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A revolutionary who became a great yogi after being released from jail and wrote many original books

एक क्रांतिकारी जो जेल से रिहा होकर बना महान योगी और लिख डाले कई मौलिक ग्रन्थ

महर्षि अरबिन्दो घोष का जीवन परिचय-

भारतीय मुक्ति संग्राम की महान हस्ती महर्षि अरबिंदो घोष का जन्मदिन भी उसी दिन मनाया जाता है, जिस दिन हमारा देश आजाद हुआ। जी हां, आपको बता दें कि 15 अगस्त 1872 को बंगाल प्रेसिडेन्सी के कलकत्ता में जन्मे अरबिन्दो घोष के पिता का नाम केडी घोष (कृष्ण धन घोष) और मां का नाम स्वमलता (स्वर्णलता) था। अरबिन्दो घोष के पिता बंगाल के रंगपुर में बतौर असिस्टेंट सर्जन कार्यरत थे। इतना ही नहीं अरबिन्दो घोष के नाना राज नारायण बोस बंगाली साहित्य के ख्यातिप्राप्त शख्सियत थे। अरबिन्दो घोष से बड़े दो भाईयों के नाम क्रमश: बेनॉयभूषण और मनमोहन घोष तथा छोटी बहन सरोजिनी और छोटे भाई का नाम बारिन यानि बरिंदर कुमार घोष था।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बंगाली संस्कृति से जुड़े अरबिन्दो के पिता पश्चिमी सभ्यता से प्रभावित थे। इसी कारण महज पांच साल की उम्र में अरबिन्दो को प्राथमिक शिक्षा के लिए दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में भेजा गया। उन दिनों दार्जिलिंग को ब्रिटिश जीवन शैली का केंद्र माना जाता था, जहां लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल का संचालन आयरिश ननों के हाथों में था। लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने वाले स्टूडेन्ट्स को ईसाई धर्म की शिक्षा दी जाती थी।

चूंकि अरबिन्दो के पिता उन्हें आईसीएस बनाना चाहते थे, इसलिए 1879 ई. में वे सपरिवार इग्लैंड में जाकर बस गए। ऐसे में दार्जिलिंग के लोरेटो कान्वेंट स्कूल से प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद अरबिन्दो घोष ने लंदन के सेंट पॉल में अध्ययन किया तत्पश्चात उच्च शिक्षा हेतु 18 साल की उम्र में उन्होंने कैंब्रिज विश्वविद्यालय में एडमिशन ले लिया और दर्शनशास्त्र की पढ़ाई पूरी की। ऐसा कहा जाता है कि कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में अध्ययन के दौरान ही अरबिन्दो का झुकाव थोड़ा फ्रांसीसी संस्कृति की तरफ हो गया था।

आईसीएस की तैयारी के दौरान ही अ​रबिन्दो घोष ने कई यूरोपीय भाषाएं जैसे- फ्रेंच, जर्मन, ग्रीक, लैटिन, इतालवी और स्पेनिश आदि सीख ली थी। अपने पिता की इच्छा पूर्ण करने के लिए अरबिन्दो घोष ने 1890 ई. में आईसीएस की परीक्षा उत्तीर्ण भी कर ली। चूंकि उन्होंने भारत में ब्रिटिश हुकूमत के लिए काम नहीं करने का फैसला कर लिया था, इ​सलिए घुड़सवारी की परीक्षा देने से इनकार करने के चलते सिविल सेवा में उनका चयन नहीं हो सका।

अरबिन्दो घोष की स्वदेश वापसी-

इंग्लैण्ड में अरबिन्दो घोष की मुलाकात बड़ौदा नरेश से हुई। अरबिन्दो घोष की प्रतिभा से प्रभावित होकर बड़ौदा नरेश ने उन्हें अपना निजी सचिव नियुक्त कर लिया लिहाजा अरबिन्दो घोष भारत लौट आए। अरबिन्दो घोष ने बड़ौदा रियासत में विभिन्न पदों पर तकरीबन 13 वर्षों तक नौकरी किया। बड़ौदा रियासत में नौकरी करने के दौरान ही अरबिन्दो घोष को भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति को समझने का मौका मिला और वे भारतीय राजनीति की तरफ आकर्षित हुए। बड़ौदा निवास के दौरान ही उन्होंने मुम्बई के एक दैनिक समाचार पत्र इंदु-प्रकाश में न्यू लैम्पस फार ओल्ड नामक एक लेख लिखा था। उन्होंने बड़ौदा कॉलेज में बतौर प्रोफेसर, फिर वाइस प्रिंसीपल के रूप में अपनी सेवाएं दी और फिर बड़ौदा राज्य कॉलेज के प्रमुख के पद तक पहुंचे। लेकिन अपनी स्वतंत्र विचारधारा के कारण उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी।

