गई।

रामायण व महाभारत में शिव

रामायण में शिव से सम्बद्ध अनेक कथाएं मिलती हैं, जैसे-विषपान, गंगावतरण, मदनदहन, शिव-पार्वती विवाह, स्कन्द जन्म (कार्तिकेय) आदि। रामायण में शिव को और वृषध्व की उपाधियों से विभूषित किया गया है। शिव के परिचर नन्दी का उल्लेख भी सर्वप्रथम रामायण में ही हुआ है।

लिंग पूजा का प्रथम उल्लेख मत्स्य पुराण तत्पश्चात महाभारत के अनुशासन पर्व में मिलता है। महाभारत युग में शिव की पूजा मानवाकार और लिंगाकार दोनों रूपों में होती थी। इनका कापालिक रूप भी महाभारत में वर्णित है। पाणिनी की अष्टाध्यायी के बारे में कहा जाता है कि पाणिनी के 14 सूत्र महादेव के डमरू से उत्पन्न हुए हैं। पौराणिक युग में शिव की महत्ता परब्रह्म के रूप में स्थापित हुई।

भारतीय इतिहास में शैव सम्प्रदाय

मौर्य युग-  ऐतिहासिक रूप से शिव पूजा का उल्लेख सर्वप्रथम मेगस्थनीज ने किया है। मेगस्थनीज लिखता है कि शूरसेन (मथुरा) शिव की पूजा करता था। मेगस्थनीज ने शिव का उल्लेख डायोनि​सस नाम से किया है।

आचार्य कौटिल्य ने भी शिव पूजा का उल्लेख किया है। कल्हड़ कृत राजतंरगिणी के मुताबिक, सम्राट अशोक का पुत्र जालौक शैव धर्म का अनुयायी था। पतंजलि के महाभाष्य से पता चलता है कि परवर्ती मौर्य सम्राट शिव तथा स्कन्द यानि कार्तिकेय की मूर्तियां बनाकर बेचते थे।

मौर्योत्तर काल- मौर्योत्तर काल में कुषाण शासक विम कडफिसस की मुद्राओं पर त्रिशूलधारी शिव और नन्दी के चित्र का अंकन मिलता है तथा पृष्ठ भाग पर महेश्वर अंकित है। यह शैव धर्म से सम्बन्धित प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य है। कुषाण शासक हुविष्क की मुद्राओं में शिवलिंग का चित्रण मिलता है। शैव धर्म का एक सम्प्रदाय के रूप में उदय शुंग-सातवाहन काल में पतंजलि के महाभाष्य में शिव भागवत नाम से हुआ है।

गुप्त युग - गुप्त युग में शैव धर्म बेहद उन्नत अवस्था में था। संस्कृत के महान कवि कालीदास शैव उपासक थे। कालीदास की रचना कुमारसम्भव में कुमार यानि स्कन्द (कार्तिकेय) के जन्म का वर्णन है। इसी महाकाव्य में शिव और शक्ति के सम्मिलित स्वरूप अर्धनारीश्वर की कल्पना की गई है। इसी ग्रन्थ में कालिदास ने तीन ज्योर्तिलिंगों- गोलागकर्णनाथ (लखीमपुर खीरी), महाकाल (उज्जैन), काशी विश्वनाथ (बनारस) का वर्णन किया है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय का मंत्री वीरसेन शैव धर्म का अनुयायी था। इसने उदयगिरी पर्वत पर शैव अनुयायियों के निवास के लिए एक गुफा का निर्माण करवाया। कुमारगुप्त के मंत्री पृथ्वीसेन के बारे में उल्लेख है कि उसने शैव धर्म के विकास के लिए काफी धन दान में दिया।

