भारत का इतिहास

Arab and Turkish invasion on India

भारत पर अरब तथा तुर्क आक्रमण

अरब आक्रमण-

भारत पर सर्वप्रथम आक्रमण करने वाले इस्लाम धर्म के प्रथम अनुयायी अरब थे। अरब आक्रमण के समय सिन्ध की राजधानी अलोर (वर्तमान रोहेरा) व राजा का नाम दाहिर था। दाहिर के पिता का नाम चच था। चच ने सिन्ध के राय वंश के शासक राय साहसी द्वितीय की हत्या कर गद्दी हथिया ली। चच ब्राह्मण था जबकि राय वंश के शासक शूद्र थे।

712 ई. में मुहमद बिन कासिम के नेतृत्व में अरब सेना राजा दाहिर को परास्त कर रावर के युद्ध में मार डाला। दाहिर की मृत्यु के बाद उसकी विधवा रानीबाई ने रावर के दुर्ग की रक्षा की। कड़े प्रतिरोध के बाद रानी ने जौहर किया। भारतीय इतिहास में यहां पहली बार जौहर का उल्लेख हुआ है।

इराक के गर्वनर अल हज्जाज ने मुहम्मद बिन कासिम को सिन्ध पर आक्रमण करने हेतु भेजा था। इस समय इराक का खलीफा वालिद था। सिन्ध पर आक्रमण का तात्कालिक कारण यह था कि समुद्री डाकुओं ने श्रीलंका जा रहे एक व्यापारिक जहाज को लूट लिया। देवल के थट्टा के पास सिन्ध के समुद्री तट पर हुई इस घटना के बाद दाहिर ने न तो डाकुओं को नियंत्रित किया और न ही हर्जाना ​दिया।

सिन्ध की व्यापारिक महत्ता भी अरब आक्रमण का दूसरा प्रमुख कारण था। 9वीं शताब्दी में रचित बिलादूरी की पुस्तक किताब -फुतूह अल-बलदान में सिन्ध आक्रमण का वि​स्तृत वर्णन मिलता है। सिन्ध आक्रमण के दौरान दाहिर की दो अविवाहित पुत्रियां जीवित पकड़ी गईं जिन्हें खलीफा वालिद के पास भेज दिया गया। चचनामा के मुताबिक दाहिर की इन दोनों पुत्रियों की शिकायत पर खलीफा वालिद ने मुहम्मद बिन कासिम को मृत्युदंड दे दिया। बता दें कि मुहम्मद बिन कासिम के किसी अज्ञात सैनिक अथवा सेवक के द्वारा अरबी भाषा में चचनामा की रचना की गई थी, जिसका फारसी अनुवाद मुहम्मद अली बिन अबु बक्र कुफी ने किया था।

भारत में सबसे पहले जजिया कर की वसूली सिन्ध में मुहम्मद बिन कासिम ने की थी। अरबों ने सिन्ध में न केवल दिरहम नामक सिक्के को प्रचलित करवाया बल्कि सिन्ध नदी के तट पर महफूजा नाम से एक नगर भी स्थापित किया। सिन्ध को जीतने के बाद मुहम्मद बिन कासिम ने 713 ई. में मुल्तान को जीता। मुल्तान की जीत के दौरान अरबों को इतना सोना मिला कि मुल्तान का नाम सोने का नगर रख दिया। मुहम्मद बिन कासिम ने अपनी सेना में हिन्दुओं को भी नियुक्त किया। ब्रह्मगुप्त द्वारा रचित ब्रह्मसिद्धांत तथा खण्डनखण्डखाद्यक नामक संस्कृत ग्रन्थों का अरबी अनुवाद अल जाफरी ने किया। खलीफा मंसूर के समय आठवीं शताब्दी में इन पुस्तकों को विद्वान बगदाद ले गए। इतना ही नहीं पंचतंत्र का अरबी अनुवाद कर कलिला व दिम्ना नामक पुस्तक तैयार की गई। इतिहासकार लेनपूल के मुताबिक सिन्ध पर अरब आक्रमण भारतीय इतिहास में एक घटना मात्र व इस्लामी इतिहास में परिणामविहिन जीत थी। यही वजह है कि सिन्ध विजय के राजनीतिक परिणाम अल्पकालीन रहे। सांस्कृतिक दृष्टि से यह महत्वपूर्ण घटना थी। कुछ इसी तरह से वूल्जले हेग ने भी अरबों द्वारा सिन्ध विजय को भारतीय इतिहास की एक आकस्मिक कथा मात्र बताया है।

अबू मशर को बगदाद में अब्बासिद दरबार का सबसे बड़ा ज्योतिषी माना जाता था। अमीर खुसरो के मुताबिक अबू मशर बनारस (वाराणसी) आए ​​और वहां दस वर्षों तक खगोल विज्ञान का अध्ययन किया। 871 ई. तक सिन्ध में खलीफाओं की सत्ता प्राय: समाप्त हो गई तथा सिन्ध का मुल्तान व मंसूरा नामक दो अरब राज्यों में विभाजन हो गया।