बड़ौदा से कलकत्ता आने के बाद 28 साल की उम्र में अरबिन्दो घोष ने 1901 ई. में भूपाल चन्द्र बोस की लड़की मृणालिनी से विवाह किया। 1906 में अरबिंदो को कलकत्ता में नेशनल कॉलेज का पहला प्रिंसिपल नियुक्त किया गया, जहां उन्होंने भारतीय युवाओं को राष्ट्रीय शिक्षा प्रदान करना शुरू किया। हांलाकि वैवाहिक जीवन के सत्रह साल बाद दिसंबर 1918 में इन्फ्लूएंजा महामारी के दौरान अरबिन्दो घोष की पत्नी मृणालिनी का निधन हो गया।

अरबिन्दो घोष अपने छोटे भाई बारिन घोष के जरिए कलकत्ता के क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति के संपर्क में आए, जहां उनकी मुलाकात बाघा जतिन (जतिन मुखर्जी) और सुरेंद्र नाथ टैगोर से हुई। 1902 ई. में अहमदाबाद में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के दौरान उनकी भेंट बाल गंगाधर तिलक से हुई। उनके राजनीतिक जीवन पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का भी विशेष प्रभाव था। उन्होंने कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन (1902) के अतिरिक्त बनारस अधिवेशन (1905), कलकत्ता अधिवेशन (1906) और सूरत अधिवेशन (1907) में भी शिरकत की।

क्रांन्तिकारी जीवन

वर्ष 1906 ई. में लार्ड कर्जन द्वारा बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद अरबिन्दो घोष ने विपिन चन्द्र पाल के संपादन में निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिका वंदेमातरम में बतौर सहसंपादक ब्रिटीश सरकार के खिलाफ जमकर लिखना शुरू किया। यही वह वक्त था जब बंगाल विभाजन का विरोध देशभर में उग्र तरीके से किया जा रहा था। वर्ष 1908 में खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी ने मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को मारने का असफल प्रयास किया। हांलाकि इस बम काण्ड में दो अन्य ब्रिटीश म​हिलाओं की मौत अवश्य हो गई।  क्रांतिकारी गतिविधियों के दौरान लॉर्ड मिन्टो ने अरबिन्दो घोष के बारे में कहा था कि वह इस समय सबसे खतरनाक व्यक्ति है, जिससे हमे​ निबटना है। 

अतः 1908-09 में उन पर अलीपुर बम कांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला। इस बम कांड में अरबिन्दो घोष को हमले की योजना बनाने और उसको अंजाम तक पहुंचाने में मदद करने के आरोप में गिरफ्तार कर अलीपुर जेल में डाल दिया गया। स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में इस घटना को अलीपुर षडयन्त्र केस के नाम से भी जाना जाता है। अरबिन्दो घोष का मुकदमा कलकत्ता के प्रख्यात वकील देशबन्धु चितरंजन दास ने लड़ा था, लिहाजा साक्ष्य के अभाव में 6 मई 1909 को अरबिन्दो घोष रिहा कर दिए गए।

अलीपुर जेल में साधना और तप की शुरूआत

अलीपुर जेल में एक वर्ष तक कैद में रहने के दौरान अरबिन्दो घोष का जीवन पूरी तरह ​से बदल गया। वे जेल में ही साधना और तप करने लगे। जेल में अरबिन्दो घोष ने श्रीमद्भगवतगीता का अध्ययन करना शुरू कर दिया। ऐसा कहा जाता है कि अलीपुर जेल में ही उन्हें भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन स्वप्न अवस्था में हुए थे। दरअसल अरबिन्दो घोष जेल से बाहर आकर अब किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे।

पुड्डचेरी प्रवास और अरविंदो आश्रम की स्थापना

इस प्रकार अलीपुर जेल से रिहा होने के बाद अरबिन्दो घोष ने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और 1910 में आध्यत्मिक उन्नति के लिए पुड्डचेरी चले गए और यहां उन्होंने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की। एक तथ्य यह भी है कि अरबिन्दो घोष के एक लेख टू माई कंट्रीमेन (मेरे देशवासियों के लिए) के लिए ब्रिटीश सरकार ने उनके खिलाफ एक बार फिर से गिरफ्तारी वारंट जारी कर दिया था, जिससे बचने के लिए वह पुड्डचेरी चले गए। चूंकि उन दिनों पुड्डचेरी फ्रांसीसी सरकार के अधीन था, अत: वहां ब्रिटीश हुकूमत की नहीं चलती थी। अरबिन्दो घोष 40 साल तक पुड्डचेरी में ही रहे।

