कर्नाटक में फ्रांसीसियों को पराजित करने के साथ ही 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों ने बंगाल पर भी आधिपत्य स्थापित कर लिया। बंगाल की विजय ने अंग्रेजों को समस्त भारत का स्वामी बना दिया। इसके पीछे असली वजह यह है कि उन दिनों बंगाल भारत का सबसे धनाढ्य प्रान्त था और उद्योग तथा व्यापार में सबसे आगे था। बंगाल पर अधिकार करने के बाद अंग्रेजों को जो पहली किस्त मिली वह 8 लाख पौंड की थी, जो चांदी के सिक्कों के रूप में थी। लार्ड मैकाले के अनुसार, यह धन कलकत्ता को एक सौ से अधिक नावों में भरकर लाया गया। बंगाल के धन का ही प्रभाव था कि ईस्ट इंडिया कम्पनी ने दक्षिण विजय कर लिया और उत्तरी भारत को अपने प्रभाव में ले लिया। आप बंगाल प्रान्त की समृद्धि अन्दाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि सूबा-ए-बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद की हैसियत उस समय के लंदन से कहीं ज्यादा थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के पहले गर्वनर रॉबर्ट क्लाइव मुर्शिदाबाद के बारे में लिखता है, "मुर्शिदाबाद शहर उतना ही लंबा, चौड़ा, आबाद और धनवान है, जितना लंदन। अंतर केवल इतना है कि लंदन के धनाढ्य आदमी के पास जितनी संपत्ति हो सकती है उससे कहीं ज्यादा मुर्शिदाबाद में अनेकों के पास है"।
गौरतलब है कि बंगाल में अंग्रेजी सत्ता की स्थापना दो महत्वपूर्ण युद्धों प्लासी और बक्सर के कारण हुई। इन युद्धों के बाद बंगाल में ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कम्पनी ने अपनी सत्ता स्थापित कर पूरे भारत को गुलामी की जंजीरों में जकड़ दिया। व्यापार करने वाले अंग्रेज इस देश के स्वामी बन बैठे।
बंगाल के नवाब का अंग्रेजों के साथ संबंध तथा काल कोठरी की घटना (ब्लैक होल ट्रेजेडी)
मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुगल सत्ता की कमजोरी का लाभ उठाकर बिहार के नायब निजाम अलीवर्दी खां ने अपनी शक्ति बढ़ा ली और बंगाल के तत्कालीन नवाब सरफराज खान से विद्रोह कर उसे युद्ध में परास्त करके मार डाला और स्वयं बंगाल का नवाब बन बैठा। अपनी इस स्थिति को और मजबूत करने के लिए उसने मुगल बादशाह मुहम्मद शाह को धन देकर कानूनी मान्यता भी हासिल कर ली और बड़ी कुशलता से बंगाल पर शासन करने लगा। इतना ही नहीं अलीवर्दी खान ने अंग्रेजों तथा फ्रांसीसी कम्पनियों को राजनीति में हस्तक्षेप करने से रोके रखा। अलीवर्दी खां ने यूरोपियों को मधुमक्खियों की उपमा दी थी, कि यदि उन्हें न छेड़ा जाए तो वे शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो वे काट-काट कर मार डालेंगी। शीघ्र ही उसकी यह भविष्यवाणी सत्य साबित हो गई।
अलीवर्दी खां की मृत्यु (9 अप्रैल 1756 ई.) के साथ ही बंगाल में उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर षड्यंत्र होने प्रारम्भ हो गए। अंग्रेज काफी दिनों से इसी मौके की तलाश में थे। चूंकि मृत अलीवर्दी खां का कोई पुत्र नहीं था इसलिए उसने अपनी सबसे छोटी बेटी के पुत्र सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर चुका था। अत: अलीवर्दी के निधन के साथ सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बन बैठा। अब सिराजुद्दौला