भारत का यूरोपीय देशों के साथ व्यापारिक संबंध
आपको जानकारी के लिए बता दें कि प्राचीन काल से ही यूरोप के व्यापारिक संबंध रहे थे। हांलाकि यूरोप में पूर्वी देशों के माल की मांग में वृद्धि 12वीं शताब्दी में धर्मयुद्धों (क्रूसेड) के काल में हुई। इस दौरान यूरोप के लोग रेशम, जवाहरात, सुंगन्धित जड़ी-बूटियों तथा एशिया के विभिन्न भागों से लाए जाने वाले विलास सामग्रियों के सम्पर्क में आए, जिससे यूरोपीयन लोगों में इन वस्तुओं के लिए शौक पैदा हुआ।
यूरोप में भारत के गरम मसालों की जबरदस्त डिमांड थी क्योंकि ठंड के दिनों में बड़ी संख्या में पशुओं को मारकर उनके मांस को नमक लगाकर सुरक्षित रख लिया जाता था जिसे स्वादिष्ट बनाने के लिए गरम मसालों की जरूरत पड़ती थी। भारत के पश्चिम में मालाबार स्थित कालीकट और कोचीन तथा गुजरात में सूरत, भड़ौच और खंभात जैसे बंदरगाह यूरोपीय देशों के साथ भारत के मसाला व्यापार के मुख्य केन्द्र थे। दक्षिण-पूर्वी एशिया के मसाले और रेशम, चीनी मिट्टी, लाख इत्यादि चीनी वस्तुएं मालाबार तट पर लाई जाती थीं जिन्हें जहाजों में भरकर फारस की खाड़ी तथा लाल सागर के बंदरगाहों को भेजा जाता था।
भारत सूती कपड़ा, नील, मसालों तथा जड़ी-बूटियों के बदले यूरोप से ऊनी कपड़े, सोने, चांदी आयात करता था। गुजरात से भारी मात्रा में सूती कपड़े का निर्यात होता था। देश में अधिकतर सोना नील के जरिए कमाया जाता था। कालीकट से काली मिर्च और दालचीनी आती थी। समुद्री मार्ग के जरिए पूर्वी अफ्रीका से आबनूस, हाथीदांत और सोना भारत लाया जाता था। फारस की खाड़ी से हरमुज के रास्ते घोड़े, मोती, रेशम, कालीन और रंग आते थे। बंगाल के खाड़ी क्षेत्र में बंगाल कपड़े और खाद्य सामग्री निर्यात करता था जबकि कोरोमंडल से कपड़ा और धागे का निर्यात होता था।
भारत, चीन और जापान के व्यापारी आपस में वस्तुओं का विनिमय करते थे। समुद्री व्यापार के अलावा 15वीं सदी में तटीय व्यापार भी व्यापक रूप से होता था। 1500 ई. के आसपास भारत के समूचे व्यापार पर कोरोमंडल के चेट्टियार समुदाय का राज था। बंगाल की खाड़ी से लेकर मलक्का तक के व्यापार में चेट्टियार समुदाय की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी। हांलाकि 1500 ई. के लगभग भारत की किसी भी बड़ी रियासत ने समुद्री मार्गों एवं व्यापार के संबंध में कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाई। मुगलों के खजाने का अधिकांश धन राजस्व के जरिए ही आता था। 16वीं शताब्दी में बहमनी वंश के पतन के बाद दक्षिण भारत में मुस्लिम अभिजन स्वतंत्रा सत्ता स्थापित करने में लगे रहे, इनकी समुद्री गतिविधियों में कहीं कोई भूमिका नहीं रही। इतिहासकार एम.एन. पियरसन के अनुसार, भारत के समुद्री व्यापार पर अरब के व्यापारियों का प्रभुत्व 16वीं शताब्दी तक लगभग समाप्त हो चुका था। समुद्री डाकूओं ने आतंक मचा रखा था, इनका सामना करने का कोई प्रबंध नहीं था।
हांलाकि कुछ समुद्रतटीय राज्यों के शासक समुद्री व्यापार में रूचि रखते थे, जैसे- कालीकट के जमोरिन और कोचीन, किलनूर तथा अन्य छोटे बंदरगाहों के राजा। चूंकि इन राजाओं की भूराजस्व से मिलने वाली आय बहुत कम थी ऐसे में इनकी आय का बड़ा भाग समुद्री व्यापार पर आश्रित था। हांलाकि इन राजाओं के पास पूरी शताब्दी तक कभी भी ऐसी नौसेनाएं नहीं थी जो यूरोपीयन शक्तियों की नौसेनाओं का मुकाबला कर सके।
