अधिकांश पाश्चात्य विद्वानों की यह धारणा है कि भारतीयों में ऐतिहासिक चेतना होने के बावजूद संस्कृत साहित्य के महान युग में एक भी ऐसा लेखक नहीं हुआ जिसे समालोचनात्मक इतिहासकार कहा जा सके। मेगस्थनीज लिखता है-‘भारतीयों में लेखन कला बुद्धि का अभाव था’। अलबरूनी ने भी लिखा है कि हिन्दू घटनाओं के ऐतिहासिक क्रम की ओर ध्यान नहीं देते और कालक्रमानुसार घटनाओं के विवेचन के प्रति उदासीन हैं। हांलाकि इस प्रकार के मतों में सत्यतता कम अतिशयोक्ति अधिक है।
बता दें कि भारतीयों ने इतिहास को विद्या-ज्ञान के एक विशिष्ट अंग के रूप में स्वीकार किया था और पंचम वेद के रूप में इतिहास को उच्च मान्यता प्रदान की थी। भारतीयों के इतिहास में पुराण, इतिवृत्त, आख्यायिका, धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र और नीतिशास्त्र सभी कुछ होता था। प्राचीन काल में भारतीयों का दृष्टिकोण आध्यात्मिक प्रधान था, ऐसे में उन्होंने अपनी आत्मकथाओं और आत्म प्रशस्तियों की जगह मानव धर्म निर्वाह को सर्वोपरि माना था। यही वजह है कि भारतीय किसी ऐसे इतिहास ग्रन्थ की रचना नहीं कर पाए जिसे पूर्ण रूप से इतिहास ग्रन्थ कहा जा सके। बावजूद इसके भारत के प्राचीन ग्रन्थों में बहुमूल्य ऐतिहासिक सामग्री भरी पड़ी है। प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के निम्नलिखित तीन महत्वपूर्ण स्रोत हैं।
1— पुरातात्विक स्रोत
2— साहित्यिक स्रोत
3— विदेशी यात्रियों के विवरण
पुरातात्विक स्रोत (Archaeological sources)
प्राचीन भारत के अध्ययन के लिए पुरातत्व संबंधी सामग्रियां सर्वाधिक प्रमाणिक हैं। इसके अन्तर्गत मुख्यतया अभिलेख, सिक्के व मिट्टी के बर्तन, स्मारक एवं भग्नावशेष, कलाकृतियां आदि आती हैं।
अभिलेख
पुरातात्विक स्रोतों के अन्तर्गत सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत अभिलेख हैं। प्राचीन भारत के अधिकांश अभिलेख पाषाण शिलाओं, स्तम्भों, ताम्रपत्रों, दीवारों तथा प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण हैं।
— लगभग 1400 ई.पू. में बोगजकोई नामक स्थान से मध्य एशिया के सबसे प्राचीन अभिलेख मिले हैं। इस अभिलेख में इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य आदि वैदिक देवताओं के नाम मिलते हैं।
— भारत के सर्वाधिक प्राचीन अभिलेख सम्राट अशोक के हैं जो लगभग 300 ई. पू. के हैं। मास्की, गुज्जर्रा, निट्टूर एवं उदेगोलेम से प्राप्त अभिलेखों में अशोक के नाम का स्पष्ट उल्लेख है। इन अभिलेखों के अशोक के धर्म और राजस्व संबंधी तथ्यों पर प्रकाश पड़ता है।
— अशोक के अधिकांश अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं, जबकि उत्तरी पश्चिमी भारत के कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं। खरोष्ठी लिपि, फारसी लिपि की तरह दाईं से बाईं ओर की तरफ लिखी जाती है।
— लघमान और शरेकुना से अशोक के जो अभिलेख मिले हैं, वे यूनानी तथा आरमेइक लिपियों में हैं। इस प्रकार अशोक के अभिलेख ब्राह्मी, खरोष्ठी, यूनानी और आरमेइक लिपियों में प्राप्त हुए हैं।
— सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिसेंप ने ब्राह्मी लिपि में लिखित अशोक के अभिलेख को पढ़ने में सफलता पाई थी।
— हांलाकि अशोक के पूर्व के अभिलेख नहीं मिल पाए हैं, यद्यपि कलिंग नरेश खारवेल के हाथीगुम्फा अभिलेख, समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति, रूद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख से हमें इन राजाओं के संबंध में जानकारी मिलती है।
— गुप्तकाल से पूर्व के अभिलेख जिन्हें प्रारम्भिक अभिलेख कहा जाता है, प्राकृत भाषा में हैं। जबकि गुप्त तथा गुप्तोतर काल के अभिलेख संस्कृत में उत्कीर्ण हैं।
— यवन राजदूत हेलियोडोरस का बेसनगर (विदिशा) से प्राप्त गरुण स्तम्भ लेख से हमें द्वितीय शताब्दी ई.पू. में भारत में भागवत धर्म के विकसित होने के साक्ष्य मिलते हैं।
— सर्वाधिक अभिलेख मैसूर से प्राप्त हुए हैं। मध्य प्रदेश के एरण से प्राप्त बाराह प्रतिमा पर हूणराज तोरमाण के लेखों का विवरण है।
— पर्सिपोलिस और बेहिस्तन अभिलेखों से पता चलता है कि ईरानी सम्राट दारा ने सिन्धु नदी के घाटी पर अधिकार कर लिया था।
— दक्षिण भारत के गुहालेख शक-सतवाहन संघर्ष एवं दक्षिण भारत की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक स्थिति पर पर्याप्त प्रकाश डालते हैं।
— भगवान बुद्ध के शरीर के अवशेषों को सुरक्षित रखने के लिए स्तूप बनवाए गए। इन स्तूपों के तोरणों तथा वेष्टनियों पर लेख अंकित होते थे। सांची, भारहुत, अमरावती आदि की वेष्टनियों पर अनेक लेख अंकित मिले हैं, जो इतिहास की दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण हैं।
सिक्के (coins)
प्राचीन भारतीय इतिहास में सिक्कों के अध्ययन को मुद्राशास्त्र (Numerology) कहा जाता है। सोने, चांदी, तांबे और पीतल के प्राचीन सिक्के इतिहास की जानकारी के प्रमुख स्रोत हैं। पकाई हुई मिटटी के बने सिक्कों के सांचे ईसा की आरम्भिक तीन सदियों के हैं, इनमें से अधिकांश सांचें कुषाण काल के हैं।
पंचमार्क सिक्के अथवा आहत सिक्के
पुरातात्विक दृष्टि से भारत के प्राचीनत सिक्कों को पंचमार्क, आहत अथवा चिन्हित सिक्के कहते हैं। आहत अथवा पंचमार्क सिक्के ई. पू. पांचवी सदी के हैं। 1835 ई. में जेम्स प्रिसेंप ने इनकी निर्माण शैली के आधार पर इनका नाम पंचमार्क सिक्के रखा। चांदी के धातु निर्मित पंचमार्क सिक्कों पर ठप्पे के द्वारा पेड़, मछली, हाथी, वृषभ तथा अर्धचन्द्र अंकित है, ठप्पे के द्वारा निर्मित होने के कारण इन्हें आहत सिक्के भी कहा जाता है।
यूनानी सिक्के
भारत में लेख वाले स्वर्ण सिक्कों की शुरूआत हिन्द-यूनानी शासकों ने करवाई। हमारे देश में मिनेण्डर की ईरानी पत्नी एगाथोम्लिया के स्वर्ण सिक्के मिले हैं जिन्हें भारत का प्राचीनत स्वर्ण सिक्के कहा जा सकता है। यूनानी शासकों के सिक्कों के अग्रभाग पर शासक की आकृति तथा पृष्ठ भाग पर यूनानी देवताओं के चित्र के साथ-साथ शासक की उपाधि बेसिलियस-बेसिलियोन उत्कीर्ण है।
कुषाणकालीन सिक्के