गौरतलब ​है कि अरब आक्रमणकारियों ने सिन्ध पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त की लेकिन वे भारत में एक स्थायी राज्य स्थापित करने में असफल रहे। अरबों का धार्मिक उत्साह और शक्ति 200 वर्षों से कम समय में ही निष्प्राण हो गई। खलीफाओं की विलासिता और दुर्बलताओं के कारण इस्लाम का नेतृत्व अरबों के हाथों से खो दिया। पहले ईरानियों ने उस नेतृत्व को अपने हाथों में लिया इसके बाद इस्लाम का नेतृत्व तुर्कों के हाथों में आ गया। भारत में इस्लामी राज्य स्थापित करने  का श्रेय तुर्कों को प्राप्त हुआ। तुर्कों की बुद्धि और व्यवहार का मुख्य आधार उनकी तलवार की शक्ति थी।

भारत में तुर्क आक्रमण-

10वीं सदी के तुर्क काबुल के हिन्दूशाही राज्य के सम्पर्क में आए और गजनवी वंश की स्थापना के 50 वर्ष पश्चात उन्होंने भारत में प्रवेश किया। भारत भूमि के अन्दर प्रवेश पाने का प्रथम श्रेय गजनवी वंश के सुल्तान महमूद गजनवी को जाता है। य​द्यपि भारत में राज्य स्थापित करने का श्रेय शंसबनी वंश के मुहम्मद गोरी को प्राप्त हुआ।

यमीनी वंश को मध्यकालीन इतिहास में अधिकांशतया गजनवी वंश के नाम से पुकारा गया है। शुरूआत में यह ईरान की एक शाखा थी, अरब आक्रमणों के समय इसके शासक तुर्किस्तान भाग गए और वहां वे तुर्कों से इतने घुलमिल गए कि इनके वंशज तुर्की कहलाए। 962 ई. में अलप्तगीन ने एक अमीर अबू वक्र लाविक को परा​जित कर जाबुलिस्तान और उसकी राजधानी गजनी पर अधिकार कर लिया। उसी समय समय गजनी उस वंश के राज्य की राजधानी बन गया। 963 ई. में अलप्तगीन की मृत्यु के पश्चात उसके पुत्र इसहक ने केवल 3 वर्ष शासन किया। उसकी मृत्यु के पश्चात उसके सेनापति बलक्तगीन ने गजनी की गद्दी पर अधिकार कर लिया।

 972 ई.में बलक्तगीन की मृत्यु के पश्चात अलप्तगीन का एक गुलाम पीराई गद्दी का स्वामी बन बैठा। चूंकि पीराई अयोग्य था इसलिए हिन्दूशाही राजा जयपाल ने अपने पुत्र को सेना के साथ गजनी पर आक्रमण करने के लिए भेजा क्योंकि जयपाल अपनी सीमा पर किसी इस्लामी राज्य की स्थापना नहीं होने देना चाहता था। इस दौरान सुबुक्तगीन ने अचानकर आक्रमण करके हिन्दूओं की उस सेना को परास्त कर दिया, जिससे उसके सम्मान में वृद्धि हुई। अब सुबु​क्तगीन ने 977 ई. में पीराई को हटाकर गजनी की गद्दी पर अधिकार कर लिया।

सुबुक्तगीन द्वारा राजा जयपाल की पराजय-

अपने साहस और योग्यता के बल पर अलप्तगीन का गुलाम सुबुक्तगीन उसका दामाद बना। धीरे-धीरे उसने बस्त, दवार, कुसदार, वामियान, तुर्किस्तान और गोर को भी जीत लिया। इसके बाद सुबुक्तगीन ने हिन्दूशाही राज्य की समीओं पर आक्रमण करने शुरू किए। 986-87 ई. में राजा जयपाल ने गजनी पर आक्रमण कर दिया। कई दिनों तक युद्ध चलने के बाद एक दिन भीषण तूफान के चलते जयपाल की सेना छिन्न-भिन्न हो गई, अत: जयपाल को सन्धि करके वापस लौटना पड़ा। परन्तु लाहौर पहुंचते ही जयपाल ने सन्धि की शर्तों को मानने से इनकार कर दिया। ऐसे में सुबुक्तगीन ने उसकी सीमाओं पर आक्रमण किया और लमगान तक अपना अधिकार कर लिया। जयपाल ने सुबुक्तगीन को पराजित करने के लिए एक लाख सैनिकों वाली बड़ी सेना तैयार की। फरिश्ता लिखता है कि दिल्ली, अजमेर, कालिंजर तथा निकट के अनेक राजाओं ने अपनी सैनिक टुकड़ियां जयपाल की सहायता के लिए भेजी। लमगान के निकट जयपाल और सुबुक्तगीन की सेनाओं के बीच युद्ध हुआ जिसमें जयपाल की पराजय हुई। इसके बाद सुबुक्तगीन ने लमगान से लेकर पेशावर के बीच सम्पूर्ण भूमि पर अधिकार कर लिया।

गौरतलब है कि 997 ई. में सुबुक्तगीन की मृत्यु हो गई परन्तु अपने निधन से पहले उसने अपने छोटे पुत्र इस्माइल को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, लेकिन बड़े बेटे महमूद गजनवी ने इस्माइल को अस्वीकार करते हुए सात माह पश्चात इस्माइल को पराजित करके 998ई. में अपने पिता के राज्य पर अधिकार कर लिया और 1030 ई. तक शासन किया। यह वही महमूद गजनवी था जिसने भारत पर लगातार आक्रमण किए और तुर्कों के लिए भारत विजय का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