पुर्तगालियों के भारत आगमन का प्रमुख उद्देश्य : पन्द्रहवीं शती के आरम्भ में पुर्तगाल के शासक डॉन हेनरीक जिसे हेनरी द नेवीगेटर कहा जाता था। इसने भारत के लिए एक सीधे समुद्री मार्ग की खोज आरम्भ कर दी। इसके पीछे पुर्तगाल के शासक डॉन हेनरी के दो मुख्य उद्देश्य थे। 1- अरबों तथा अपने यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों विशेषकर वेनिस एवं जिनोवा के व्यापारियों को पूर्वी व्यापार से निकाल बाहर करना। 2- अफ्रीका तथा एशिया के काफिरों को ईसाई बनाकर तुर्कों तथा अरबों की बढ़ती हुई शक्ति को संतुलित करना था। पोप ने भी 1453 में एक आदेशपत्र जारी किया जिसके अनुसार पुर्तगाल को सदा के लिए वह भूमि प्रदान की गई थी जो वह अफ्रीका के नोर अंतरीप और भारत के बीच खोज सके, किन्तु शर्त यह थी कि वह इन देशों के लोगों को ईसाई बनाए।
बता दें कि यूरोप में मसालों का व्यापार सबसे ज्यादा लाभप्रद था। ऐसे में 1453 ई. के बाद तुर्कों ने एशिया माइनर के जरिए इस व्यापार पर रोक लगा दी थी। अत: मसालों के व्यापार के लिए अन्य मार्ग खोजना आवश्यक हो गया था। हांलाकि उन दिनों कुतुबनुमा का अविष्कार हो चुका था तथा यह धारणा भी सिद्ध हो चुकी थी कि धरती गोल है और पश्चिम की ओर से चलकर पूर्व की ओर पहुंचा जा सकता है।
परिणामस्वरूप सर्वप्रथम पुर्तगाली शासक हेनरी द नेवीगेटर ने समुद्री यात्राओं व भौगोलिक खोजों को प्रोत्साहित करना शुरू किया। इस क्रम में 1487 में बार्थोलोम्यू डियाज ने उत्तमाशा अन्तरीप (अफ्रीका का दक्षिणी छोर) की खोज की।
तत्पश्चात 17 मई 1498 को पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा कालीकट बन्दरगाह पहुंचकर भारत के समुद्री मार्ग की खोज की। वास्कोडिगामा समुद्री रास्ते से आने वाला प्रथम पुर्तगाली व यूरोपीय यात्री था। वह भी अब्दुल मनीक नामक गुजराती पथ प्रदर्शक की सहायता से भारत आ सका था।
वास्कोडिगामा जब कालीकट में उतरा तो वहां बसे हुए अरब व्यापारियों की बस्ती ने उसका जमकर विरोध किया लेकिन कालीकट के राजा जमोरिन उसका स्वागत किया। जमोरिन ने वास्कोडिगामा को काली मिर्च तथा जड़ी बूटियां आदि ले जाने की अनुमति प्रदान की। वास्कोडिगामा लौटते वक्त अपने जहाज में कालीमिर्च भरकर ले गया जिस पर उसे 60 गुना फायदा हुआ।
भारत में पुर्तगाली शक्ति का विस्तार
भारत में पुर्तगाली शक्ति का विस्तार चार चरणों में हुआ। प्रथम चरण (1498-1505 ई.), द्वितीय चरण (1505-1509 ई.), तृतीय चरण (1509 से 1515 ई.) और चर्तुथ चरण।
प्रथम चरण (1498-1505)
पुर्तगाली आगमन के प्रथम चरण में इन व्यापारियों ने सशस्त्र व्यापार की नीति अपनाई। इसके अनुसार प्रत्येक वर्ष एक पुर्तगाली जहाज भारत आता और यहां से माल लेकर पुर्तगाल चला जाता था साथ ही भारत में अपनी शक्ति का विस्तार करने का प्रयास करता। बतौर उदाहरण- 1498 में वास्कोडिगाम के लौटने के बाद साल 1500 ई. में दूसरा पुर्तगाली यात्री पेट्रो अल्ब्रेज कैब्राल कालीकट आया। इसके बाद जब 1502 ई. वास्कोडिगामा दूसरी बार भारत आया तो उसने कन्नौर में एक फैक्ट्री स्थापित की। इसके ठीक एक वर्ष बाद 1503 में पुर्तगालियों ने कोचीन में अपनी पहली व्यापारिक कोठी की स्थापना की और पहला किला बनवाया। इस प्रकार पुर्तगालियों ने कालीकट, कोचीन और कन्नूर में किलेबंद कोठिया स्थापित कर ली। तत्पश्चात पुर्तगालियों ने राजा जमोरिन से घनिष्ठता स्थापित कर जमोरिन तथा अरब व्यापारियों के हितों को नुकसान पहुंचाना आरम्भ कर दिया। पुर्तगालियों की व्यापारिक कम्पनी का नाम ‘एस्तादे-द-इंडिया’ था।
द्वितीय चरण (1505-1509 ई.)
