
दिल्ली सल्तनत 1206 ई. से 1526 ई. तक अपने अस्तित्व में रही। दिल्ली सल्तनत के इस्लामिक धर्म प्रधान राज्य (सैद्धान्तिक रूप से) में कुल पांच राजवंशों ने शासन किया- गुलाम अथवा मामलूक वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश और लोदी वंश। तकरीबन सभी सुल्तानों ने स्वयं को खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में पेश किया। दरअसल इन सुल्तानों का असली मकसद मुस्लिम जनता तथा उलेमा वर्ग का विश्वास और वफादारी प्राप्त करना था। दिल्ली सल्तनत के शासकों ने अपने साम्राज्य के संचालन एवं सुदृढ़ीकरण के लिए एक शक्तिशाली प्रशासनिक एवं आर्थिक व्यवस्था का विकास किया।
दिल्ली सल्तनत : केंद्रीय प्रशासन
सुल्तान – दिल्ली सल्तनत में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था। सल्तनत काल में ताकतवर सुल्तान अपनी इच्छानुसार अपने किसी योग्य संतान को उत्तराधिकारी घोषित कर सकता था। इसके अतिरिक्त अयोग्य उत्तराधिकारी होने की स्थिति में सरदारों ने सुल्तान चुनने की प्रणाली का प्रयोग किया। इसके साथ ही तलवार की शक्ति भी सिंहासन के अधिकार को निश्चित करती थी।
दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था भारतीय तथा अरबी-फारसी व्यवस्थाओं का सम्मिश्रण थी जिसमें सुल्तान के पास व्यापक शक्तियां होती थी और वह निरकुंश था। प्रशासन में सुल्तान ही सर्वोच्च कार्यपालिका, सर्वोच्च सेनाध्यक्ष, सर्वोच्च विधिनिर्माता और सर्वोच्च न्यायाधिकारी होता था। सुल्तान की शक्ति का आधार उसकी सेना थी, जिसके द्वारा वह स्वयं की रक्षा के साथ-साथ अपनी इच्छाओं का क्रियान्यवन करता था। सैनिक संगठन तुर्क मंगोल पद्धति पर आधारित था। यद्यपि सुल्तान की शक्ति पर व्यक्तिगत नियमों, प्रभावशाली मंत्रियों, सेना, अमीर वर्ग, उलेमा वर्ग तथा इस्लाम का नियंत्रण था। सुल्तान का महत्वपूर्ण कार्य इस्लाम धर्म की सुरक्षा तथा उसका विस्तार करना भी था।
मजलिस-ए-खलवत - सुल्तान की मदद करने के लिए मंत्रियों की एक परिषद ‘मजलिस-ए-खलवत’ थी जिसमें वजीर, सैन्य विभाग का प्रमुख, राज्य के आन्तरिक तथा विदेशी मामलों के पदाधिकारी शामिल थे। ये सभी लोग सुल्तान को परामर्श देते थे। मजलिस-ए-खास में मजलिस-ए-खलवत की बैठक होती थी। हांलाकि प्रशासन से जुड़े सभी निर्णय सुल्तान की इच्छा पर निर्भर थे।
केंद्रीय प्रशासन के प्रमुख पदाधिकारी
1. नाइब - दिल्ली सल्तनत के अमीर सरदारों ने शासन शक्ति खुद के हाथों में रखने के लिए अपने में से ही किसी एक को नाइब का पद दिया। दुर्बल सुल्तानों के समय नाइब पद का बेहद महत्व था। नाइब को सुल्तान के बाद माना जाता था। नाइब को राज्य के वजीर से भी श्रेष्ठ समझा जाता था। परन्तु शक्तिशाली सुल्तानों ने इस पद को या तो समाप्त कर दिया या फिर किसी योग्य सरदार को केवल सम्मान देने की दृष्टि से इस पद को बनाए रखा।