महमूद गजनवी (998-10130 ई.)-

महमूद गजनवी का जन्म 1 नवम्बर 971 ई. में हुआ। उसने पूर्ण शिक्षा प्राप्त की थी तथा अपने पिता सुबुक्तगीन के समय में अनेक युद्धों में हिस्सा लिया था। महज 27 वर्ष की उम्र में 998 ई. में  वह अपने पिता के राज्य का मालिक बना। इतिहासकारों ने महमूद गजनवी को मुस्लिम इतिहास में प्रथम सुल्तान माना, यद्यपि महमूद गजनवी के सिक्कों पर ​केवल अमीर महमूद अंकित किया गया था।

आरम्भ में महमूद गजनवी ने हिरात, बल्ख तथा बस्त में अपनी शक्ति का विस्तार किया तथा खुरासान पर विजय प्राप्त की। बगदाद के खलीफा अल-कादिर बिल्लाह ने 999 ई. में इन प्रदेशों पर महमूद के अधिकार को स्वीकृति प्रदान की तथा उसे यमीन- उद् -द्दौला (साम्राज्य का दाहिना हाथ) तथा आमीन-उल-मिल्लाह (मुसलमानों का संरक्षक) की उपाधियां प्रदान की। यह  कहा जाता है कि इसी अवसर पर महमूद गजनवी ने भारत पर प्रत्येक वर्ष आक्रमण करने की शपथ ली।

महमूद गजनवी के आक्रमण के प्रमुख कारण-

  महमूद गजनवी का प्रमुख उद्देश्य भारत की सम्पत्ति को लूटना था, इस तथ्य से कोई भी इतिहासकार इंकार नहीं करता। उसे गजनी के ऐश्वर्य और राज्य विस्तार के लिए धन की आवश्यकता थी।

महमूद भारत में इस्लाम की प्रतिष्ठा को स्थापित करना चाहता था। जबकि इतिहासकार जाफर ने लिखा है, “महमूद का उद्देश्य भारत में इस्लाम का प्रचार नहीं बल्कि धन लूटना था। उसने हिन्दू मंदिरों पर इसलिए आक्रमण किए क्योंकि वहां धन संचित था।मि. हैवेल का कथन है कि वह बगदाद को भी वैसी ही निर्दयता से लूट लेता जैसी ही​ निर्दयता से उसने सोमनाथ को लूटा था।

सीमावर्ती हिन्दू राज्य को नष्ट करना महमूद गजनवी का राजनीतिक उद्देश्य था। गजनी और ​हिन्दूशाही राज्य के झगड़े अलप्तगीन के समय से चले आ रहे थे। हिन्दूशाही राज्य तीन बार गजनी पर आक्रमण कर चुका था।

महमूद गजनवी अति महत्वाकांक्षी था, वह सभी महान शासकों की भांति राज्य विस्तार और यश का भूखा था।

डॉ. ए.बी. पाण्डेय के मुताबिक भारत में हाथी प्राप्त करना भी उसका एक लक्ष्य था जिनका उपयोग वह अपने मध्य एशिया के शत्रु राज्यों के विरुद्ध करना चाहता था।

महमूद गजनवी के आक्रमणों के दौरान भारत की स्थिति-

उन समय भारत राजनीतिक दृष्टि से कई विभिन्न राज्यों में बंटा हुआ था। उनमें से कुछ राज्य शक्तिशाली भी थे लेकिन पारस्परिक प्रतिस्पर्धा उनकी मुख्य दुर्बलता थी जिसके कारण वे विदेशी शत्रु का मुकाबला मिलकर भी न कर सके। दक्षिण में परवर्ती चालुक्य और चोल वंश के शक्तिशाली राज्य थे लेकिन वे उत्तरी भारत की राजनीति में विशेष रूचि नहीं रखते थे। जिस समय महमूद गजनवी उत्तर भारत को अपने पैरों तले रौंद रहा था, उस समय भी वे अपने ही संघर्षों में व्यस्त रहे। भारत में अधिकांश राजपूत राजवंशों के राज्य थे, राजपूतों में प्राणों का मोह न था और न उनमें साहस और शौर्य की कमी थी। परन्तु इन शासकों में दूरदर्शिता और परिस्थितियों को समझने तथा उनके अनुकूल उठ खड़े होने का अभाव रहा जिसके कारण वे सभी बार- बार महमूद से पराजित होते रहे और अपने देश की रक्षा करने में असमर्थ रहे।

राजनीतिक दृ​ष्टि के मुकाबले सामाजिक दृष्टि से भारत और भी दुर्बल था। समाज में जातियों-उपजा​तियों का विभाजन, स्त्रियों की गिरती हुई स्थिति और अनैतिक आचार-विचार इस बात के प्रमाण थे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के अलावा समाज का एक बड़ा भाग अन्तयज भी था, इन्हें समाज में किसी भी वर्ग में स्थान नहीं प्राप्त था। चमार, जुलाहे, मछुआरे, टोकरी बुनने वाले, शिकारी आदि इस वर्ग में आते थे। इनसे भी निम्न स्तर हादी, डोम, चाण्डाल, बधाटू आदि का था, जो साफ-सफाई के कार्यों में लगे हुए थे, इन्हें नगरों अथवा गांवों के बाहर ही रहना पड़ता था। वैश्यों तथा शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं था। ऊंच-नीच की भावना के चलते समाज विषाक्त हो चुका था। जाति परिवर्तन और अन्तर्जातीय विवाह संभव नहीं था।