1505 ई. में पुर्तगाल ने फ्रांसिस्को डी अल्मेडा को भारतीय पुर्तगाली क्षेत्रों का प्रथम गर्वनर नियुक्त किया। अल्मेडा ने ब्लू वाटर पॉलिसी (नीले पानी की नीति) अपनाई। इस नीति का उद्देश्य व्यापारिक एकाधिकार बनाए रखने हेतु हिन्द महासागर में पुर्तगाली शक्ति को सर्वश्रेष्ठ बनाना था। इस नीति के तहत अल्मेडा ने मालाबार तट, अफ्रीका के पूर्वी तट पर अपना अधिकार जमा लिया तथा अरब व्यापारियों के ताकत को नष्ट करने का प्रयास किया। साल 1509 में अल्मेडा ने चौल की लड़ाई में टर्की, गुजरात व मिस्र की संयुक्त सेना को पराजित कर दीव पर अधिकार कर लिया। इसके पश्चात वह पुर्तगाल लौट गया।
तृतीय चरण (1509 से 1515 ई.)
फ्रांसिस्को डी अल्मेडा के पुर्तगाल लौटने के बाद 1509 में अल्फांसों डी अल्बुकर्क को गर्वनर बनाया गया। बता दें कि 1503 में अल्बुकर्क भारत में स्कवैड्रन के रूप में आया था। अल्फांसों डी अल्बुकर्क को भारत में पुर्तगाल साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उसने साम्राज्यावादी नीति का अनुसरण किया। इस नीति के तहत अल्बुकर्क ने 1510 ई. में बीजापुर के शासक युसुफ आदिलशाह से गोवा छीन लिया। इसके बाद साल 1511 में उसने दक्षिण पूर्व एशिया की व्यापारिक मंडी मलक्का और हरमुज पर अधिकार कर लिया। गर्वनर अल्बुकर्क ने कोचीन में एक मजबूत किले का निर्माण करवाया साथ ही गोवा में पुर्तगालियों की संख्या बढ़ाने के लिए भारतीय स्त्रियों से पुर्तगालियों के विवाह को प्रोत्साहित किया। अल्बुकर्क ने 1515 ई. में अपनी मृत्यु के समय तक पुर्तगाल को भारत में शक्तिशाली समुद्री शक्ति के रूप में स्थापित कर चुका था।
चर्तुथ चरण
1515 ई. में अल्बुकर्क की मौत के बाद पुर्तगाली कम्पनी एस्तादे द इंडिया का नया गर्वनर लोपासारस बना। उसके समय में श्रीलंका, चटगांव आदि स्थानों पर पुर्तगाली आधिपत्य कायम हुआ। पुर्तगाली गर्वनर नीनू-डी-कुन्हा का कार्यकाल 1529 से 1538 तक रहा। गर्वनर कुन्हा के कार्यकाल में कोचीन की जगह गोवा को राजधानी बनाया गया। डी कुन्हा ने बम्बई, मद्रास, हुगली,दमन, दीव, सालसिट, बेसिन में पुर्तगाली बस्तियां स्थापित की। बंगाल के शासक महमूद शाह ने 1534 में पुर्तगालियों को चटगांव व सतगांव में व्यापारिक फैक्ट्रियां खोलने की स्वीकृति प्रदान की। वहीं मुगल बादशाह अकबर ने हुगली में कारखाना खोलने की अनुमति दी। शाहजहां के कार्यकाल में पुर्तगालियों ने बंदेल में कारखाना स्थापित किया।
इस प्रकार यह अधिकार 17वीं सदी से पूर्व तक बना रहा, लेकिन धीरे-धीरे परिस्थितियां उनके विरूद्व होने लगीं और भारत में गोवा को छोड़कर उनके सभी केन्द्र अंग्रेजों के अधीन हो गए।
भारत में पुर्तगालियों के पतन के मुख्य कारण
— 1580 में स्पेन द्वारा पुर्तगाल पर अधिकार करना भारत में पुर्तगालियों के पतन का सबसे मुख्य कारण बना। दरअसल स्पेन के शासकों ने भारतीय उपनिवेशों तथा व्यापार में कोई रूचि प्रकट नहीं की। लिहाजा भारत में पुर्तगाली कारखानों को आवश्यक सहायता नहीं मिलने के कारण अव्यवस्था उत्पन्न हो गई जिससे उनके केन्द्रों पर डचों तथा मराठों ने अधिकार कर लिया।