को नवाब बनते ही अपने विरोधियों का सामना करना पड़ा जिसमें उसकी मौसी घसीटी बेगम, घसीटी बेगम का पुत्र शौकतजंग जो पूर्णिया का शासक था, इनके साथ दीवान राजवल्लभ भी शामिल था। इन लोगों ने सेनापति मीरजाफर तथा कलकत्ता के धनी व्यापारी सेठ अमीचन्द एवं जगत सेठ को भी मिला रखा था। ऐसे में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने के लिए सिराजुद्दौला ने सबसे पहले घसीटी बेगम को कैद करके उसका सारा धन जब्त कर लिया। शौकत जंग को 16 अक्टूबर 1756 को मनीहारी के युद्ध में परास्त कर मार डाला। अब सिराजुद्दौला की आंतरिक स्थिति मजबूत हो गई और उसने प्रशासनिक परिवर्तन करने शुरू किए, यहीं से उसके और अंग्रेजों के बीच संघर्ष की शुरूआत हुई।
अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों के साथ होने वाले संघर्ष की आशंका को देखते हुए कलकत्ता में फोर्ट विलियम की किलेबन्दी कर ली और उसके परकोटे पर तोपे चढ़ा दी। जब सिराजुद्दौला ने अंग्रेजों को उनके इस कार्य के लिए रोका तो उसकी बातों को अनसुनी कर दिया। इससे क्रोधित नवाब ने मई 1756 को कासिमबाजार पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। इसके साथ ही उसने 20 जून 1756 को फोर्ट विलियम पर भी अधिकार कर लिया। फोर्ट विलियम पर कब्जा होने के बाद अंग्रेज गर्वनर ड्रेक स्त्रियों, बच्चों तथा अन्य लोगों के साथ भागकर फुल्टा द्वीप पर शरण लेने को बाध्य हुआ। बची खुची अंग्रेजी सेना ने सर्जन हॉलवेल के नेतृत्व में फोर्ट विलियम को बचाने का प्रयास किया लेकिन उन्हें भी आत्मसमर्पण करना पड़ा। असंख्य अंग्रेजों को बन्दी बनाकर सिराजुद्दौला फोर्ट विलियम की जिम्मेदारी मानिकचन्द को सौंपकर स्वयं मुर्शिदाबाद लौट आया।
काल कोठरी की घटना (ब्लैक होल ट्रेजेडी)-
काल कोठरी की घटना से बंगाल के नवाब और अंग्रेजों के बीच संबंध अत्यधिक कटु हो गए। कहा जाता है कि फोर्ट विलियम पर कब्जा करने के बाद अंग्रेज युद्ध बन्दियों में शामिल 146 लोगों में स्त्रियां और बच्चे भी थे, एक छोटे और अंधेंरे कमरे में कैद कर दिया गया। यह काल कोठरी महज 18 फीट लंबी और 14 फीट 10 इंच चौड़ी थी। 20 जून को इस अंधेरी कोठरी में कैद 146 लोगों में से अगली सुबह केवल 23 लोग ही जिन्दा बच पाए। बाकी जून की गर्मी तथा घुटन अथवा एक-दूसरे से कुचले जाने के कारण मर गए थे।
जिन्दा बचने वालों में हॉलवेल भी था, जिसने इस घटना को प्रचारित किया। हांलाकि इस घटना की सत्यता अत्यंत विवादास्पद है। समकालीन मुस्लिम इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी किताब सियार-उल-मुत्खैरीन में इस घटना का कोई उल्लेख नहीं किया है। डॉ. सरकार और दत्त के मुताबिक, इस घटना का उल्लेख समकालीन अंग्रेजी, डच और फ्रांसीसी रिकॉर्डों में मिलता है लेकिन इनके विवरण एक-दूसरे से भिन्न हैं। जब कि कुछ आधुनिक इतिहासकारों ने इस घटना को महज कपोल कल्पित माना है।
दरअसल इस घटना का इस्तेमाल ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल के नवाब के विरुद्ध तकरीबन 7 वर्ष तक चलते रहने वाले आक्रामक युद्ध के लिए प्रचार का कारण बनाए रखने के लिए किया और अंग्रेजीं जनता का समर्थन प्राप्त कर लिया। इस संबंध में विख्यात इतिहासकार डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने ठीक ही लिखा है, “इस घटना में कुछ भी सत्य नहीं है। यह केवल अंग्रेजों की मनगढ़न्त ही थी। वास्तव में इस कल्पित कथा का प्रचार अंग्रेजों की प्रतिहिंसात्मक मनोवृत्ति को उभारने के लिए ही किया गया था।”
