
ब्रिटिश भारत में होने वाले जनजातीय आन्दोलन अन्य समुदायों के आन्दोलनों से भिन्न थे। जनजातीय आन्दोलन अत्यन्त हिंसक और संगठित थे। साल 1778 से 1947 ई. तक तकरीबन 70 जनजातीय आन्दोलन हुए जिसमें आदिवासी लोगों ने प्रबल उत्साह का प्रदर्शन किया।
जनजातीय विद्रोह के प्रमुख कारण (Main reasons of tribal rebellion)
— जंगलों और प्राकृतिक संसाधनों के साथ शांतिपूर्ण तरीके से जीवन-यापन करने वाली जनजातियों (आदिवासी) के जीवन में तब महत्वपूर्ण परिवर्तन आया जब अंग्रेजों की नई शासन व्यवस्था के अन्तर्गत इनके क्षेत्रों में नए जमींदारों तथा महाजनों का प्रवेश होने लगा। तत्पश्चात इनके शारीरिक एवं आर्थिक शोषण की शुरूआत हुई।
— ब्रिटिश सरकार की नीतियों की वजह से आदिवासी धीरे-धीरे जमींदारों, महाजनों व व्यापारियों के चंगुल में फंसते गए लिहाजा ये लोग अपनी ही जमीन पर मजदूर बन गए।
— साहूकारों के द्वारा संकटग्रस्त आदिवासियों को अत्यधिक ब्याज पर ऋण प्रदान किया जाता था जिससे आदिवासी आबादी कर्ज के जाल में फंसती चली गई। परिणामस्वरूप इन्हें गरीबी और भूमिहीनता की मार झेलनी पड़ी।
— आदिवासियों को खानों, बागानों तथा फैक्ट्रियों में कार्य करने तथा कुलीगीरी करने के लिए विवश किया गया।
— ईसाई मिशनरियों ने भी जगह-जगह घुसपैठ शुरू कर दी जिससे इनके समक्ष धर्मसंकट की स्थिति उत्पन्न हो गई।
— ब्रिटिश सरकार ने आदिवासियों को जंगलों के ईंधन एवं पशुओं के चारे के रूप में प्रयोग करने पर रोक लगा दी। यहां तक कि झूम खेती (जगह बदल-बदल कर की जाने वाली खेती) भी प्रतिबन्धित कर दी।
उपरोक्त प्रमुख कारणों से आदिवासियों में आक्रोश की भावना पैदा हुई जिससे वे लोग अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध विद्रोह करने को बाध्य हुए। आधुनिक भारत के इतिहास में जनजातीय विद्रोह को तीन चरणों में विभाजित किया गया है। जनजातीय विद्रोह का प्रथम चरण (1795-1860 ई.), जनजातीय विद्रोह का द्वितीय चरण (1860 से 1920 ई.), जनजातीय विद्रोह का तृतीय चरण (1920 ई. के बाद)।
प्रथम चरण के जनजातीय विद्रोह (1795-1860 ई.)
चुआर तथा हो विद्रोह ( Chuar and Ho rebellion)
अकाल तथा बढ़े हुए भूमि कर से पीड़ित बंगाल के मिदनापुर जिले के चुआर लोगों ने हथियार उठा लिए। दलभूम, कैलापाल, ढोल्का तथा बाराभूम के राजाओं ने मिलकर 1768 ई. में विद्रोह कर दिया। चुआरों के राजा जगन्नाथ ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। यह प्रदेश 18वीं शताब्दी के अन्तिम दिनों तक उपद्रवग्रस्त बना रहा।
पहाड़िया विद्रोह (Paharia Rebellion)
पहाड़िया विद्रोह दरअसल राजमहल की पहाड़ियों में स्थित उन जनजातियों का विद्रोह था जिनके क्षेत्रों में अंग्रेजों ने हस्तक्षेप किया था। साल 1778 में इनके खूनी संघर्ष से परेशान होकर अंग्रेजी सरकार ने समझौता कर इनके क्षेत्र को ‘दामनी कोल क्षेत्र’ घोषित कर दिया।
कोल विद्रोह (Kol Revolt)
ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध जनजातीय विद्रोहों में कोल विद्रोह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। छोटा नागपुर क्षेत्र के रांची, सिंहभूम, हजारी बाग, पालमउ तथा मानभूमि जिले के कोलों ने अपना क्रोध उस समय प्रकट किया जब उनकी जमीन उनके मुखिया मुण्डों से छीनकर मुसलमान कृषकों तथा सिखों को दी दी गई। ऐसे में साल 1831 में कोलों ने तकरीबन 1000 विदेशी अथवा बाहरी लोगों को या तो जला दिया अथवा उनकी हत्या कर दी।
कोल विद्रोह का नेतृत्व बुद्ध भगत, जोआ भगत, केशो भगत आदि ने किया। कोल विद्रोह 1832 से 1837 ई. तक चलता रहा। कोल विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने दीर्घकालीन एवं विस्तृत सैन्य अभियान चलाया तत्पश्चात शान्ति स्थापित हो सकी।
खोंड विद्रोह ( Khonda rebellion)
उड़ीसा के खोंड आदिवासियों में प्रचलित नरबलि प्रथा (मोरिया) को रोकने के लिए अंग्रेजों ने प्रयास किए तो खोंडों ने चक्र बिसोई के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। इसके अतिरिक्त करों में बढ़ोतरी व नए जमींदारों का आगमन खोंडों के विद्रोह का कारण बना। खोंड विद्रोह 1837 और 1856 ई. के मध्य हुआ था।
खोंड विद्रोह उड़ीसा से लेकर आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम और विशाखापत्तनम जिलों तक फैला था। खोंड विद्रोह का नेतृत्व करने वाले राजा चक्र बिसोई को घुमसर, कालाहांडी और अन्य जनजातियों का समर्थन प्राप्त था। कालान्तर में राधाकृष्ण दण्डसेन ने भी इस विद्रोह में सिरकत की। हांलाकि चक्र बिसोई के लापता होते ही यह विद्रोह समाप्त हो गया।
संथाल विद्रोह (Santhal Rebellion)
प्रथम चरण के जनजातीय विद्रोहों में सन्थाल विद्रोह सर्वाधिक शक्तिशाली था। संथाल किसानों की बढ़ती दरिद्रता तथा गरीबी ने उनके अन्दर अंसतोष को जन्म दिया, जो विद्रोह बनकर उभरा। संथाल क्षेत्र को ‘दमन-ए-कोह’ कहा जाता था। संन्थाल क्षेत्रों में प्रवेश करने वाले गैर आदिवासियों को ये लोग ‘दिकू’ कहते थे। मानभूम, बड़ाभूम, सिंहभूम, हजारीबाग, मिदनापुर, बांकुरा, वीरभूमि, मुंगेर तथा भागलपुर आदि क्षेत्रों में संथाल बसे थे।
सिद्धू-कान्हू नामक दो भाई संन्थाल विद्रोह के नेता थे। सिद्धू-कान्हू ने घोषणा की कि ठाकुर जी (भगवान) ने उन्हें आदेश दिया है कि वे आजादी के लिए अब हथियार उठा लें। संथालों ने जमींदारों, साहूकारों, बागानों, रेलवे इंजीनियरों और ब्रिटिश अधिकारियों के आवासों पर हमला किया। यहां तक कि भागलपुर और राजमहल के बीच डाक और रेलवे संचार की व्यवस्था भीध्वस्त कर दी।
1855-56 ई. में शुरू हुए संथाल विद्रोह को कुचलने के लिए औपनिवेशिक सरकार को उपद्रवग्रस्त क्षेत्रों में मार्शल लॉ लगाना पड़ा। इनके विद्रोही नेताओं को पकड़ने के लिए दस हजार का ईनाम घोषित किया गया। अत: अगस्त 1855 में सिद्धू तथा फरवरी 1856 ई. में कान्हू पकड़ा गया और मार दिया गया।
द्वितीय चरण के जनजातीय विद्रोह (1860-1920 ई.)