धर्म की मूल भावना भी लुप्त हो चुकी थी। हिन्दू और बौद्ध धर्म में अनाचार फैल चुका था। सुरापान, मांस का सेवन और व्यभिचार वाममार्गी अनुयायियों की धार्मिक क्रियाओं में सम्मिलित थे। बौद्ध विहार, मठ, हिन्दू मन्दिर अनाचार और भोग विलास के केन्द्र बन चुके थे। मंदिरों में देवदासियों की प्रथा भ्रष्टाचार का मुख्य कारण बन चुकी थी। यहां तक कि स्थापत्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला आदि में भी लालित्य और भोग विलास की प्रवृत्ति का आभास होता है। सैनिक दृ​ष्टि से भी भारत ने अपने शस्त्रों तथा युद्ध शैली में सुधार करने का कोई प्रयत्न नहीं किया था। भारत की युद्ध शैली आक्रमणकारी कम और रक्षात्मक ज्यादा थी। उत्तर प​श्चिम में राजाओं ने सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं किया था जैसे न ही किले बनवाए थे और न ही किसी अन्य रक्षा पंक्ति का निर्माण करवाया था।

इस प्रकार भारत राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक-नैतिक तथा सैनिक दृष्टि से पूर्णतया दुर्बल था परन्तु भारत आर्थिक दृष्टि से समृद्ध था। विस्तृत उपजाउ भू प्रदेश, विदेशी व्यापार और खनिज पदार्थों की सम्पन्नता के लिए उत्तरदायी थे। बावजूद इसके भारत का यह धन कुछ विशेष वर्गों के हाथों में ही संचित था। राजपरिवार और व्यापारी वर्ग के अलावा इस देश के मन्दिर भी धन के खजाने बने हुए थे। विशेष स्थानों पर संचित यह धन विदेशी आक्रमणकारियों के लिए लालच का मुख्य कारण बना।

महमूद गजनवी के आक्रमण-

महमूद गजनवी के आक्रमण 11वीं सदी से आरम्भ हुए। सर हेनरी इलियट के मुताबिक महमूद गजनवी ने भारत पर 17 आक्रमण किए। हांलाकि उसके सभी आक्रमणों के बारे में सर्वस्वीकृत प्रमाण प्राप्त नहीं होते फिर भी सभी इतिहासकार यह अवश्य मानते हैं कि महमूद गजनवी ने भारत पर कम से कम 12 आक्रमण अवश्य किए थे।

महमूद गजनवी का पहला आक्रमण 1000 ई. में हुआ जब उसने सीमावर्ती राज्यों के कुछ किलों को जीता। दूसरा आक्रमण 1001 ई. में हुआ जिसमें उसने जयपाल, उसके पुत्र, नाती तथा अनेक संबंधियों को बंदी बना लिया गया। उसने जयपाल की राजधानी वैहिन्द तक लूटपाट की। जयपाल ने 25 हाथी 25 लाख स्वर्ण दीनार देकर अपने संबंधियों को मुक्त करवाया। जयपाल अपनी इस पराजय से इतना अधिक अपमानित हुआ कि उसने आत्मदाह कर लिया। उसके बाद उसका पुत्र आनन्दपाल गद्दी पर बैठा।

मुल्तान पर आक्रमण के लिए जाते समय मार्ग में जयपाल के पुत्र आनन्दपाल ने भेरा के निकट उसका मुकाबला किया लेकिन उसकी पराजय हुई। इसके बाद 1006 ई. में मू​हमूद गजनवी ने मुल्तान को जीत लिया, यह उसका चौथा आक्रमण था।  मुल्तान के शासक दाउद ने महमूद को प्रतिवर्ष 20000 दिरहम प्रतिवर्ष देने का वायदा किया था। हांलाकि महमूद के वापस लौटते ही दाउद और जयपाल के नाती ने विद्रोह कर दिया। 1008 ई. में महमूद पुन: भारत आया और दाउद तथा नौशाशाह को कैद करके मुल्तान को अपने राज्य में मिला लिया।

जयपाल के पुत्र आनन्दपाल ने हिन्दूशाही राज्य की रक्षा के लिए 1009 ई. में एक बड़ी सेना एकत्र की और महमूद का सामना किया लेकिन वैहन्द के निकट उसकी पराजय हुई। आनन्दपाल के बाद उसके पुत्र त्रिलोचनपाल ने कश्मीर तथा बुन्देलखंड के शासकों से सहायता प्राप्त कर महमूद से युद्ध किए लेकिन वह भी असफल रहा तत्पश्चात उसका पुत्र भीमपाल भी महमूद गजनवी से पराजित हो गया। 1020 ई. में भीमपाल की मृत्यु के पश्चात महमूद गजनवी ने सम्पूर्ण पंजाब पर ​अधिकार कर लिया।

 

महमूद गजनवी एक के बाद एक नगर और मन्दिर लूटता और नष्ट करता गया। गजनी का यह विध्वंसकारी लुटेरा तूफान की भांति वर्षों तक उत्तर भारत को रौंदता रहा। हिन्दू राज्य तिनकों की भांति उसके सामने बिखर गए।