अंग्रेजों की प्रतिक्रिया और अलीनगर की सन्धि-
फोर्ट विलियम पर नवाब के आधिपत्य की खबर जैसे ही मद्रास पहुंची, वहां के अधिकारियों ने रॉबर्ट क्लाईव तथा वाटसन के नेतृत्व में थल तथा जल सेना कलकत्ता के लिए भेज दी। 14 दिसम्बर को बंगाल पहुंचते ही इन दोनों अधिकारियों ने पर्याप्त धन देकर नवाब के अधिकारियों को मिला लिया। लिहाजा मानिक चन्द ने घूस लेकर बिना किसी प्रतिरोध के कलकत्ता अंग्रेजों को सौंप दिया। अंग्रेजों ने हुगली पर भी अधिकार कर लिया। बाध्य होकर नवाब सिराजुद्दौला को अंग्रेजों से सन्धि करनी पड़ी। इस प्रकार 9 फरवरी 1757 को नवाब ने अलीनगर (नवाब द्वारा कलकत्ता का नया नाम) की सन्धि पर हस्ताक्षर कर दिए।
अलीनगर की सन्धि- अलीनगर की सन्धि के तहत मुगल सम्राट द्वारा अंग्रेजों को प्रदत्त सभी सुविधाएं वापस मिलनी थी। इसके साथ ही अंग्रेजों का माल बंगाल, बिहार, उड़ीसा में बिना चुंगी दिए जा सकता था। नवाब ने कम्पनी की जब्त फैक्ट्रियों, संपत्ति एवं आदमियों को लौटाने का वचन दिया। अब अंग्रेज कलकत्ता की किलेबंदी भी कर सकते थे और अपना सिक्का भी चला सकते थे। नवाब ने अंग्रेजों को हर्जाना देने का भी वचन दिया। ऐसे में अलीनगर की सन्धि जहां नवाब के लिए अपमानजनक थी, वहीं अंग्रेज अब आक्रान्ता की भूमिका में थे।
प्लासी का युद्ध (23 जून 1757)- अलीनगर की सन्धि के बाद भी अंग्रेज चुप नहीं बैठे, उन्होंने नवाब के अधिकारियों के बईमानी और घूसखोरी का लाभ उठाकर षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया। जिसके तहत अंग्रेजों ने नवाब सिराजुद्दौला के मुख्य सेनापति मीरजाफर तथा प्रभावशाली साहूकार जगत सेठ, राय दुर्लभ तथा अमीचन्द को एक बिचौलिए के रूप में शामिल किया। यह तय किया गया कि मीरजाफर को नवाब बना दिया जाए इसके बदले वह कम्पनी के लिए काम करेगा और उसकी हानि की क्षतिपूर्ति भी करेगा।
युद्ध के लिए आतुर क्लाइव ने नवाब पर अलीनगर की सन्धि भंग करने का आरोप लगाया और अपनी सेना लेकर सिराजुद्दौला के खिलाफ मुर्शिदाबाद की तरफ प्रस्थान किया। 22 जून 1757 ई. को नवाब तथा अंग्रेजों की सेनाएं मुर्शिदाबाद से 22 मील की दूरी पर स्थित प्लासी गांव के पास आमों के बगीचे में एक-दूसरे के सामने आ खड़ी हुईं। 23 जून की सुबह युद्ध शुरू हुआ। नवाब सिराजुद्दौला की सेना में 50000 सैनिक थे, जबकि अंग्रेजी सेना की संख्या महज 3200 थी, जिसमें 950 यूरोपीय पदाति, 100 यूरोपीय तोपची, 50 नाविक तथा 2100 भारतीय सैनिक शामिल थे।
नवाब की सेना का नेतृत्व विश्वासघाती मीरजाफर कर रहा था। नवाब की अग्रिम टुकड़ी अगुवाई मीरमदान तथा मोहन लाल कर रहे थे, जिन्होंने पहली झड़प में अंग्रेजों को पेड़ों के पीछे छुपने पर बाध्य कर दिया। अचानक अंग्रेजों की गोली से मीर मदान मारा गाया। वहीं मीरजाफर तथा राय दुर्लभ एक बड़ी सैनिक टुकड़ी लेकर युद्ध के मैदान में चुपचाप खड़े रहे। ऐसे में सिराजुद्दौला ने अपने साथ हो रहे विश्वासघात को देखकर घबरा गया और युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। नवाब की सेना में शामिल फ्रांसीसी टुकड़ी जंग लड़ रही थी लेकिन वह शीघ्र ही परास्त हो गई। मीरजाफर ने क्लाइव को बधाई दी और मुर्शिदाबाद लौट गया और उसने अपने आप बंगाल का नवाब घोषित कर दिया। मीरजाफर के पुत्र मीरन ने सिराजुद्दौला को बन्दी बनवा लिया और उसकी हत्या करवा दी।