खरवार अथवा खारवाड़ विद्रोह (Kharvad rebellion)
सन्थाल विद्रोह के दमन के पश्चात झारखण्ड में 1870 ई. में खरवार/खरवाड़ विद्रोह की शुरूआत हुई। इसे सफाहर आन्दोलन भी कहते हैं। खरवार/खरवाड़ विद्रोह भू-राजस्व बंदोबस्त व्यवस्था के विरुद्ध हुआ था। यह विद्रोह भागीरथ मांझी के नेतृत्व में हुआ था।
भागीरथ मांझी आदिवासियों में ‘बाबा’ के नाम से विख्यात थे। भागीरथ मांझी ने स्वयं को बौंसी गांव का राजा घोषित कर एवं लगान नहीं देकर खुद ही लगान प्राप्त करने की पद्धति चलाई। खरवार विद्रोह पूरी तरह से अहिंसात्मक आन्दोलन था। भागीरथ मांझी ने ब्रिटिश शासन के प्रति असहयोग की जो नीति अपनाई थी, उससे जुड़े पहलूओं को बाद में महात्मा गांधी ने प्रयोग किया था।
नैकदा विद्रोह (Naqada Revolt)
मध्य प्रदेश और गुजरात के नैकदा आदिवासियों के द्वारा 1867 से 1870 ई. के मध्य अंग्रेज अफसरों तथा सवर्ण हिन्दुओं के विरूद्ध विद्रोह कर धर्मराज स्थापित करने का प्रयास किया गया था। नैकदा विद्रोह का नेतृत्व जोरिया भगत तथा रूप सिंह ने किया था।
भील आन्दोलन (Bhil Movement)
राजस्थान के बांसवाड़ा, सूंठ और डूंगरपुर क्षेत्रों के भीलों ने गोविन्द गुरु के नेतृत्व में भील आन्दोलन की शुरूआत की। डूंगरपुर जिले के बांसिया गांव में जन्मे गोविन्द गुरु ने भीलों को एकजुट करने के लिए 1883 ई. में सम्प सभा की स्थापना की। गोविन्द गुरु ने भीलों के बीच सामाजिक तथा धार्मिक सुधार आन्दोलन की शुरूआत की।
गोविन्द गुरु की शिक्षाओं ने भीलों को चेतना जागृत किया जिससे भील आन्दोलन राजनीतिक-आर्थिक विद्रोह के रूप में सामने आया। भील आन्दोलन को ‘भगत आन्दोलन’ के रूप में भी जाना जाता है। साल 1913 तक भील आन्दोलन इतना शक्तिशाली हो गया कि विद्रोहियों ने ‘भील राज’ की स्थापना हेतु प्रयास शुरू कर दिए। ब्रिटिश सेना ने काफी प्रयास के बाद इस विद्रोह को कुचल दिया।
साल 1913 में मानगढ़ नरसंहार के बाद गोविन्द गुरु को कैद कर अहमदाबाद जेल भेज दिया गया जहां उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। हांलाकि गोविन्द गुरु को 1923 में जेल से रिहा कर दिया गया, इसके बाद वे भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में गोविन्द गुरु का निधन हो गया।
कोया विद्रोह (Koya rebellion)
ब्रिटिश सरकार द्वारा कोया जनजाति के परम्परागत अधिकारों को समाप्त करने, साहूकारों व व्यापारियों के द्वारा आर्थिक तथा शारीरिक शोषण व ताड़ी जैसे घरेलू उत्पादों पर भी आबकारी नियम लागू करने के बाद कोया विद्रोह की शुरूआत हुई।
कोया विद्रोह की शुरूआत आंध्र प्रदेश के पूर्वी गोदावरी क्षेत्र के वर्तमान बीजापुर जिले से हुई। साल 1879-80 में कोया विद्रोह को टोम्मा सोरा ने नेतृत्व प्रदान किया। कोया विद्रोह के दमन के लिए अंग्रेजी सरकार ने मद्रास इनफैन्ट्री के छह रेजिमेन्ट की मदद ली थी।
साल 1886 में कोया विद्रोहियों के राजा अनन्त श्य्यार के नेतृत्व में रामसंडु (राम की सेना) का गठन किया गया। राज्य में अंग्रेजी शासन को पलटने के लिए प्रतिबद्ध अनन्तय्या की सेना में तकरीबन 500 विद्रोही सैनिक थे।
भुइयां विद्रोह (Bhuiyan rebellion)
भुइयां विद्रोह के प्रथम चरण का नेतृत्व रतन नायक व नानाद नायक ने किया। इस विद्रोह की शुरूआत 1867 ई. में भुइयां जनजाति से परामर्श लिए बिना क्योंझर की राजगद्दी पर अंग्रेज समर्थक शख्स को बैठाने के कारण हुई। दूसरे चरण में धरणीधर नायक ने 1891-93 के दौरान इस विद्रोह का नेतृत्व किया। छोटे राजाओं और ज़मींदारों द्वारा ब्रिटिश सरकार को सहयोग प्रदान करने के कारण भुइयां विद्रोह विफल हो गया।
खोंड डोरा विद्रोह (Khond Dora Rebellion)