कुमारगुप्त के सिक्कों पर मयूर पर बैठे कार्तिकेय को दर्शाया गया है। नचना कुठार में पार्वती मंदिर तथा भूमरा से शिव मंदिर प्राप्त हुए हैं। समुद्रगुप्त के समय की प्रयाग प्रशस्ति में शिव की जटा से गंगा निकलने का उल्लेख मिलता है। अर्द्धनारीश्वर की मूर्ति का निर्माण गुप्तकाल में प्रारम्भ हुई। गुप्तकाल में हरिहर की अनेक मूर्तियां प्राप्त होती हैं। इसमें हरि का तात्पर्य विष्णु तथा हर का तात्पर्य शिव से है।  गुप्तकाल में ही त्रिमूर्ति के रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की उपासना प्रारम्भ हुई।

गुप्तोत्तर काल- महाकवि भारवि की रचना किरातार्जुनीयम में किरात वेशधारी शिव और अर्जुन के बीच युद्ध का वर्णन है। हर्षवर्धन के बांसखेड़ा और मधुबन ​अभिलेखों में उल्लेख मिलता है कि शासन के प्रारम्भ में हर्षवर्धन शैवधर्म का अनुयायी था।

हर्षवर्धन के समय में चीनी यात्री ह्नेसांग​ भारत आया था वह लिखता है कि काशी शैव धर्म का प्रमुख केन्द्र था जहां पर सौ से अधिक मंदिर थे। हर्षवर्धन के समकालीन शासक गौड़ नरेश शशांक और कामरूप के राजा भास्करवर्मा ने भी शैव धर्म अपनाया था।

राजपूत काल- राजपूत युग में काशी के बाद उज्जैन शैव धर्म का दूसरा प्रमुख केन्द्र बना। पाल, चंदेल एवं सेन वंश के ज्यादातर अभिलेख ॐ नमः शिवाय से ही शुरू होते हैं। चंदेलों के समय ही धंग ने कंदरिया महादेव का निर्माण करवाया।

गुजरात के सौराष्ट्र प्रान्त में स्थित प्रसिद्ध सोमनाथ मंदिर को महमूद गजनवी ने नष्ट कर दिया। इसके बाद परमार शासक भोज एवं अन्हिलवाड़ के चालुक्य शासक कुमारपाल ने सोमनाथ का पुनर्निर्माण करवाया। चालुक्य शासक जयसिंह सिद्धराज ने तो सोमनाथ जाने वाले यात्रियों से तीर्थयात्रा कर लेना भी बन्द कर दिया।

दक्षिण भारत में शैव सम्प्रदाय

दक्षिण भारत में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाले संतों को नयनार कहा गया। इनकी कुल संख्या 63 थी। इनका प्रारम्भिक काल पल्लवों के समय में मिलता है। दक्षिण भारत के प्रमुख नयनार संत निम्नलिखित हैं-

1.सम्बन्दर- यह सबसे महान नयनार संत था। इसने जैनियों को मदुरा में वाद-विवाद में हराकर राजा समेत प्रजा को शैव धर्म में दीक्षित किया तथा 8000 जैनियों को सूली पर चढ़वा दिया।

2.अप्पर या तिरूनावुक्रशु- इसने पल्लव शासक महेन्द्रवर्मन को शैव धर्म में दीक्षित किया था जो प्रारम्भ में जैन था। अप्पर भी नयनार बनने से पहले जैन धर्म का उपासक था।

3. नम्बि-आण्डार-नम्बि- यह चोल शासक राजराज प्रथम के समय का था। इसने नयनारों की रचनाओं का तमिल भाषा में संग्रह किया। ये संग्रह तिरूमुडे कहे जाते हैं। इनकी संख्या 11 है।

4. सुन्दरमूर्ति- इसे तम्बिरानतोलन (ईश्वर मित्र) की उपाधि दी गई।

5. मणिक्कवाचकर- इस नयनार ने चिदम्बरम में लंका के बौद्धों को वाद-विवाद में पराजित किया।

6. आदनूर या अक्कादेवी- यह एकमात्र महिला नयनार थी।

शैव सिद्धान्त

शैव धर्म के अनुसार सृष्टि अथवा जगत में तीन रत्न हैं- 1- शिव (यह कर्ता है) 2-शक्ति (यह कारण है) 3- बिन्दु (यह उपादान है) इस मत के चार पद है-1. विद्या - इसके द्वारा पति, पशु तथा पाश के सही स्वरूप का बोध होता है।