मीरजाफर ने अंग्रेजों को उनकी सेवाओं के बदले 24 परगनों की जमींदारी से पुरस्कृत किया तथा रॉबर्ट क्लाइव को 2,34000 पाउंड की निजी भेंट दी। 50 लाख रूपया सेना तथा नाविकों को पुरस्कार के रूप में दिए। बंगाल की सभी फ्रांसीसी बस्तियां अंग्रेजों को सौंप दी गईं। साथ ही यह भी निश्चित हुआ कि भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी (टैक्स) नहीं देनी होगी।
प्लासी युद्ध का महत्व- प्लासी युद्ध के बाद बंगाल अंग्रेजों के अधीन हो गया और देश की आजादी के साथ ही यह अंग्रेजों के कब्जे से मुक्त हो सका। बंगाल का नवाब मीरजाफर पूरी तरह से अंग्रेजों पर निर्भर हो गया। बंगाल की राजशक्ति धीरे-धीरे अंग्रेजों के नियंत्रण में चली गई। यद्यपि यह जंग धोखे और छल प्रंपच से ही जीती गई थी, बावजूद इसके बहुत गंभीर परिणाम निकले। एक व्यापारी कम्पनी ने बंगाल जैसे धनाढ्य प्रान्त के नवाब को अपमानित करके गद्दी से हटा दिया और मुगल सम्राट तथा अन्य भारतीय शक्तियां तमाशबीन बनी रहीं।
प्लासी युद्ध के पश्चात बंगाल ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कम्पनी की लूट का केन्द्र बन गया। उन दिनों बंगाल समस्त भारत के व्यापार का केन्द्र था, जहां सारा धन खिंचा चला आता था। बंगाल की बनी वस्तुएं भारत के अन्य प्रान्तों में बिकती थीं। बंगाल विजय के बाद अंग्रेजों ने दक्षिण विजय के साथ ही उत्तर भारत को अपने प्रभाव में ले लिया।
मीरजाफर को अपदस्थ कर मीरकासिम को नवाब बनाना-
अंग्रेजों की महत्वाकांक्षा के आगे मीरजाफर बिल्कुल कमजोर शासक साबित हुआ क्योंकि कंपनी दिन प्रतिदिन उसे धन की मांग करती जा रही थी, जिसे पूरा करने में वह समर्थ नहीं हो सका। 1760 ई. तक मीरजाफर पर कम्पनी का 25 लाख रूपया बकाया हो गया। इतना ही नहीं बंगाल में डचों का उपद्रव, शहजादा अलीगौहर द्वारा बंगाल पर आक्रमण ऐसी घटनाएं थी जिसमें क्लाइव ने मीरजाफर की मदद की लेकिन उसके इंग्लैंण्ड वापस लौटते ही वह असहाय हो गया। क्लाइव की जगह हॉलवेल और वेन्सिर्टाट गर्वनर बनकर बंगाल पहुंचे। जब इन्होंने मीरजाफर पर बकाया राशि देने के लिए दबाव डाला तो उसने हाथ खड़े कर दिए। ऐसे में अंग्रेजों ने मीरजाफर पर डचों एवं अली गौहर के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ षड्यंत्र रचने का आरोप लगाकर मीरजाफर के दामाद मीरकासिम से एक गुप्त समझौता कर लिया। जिसके तहत मीरकासिम को बंगाल का नया नवाब बना दिया। मीरजाफर 15000 रूपए की मासिक पेन्शन लेकर मुर्शिदाबाद से कलकत्ता चला गया।
मीरकासिम द्वारा कलकत्ता काउंसिल के बीच सन्धि (सितम्बर 1760)
मीरजाफर का दामाद मीरकासिम बहुत चालाक था। उसने इस सुअवसर का लाभ उठाते हुए खुद को अंग्रेजों का मित्र तथा नवाब के योग्य प्रत्याशी के रूप में प्रस्तुत किया। उसने ब्रिटीश ईस्ट इंडिया कम्पनी को वित्तीय सहायता देने का वचन भी दिया। तत्पश्चात 27 सितम्बर 1760 को मीरकासिम तथा कलकत्ता काउंसिल के बीच सन्धि पत्र पर हस्ताक्षर किए गए, जो निम्नलिखित है—