2. वज़ीर - सुल्तान का प्रमुख सहयोगी एवं राज्य का प्रधानमंत्री वजीर कहलाता था, जिसे ‘ख्वाजा जहां’ की उपाधि मिलती थी। वजीर मुख्य रूप से दीवान-ए-वजारत (राजस्व विभाग), दीवान-ए-इसराफ (लेखा परीक्षक), दीवान-ए-इमारत (लोक निर्माण विभाग) तथा दीवान-ए-कोही (कृषि विभाग) के मंत्रियों का प्रभारी था। इसके साथ ही वजीर सम्पूर्ण प्रशासनिक व्यवस्था का अध्यक्ष होता था। बलबन के समय वजीर की शक्तियां नगण्य हो चुकी थी लेकिन तुगलक काल वजीर पद का स्वर्ण काल था, विशेषकर फिरोज तुगलक के समय।
राज्य में नाइब का पद नहीं होने की स्थिति में सुल्तान के बाद सर्वोच्च अधिकारी वजीर ही होता था। वजीर की सहायता के लिए छोटे अधिकारियों के अतिरिक्त नाइब वजीर, मुश्रिफ-ए-मुमालिक, मुस्तौफी-ए-मुमालिक जैसे बड़े अधिकारी भी होते थे।
3. आरिज-ए-मुमालिक - सैन्य विभाग का प्रधान पदाधिकारी आरिज-ए-मुमालिक था, जिसका कार्यालय दीवान-ए-आरिज कहलाता था। सेना से जुड़े सभी निर्णय आरिज-ए-मुलालिक के हाथ में था, जैसे- सैनिकों की भर्ती, सैन्य निरीक्षण, सेना के लिए रसद की व्यवस्था, घोड़ों पर दाग एवं सैनिकों की हुलिया आदि। आरिज-ए-मुमालिक एक प्रकार से दिल्ली सल्तनत का आर्मी जनरल था। हांलाकि सुल्तान समयानुसार विभिन्न युद्धों के लिए अपनी इच्छानुसार सेनापति नियुक्त करता था।
4. दीवान-ए-रसालत - दीवान-ए-रसालत को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। हांलाकि प्रख्यात इतिहासकार डॉ. ए.एल.श्रीवास्तव के अनुसार, यह विदेश मंत्रालय था जिसके अधीन कूटनीतिक पत्र व्यवहार तथा विदेशी राजदूतों से जुड़े कार्य सम्पन्न किए जाते थे।
5. दबीर-ए-मुमालिक - यह शाही पत्र व्यवहार से जुड़ा विभाग था जिसे ‘दीवान-ए-इंशा’ कहा जाता था। दीवान-ए-इंशा का प्रधान दबीर-ए-खास कहलाता था। शाही फरमानों, पत्रों के मसविदें तैयार करना तथा सुल्तान के कार्यों का विवरण लिखना इस विभाग का प्रमुख कार्य था। दबीर-ए-मुमालिक की सहायता के लिए अनेक दबीर (लेखक) होते थे। इस विभाग का पदाधिकारी सुल्तान का बेहद विश्वासपात्र माना जाता था।
6. सद्र-उस-सुदूर - धर्म विभाग का प्रधान सद्र-उस-सुदूर कहलाता था। जकात नामक कर से वसूल किए गए धन पर उसका अधिकार होता था। सद्र-उस-सुदूर नामक पदाधिकारी दान विभाग (दीवान-ए-खैरात) का भी अध्यक्ष होता था। मस्जिदों, मजारों, मकबरों, खानकाहों, मदरसों, मकतबों के निर्माण एवं रक्षा आदि के लिए यही पदाधिकारी उत्तरदायी था।
7. काजी-उल-कूजात - सुल्तान के बाद न्याय विभाग का प्रधान अधिकारी काजी-उल-कूजात कहलाता था। सल्तनत की समस्त न्यायिक व्यवस्था की जिम्मेदीरी इसी पदाधिकारी के पास थी। यद्यपि काजी-उल-कूजात से भी बड़ा न्यायाधिकारी सुल्तान था।
8. बरीद-ए-मुमालिक - जिन सुल्तानों ने गुप्तचर विभाग का संगठन किया था उसका यह प्रधान अधिकारी होता था। विभिन्न गुप्तचर, सन्देशवाहक और डाक-चौकियां बरीद-ए-मुमालिक के अधीन होती थीं।
