अशोक विश्व इतिहास के उन महानतम सम्राटों में अपना सर्वोपरि स्थान रखता है जिन्होंने अपने युग पर अपने व्यक्तित्व की छाप लगा दी है तथा भावी पीढ़ियां जिनका नाम अत्यन्त श्रद्धा एवं कृतज्ञता के साथ स्मरण करती हैं। नि:सन्देह सम्राट अशोक का शासन काल भारतीय इतिहास के उज्जवलतम पृष्ठ का प्रतिनिधित्व करता है। मौर्य राजवंश के सबसे ताकतवर राजाओं में से सम्राट अशोक एक था। बिन्दुसार की मृत्यु के पश्चात उसका सुयोग्य पुत्र अशोक विशाल मौर्य साम्राज्य की गद्दी पर बैठा।
जानकारी के लिए बता दें कि बिन्दुसार की 16 पटरानियों और 101 पुत्रों का उल्लेख मिलता है। अशोक की माता का नाम सुभद्रांगी (रानी धर्मा) था। बिन्दुसार के पुत्रों में केवल तीन के ही नाम प्रमुखता से लिए गए हैं- सुसीम, अशोक और तिष्य। अशोक युवराज नहीं था, बिंदूसार ने अपने बड़े पुत्र सुसीम को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
अशोक बचपन से ही सैन्य गतिविधियों में निपुण था। बौद्ध लेखों के मुताबिक राजगद्दी प्राप्त करने के लिए अशोक ने अपने सगे 100 भाईयों की हत्या कर दी थी। सम्राट बनने से पहले वह मौर्य वंश में चांडाल अशोक के नाम से विख्यात था। कहा जाता है कि अशोक का सबसे छोटा और सहोदर भाई तिष्य था, सभी भाईयों में वहीं एक जिंदा बचा था। चांडाल अशोक पूरे राज्य में अपनी बर्बरता के लिए जाना जाता था, लोगों को तड़पा-तड़पाकर मारना उसके लिए बाएं हाथ का खेल था।
अब आप सोच रहे होंगे कि आखिर में ऐसा क्या हुआ कि वह चांडाल अशोक से महान अशोक में परिवर्तित हो गया। इतना ही नहीं उसके अभिलेखों में सर्वत्र अशोक को 'देवानामप्रिय' और 'प्रियदर्शी' (देवताओं का प्रिय अथवा देखने में सुन्दर) तथा राजा आदि की उपाधियों से सम्बोधित किया गया है। इन उपाधियों से उसकी महत्ता सूचित होती है। मास्की तथा गूर्जरा के लेखों में उसका नाम ‘अशोक’ मिलता है जबकि पुराणों में उसे ‘अशोक वर्धन’ कहा गया है।
अपने राज्याभिषेक के बाद अशोक ने अपने पिता एवं पितामह की दिग्विजय की नीति को जारी रखा। उसने आधुनिक असम से लेकर ईरान की सीमा तक सम्राज्य का विस्तार केवल 8 वर्षों में कर लिया था। बता दें कि बिन्दुसार के शासनकाल में शक्तिशाली राज्य कलिंग ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दिया था। अशोक जैसे महत्वाकांक्षी शासक के लिए यह असह्य था। वहीं इतिहासकार रोमिला थापर के मुताबिक, कलिंग उस समय व्यापारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण राज्य था अशोक की दृष्टि उसके समृद्ध व्यापार पर थी। अत: अपने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष उसने कलिंग के विरुद्ध युद्ध छेड़ दिया।
सम्राट अशोक के 13वें शिलालेख में कलिंग युद्ध (261ई. पू.) का वर्णन मिलता है। इस शिलालेख के अनुसार कलिंग के युद्ध में एक लाख 50 हजार व्यक्ति बंदी बनाकर निर्वासित कर दिए गए और एक लाख लोगों की हत्या कर दी गई तथा इससे भी कई गुना अधिक मर गए। कलिंग के युद्ध में लाशों का अंबार देखकर अशोक विचलित हो उठा और उसने आजीवन कभी भी हथियार नहीं उठाने की कसम खाई।
कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक का मन मानवता के प्रति दया और करुणा से भर गया। अशोक ने सत्य और अहिंसा का मार्ग वरण करते हुए महान बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया तथा उसने अपने साम्राज्य के सभी उपलब्ध साधनों को जनता के भौतिक एवं नैतिक कल्याण में नियोजित कर दिया।