2. क्रिया- इसमें उपासना, मंत्र-सिद्धि, यज्ञ आदि कर्म आते हैं। इन क्रियाओं के द्वारा शिव की उपासना की जाती है।

3. योग-  इसमें ध्यान और साधना पर बल दिया जाता है।

4. चर्या - इसमें यह प्रतिपादित किया जाता है कि विहित (करना है) है और क्या अ​विहित है।

शिव का परिचय

शिव स्वयंभू हैं अत: इनका अवतार नहीं होता है लेकिन वायुपुराण में उल्लेख है कि शिव ने लकुलीश नामक एक ब्रह्मचारी के रूप में अवतार लिया था।

सृजन का अध्याय होने के कारण यह अर्धनारीश्वर हैं। वह महादेव अर्थात महान देवता हैं। वह हर अर्थात पकड़ने वाले, भैरव अर्थात भयंकर, भवेश अर्थात संसार का स्वामी तथा पशुपति अर्थात पशुओं के स्वामी हैं। शिव के पंच रूप ईशान, तत्पुरूष, घोर, कामदेव व सद्योजात हैं।

शैव धर्म के प्रमुख सम्प्रदाय

वामन पुराण में शैव धर्म के चार प्रमुख सम्प्रदाय हैं-पाशुपत, शैव, कापालिक और कालामुख।

1. पाशुपत सम्प्रदाय- यह शैव धर्म का सबसे प्राचीन सम्प्रदाय है, जिसकी उत्पत्ति ईसापूर्व दूसरी शताब्दी में हुई।

वायु पुराण और लिंग पुराण से पता चलता है कि इस सम्प्रदाय का संस्थापक लकुलीश नामक ब्रह्मचारी था। इसका जन्म स्थान कायावरोहण (गुजरात) था। लकुलीश को शिव का अठाईसवां एवं अंतिम अवतार माना जाता है। लकुलीश ने पंचार्थ विद्या या पंचाध्यायी नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस मत के अनुयायी पंचार्थिक कहे जाते थे।

इस सम्प्रदाय के लोग हाथ में एक लुंगड़ या दंड धारण करते थे। लकुलीश की अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, जिनमें एक ग्वालियर के तेली मंदिर में है। किन्तु यह इस समय उपलब्ध नहीं है।

इस सम्प्रदाय का प्राचीनतम अंकन कुषाण शासक हुविष्क की एक मुद्रा पर मिलता है।

चन्द्रगुप्त द्वितीय कालीन म​थुरा लेख में उदिताचार्य नाम के एक पाशुपत मतानुयायी का उल्लेख है जिसने दो लिंगों की स्थापना करवाई थी।

बाणभट्ट के कादम्बरी में इस सम्प्रदाय का उल्लेख है तथा उसने लिखा है कि इसके अनुयायी अपने मस्तक पर भस्म पोतते थे तथा हाथ में रूद्राक्ष की माला धारण करते थे।

2. कापालिक सम्प्रदाय- यह शैव धर्म का दूसरा प्रमुख सम्प्रदाय है। इसके उपासक भैरव को शिव का अवतार मानकर उपासना करते हैं।

इस मत के अनुयायी सुरा-सुन्दरी का सेवन करते हैं, मांस खाते हैं तथा नरमुंड धारण करते हैं। कापालिक सम्प्रदाय में भैरव को नरबलि दी जाती थी। इनका विश्वास है कि ऐसा करने से इनकी ज्ञान शक्ति तीक्ष्ण होती है।

भवभूति ने मालतीमाधव नाटक में कापालिकों पर व्यंग्य किया है। मालतीमाधव से पता चलता है कि श्री शैल नामक स्थान कापालिकों का प्रमुख केन्द्र था।