9. अन्य प्रमुख पदाधिकारी - सुल्तान से मिलने वालों की जांच-पड़ताल करने वाला पदाधिकारी अमीर-ए-हाजिब, शाही उत्सवों एवं दावतों का प्रबन्ध करने वाला पदाधिकारी अमीर-ए-मजलिस तथा सुल्तान के अंगरक्षकों का प्रधान सर-ए-जांदार कहलाता था। दरबार की शान-शौकत और रस्मों-रिवाज की देखभाल करने वाला अधिकारी ‘बारबक’ था। ‘वकील-ए-दरमहल’ शाही कर्मचारियों की देखभाल करता था।
वहीं अश्वशाला का प्रधान ‘अमीर-ए-आखूर’ तथा हस्तिशाला का अध्यक्ष ‘शहना-ए-पील’ कहलाता था। जबकि शाही शिकार का प्रबन्ध करने वाले पदाधिकारी को ‘अमीर-ए-शिकार’ कहा जाता था। इन सभी उपरोक्त पदों पर सुल्तान के विश्वासपात्र व्यक्तियों की ही नियुक्ति की जाती थी।
दिल्ली सल्तनत : प्रान्तीय प्रशासन
सल्तनत काल में प्रान्तों को ‘इक्ता’ कहा जाता था। इक्ता का प्रधान मुक्ती, वली, नाजिम, नायब, इक्तादार आदि नामों से जाना जाता था। सुल्तान की ही तरह इक्तादार भी प्रान्त की सभी शक्तियों का केन्द्र होता था। प्रान्त की कानून व्यवस्था, सेना का प्रबन्ध, करों की वसूली तथा न्याय व्यवस्था उसके अधिकार क्षेत्र में आते थे। सल्तनत काल में प्रान्तों (इक्ता) की संख्या 20 से 25 हुआ करती थी।
दूरस्थ सूबे के सूबेदार एक प्रकार से सुल्तान की ही भांति व्यवहार करते थे। बतौर उदाहरण- बलबन के समय बंगाल का सूबेदार तुगरिल खां ने मौका मिलते ही विद्रोह का झंडा बुलन्द कर दिया, उसे अपदस्थ करने के लिए सुल्तान को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। प्रान्तीय शासक के अधीन प्रान्तीय वजीर, प्रान्तीय आरिज एवं काजी हुआ करते थे।
इक्ता प्रणाली -
सल्तनकाल में तुर्क अमीरों को भारी संख्या में इक्ताएं जागीरें प्रदान की जाती थी। इक्ता का प्रधान ‘इक्तादार’ कहलाता था। इक्ताएं दो प्रकार की होती थीं-छोटी और बड़ी इक्ता। छोटे इक्तादारों को सैनिक सेवा के बदले में भूमि के कुछ भाग से कर वसूलने का अधिकार था। जबकि बड़े इक्तादारों को सैनिक सेवा के अतिरिक्त अपने-अपने इक्ताओं में प्रशासकीय अधिकार भी दिए गए थे।
इक्ता प्रणाली में सामन्तशाही तत्व सम्मिलित न हो जाए इसके लिए इक्तादारों को समय-समय पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानान्तरित भी किया जाता था। दूसरे शब्दों में, दिल्ली सल्तनत में इक्ता प्रणाली का प्रयोग सामन्तशाही को समाप्त कर राज्य के दूरस्थ भागों को केन्द्र सरकार के साथ संयुक्त साधन के रूप में किया गया।
इक्ताओं की आय-व्यय का सटीक हिसाब रखने के लिए इक्तादारों के साथ ‘ख्वाजा’ नामक अधिकारी भी नियुक्ति की जाती थी। मुक्ता अथवा वली अपने कार्यों में सहायता के लिए अनेक पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था जिसमें मुख्य रूप से नाजिर एवं वकूफ होते थे। ये लोग राजस्व वसूली का काम करते थे। वजीर की सिफारिश पर सुल्तान प्रान्तों में ‘साहिब-ए-दीवान’ की नियुक्ति करता था। साहिब-ए-दीवान राज्य की आय का ब्यौरा रखता था।