राजतंरगिणी के अनुसार, अपने शासन के प्रारम्भिक वर्षों में सम्राट अशोक भगवान शिव का उपासक था। वह अन्य हिन्दू राजाओं की भांति रिक्त समय में विहार यात्राओं पर निकलता था जहां मृगया (मनोरंजन के लिए वन्य पशुओं का वध करना मृगया कहलाता है) में विशेष रूचि लेता था। अशोक अपनी प्रजा के मनोरंजन के लिए विभिन्न प्रकार की गोष्ठियों एवं प्रीतिभोजों का भी आयोजन करता था जिसमें मांस आदि बड़े चाव से खाए जाते थे। इसके लिए अशोक की शाही रसोई में सहस्रों पशु-पक्षी प्रतिदिन मारे जाते थे।
सिंहली अनुश्रुतियों- दीपवंश और महावंश के मुताबिक अशोक को उसके शासन के चौदहवें वर्ष ‘निग्रोध’ नामक सात वर्षीय बौद्ध भिक्षु ने बौद्ध धर्म के लिए दीक्षित किया। इसके पश्चात मोग्गालिपुत्ततिस्स के प्रभाव से वह पूरी तरह बौद्ध बन गया। हांलाकि दिव्यावदान में अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित करने का श्रेय ‘उपगुप्त’ नामक बौद्ध भिक्षु को दिया जाता है।
बौद्ध धर्म ग्रहण करने के बाद सम्राट अशोक ने सबसे पहले बोधगया की यात्रा की थी। इसके बाद अपने शासन के बीसवें वर्ष में लुंबिनी की यात्रा की, उसने वहां पत्थर की सुदृढ़ दीवार बनवाई तथा शिला स्तम्भ खड़ा किया। चूंकि लुम्बिनी में भगवान बुद्ध का जन्म हुआ था अत: लुंबिनी को करमुक्त घोषित कर दिया गया तथा केवल 1/8 भाग लेने की घोषणा की गई। अशोक ने नेपाल की तराई में स्थित निग्लीवा में कनकमुनि के स्तूप को विस्तारित करवाया। वहीं अनुश्रुतियां उसे 84 हजार स्तूपों के निर्माता के रूप में स्मरण करती हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि अशोक आजीवन उपासक ही रहा और वह भिक्षु अथवा संघाध्यक्ष कभी नहीं बना। महावंश के अनुसार, अपने राज्याभिषेक के 18वें वर्ष में अशोक ने श्रीलंका के राजा के पास भेजे गए एक सन्देश में बताया था कि वह शाक्यपुत्र (गौतम बुद्ध) के धर्म का एक साधारण उपासक बन चुका है।
सिंहली अनुश्रुतियों-दीपवंश एवं महावंश के अनुसार, अशोक के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में बौद्ध धर्म की तृतीय संगीति का आयोजन किया गया। इसकी अध्यक्षता मोग्गालिपुत्ततिस्स नामक प्रसिद्ध बौद्ध भिक्षु ने की थी। तृतीय बौद्ध संगीति के दौरान ही अभिधम्म पिटक की रचना भी हुई। इस संगीति की समाप्ति के पश्चात भिन्न देशों में बौद्ध धर्म के प्रचारार्थ भिक्षु भेजे गए जिनके नाम महावंश में इस प्रकार प्राप्त होते हैं- कश्मीर तथा गन्धार, यवन देश, हिमालय देश, अपरान्तक, महाराष्ट्र्र, मैसूर, उत्तरी कन्नड़, सुवर्णभूमि, लंका।
लंका में बौद्ध धर्म प्रचारकों को विशेष सफलता मिली जहां अशोक के पुत्र महेंद्र एवं पुत्री संघमित्रा ने वहां के शासक तिस्स को बौद्ध धर्म में दीक्षित कर लिया तथा तिस्स ने सम्भवत: इसे राजधर्म बना लिया तथा स्वयं अशोक के अनुकरण पर उसने देवानाम् प्रिय की उपाधि ग्रहण कर ली।
इस प्रकार सम्राट अशोक ने स्वदेश एवं विदेश में बौद्ध धर्म का प्रचार करवाया। इसका परिणाम यह निकला कि बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं से पार एशिया के विभिन्न भागों में फैल गया और आज की तारीख में अन्तर्राष्ट्रीय धर्म बन चुका है। वास्तव में अगर देखा जाए तो बिना किसी राजनीतिक और आर्थिक स्वार्थ के किसी धर्म के प्रचार का यह पहला उदाहरण था जबकि इसका दूसरा उदाहरण अभी तक इतिहास में उपस्थित नहीं हुआ।