1009 ई. में आनन्दपाल को पराजित करने के बाद महमूद गजनवी ने अलवर राज्य में ​स्थित नारायनपुर को जीता तथा लूटा। 1014 में थानेश्वर को लूटा, मार्ग में राजाराम को पराजित करते हुए सभी मन्दिरों तथा मूर्तियों को तोड़कर और थानेश्वर को लूटकर वह वापस चला गया। 1018 में वह कन्नौज पर आक्रमण करने के लिए आया। मथुरा के निकट महावन में यदुवंश के शासक कुलचन्द को पराजित करके मथुरा पर आक्रमण किया और इस धार्मिक शहर को अपनी इच्छानुसार लूटा। उत्बी लिखता है कि मथुरा के मन्दिरों में सोने-चांदी की हीरे-जवाहरातों से जड़ी हुई हजारों मूर्तियां थीं, उनमें से कुछ सोने की मूर्तियां पांच-पांच हाथ लम्बी थीं जिनमें से एक में 50000 दीनार के मूल्य की लाल मणियां जड़ी हुई थीं। विभिन्न मूर्तियों के नीचे अतुल धनराशि गड़ी हुई थी​ जिसे महमूद गजनवी ने प्राप्त किया।  वृंदावन में भी उसने मथुरा की कहानी दोहराई।

कन्नौज और मथुरा को लूटने के बाद महमूद ने कानपुर के निकट मन्झावान जो ब्राह्मणों के किले के नाम से विख्यात था, आक्रमण किया। 25 दिन की घेराबन्दी के बाद भी महमूद जब इस किले को जीतने में नाकाम रहा, ​हांलाकि इस किले के स्त्री-बच्चे जल मरे तथा पुरूष युद्ध में मारे गए थे।

1019 ई. में महमूद एक बार फिर भारत आया, वह चन्देलों सहित त्रिलोचनपाल को पराजित करने के बाद अपन मुख्य शत्रु विद्याधर को पराजित करने के लिए बुन्देलखंड की सीमा तक जा पहुंचा। विशाल सेना के बावजूद भी विद्याधर एक छोटी सी हार से घबड़ाकर युद्ध मैदान से गायब हो गया, ऐसा देखकर महमूद को बहुत आश्चर्य हुआ। फिर उसने राज्य में विनाशकारी लूट मार मचाते हुए स्वदेश वापसी की। 1021-22 ई. में महमूद फिर भारत आया, मार्ग में ग्वालियर के राजा कीर्तिराज को सन्धि के लिए बाध्य करते हुए वह कालिंजर किले के सम्मुख पहुंचा। कालिंजर के किले में छुपा बैठा विद्याधर काफी दिनों बाद सन्धि के लिए राजी हुआ। महमूद ने उसे 15 किले इनाम के रूप में दिए और वापस चला गया।

1024 ई. में महमूद गजनवी ने एक विशाल सेना लेकर सोमनाथ पर आक्रमण किया। बता दें कि गुजरात के काठियावाड़ में समुद्र तट पर बना यह शिव मन्दिर उत्तरी भारत का सबसे सम्मानित मन्दिर था। लाखों भक्तों की प्रतिदिन की भेंट के अतिरिक्त 10000 गांवों की आय इस मन्दिर को प्राप्त होती थी। आकार और सौन्दर्य की दृष्टि से यह मन्दिर अद्वितीय था, इसमें अत्यधिक धन संचित था। हजारों प्रकार के हीरे-जवाहरातों से शिवलिंग का छत्र बना हुआ था, स्वयं शिवलिंग बीच अधर में बिना किसी सहारे के लटका हुआ था। 200 मन सोने की जंजीर से उसका घंटा बजाया जाता था। 350 स्त्री-पुरूष शिवलिंग के सम्मुख हमेशा नृत्य करते रहते थे। शिवलिंग के भूगर्भ स्थल में अकूत सम्पत्ति रखी हुई थी। एक हजार पुजारी भगवान शिव की पूजा में संलग्न रहते थे। सोमनाथ मंदिर के इन पुजारियों के अन्दर इतना दम्भ था कि वे कहते थे कि महमूद ने उत्तरी भारत के मन्दिरों को इस कारण नष्ट किया था कि भगवान सोमनाथ उन सभी से असन्तुष्ट थे। उन्होंने झूठा दम्भ भरते हुए कहा था कि महमूद गजनवी सोमनाथ को हानि पहुंचाने की शक्ति नहीं रखता है। 