दिल्ली सल्तनत : स्थानीय प्रशासन
सल्तनतकालीन प्रशासनिक व्यवस्था के तहत प्रान्तों यानि इक्ताओं को जिलों में बांट दिया गया था। जिलों को शिक कहा जाता था जिसका अध्यक्ष शिकदार कहलाता था। शिकदार एक सैन्य पदाधिकारी था जिसका कार्य अपने कार्यक्षेत्र में शान्ति व्यवस्था बनाए रखना था।
शिकों को परगनों में बांटा गया था जिन्हें कई गांवों को मिलाकर बनाया जाता था। प्रत्येक परगने में आमिल एवं मुशरिफ नामक पदाधिकारी होते थे। परगने का मुख्य प्रशासनिक अधिकारी आमिल तथा राजस्व विभाग का प्रधान मुंसिफ अथवा मुशरिफ हुआ करता था।
शासन की सबसे छोटी इकाई गांव थी जिसकी शासन व्यवस्था मुखिया, चौधरी, खुत, मुकदम के हाथों में थी। स्थानीय मामलों का निपटारा, नागरिक सुरक्षा, प्राथमिक शिक्षा के साथ ही लगान वसूली आदि में ये स्थानीय पदाधिकारी शासन की मदद करते थे।
दिल्ली सल्तनत : राजस्व व्यवस्था
सल्तनत काल में राज्य की आय के दो मुख्य स्रोत थे-1. धार्मिक कर 2. सामान्य कर।
धार्मिक कर
1. उश्र — मुसलमान भूमि कर के रूप में ‘उश्र’ देते थे। यह उपज का 1/5 अथवा 1/10 होता था। जिस भूमि पर प्राकृतिक साधनों से सिंचाई होती थी, वहां पैदावार का 1/10 भाग भूमि कर वूसला जाता था। जिस भूमि पर मनुष्यकृत साधनों से सिंचाई होती थी वहां से पैदावार का 1/5 भाग कर (tax) वूसला जाता था।
2. खराज - गैर मुसलमानों के पास जो भूमि होती थी, उनसे ‘खराज’ नामक कर वसूला जाता था। यह उपज का आधा अथवा एक तिहाई भाग होता था।
3. खम्स - राज्य की आय का एक अन्य साधन खम्स था जो कि युद्ध में लूट का माल था। राज्य लूट के माल से केवल 1/5 भाग ही लेता था तथा शेष 4/5 भाग सैनिकों में बांट दिया जाता था। फिरोज तुगलक को छोड़कर अन्य सभी सुल्तानों ने 4/5 हिस्सा स्वयं के लिए रखा। वहीं सिकन्दर लोदी ने गड़े हुए खजाने से कोई हिस्सा नहीं लिया।
4. जकात - जकात केवल धनी मुसलमानों से लिया जाता था जो उनकी आय का ढाई फीसदी होता था। इससे प्राप्त आमदनी से गरीब मुसलमानों के कल्याण के लिए कार्य किए जाते थे।
5. जजिया - जजिया गैर मुसलमानों से लिया जाने वाला कर था। सामान्यत: ब्राह्मणों, साधु-संन्यासियों, वृद्धजन, अपाहिजों, बच्चों तथा स्त्रियों से यह कर नहीं लिया जाता था। हांलाकि सुल्तान फिरोज तुगलक ने ब्राह्मणों को भी यह कर देने को बाध्य किया था।
सामान्य कर - दिल्ली सल्तनत का सबसे प्रमुख कर भूमि कर था। राज्य के पदाधिकारियों की जमीन, दान में दी गई जमीन, खालसा भूमि तथा अधीनस्थ हिन्दू राजाओं की भूमि, ये कुल चार प्रकार की राज्य की भूमि होती थी। लगान नकद अथवा अनाज के रूप में वसूला जाता था। लगान की राशि तय करने के लिए दो प्रथाएं थी -1. बंटाई व 2. मसाअत। बंटाई में राज्य प्रशासन किसानों से फसल का बंटवारा कर लेता था। बंटाई के अनेक प्रकार थे जैसे—
खेत बंटाई- इसमें खड़ी फसल का बंटवारा होता था।