प्रथम कुषाण शासक कुजुल कडफिसेस ने केवल चांदी के सिक्के चलवाए जबकि भारत में स्वर्ण सिक्कों की सुनियोजित ऋृंखला शुरू करने का श्रेय विम कडफिसेस को जाता है क्योंकि विम कडफिसेस के समय ही रोम के साथ व्यापार करने के कारण देश में पर्याप्त मात्रा में स्वर्ण सिक्कों का आगमन हुआ। कुषाण शासकों के सिक्कों पर ईरानी, यूनानी के साथ-साथ भारतीय देवताओं के चित्र भी उत्कीर्ण हैं। कनिष्क एकमात्र भारतीय शासक है, जिसके सिक्कों पर बुद्ध का नाम व चित्र उत्कीर्ण है।
गुप्तकालीन सिक्के
किसी भी राज्य की समृद्धि एवं संपन्नता के स्तर को निर्धारित करने में भी सिक्कों से बहुत बड़ी मदद मिलती है, जैसे प्रारम्भिक गुप्त शासकों के विशुद्ध स्वर्ण सिक्के उनके शासनकाल की संपन्नता को दर्शाते हैं। स्कन्दगुप्त के स्वर्ण सिक्कों में मिलावट राजनीतिक अशान्ति एवं बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति की सूचना देती है। समुद्रगुप्त ने पहली बार विस्तृत स्तर पर 6 प्रकार के सिक्कों का प्रचलन किया। समुद्रगुप्त के सिक्कों से ज्ञात होता है कि उसने अश्वमेध यज्ञ किया था क्योंकि समुद्रगुप्त के सिक्कों पर अश्वमेधपराक्रम: उत्कीर्ण है। गुप्त शासकों में सबसे पहले चांदी के सिक्कों का प्रचलन चन्द्रगुप्त द्वितीय ने किया था। सबसे कम वजन के स्वर्ण सिक्के (116 ग्रेन) कायगुप्त के तथा सबसे अधिक वजन के स्वर्ण सिक्के नरसिंह गुप्त बालादित्य (146 ग्रेन) के हैं।
मूर्तियां
सिन्धु क्षेत्र से प्राप्त पाशुपत शिव की मूर्तियों से पता चलता है कि उस युग में भी शिव पूजा प्रचलित थी। कुषाण तथा गुप्तकाल में वैष्णव, बौद्ध, जैन एवं शैव धर्म की अनेक मूर्तियों के मिलने से पता चलता है कि उस युग में भी लोगों में धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। कुषाणकालीन गान्धार कला पर विदेशी प्रभाव दिखता है वहीं मथुरा कला पूरी तरह से स्वदेशी है। भरहुत, बोधगया और अमरावती की मूर्तिकला में जनसाधारण की स्पष्ट झांकी देखने को मिलती है। नालंदा की भगवान बुद्ध की ताम्र मूर्ति से हिन्दू कला एवं सभ्यता के पर्याप्त विकासित होने के प्रमाण मिलते हैं।
चंदेल वंश के राजाओं के शासनकाल में खजुराहो में तांत्रिक समुदाय की उपासनामार्गी शाखा का अत्याधिक बोलबाला हुआ करता था। इस समुदाय के लोग योग और भोग दोनों को ही मोक्ष का साधन माना करते थे। खजुराहो के मंदिरों में बनीं ये मूर्तियां उनके क्रिया-कलापों की ही देन हैं।
स्मारक एवं भवन
प्राचीन भारत के इतिहास में स्मारकों के रूप में सुरक्षित मंदिर, स्तूप, गुफाएं, मूर्तियां, स्तम्भ, तोरण, चित्रादि का समावेशन है। भवन के रूप में महलों तथा मंदिरों की शैली से वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उत्तर भारत के मंदिर नागर शैली, दक्षिण के मंदिर द्राविड़ शैली तथा दक्षिणापथ के मंदिर बेसर शैली में निर्मित हैं। तंजौर का राजराजेश्वर मंदिर द्रविड़ शैली का सबसे बेहतरीन उदाहरण है। बता दें कि दक्षिण पूर्व तथा मध्य एशिया से प्राप्त मंदिरों तथा स्तूपों से भारतीय संस्कृति के प्रसार की जानकारी मिलती है। इनमें जावा का बोरोबुदुर स्तूप तथा कम्बोडिया के अंकोरवाट मंदिर के अतिरिक्त मलाया, बोर्नियो, बाली आदि में हिन्दू संस्कृति से जुड़े अनेक स्मारक प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार इन द्वीपों में हिन्दू संस्कृति के पर्याप्त रूप से विकसित होने के प्रमाण मिले हैं।
हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, तक्षशिला, पाटलिपुत्र आदि के भग्नावशेष अपने-अपने युग की कहानी प्रस्तुत करते हैं। अंतरंजीखेड़ा आदि की खुदाईयों से पता चलता है कि देश में 1000 ई. पू. के लगभग लोहे का प्रयोग आरम्भ हो गया था। स्मारकों तथा भग्नावशेषों पर विदेशी प्रभाव के आधार पर हमें विदेशों के साथ भारत के संबंधों की भी जानकारी प्राप्त होती है।
कलाकृतियां
प्राचीनकाल की बहुत सी कलाकृतियां जैसे- भित्ति चित्र, स्तम्भ, मूर्तियां, मंदिर, खिलौने, आभूषण तथा मुहरें आदि भारत के विभिन्न स्थानों से प्राप्त हुई हैं। इन कलाकृतियों में बहुत सी खंडित अवस्था में भी पाई गई हैं। अजन्ता, सित्तानवासल, बादामी और बाघ की गुफाओं से हमें भित्ति चित्र मिले हैं। इन चित्रों से समकालीन कला एवं संस्कृति पर प्रकाश पड़ता है। अजन्ता के चित्रों से मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। ‘माता और शिशु’ तथा ‘मरणासन्न राजकुमारी’ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक उन्नति का पूर्ण आभास होता है।
भारत के विभिन्न क्षेत्रों से उत्खनन से प्राप्त मिट्टी के बर्तन तथा मुहरों से इतिहास निर्माण में सहायता मिलती है। सिन्धु प्रदेश प्राप्त प्राचीन बर्तनों तथा मुहरों पर उत्कीर्ण लेख अभी तक पढ़े नहीं जा सके हैं। फिर इनके अध्ययन से सैन्धव सभ्यता के विविध पक्षों की जानकारी मिलती है। बसाढ़ से प्राप्त मिट्टी के मुहरों से व्यापारिक श्रेणियों का ज्ञान मिलता है।
प्राचीन भारत के कुछ महत्वपूर्ण अभिलेख
— हाथीगुम्फा अभिलेख- कलिंग नरेश खारवेल ; खारवेल की शासनकाल से जुड़ी घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण।
— जूनागढ़ अभिलेख- रूद्रदामन ; रूद्रदामन की शासकीय उपलब्धियों के साथ-साथ उसके व्यक्तित्व का विवरण।
— नासिक अभिलेख-गौतमी बलश्री ; गौतमी पुत्र सातकर्णी की सैनिक उपलब्धियों तथा सातवाहन वंश का विवरण।
— प्रयाग स्तम्भ लेख- समुद्रगुप्त ; समुद्रगुप्त की विजयों तथा शासकी उपलब्धियों का विस्तृत वर्णन।
— मन्दसौर अभिलेख- मालवा नरेश यशोवर्मन ; यशोवर्मन की सैनिक उपलब्धियों का वर्णन।
— ऐहोल अभिलेख- पुलकेशिन द्वितीय ; हर्ष-पुलकेशिन द्वितीय के बीच युद्ध का वर्णन।
— ग्वालियर अभिलेख-प्रतिहार नरेश भोज ; गुर्जर-प्रतिहार शास्कों के विषय में विस्तृत जानकारी।
—भितरी तथा जूनागढ़ अभिलेख- स्कन्दगुप्त; स्कन्दगुप्त से जुड़ी अनेक महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन।
— देवपाड़ा-विजयसेन; बंगाल शासक विजयसेन के शासन की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन।
संभावित प्रश्न— प्राचीन भारत के इतिहास में पुरातात्विक स्रोतों की विशद् विवेचना कीजिए?
— प्राचीन भारतीय इतिहास के मुख्य स्रोतों में सिक्कों का कितना योगदान है, वर्णन कीजिए?
— प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोतों के रूप में महत्वपूर्ण अभिलेखों पर टिप्पणी लिखिए?