अब आप समझ सकते हैं कि पुजारियों का दम्भ और मन्दिर की अतुल सम्पत्ति ने महमूद को सोमनाथ पर आक्रमण करने के लिए बाध्य किया। मुल्तान के रास्ते से उसने काठियावाड़ में प्रवेश किया और 1025 ई. में काठियावाड़ की राजधानी अन्हिलवाड़ पहुंच गया। राजा भीमदेव बिना किसी प्रतिरोध के ही भाग खड़ा हुआ, इसके बाद महमूद ने राजधानी को खूब लूटा। पहले दिन का आक्रमण सफल नहीं हुआ लेकिन दूसरे दिन वह मन्दिर के प्राचीर तक पहुंच गया। इस युद्ध में  पचास हजार से अधिक व्यक्ति मारे गए। महमूद ने मन्दिर को पूरी तरह से नष्ट कर दिया। उसने मन्दिर की छत में लगे हुए चकमक पत्थर को हटवा दिया जिससे शिवलिंग भूमि पर गिर पड़ा जिसे महमूद ने तोड़ दिया। मन्दिर को हर तरह से लूटने के बाद अतुल सम्पत्ति लेकर वह गजनी लौट गया। जिस समय महमूद सोमनाथ का धन लेकर वापस जा रहा था, उसे रास्ते में जाटों ने बहुत तंग किया। जाटों को दंड देने के लिए सोमनाथ अन्तिम बार 1027 ई. में भारत आया। जाटों का उसने कठोरता से दमन किया, उनके बच्चों तथा स्त्रियों को दास बना लिया गया। यह उसका भारत पर अन्तिम आक्रमण था। इस प्रकार महमूद गजनवी ने भारत पर विभिन्न आक्रमण किए। अगर उसके आक्रमणों की संख्या को भी दरकिनार कर दिया जाए फिर भी उसने भारत की अतुल सम्पत्ति को लूटने में सफलता प्राप्त की। इसके अलावा पंजाब, मुल्तान और अफगानिस्तान के प्रदेशों में गजनवी वंश के राज्य को स्थापित किया। 1030 ई. में महमूद गजनवी की मृत्यु हो गयी।

महमूद गजनवी के दरबार में अलबेरूनी, फिरदौसी, उत्बी आदि विद्वान रहते थे। महमूद के आक्रमण के समय अलबेरूनी भारत आया, जिसकी प्रसिद्ध पुस्तक किताबुल हिन्द तत्कालीन इतिहास जानने का महत्वपूर्ण स्रोत है। इसमें भारतीय दर्शन, भूगोल, इतिहास, गणित, दर्शन आदि की समीक्षा की गई है।

शिहाबुद्दीन उर्फ मुईजुद्दीन मुहम्मद गोरी

निश्चित रूप से महमूद गजनवी ने अपने आक्रमणों के ​जरिए भारत को आर्थिक तथा सैनिक दृष्टि से कमजोर बनाया लेकिन वह इस देश में तुर्क राज्य की स्थापना नहीं कर पाया। महमूद गजनवी के इस अधूरे कार्य को मुहम्मद गोरी ने पूरा किया। महमूद गजनवी पहला सुल्तान था जिसने गोर विजय करके वहां के निवासियों को इस्लाम धर्म में परिवर्तित करवाया था। इससे पूर्व गोर निवासी बौद्ध धर्म के अनुयायी थे। गोर साम्राज्य का केन्द्र उत्तरी-पश्चिमी अफगानिस्तान था। 1163 ई. में गियासुद्दीन गोर का शासक बना। गियासुद्दीन ने गजनी का राज्य अपने भाई शिहाबुद्दीन उर्फ मुहम्मद गोरी को दे दिया। 12वीं सदी में मुहम्मद गोरी ने भारत पर आक्रमण किए और यहां अपने राज्य की स्थापना की।

मुहम्मद गोरी के आक्रमण के मुख्य कारण-

मुहम्मद गोरी महत्वाकांक्षी था, भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करना उसका प्रमुख लक्ष्य था।

गजनवी और गोर वंश में वंशानुगत शत्रुता चली आ रही थी ऐसे में गजनी को जीतकर मुहम्मद गोरी पंजाब पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानता था।

पश्चिम की तरफ गोर वंश के राज्य​ विस्तार को ख्वारिज्म शासकों ने रोक दिया था। इसके अलावा उस तरफ राज्य विस्तार की जिम्मेदारी मुहम्मद गोरी के बड़े भाई गियासुद्दीन की थी।

मुहम्मद गोरी को धन की लालसा तथा धर्म विस्तार की इच्छा भी रही होगी क्योंकि यह उस युग की स्वाभाविक परिस्थितियों में शामिल था।

मुहम्मद गोरी द्वारा किए गए आक्रमण और भारत विजय-

सन 1175 ई. में मुहम्मद गोरी ने मुल्तान पर सबसे पहले आक्रमण किया और बड़ी सरलता से इसे जीत लिया। तत्पश्चात उसने उच्छ तथा निचले सिन्ध को भी अपने अधीन कर लिया। 1178 ई.में गोरी ने गुजरात पर आक्रमण किया लेकिन मूलराज द्वितीय ने अपनी विधवा मां ​नायिका देवी के नेतृत्व में आबू पहाड़ के निकट गोरी का मुकाबला किया और उसे परास्त कर दिया। भारत में यह गोरी की पहली पराजय थी।

इस हार के सा​थ ही गोरी ने अपना रास्ता ही बदल दिया और पंजाब की तरफ बढ़ना प्रारम्भ किया।  सन 1179 ई. में उसने पेशावर को जीत लिया इसके ठीक दो वर्ष बाद गोरी ने लाहौर पर आक्रमण किया उस दौरान मलिक खुसरव ने अति बहुमूल्य भेंट प्रदान करते हुए अपने एक पुत्र को बन्धक के रूप में देकर अपनी रक्षा की। 1185 में गोरी ने स्यालकोट को जीता और वापस चला गया। इसके बाद मलिक खुसरव ने खोक्खर जातियों की सहायता से स्यालकोट को जीतने का प्रयास किया लेकिन असफल रहा। इस बात से नाराज होकर गोरी ने 1186 में लाहौर पर दोबारा आक्रमण किया और छल से खुसरव को मिलने के लिए बुलाया और उसे कैद कर लिया। तत्पश्चात गोरी ने सम्पूर्ण पंजाब पर अधिकार कर लिया और गजनी राजवंश समाप्त हो गया। इतना ही नहीं 1192 ई. में गजनवी वंश के शासक खुसरव शाह की हत्या कर दी गई।