लंक बंटाई - खलिहान में लाए गए अनाज का बंटवारा।
रास बंटाई - खलिहान में तैयार अनाज का बंटवारा।
मसाअत - मसाअत में जमीन की पैमाइश के आधार पर उपज का अन्दाजा लगाकर लगान की राशि तय की जाती थी। गयासुद्दीन तुलगक ने किसानों से सीधा लगान वसूलने के लिए इक्ता के आधार पर लगान की राशि तय की। मुद्रा की ढलाई, लावारिस सम्पत्ति, नजराना, वार्षिक भेंट तथा आर्थिक जुर्मानों से भी राज्य की अच्छी आमदनी होती थी। राजस्व विभाग का प्रमुख दीवान-ए-वजारत होता था। लगान वसूली का कार्य आमिल, पटवारी, चौधरी, खूत, मुकद्दम, कानूनगो आदि के जिम्मे था
उपरोक्त करों के अतिरिक्त मुसलमानों से वस्तु के मूल्य का ढाई फीसदी और हिन्दुओं से पांच फीसदी व्यापारिक कर लिया जाता था। घोड़ों पर पांच फीसदी कर था। अन्य करों में सिंचाई कर, गृहकर, चरागाह कर, व्यापार एवं उद्योग कर भी राज्य की आय के स्रोत थे।
प्रशासनिक एवं राजस्व व्यवस्था से जुड़ी पारिभाषिक शब्दावली
जहांदारी : शासन प्रबन्ध या राजस्व व्यवस्था।
नायब : सुल्तान राजधानी छोड़ते वक्त नायब नियुक्त कर दिया करते थे।
सर- ए-जांदार : सुल्तान के अंगरक्षकों का प्रधान।
वजीर : प्रधानमंत्री को वजीर कहते थे। राज्य का शासन प्रबन्ध एवं वित्त विभाग उसी के अधीन होता था।
आरिज-ए-ममालिक : सैन्य विभाग (दीवान-ए-आरिज) का सबसे बड़ा अधिकारी होता था।
काजी : न्यायाधीश जो मुकदमों का निर्णय शरियत के अनुसार करते थे।
कोतवाल : नगर की देखभाल करने वाला अधिकारी।
खलीफा : मुहम्मद साहब के उत्तराधिकारी खलीफा कहलाते थे।
ख्वाजा : वजीर की सिफारिशों से नियुक्त अधिकारी जो हिसाब-किताब में माहिर होता था।
दबीर : शाही पत्र व्यवहार विभाग का एक अधिकारी। इस विभाग का अध्यक्ष दबीर-ए-खास कहलाता था।
विलायत : राज्य का सबसे बड़ा प्रान्त या प्रदेश विलायत कहलाता था।
उश्र : मुसलमानों की कृषि भूमि से वसूले जाने वाले लगान को उश्र कहा जाता था।
खिराज : गैर मुसलमानों पर लगाया गया भू राजस्व।
खम्स : लड़ाई में हासिल किया गया लूट का माल।
कारकुन : भूमि कर का हिसाब-किताब रखने वाला अधिकारी।
जकात : मुसलमानों की धन-सम्पत्ति पर लिया जाने वाला कर।
जजिया : गैर मुस्लिमों से वसूला जाने वाला कर।
खालसा भूमि : वह भूमि जिसका प्रबन्ध सुल्तान की ओर से होता था। जिससे होने वाली आय केन्द्रीय सरकार के लिए सुरक्षित रहती थी।
अबवाब : अन्य प्रकार के कर जैसे सिंचाई कर, गृहकर, चारागाह कर आदि।
खिदमती : अधीनस्थ भारतीय राजाओं से प्राप्त खराज।
तरकात : किसी व्यक्ति की मृत्यु बिना उत्तराधिकारी छोड़े हो जाती थी, उसकी संपत्ति को सरकारी कोष में जमा कर लिया जाता था।
अक्ता : अक्ता वह भूमि थी जिसकी आय सरदारों को सेना रखने तथा उसका उचित प्रबन्ध करने के लिए दी जाती थी।
जीतल : एक तोले से लेकर डेढ़ तोले के आसपास तांबे का सिक्का।
टंका : एक तोला सोने या चांदी का सिक्का।