कोर्रा मल्लया के नेतृत्व में साल 1900 में विशाखापट्टनम क्षेत्र में खोंड डोरा जनजातियों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह के नेतृत्वकर्ता कोर्रा मल्लया ने खुद को पाण्डव का अवतार बताया तथा अपने एक अबोध बेटे को कृष्ण का अवतार कहा। उसने खोंड डोरा आदिवासियों को यह विश्वास दिलाया कि वह बासों को बन्दूकों में परिवर्तित कर देगा तथा अंग्रेजी हथियारों को पानी में तब्दील कर देगा।
खोंड डोरा विद्रोह का असली उद्देश्य अंग्रेजों को भारत से निष्कासित करना था। इस विद्रोह के दौरान तकरीबन 10 आदिवासी अंग्रेजों की गोलियों का शिकार बने तथा दो को फांसी दे दी गई। अंत में ब्रिटिश सरकार ने इस विद्रोह का क्रूरता से दमन कर दिया।
मुण्डा विद्रोह (The Munda Rebellion)
इस कालखण्ड के आदिवासी विद्रोहों में सबसे अधिक प्रख्यात विद्रोह था, बिरसा मुण्डा का उल्गूलान (महान हलचल), जो रांची के दक्षिणी क्षेत्र में साल 1899 से 1900 ई.में हुआ था। मुण्डा विद्रोह के नेतृत्वकर्ता बिरसा मुण्डा ने स्वयं को ‘भगवान का दूत’ घोषित किया। उसने एकेश्वरवाद की स्थापना पर बल दिया। उसका कहना था कि उसके पास निरोग करने की चमत्कारी शक्ति है।
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बिरसा मुण्डा ने भविष्यवाणी की थी कि निकट भविष्य में प्रलय होने वाला है। बिरसा मुण्डा के पास दिव्य शक्तियां होने की बात सुनकर आदिवासी उसका उपदेश सुनने के लिए भारी संख्या में एकत्र होने लगे। ऐसे में साल 1895 में बिरसा मुण्डा को दो साल के लिए जेल भेज दिया गया लेकिन जब वह जेल से छूटा तो और अधिक कट्टर विद्रोही बनकर लौटा।
झारखण्ड के डोंबारी पर्वत पर 9 जनवरी, 1900 को बिरसा मुण्डा की सेना और अंग्रेजों के बीच एक मुठभेड़ हुई जिसमें वह पकड़ गया और उसे जेल में डाल दिया गया। इसके बाद साल 1902 में जेल में ही 25 वर्ष की उम्र में उसकी मौत हो गई।
मुण्डा विद्रोह की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने छोटा नागपुर काश्तकारी कानून द्वारा किसानों को राहत दी। इस कानून द्वारा संयुक्त काश्तकारी अधिकारों को मान्यता दी तथा वेठ बेगारी (बन्धुआ मजदूरी) पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
तृतीय चरण के जनजातीय विद्रोह (1920 ई. के बाद)
ताना भगत आंदोलन (Tana Bhagat Movement)
ताना भगत आंदोलन साल 1914 में शुरू हुआ। यह एक सांस्कृतिक आन्दोलन था जो छोटा नागपुर में शुरू हुआ। ताना भगत आन्दोलन को जतरा भगत, बलराम भगत तथा देवमेनिया भगत ने नेतृत्व प्रदान किया।
चूंकि इस आन्दोलन की शुरूआत आदिवासियों के बीच उन लोगों ने किया जो भगत (फकीर या धर्माचार्य) थे, इस कारण यह आन्दोलन ताना भगत आन्दोलन कहलाया।
ताना भगत आन्दोलन के दौरान शराब की दुकानों पर धरना, सत्याग्रह एवं शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर गांधीवादी नीतियों को अपनाया गया। इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजी सरकार ने दमनकारी नीति लागू की। उसने आन्दोलनकारियों को जेल में डाल दिया तथा उनकी जमीनें जब्त कर ली।
चेंचू आन्दोलन (Chenchu movement)
चेंचू आन्दोलन की शुरूआत साल 1920 में असहयोग के समय शक्तिशाली जंगल सत्याग्रह के रूप में हुआ। इस आन्दोलन के दौरान किसानों ने चरवाही शुल्क का भुगतान किए बिना पशुओं को जंगल में भेजना शुरू कर दिया। साल 1921-22 में एक शक्तिशाली भील आन्दोलन मोती लाल तेजावत के नेतृत्व में शुरू हुआ।
रम्पा विद्रोह (Rampa Rebellion)
आंध्र प्रदेश के गोदावरी जिले के उत्तर में स्थित रम्पा क्षेत्र में इस विद्रोह की शुरूआत हुई। साहूकारों के शोषण, झूम खेती पर प्रतिबन्ध तथा चराई सम्बन्धी अधिकारों पर रोक विद्रोह के प्रमुख कारण थे। रम्पा विद्रोह का नेतृत्व अल्लूरी सीताराम राजू ने किया जो एक गैर आदिवासी था।