— मीरकासिम कम्पनी के मित्र को अपना मित्र और कंपनी के शत्रुओं को अपना शत्रु मानेगा।
— मीरकासिम ने बर्दवान, मिदनापुर और चटगांव जिले को कम्पनी को देना स्वीकार किया।
— सिल्हट में चूने के व्यापार में कम्पनी का आधा भाग होगा।
— दोनों एक दूसरे के असामियों को अपने- अपने प्रदेश में बसने की अनुमति देंगे।
— कम्पनी आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी बल्कि सैनिक सहायता प्रदान करेगी।
गौरतलब है कि नवाब बनते ही मीरकासिम ने सबसे पहले अंग्रेज अधिकारियों को पुरस्कृत किया। उसने वेन्सिर्टाट को 5 लाख रुपए, हॉलवेल को 270000, कर्नल केलाड को 2 लाख तथा अन्य व्यक्तियों को 7 लाख रुपए दिए।
मीरकासिम का ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ सम्बन्ध-
अलीवर्दी खां के बाद समकालीन नवाबों में मीरकासिम सबसे योग्य और चालाक निकला। बंगाल का नवाब बनने से पूर्व वह पूर्निया और रंगपुर के फौजदार के रूप में अपनी योग्यता साबित कर चुका था। इसलिए नवाब बनते ही सबसे पहले अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से हटाकर मुंगेर ले गया ताकि कलकत्ता से दूर रहकर अंग्रेजों के अनावश्यक हस्तक्षेप से बचा रहे। उसने अपनी सेना को यूरोपीय ढंग से प्रशिक्षित किया जिसके तहत मुंगेर में तोपों तथा तोड़ेदार बन्दूकें बनाने की व्यवस्था की गई। उसने विद्रोही जमींदारों को दबाया तथा भ्रष्ट कर्मचारियों से राजकीय धन वसूल किया। ‘सियार-उल-मुत्खैरीन’ नामक पुस्तक में इस बात का उल्लेख मिलता है कि “मीरकासिम ने प्रशासनिक मामलों को बड़ी कुशलता से सुलझाया। सेना तथा सेवकों को नियमित रूप से वेतन मिलता था, अच्छे लोगों का आदर होता था, उन्हें पुरस्कृत किया जाता था। कहां-कैसा व्यय करना है, इन सभी मामलों में वह अपने समकालीन राजाओं में अद्वितीय था।”
मीरकासिम के इन कार्यों से कम्पनी आशंकित हो उठी। दरअसल वह कम्पनी की साम्राज्यवादी नीति में ठीक नहीं बैठता था। अंग्रेजों को बंगाल की गद्दी पर एक ऐसा कमजोर तथा अयोग्य शासक चाहिए था जो उनके लिए रबर स्टाम्प का काम करे। मीरकासिम भी कम्पनी द्वारा बंगाल की प्रजा से लूट खसोट से तंग आ चुका था। इसलिए उसने वित्तीय हालत सुधारने के लिए देशी व्यापारियों को भी नि:शुल्क व्यापार करने का अधिकार प्रदान कर दिया। परिणामस्वरूप अब अंग्रेज और भारतीय व्यापारी एक ही पलड़े पर आ गए। हांलाकि मीरकासिम का यह कदम न्यायोचित था लेकिन इससे अंग्रेजों का मुनाफा कमाना कम हो गया। लिहाजा कम्पनी ने क्रोधित होकर सैनिक कार्रवाई आरम्भ करने की योजना बनाई। इसके लिए 25 मई 1763 को बतौर कम्पनी प्रतिनिधि ऐमायट तथा हे मुंगेर पहुंचे और नवाब के समक्ष ग्यारह सूत्री मांगे प्रस्तुत की जिसे मीरकासिम ने एक सिरे से खारिज कर दिया। इसी बीच पटना के अंग्रेज एजेन्ट एलिस को कलकत्ता काउंसिल ने नगर पर आक्रमण करने का आदेश दिया। एलिस ने बड़ी आसानी से पटना पर अधिकार कर लिया। यह घटना 24 जून 1763 की है। मीरकासिम को जब इस घटना की सूचना मिली तो उसने पटना पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया। इस जंग में अनेक अंग्रेज मारे गए।