दीनार : सोने का सिक्का जो तकरीबन 96 जौ के बराबर होता था।
बंजारा : घुमक्कड़ अनाज व्यापारी।
बलाहर : साधारण किसान। मैमार : भवन निर्माण करने वाले इंजीनियर।
सरखेल : दस सवारों का सरदार। सिपहसालार : दस सरखेलों का अधिकारी।
हुलिया : वेषभूषा सहित सैनिकों का पूर्ण विवरण। खासा खेल : शाही महल से संबंधित सेना। पायक : पैदल सैनिक।
अमीराने तुमन : दस हजार सैनिकों का अधिकारी, अमीराने सदा : सौ सैनिकों का अधिकारी।
अमीरे पंजाह : पचास सैनिकों का अधिकारी, अमीरे बहर : नौकाओं का प्रबन्ध करने वाला अधिकारी।
चौधरी : परगने का मुख्य अफसर। मुकद्दम : गांव का मुखिया कहलाता था।
सल्तनतकालीन लोक प्रशासन से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
दीवान-ए-आरिज विभाग की स्थापना की थी— बलबन ने।
दीवान-ए-वक्फ विभाग की स्थापना की थी — जलालुद्दीन खिलजी ने।
वह सुल्तान जिसके समय वजीर पद चरमोत्कर्ष पर था— फिरोजशाह तुगलक।
वह वंश जिसके समय वजीर पद महत्वहीन हो गया — लोदी वंश।
सम्पूर्ण राज्य की आय-व्यय का लेखा तैयार कराने वाला सुल्तान — मुहम्मद बिन तुगलक।
दीवान-ए-अमीरकोही (कृषि विभाग) की स्थापना किस सुल्तान ने की थी— मुहम्मद बिन तुगलक।
राज्य की अधिकांश भूमि को खालसा भूमि में परिवर्तित कर दिया था— अलाउद्दीन खिलजी।
किस सुल्तान ने स्वयं को खलीफा घोषित किया— कुतुबुद्दीन मुबारक खिलजी।
किस सुल्तान ने कहा कि “हिन्दुस्तान दारूल हर्ब है, इसे दारूल इस्लाम में परिवर्तित करना सम्भव नहीं है”— इल्तुतमिश।
नायब-ए-मुमालिक (सुल्तान का प्रतिनिधि) का पद सृजित किया था — बहराम शाह ने।
अपने शासनकाल में वस्त्र निर्माणशाला की स्थापना किसने की थी— मुहम्मद बिन तुगलक।
किस अंतिम तुगलक सुल्तान के समय ‘वकील-ए-सुल्तान’ नामक विभाग की स्थापना हुई थी— नासिरूद्दीन महमूद।
“एक बुद्धिमान वजीर के बिना राजत्व व्यर्थ है”। तथा “सुल्तान के लिए एक बुद्धिमान वजीर से बढ़कर अभिमान का दूसरा स्रोत नहीं है, और हो भी नहीं सकता”।— जियाउद्दीन बरनी।
दिल्ली सल्तनत में इक्ता व्यवस्था की शुरूआत किसने की — इल्तुतमिश ने।
शिक (जिला) की स्थापना सबसे पहले किस सुल्तान ने की थी — 1279 ई. में बलबन ने।
दिल्ली सल्तनत का वह पहला सुल्तान जिसने सिंचाई के लिए नहरें खुदवाईं— गियासुद्दीन तुगलक।
पहला सुल्तान जिसने सिंचाई कर (हाब-ए-शर्ब) लागू किया — फिरोजशाह तुगलक।
भारत (सिन्ध प्रान्त) में सर्वप्रथम ‘जजिया’ कर वसूलने वाला मुस्लिम आक्रमणकारी— मुहम्मद बिन कासिम।
किस सुल्तान के शासनकाल में राजकीय कारखानों का विस्तार से उल्लेख मिलता है — फिरोजशाह तुगलक।
रातिबी और गैर रातिबी कारखानों के मालिक कहलाते थे— मुतशर्रिफ
जिन कारखानों में कर्मचारियों को निश्चित वेतन मिलता था — रातिबी कारखाने।
जिन कारखानों में कर्मचारियों को अनिश्चित वेतन मिलता था — गैर रातिबी कारखाने।
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