रम्पा विद्रोह साल 1922 से 1924 तक जारी रहा, इस दौरान रम्पा समर्थकों ने न केवल पुलिस थानों में धरना दिया बल्कि कई पुलिस अफसरों को मार डाला तथा हथियार एवं गोला-बारूद चुरा लिए। रम्पा विद्रोह को बड़ी संख्या में स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त था। साल 1924 में अल्लूरी सीताराम राजू की हत्या के साथ ही इस विद्रोह को कुचल दिया गया।
सीमान्त अथवा पूर्वोत्तर जनजातियों का विद्रोह
खासी विद्रोह (Khasi Rebellion)
अंग्रेजी सरकार ब्रह्मपुत्र घाटी को सिलहट क्षेत्र से जोड़ने वाली एक सड़क बनाने के लिए मजदूरों की जबरन भर्ती करने लगी परिणामस्वरूप खासी विद्रोह की शुरूआत हुई। इस विद्रोह का नेतृत्व खासियों के मुखिया तीरत सिंह ने किया।
खासी विद्रोह को गारो जनजाति का भी समर्थन मिला। हांलाकि सैन्य शक्ति के बल खासी विद्रोह को साल 1833 में कुचल दिया गया। राजा तीरत सिंह को निष्कासित कर ढाका भेज दिया गया जिससे यह विद्रोह पूर्णतया समाप्त हो गया।
अहोम विद्रोह (Ahom rebellion)
अहोम विद्रोह की शुरूआत साल 1928 में अहोम वंश के राजकुमार गोमधर कुंवर के नेतृत्व में वर्तमान बांग्लादेश के रंगपुर में हुई। हांलाकि यह आन्दोलन असफल रहा। प्रथम आंग्ल बर्मा युद्ध के पश्चात बर्मा को असम की भूमि अंग्रेजों को देनी थी। शुरू में अंग्रेजों ने अहोम राजा तथा स्थानीय मुखियों से यह वादा किया था कि युद्ध के बाद ब्रिटिश सेना उनके क्षेत्र से वापस लौट जाएगी लेकिन बार-बार अनुरोध करने के बावजूद उन्होंने ऐसा नहीं किया।
ऐसे में गोमधर कुंवर ने अपने साथियों धनजोई बोरगोहेन और जयराम खारगोरिया की मदद से रंगपुर में ब्रिटिश किले पर हमला कर दिया। चूंकि अंग्रेजों को इस हमले की पूर्व में ही जानकारी हो चुकी थी अत: इस आक्रमण को नाकाम कर दिया गया।
ब्रिटिश सरकार ने गोमधर कुंवर को कैद कर मौत की सजा सुनाई थी परन्तु अहोम लोगों के साथ शांतिपूर्ण सम्बन्ध बनाने के लिए गोमधर कुंवर की सजा घटाकर सात साल का निर्वासन कर दिया। वायदे के मुताबिक, कम्पनी ने उत्तरी असम का प्रदेश अहोम राजा पुरन्दर सिंह को दे दिए।
सिंगफोस विद्रोह (Singphos Rebellion)
अरुणाचल प्रदेश और असम में पाई जाने वाली एक जनजाति है सिंगफो। चूंकि ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध इस जनजाति ने 1830 के शुरूआती दशक में एक सशक्त विद्रोह किया अत: इस विद्रोह को सिंगफोस विद्रोह कहते हैं। सिंघफोस विद्रोह की वास्तविक शुरूआत एक ब्रिटिश राजनीतिक एजेंट की हत्या से हुई। सिंघफोस विद्रोह के अगुवा निरंग फिदु ने साल 1843 में ब्रिटिश गैरीसन पर हमला कर कई सैनिकों को मार डाला। यहां तक कि असम में खसमा सिंगफोस ने 1849 ई. में एक एक ब्रिटिश बस्ती पर भी हमला किया था। हांलाकि इस विद्रोह को ब्रिटिश सरकार ने दबा दिया।
नागा आन्दोलन (Naga movement)
रोंगमेई जदोनांग ने नागा समुदाय में सामाजिक एकता लाने तथा समाज में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करने के लिए नागा आन्दोलन की शुरूआत की। इस आन्दोलन ने जल्द ही अंग्रेजी शासन के विरूद्ध एक राजनीतिक संघर्ष का रूप धारण कर लिया लिहाजा 29 जनवरी 1931 को जदोनांग को कैदकर फांसी दे दी गई।
इसके बाद 17 वर्षीय नागा लड़की गैडिनलियु ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। गैडिनलियु को भी ब्रिटिश सरकार ने जेल में डाल दिया जो 14 वर्ष जेल में रहने के पश्चात 15 अगस्त 1947 को रिहा हुईं। प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने गैडिनलियु को ‘रानी’ की उपाधि प्रदान की।