तराइन का प्रथम तथा द्वितीय युद्ध- (1191- 1192)

पंजाब पर आधिपत्य स्थापित करते ही मुहम्मद गोरी की सीमाएं दिल्ली और अजमेर की शासक पृथ्वीराज तृतीय की सीमाओं से मिलने लगीं। 1189 ई. में गोरी ने सीमावर्ती किले भटिण्डा पर विजय प्राप्त कर ली, गोरी जब वापस जाने की तैयारी कर रहा था तभी उसे सूचना मिली कि पृथ्वीराज चौहान एक बड़ी सेना लेकर भटिण्डा को जीतने के लिए आगे बढ़ रहा था। 1191 ई. में भटिण्डा के निकट तराइन का प्रथम युद्ध हुआ। युद्ध के प्रारम्भिक चरण में चौहानों का पलड़ा भारी रहा। राजपूतों के जबरदस्त आक्रमण से तुर्क सेना में खलबली मच गई बावजूद इसके गोरी ने अपना साहस नहीं खोया और सम्पूर्ण शक्ति के साथ राजपूतों पर टूट पड़ा। युद्ध के दौरान गोरी और पृथ्वीराज का सामन्त गोविन्दराज आमनेसामने आ गए। गोरी ने गोविन्दराज पर जोर से बर्छा चलाया जो उसके मुंह पर लगा उसके दो दांत टूट गए। इसके बाद गोविन्दराज ने गोरी पर कटारी से वार किया जिससे गोरी घायल होकर अपने घोड़े से गिरने ही वाला था कि उसका एक स्वामीभक्त सैनिक कूदकर गोरी के पीछे घोड़े पर चढ़ गया और गोरी को सुरक्षित रणक्षेत्र से बाहर ले गया। इस प्रकार आतंकित होकर मुस्लिम सेना भाग खड़ी हुई। चौहान की सेना ने भागती हुई मुस्लिम सेना का पीछा नहीं किया। इस युद्ध में गोरी की पराजय हुई। गोरी की यह दूसरी गम्भीर पराजय थी।

हांलाकि पृथ्वीराज चौहान भटिण्डा के किले को 13 माह बाद जीत सका। दुर्गरक्षक काजी जियाउद्दीन को बन्दी बनाकर अजमेर लाया गया। किन्तु पृथ्वीराज ने उसे विपुल राशि देकर पुन: गजनी भेज दिया। गौरतलब है कि युद्ध के दौरान भागती हुई मुस्लिम सेना का पीछा नहीं करना तथा काजी जियाउद्दीन को विपुल धन देकर विदा करना पृथ्वीराज की भयंकर भूलें थीं। डॉ. दशरथ शर्मा के अनुसार, ऐसी उदारता न तो सैनिक नियमों से मेल खाती है और न मुस्लिम युद्ध प्रणाली से।

इधर मुहम्मद गोरी तराइन के प्रथम युद्ध में हुई अपनी पराजय को भूल नहीं पाया था। वह स्वयं को अपमानित महसूस कर रहा था। उसे इस बात अहसास था कि बिना पृथ्वीराज को पराजित किए वह भारत में आगे नहीं बढ़ सकता है। इसलिए गोरी ने एक वर्ष तक जोरदार तैयारी की और एक लाख 20 हजार की चुनी हुई घुड़सवार सेना लेकर गजनी से चला। लाहौर पहुंचते ही उसने पृथ्वीराज को सन्देश भिजवाया कि वह इस्लाम और उसके आधिपत्य को स्वीकार कर ले। पृथ्वीराज ने गोरी को भारत से वापस जाने को कहा। इसके बाद गोरी ने भटिण्डा को जीतकर तराइन के मैदान में प्रवेश किया। इस बार बहुत से सामन्त और हिन्दू राजा पृथ्वीराज की सहायता के लिए पहुंचे थे। फरिश्ता के अनुसार पृथ्वीराज के पास पांच लाख घुड़सवार और तीन हजार हा​थी थे। हांलाकि यह संख्या बढ़ाचढ़ाकर लिखी गई लेकिन इसमें कोई सन्देह नहीं कि पृथ्वीराज भी एक बड़ी सेना लेकर युद्ध के लिए गया था।

इस बार गोरी शुत्र को छल से विजित करने का निश्चय कर चुका था। इसलिए दूत भेजकर पृथ्वीराज से कहलावा कि मैं तो अपने भाई का सेनापति हूं और युद्ध की अपेक्षा सन्धि को अच्छा समझता हूं। इसलिए एक दूत को अपने भाई के पास भेजा हूं, ज्यों ही आदेश प्राप्त होगा मैं वापस गजनी लौट जाउंगा। पृथ्वीराज ने गोरी का विश्वास कर लिया और उसकी सेना आराम करने लगी। गोरी अपनी अश्वारोही सेना को दस-दस हजार के दस्तों में विभाजित करके चारों दिशाओं से शत्रु पर आक्रमण करने के आदेश दिए। पृथ्वीराज के सैनिकों में भ्रम उत्पन्न करने के लिए कुछ पैदल सैनिकों को रातभर अपने तम्बूओं के बाहर आग जलाते रहने का आदेश दिया ताकि शत्रु यह समझे कि मुस्लिम सैनिक अपने शिविर में ही हैं।