पटना हत्याकांड- दूसरी मेजर एडम्स एक सेना लेकर मुर्शिदाबाद की तरफ बढ़ा। मीरकासिम भी अपनी सेना लेकर मुंगेर से चला। रास्ते में अंग्रेजों ने कटवा, गिरिया तथा सुती में नवाब की सेना को पराजित किया। उदयनाला नामक स्थान के पास मीरकासिम बुरी तरह से पराजित हुआ। वहां से वह मुंगेर होता हुआ पटना पहुंचा। पराजय की क्रोधाग्नि में मीरकासिम ने पटना में गिरफ्तार 148 अंग्रेज कैदियों की हत्या करवा दी, जिसमें अंग्रेज कमांडर एलिस भी था। यह घटना आधुनिक भारत के इतिहास में पटना हत्याकांड के नाम विख्यात है। इधर अंग्रेजों ने मीरकासिम को अपदस्थ कर मीरजाफर को नवाब बना दिया तथा मीरकासिम का पीछा करना जारी रखा। मीरकासिम के गद्दार पदाधिकारियों की वजह से बहुत जल्द ही मुंगेर और पटना भी उसके हाथ से निकल गया। ऐसे में उसे भागकर अवध के नवाब शुजाउद्दौला के यहां शरण लेनी पड़ी।
बक्सर का युद्ध (23 अक्तूबर 1764 )
अवध पहुंचकर मीरकासिम ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा मुगल सम्राट शाहआलम से मिलकर अंग्रेजों को बंगाल से बाहर निकालने की योजना बनाई। मीरकासिम, शुजाउद्दौला तथा शाहआलम की सम्मिलित शक्ति से आक्रान्त होकर अंग्रेजों ने अवध के नवाब को अपने पक्ष में मिलाने का असफल प्रयास किया। इन तीनों की सम्मिलित सेना में तकरीबन 50 हजार सैनिक थे, बिहार की तरफ बढ़े। महज 7027 सैनिकों वाली अंग्रेजी सेना की कमान मेजर मुनरों के हाथ में थी। 23 अक्तूबर 1764 को बक्सर नामक स्थान पर युद्ध का बिगुल बज उठा। दोनों सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ जिसमें अंग्रेजी सेना के 847 सैनिक घायल अथवा मारे गए जबकि दूसरे पक्ष 2000 सैनिक मारे गए। सम्मिलित सेना के पास सैनिकों की विशाल संख्या लेकिन अंग्रेजों की छोटी सी सेना के समक्ष टिक नहीं सके। निश्चय ही बक्सर के युद्ध में कुशल सेना की जीत थी। बक्सर के युद्ध ने प्लासी के निर्णयों पर पक्की मोहर लगा दी। भारत में अब ब्रिटीश ईस्ट इंडिया को चुनौती देने वाला कोई भी शेष नहीं बचा। बंगाल का नया नवाब कठपुतली था, अवध का नवाब उनका आभारी तथा मुगल सम्राट उनका पेन्शनर था। बंगाल से लेकर इलाहाबाद तक का प्रदेश अंग्रेजों के पैरों तले आ गया। कंपनी के लिए दिल्ली का रास्ता खुला था। बंगाल और अवध पर अंग्रेजों का फन्दा कसता ही चला गया परिणामस्वरूप बक्सर युद्ध के बाद अंग्रेज अब समस्त भारत पर दावा करने लगे। हांलाकि मराठों तथा मैसूर ने कुछ चुनौती देने की कोशिश जरूर की लेकिन भारत की दासता अब बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी थी।
सम्भावित प्रश्न-
— ईस्ट इंडिया कम्पनी और बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला के बीच संघर्ष के कारणों का उल्लेख करें?
— प्लासी युद्ध के कारणों, स्वरूप एवं महत्व की विवेचना कीजिए?
— बक्सर युद्ध के कारणों एवं परिणामों का उल्लेख करें?
— बक्सर का युद्ध क्यों हुआ? इसके महत्व का परीक्षण करें।
— ईस्ट इंडिया कम्पनी और मीरकासिम के संबंधों की विवेचना कीजिए?
— बंगाल में 1765 ई. तक ब्रिटीश सत्ता के विस्तार के विभिन्न चरणों को रेखांकित कीजिए?
— काल कोठरी की घटना तथा पटना हत्याकांड पर टिप्पणी लिखिए?