— 1565 ई. के राक्षसी तंगड़ी युद्ध के बाद विजय नगर साम्राज्य का अस्तित्व ही समाप्त हो गया जिससे उन्हें पूर्व में मिल रही सहायता सदा के लिए समाप्त हो गई।
— अल्बुकर्क के बाद अन्य पुर्तगाली गर्वनर साम्राज्य के हितों की रक्षा नहीं कर सके।
— पुर्तगाली के अधिकारी भ्रष्ट, रिश्वतखोर एवं लालची थे, लिहाजा उन्हें कभी जनसमर्थन नहीं मिला।
— पुर्तगाल एक छोटा सा देश था, ऐसे में सीमित साधनों के अभाव में भारत के केन्द्रों पर उनकी पकड़ ढीली होती चली गई।
— पुर्तगालियों ने अपना रूख अब ब्राजील की तरफ कर लिया ऐसे में भारत की तरफ से उनका ध्यान हट गया।
— भारत में पुर्तगालियों को सबसे पहले मुगलों तत्पश्चात मराठों की शक्ति का सामना करना पड़ा। इन दोनों शक्तियों के सम्मुख उन्हें भारत में अपना पांव जमाने का उचित अवसर नहीं मिल सका।
— पुर्तगालियों के पतन में उनके यूरोपीय प्रतिद्वंदियों अंग्रेजों, डचों तथा फ्रांसीसियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जो उनसे ज्यादा ताकतवर थे।
— पुर्तगालियों ने भारतीयों को जबरदस्ती ईसाई बनाना शुरू कर दिया था, इससे जनता में उनके प्रति नफरत की भावना फैल चुकी थी।
आखिरकार पुर्तगालियों की चारित्रिक और प्रशासनिक दुर्बलताएं, मुगल तथा मराठा शक्तियां तथा यूरोपीय प्रतिद्वंदियों ने मिलकर भारत में उनका पतन सुनिश्चित कर दिया।
भारत में पुर्तगालियों से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य-
— पुर्तगालियों ने भारत में तम्बाकू की खेती तथा प्रिटिंग प्रेस की शुरूआत की।
— 1556 ई. में गोवा में प्रथम प्रिटिंग प्रेस की स्थापना हुई तथा भारतीय जड़ी-बूटियों पर प्रथम पुस्तक 1563 में गोवा से प्रकाशित हुई।
— पुर्तगालियों ने ही गोवा में गोथिक स्थापत्य शैली की शुरूआत की।
— जब चार्ल्स द्वितीय ने बैंग्राजा की कैथरीन से विवाह किया तो पुर्तगाल ने 1661 में बम्बई को इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय को दहेज में दे दिया।
— पुर्तगालियों का हिन्द महासागर में होने वाले व्यापार पर एकाधिकार हो चुका था।
— पुर्तगालियों ने कार्ट्ज पद्धति द्वारा बिना परमिट के भारतीय व अरबी जहाजों को अरब सागर में प्रवेश वर्जित कर दिया था।
— मुगल बादशाह अकबर को भी पुर्तगालियों से कार्ट्ज परमिट लेना पड़ा था।
— 1632 ई. में शाहजहां के समय बंगाल के गर्वनर कासिम खान ने पुर्तगालियों से हुगली छीन लिया था।
— औरंगजेब ने चटगांव से पुर्तगाली समुद्री लुटेरों का सफाया कर दिया था।
— चटगांव बन्दरगाह को पुर्तगाली पोर्टो ग्रान्डे (महान बन्दरगाह) कहते थे।
— 1739 में मराठों ने पुर्तगालियों से सालसेट व बसीन छीनकर अधिकार जमा लिया था।
— पुर्तगाली गर्वनर अल्फांसो डिसूजा के साथ विख्यात जेसुइट संत फ्रांसिस्को जेवियर भारत आया था।
संभावित प्रश्न— भारत में पुर्तगालियों के आगमन, शक्ति विस्तार एंव पतन के मुख्य कारणों की विस्तार से चर्चा कीजिए?