3.कालामुख सम्प्रदाय- इस सम्प्रदाय के अनुयायी कापालिकों के वर्ग के ही थे किन्तु उनसे भी अतिवादी एवं भयंकर प्रवृत्ति के थे। कालामुख सम्प्रदाय के अनुयायी मानव खोपड़ी में भोजन करना, मनुष्य का मांस खाना तथा शरीर पर श्मशान की भस्म लगाने आदि का कार्य करते थे। अतिमार्गी होने के कारण शिवपुराण में उन्हें महाव्रतधर कहा गया है।

4. वीरशैव अथवा लिंगायत- इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक कलुचरि शासक विज्जल के प्रधानमंत्री वासवराज एवं उनके भतीजे चिन्नावासन को माना जाता है।

जबकि वसव पुराण में लिंगायत सम्प्रदाय के प्रवर्तक अल्लप्रभु तथा उनके शिष्य वसव को बताया गया है।

वहीं इतिहासकार फ्लीट के अनुसार, लिंगायत सम्प्रदाय की स्थापना एकान्त रामय्या ने की।

दक्षिण भारत में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार वीर शैव लिंगायत के रूप में हुआ।

इस सम्प्रदाय के उपासक शिवलिंग की आराधना करते थे एवं उसे चांदी के सम्पुट (डिबिया) में रखकर अपने गले में धारण करते थे।

लिंगायत अथवा वीरशैव सम्प्रदाय में गुरु, जंगम और लिंग का बहुत महत्व है।

जंगम उसे कहा गया है कि जिसमें पारशिव से ऐक्य स्थापित कर लिया गया हो। इस सम्प्रदाय के सन्तों ने कन्नड़ भाषा में उपदेश दिया। इनके भक्ति गीतों को वचनशास्त्र कहा जाता था।

इस मत के अनुयायी निष्कार्म कर्म में विश्वास करते हैं। इसीलिए इस मार्ग को वीरमार्ग कहा गया।

ये पुनर्जन्म को नहीं मानते। वेदों तथा जाति-पाति का खंडन करते हैं।

इनका दर्शन विशिष्टाद्वैत के नाम से जाना जाता है अर्थात शिव और जीवात्मा में भेद नहीं है। कालान्तर में इनकी चार श्रेणियां हो गईं।

1- जंगम श्रेणी 2- शीलवन श्रेणी 3- वणिक श्रेणी 4- पंचमशाली श्रेणी।

वीरशैवों का मत है कि भिन्न-भिन्न समयों में पांच महापुरूषों ने इस धर्म का उपदेश दिया। उनके नाम हैं- रेणुकाचार्य, दारूकाचार्य, एकोरायाचार्य, पंडिताराध्य, विश्वाराध्य।

लिंगायतों ने रम्भापुरी (मैसूर), उज्जैन, ऊखीमठ (केदानाथ), श्रीशैल और काशी में अपने विशिष्ट सिंहासनों की स्थापना की।

कश्मीरी शैव सम्प्रदाय

कश्मीर में शैव धर्म के जिस सम्प्रदाय का उदय हुआ वो शुद्ध रूप से दार्शनिक अथवा ज्ञानमार्गी है। इसमें ज्ञान और ध्यान को परमब्रह्म की प्राप्ति का प्रधान आधार माना गया है। इसे त्रिक दर्शन के नाम से जाना गया अर्थात इसकी तीन शाखाएं हैं

  1. स्पन्दन सतारा- इस शाखा के पहले दार्शनिक और कश्मीरी शैव सिद्धान्त के प्रवर्तक बसुगुप्त थे। इस सम्प्रदाय के दो प्रधानग्रन्थ शिव सूत्रम और स्पन्दनकारिका माने जाते हैं।
  2. आगम- इसके अन्तर्गत तीन तत्वों की कल्पना की गई है जो क्रमश: पशु, पति और पाश है।
  3. प्रत्यभिज्ञा- इसके प्रवर्तक सोमानन्द थे। इनकी रचना का नाम शिव दृष्टि है। ये सब कुछ शिव को मानते थे।