राजस्थान अपने शौर्य, संस्कृति, किलों, हवेलियों, खान-पान और मेहमाननवाजी के लिए भारत ही नहीं पूरी दुनिया में मशहूर है। यदि बात राजस्थान से शुरू हुई है तो राजपूताना की चर्चा करना लाजिमी होगा। दोस्तों, आजादी से पूर्व राजस्थान को राजपूताना के नाम से ही जाना जाता था। इतिहासकारों के मुताबिक कर्नल जेम्स टॉड ने इस राज्य का नाम राजस्थान रखा।
राजस्थान में भी खासकर मेवाड़ राजघराने का अपना अलग गौरवमयी इतिहास है। बप्पा रावल, महाराणा सांगा और महाराणा प्रताप की शूरवीरता से देश का बच्चा-बच्चा परिचित है। महाराणा प्रताप का वंशज और मेवाड़ राजघराने के प्रिंस कहे जाने वाले लक्ष्यराज सिंह एचआरएच ग्रुप ऑफ होटल्स के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं। ऑस्ट्रेलिया के ब्लू माउंटेन स्कूल से ग्रेजुएशन कर चुके प्रिंस लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ अपने बचपन के दिनों की बात करते हुए कहते हैं कि जब उनकी माताश्री और पिताश्री दाल और बाटी तैयार करते तब उन्हें चटनी पीसने का काम दिया जाता था। ऐसे में दाल-बाटी ने हमारे परिवार को एक सूत्र में बांधने का काम भी किया है।
महाराणा प्रताप के वंशज और मेवाड़ के पूर्व राजघराने के सदस्य लक्ष्यराज सिंह के मुताबिक बप्पा रावल के वक्त से दाल-बाटी मेवाड़ में बनती आई है। इतिहासकार डॉ. धर्मेंद्र कंवर के अनुसार, बाटी का सबसे पुराना इतिहास उदयपुर के मेवाड़ राजघराने से ही मिलता है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि बाटी की शुरूआत मेवाड़ से ही हुई है। बाटी युद्ध के समय बप्पा रावल की फौज का पसंदीदा और सबसे मुनासिब भोजन हुआ करता था, क्योंकि इसे कई दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता था।
डॉ. कंवर कहते हैं कि बाटी किस तरह से बनी? इसका अभी तक कोई पुख्ता जानकारी उपलब्ध नहीं है, बावजूद इसके मान्यता है कि बप्पा रावल के सैनिक जब आटे की लोए तैयार कर रहे थे तभी अचानक उन्हें युद्ध के लिए भागना पड़ा। ऐसे में आटे के लोए उसी तरह से रेत पर पड़े रहे। जब सेना वापस लौटी, तब तक आटे के लोए रेत में ढक चुके थे, जब सैनिकों ने रेत को हटाकर देखा तो आटे के लोए सिंककर बाटी बन चुके थे।
जब सैनिकों ने गर्म रेत में सिंकी हुई बाटी देखी तो उनके खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सैनिकों इस घटना का जिक्र अपने साथी सैनिको में किया साथ ही सैनिकों ने इसे आपस में बांटकर खाया। तबसे मेवाड़ की धरती से जन्मे इस पकवान को बाटी कहा जाने लगा। तब से लेकर आज तक यह न केवल मेवाड़ बल्कि पूरे भारत में बाटी बननी शुरू हुई। बाद में समय के साथ इसे दाल के साथ खाने जाने लगा। इस बारे में कहा जाता है कि गुप्त साम्राज्य के कुछ व्यापारी मेवाड़ में रहने आए। चूंकि गुप्त साम्राज्य में पंचमेर दाल बहुत ज्यादा खाई जाती थी, जिसे पांच तरह की दालों चना, उड़द, मूंग, तूअर और मसूर आदि को एकसाथ मिलाकर इसमें तड़का लगाकर तैयार किया जाता था।
जानकारी के लिए बता दें कि उदयपुर के प्रिंस लक्ष्यराज सिंह मेवाड़ एचआरएच ग्रुप ऑफ होटल्स के एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर होने के साथ-साथ एक बेहतरीन सेफ भी हैं। लक्ष्यराज सिंह कहते हैं कि पुराने जमाने में खाना सुरक्षित रखने के लिए रेफ्रीजरेटर नहीं होते थे, ऐसे में बाटी को कई दिनों तक सुरक्षित रखने के लिए घी का जमकर इस्तेमाल किया जाता था, ऐसे में घी एक तरह से रेफ्रीजजरेटर का काम करता था।
बाटी के साथ दाल के काम्बिनेशन को लेकर लक्ष्यराज सिंह ने बताते हैं कि मेवाड़ में उड़द और चने की दाल काफी पसन्द की जाती है। इन दोनों का स्वाद बेहद लजीज होता है। उन्होंने बताया कि चूंकि उदयपुर झीलों की नगरी है, यहां प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध है। ऐसे में शुरूआत से ही उदयपुर में उड़द और चने की दाल का उत्पादन काफी अच्छा था। यही वजह है कि मेवाड़ में शुरू से ही उड़द और चने की दाल बनाई जाती है। हांलाकि राजस्थान और देश के अन्य कई जगहों पर लोग बाटी के साथ अरहर (तूअर) की दाल का उपयोग किया जाता है। मेवाड़ में उड़द और चने की दाल में कई खड़े मसाले जैसे लौंग, बड़ी इलाइची, साबुत काली मिर्च, दाल चीनी, तेज पत्ता, इलाइची का इस्तेमाल किया जाता है, जो आमतौर पर अन्य जगह दाल में कम ही उपयोग किए जाते हैं।
लक्ष्यराज सिंह के अनुसार, पारम्परिक रूप से दाल-बाट बनाते समय आपको ज्यादा समय देने की जरूरत पड़ती है। चूंकि बाटी कंडे (उपलों) के गरम अंगारों पर सेंक कर बनाई जाती है, ऐसे में धुंआ थोड़ा परेशान करता है, धीमी आंच के चलते खाना भी थोड़ी देर से बनता है। हांलाकि इसी तरीके से आप दाल-बाटी जैसे व्यंजन को शानदार तरीके से लुत्फ उठा सकते हैं। लक्ष्यराज सिंह कहते हैं कि मुगलों ने इस जायके में थोड़ा इनोवेशन किया और बाटी के लोए को पानी बफा कर सेंका जाने लगा। भाप देकर बफाने के कारण यह बाटी मुगल काल में बाफला के नाम से फेमस हो गई। आज भी मालवा में बाफला खाना लोगों को बहुत ज्यादा पसन्द है।
गौरतलब है कि मेवाड़ के लजीज व्यंजन दाल-बाटी के साथ लोग चूरमा परोसना नहीं भूलते हैं। कहा जाता है कि चूरमे की शुरूआत भी मेवाड़ राजघराने से ही हुई है। लोककथा के मुताबिक एक बार मेवाड़ राजघराने के एक रसोईए ने गलती से कुछ बाटियों को गन्ने के रस में गिरा दिया था। इससे बाटियां न केवल नर्म हो गईं बल्कि इनका स्वाद भी बढ़ गया। तब से बाटियों को गन्ने के रस अथवा गुड़ के रस में डूबोकर बनाया जाने लगा। इस प्रकार इसी तरह से पूरे राजस्थान में बाटी के चूरे से चूरमा तैयार किया जाने लगा। दाल-बाटी और चूरमे को एक साथ परोसने पर तीखे और मीठे का अनोखा ट्वीस्ट देखने को मिलता है।