अरबिन्दो घोष ने साधनारत रहते हुए वर्ष 1926 में पुड्डचेरी में अरबिन्दो आश्रम ऑरोविले की स्थापना की। वर्ष 1914​ में एक फ्रांसीसी महिला जिसका नाम मिर्रा अल्फासा था, पहली बार अरबिन्दो घोष से मिली। मिर्रा अल्फासा को एक आध्यात्मिक गुरु, तांत्रिक और योग शिक्षक और श्री अरबिंदो के सहयोगी के रूप में जाना गया। अरबिन्दो घोष ने ऑरोविले आश्रम के संचालन की पूरी जिम्मेदारी मिर्रा अल्फासा को ही सौंप दिया था। अरविन्द और उनके सभी अनुयायी उन्हें आदर के साथ मदर कहकर पुकारते थे।

महर्षि अरबिन्दो घोष के मौलिक ग्रन्थ-

योग और दशर्नशास्त्र के महान विद्वान महर्षि अरबिन्दो घोष ने वेद, उपनिषद जैसे ग्रन्थों पर टीकाएं लिखने के अतिरिक्त योग साधना पर कई गूढ़ और मौलिक ग्रंथ लिखे। अरबिन्दो घोष ने द सिंथेसिस ऑफ योग, द लाइफ डिवाइन, द ह्यूमन साइकिल, वार एण्ड सेल्फ-डिटरमिनेशन, एसेज ऑन गीता द सीक्रेट ऑफ द वेद, द रेनेसां इन इण्डिया, द फ्यूचर पोएट्री, सावित्री, योग समन्वय, दिव्य जीवन, द आइडियल ऑफ ह्यूमन यूनिटी, द उपनिषद्, लेटर्स ऑन योगा, द मदर हिम्स टू द मिस्टिक फायर जैसी गूढ़ आध्यात्मिक पुस्तकें लिखीं।  1997 में श्री अरबिंदो आश्रम ने श्री अरविन्द की सम्पूर्ण कृतियों को 37 भागों में प्रकाशित किया। जानकारी के लिए बता दें कि अरबिन्दो घोष को साल 1943 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए तथा 1950 में शांति के नोबल पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, हांलाकि दोनों ही बार उन्हें यह सम्मान नहीं मिला।

स्वतंत्रता आन्दोलन को लेकर अरबिन्दो घोष के आध्यात्मिक संदेश

एक बार किसी शख्स ने महर्षि अरबिन्दो घोष से पूछा कि महात्मा गांधी तो भारत की स्वतंत्रता के लिए इतना कार्य कर रहे और आप यहां एकांत में योग साधना कर रहे हैं। आप गांधीजी के साथ मिलकर स्वतंत्रता आन्दोलन में सहयोग क्यों नहीं देते हैं?

महर्षि अरबिन्दो ने उपरोक्त प्रश्न का बड़ा ही सारगर्भित उत्तर दिया, उन्होंने कहा कि यह जरूरी नहीं है कि सभी कार्य प्रत्यक्षरूप से ही होते हों। हम बाह्यरूप से कुछ करते न करते हुए भी दिखें फिर भी भीतर बैठकर ऐसा कुछ कर रहे हैं कि भारत शीघ्र ही स्वतंत्र होगा।  

एक बार उन्होंने अपने शिष्य से कहा था कि अध्यात्म के बल पर भी देश को स्वतंत्र करवाए जाने का प्रयत्न चल रहा है। भारत किसी आन्दोलन से नहीं बल्कि अमेरिका,ब्रिटेन सहित तत्कालीन उपनिवेशवादी देशों के निर्णय से आजाद हुआ है। उन्होंने यह भी कहा था कि ब्रिटीश सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे, पर हम सब यह सहन करेंगे और स्वतंत्रता आन्दोलन कभी रूकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़कर जाना होगा।

महर्षि अरबिन्दो का निधन

योग और दर्शन के महान विद्वान महर्षि अरबिन्दो का निधन 78 वर्ष की आयु में 5 दिसम्बर 1950 को हुआ। यह बात सर्वविदित है कि म​हर्षि अरबिन्दो के निधन के चार दिन बाद भी उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बनी रही जिसके कारण उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया। आखिरकार 9 दिसम्बर 1950 को उन्हें आश्रम में ही समाधि दी गई।