गोरी अपनी सेना लेकर रातभर चला और पृथ्वीराज की सेना के बिल्कुल करीब पहुंच गया और सुबह होते ही चारों तरफ से आक्रमण किया। पृथ्वीराज ने हाथी पर बैठकर अपने सैनिकों की स्थिति सम्भालने तथा अनुशासन स्थापित करने की कोशिश की लेकिन स्थिति प्रतिकूल होते ही घोड़े पर सवार हो गया और शत्रु का मुकाबला करने लगा। दिन के तीसरे प्रहर तक जब चौहान की सेना थककर चूर हो गई तब गोरी ने तीव्र शक्ति के साथ राजपूतों पर आक्रमण किया। इस अन्तिम और भीषण प्रहार को राजपूत नहीं झेल पाए और पृथ्वीराज घोड़े पर बैठकर युद्ध भूमि से भागा लेकिन सिरसा हरियाणा राज्य के पास पकड़ा गया और कैद कर लिया गया। गोविन्दराज भी हजारों सैनिकों के साथ मारा गया।  पृथ्वीराज की मृत्यु के सम्बन्ध में विभिन्न मत प्रकट किए गए हैं। इन सभी में हसन निजामी का मत स्वीकार किया जाता है कि पृथ्वीराज ने गोरी की आधीनता स्वीकार कर ली और उसके साथ अजमेर गया। परन्तु जब बाद में उसने विद्रोह करने का षड्यंत्र किया तो उसे मृत्यु दंड दे दिया गया। इस प्रकार गोरी की सजगता तथा श्रेष्ठ युद्ध प्रणाली के चलते मुसलमानों की जीत हुई। तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.) इतिहास का निर्णायक युद्ध था। इस युद्ध के पश्चात गोरी की भारत विजय सरल हो गई।

मुहम्मद गोरी के अन्य आक्रमण व महत्वपूर्ण तथ्य-

— 1193 ई. में भारत में गोरी के राज्य की राजधानी बनी दिल्ली।

— 1194 ई. में चन्दावर के युद्ध में मुहम्मद गोरी ने कन्नौज के शासक जयचन्द को न केवल पराजित किया बल्कि उसकी हत्या भी कर दी।

उत्तरी भारत में उसका मुकाबला करने वाला कोई शक्तिशाली राजा नहीं रहा इसलिए तुर्कों के लिए बिहार तथा बंगाल विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया।

जयचन्द को पराजित करने के पश्चात गजनी वापस लौटते समय मुहम्मद गोरी ने विजित प्रदेशों को संगठित करने की जिम्मेदारी कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप दी।

भारतीय राजाओं में मुहम्मद गोरी को नायिका देवी के नेतृत्व में मूलराज प्रथम तथा पृथ्वीराज चौहान ने हराया था।

कुतुबुद्दीन ऐबक ने हिन्दू और जैन मन्दिरों को नष्ट करके उनके अवशेषों से दिल्ली में कुव्वत-उल-इस्लाम नामक मस्जिद बनवाई।

— 1194 में अजमेर फतह के बाद कुतुबुद्दीन ने 1196 ई. में ​अजमेर में संस्कृत विश्वविद्यालय के स्थान पर ढाई दिन का झोपड़ा नामक एक अन्य विख्यात मस्जिद का निर्माण करवाया।

सन 1205 ई. में मुहम्मद गोरी अन्तिम बार भारत आया था।

— 15 मार्च 1206 ई. को सिन्धु नदी के तट पर दमयक नामक स्थान पर शाम को नमाज पढ़ते हुए मुहम्मद गोरी पर कुछ व्यक्तियों ने अचानक हमला करके उसकी हत्या कर दी।

मुहम्मद गोरी के सिक्कों पर एक तरफ कलिमा उत्कीर्ण होता था तो दूसरी तरफ लक्ष्मी की आकृति अंकित रहती थी।

तुर्क शासक किलों को तोड़ने के लिए मंजनिक व अर्रादा नामक यंत्रों को काम में लेते थे।

— 1206 में मुहम्मद गोरी की मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में नए वंश की नींव डाली। जिसे गुलाम वंश कहा गया।

सम्भावित प्रश्न

भारत पर अरब आक्रमणकारियों के संबंध में संक्षिप्त चर्चा की​जिए?

तुर्क आक्रमणकारी महमूज गजनवी के द्वारा भारत पर किए गए आक्रमणों का विशद वर्णन कीजिए?

महमूद गजनवी के द्वारा मथुरा तथा सोमनाथ मंदिर की लूट तथा धार्मिक स्थलों पर किए गए तोड़फोड़ के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डालिए?

मुहम्मद गोरी ने भारत पर कितने आक्रमण किए, विस्तार से उल्लेख किए?

गोरी और पृथ्वीराज चौहान को बीच हुए तराईन के प्रथम तथा द्वितीय युद्ध का वर्णन कीजिए?

मुहम्मद गोरी के एक गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा भारत में तुर्क साम्राज्य की सदृढ़ीकरण के लिए किए गए कार्यों पर प्रकाश डालिए?